‘क्षमूष्’ धातु सहन करने अर्थ में है उस से यह ‘क्षमा’ शब्द बना है। तत्त्वार्थसूत्र महाग्रन्थ में मुनियों के संवर के प्रकरण में इन दश धर्मों को लिया है। वहाँ पर भाष्यकार श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि—संवर का प्रथम कारण तो प्रवृत्ति के निग्रह हेतु है किन्तु जो वैसा करने में असमर्थ हैं उन्हें प्रवृत्ति का उपाय दिखलाने के लिये दूसरा कारण कहा गया है। जो साधु समिति में प्रवृत्त हैं उनके प्रमाद को दूर करने हेतु ये दश धर्म कहे गये हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं। इन धर्मों में ‘उत्तम’ विशेषण लोकेषणा, दुष्ट प्रयोजन आदि के परिहार के लिये हैं।‘शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थं परकुलाभ्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहस—नावज्ञा ताडनशरीरव्यापादनादीनां सन्निधानेकालुष्यानुत्पत्ति:क्षमा।’शरीर की स्थिति का हेतु जो आहार उसके खोजने के लिये अर्थात् आहार के लिये निकले हुये साधु परघरों में जा रहे हैं उस समय नग्न देखकर दुष्ट जन उन्हें गाली देते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते—पीटते हैं और शरीर को पीड़ित करते हैं, नष्ट करते हैं तो भी उस किसी प्रसंग में अपने परिणामों में कलुषता की उत्पत्ति न होना क्षमा है। इस प्रकार से साधु तो पूर्णरूप से क्षमा धर्म का पालन करते हैं किन्तु श्रावक भी एकदेशरूप से इन क्षमा आदि धर्मों का पालन करते हैं। ये धर्म तो सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं किसी भी सम्प्रदाय वालों को इनमें विवाद नहीं है। आचार्यों ने क्रोध को अग्नि की उपमा दी है उसे शांत करने के लिये क्षमा जल ही समर्थ है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है वैसे ही आत्मा का स्वभाव शांति है। जैसे अग्नि से संतप्त हुआ जल भी जला देता है वैसे ही क्रोध से संतप्त हुई आत्मा के धर्मरूपी सार जलकर खाक हो जाता है।
क्रोध से अंधा हुआ मनुष्य पहले अपने आपको जला लेता है पश्चात् दूसरों को जला सके या नहीं भी। क्षमा के लिये बहुत उदार हृदय चाहिये, चंदन घिसने पर सुगन्धि देता है, काटने वाले कुठार को भी सुगन्धित करता है और गन्ना पिलने पर रस देता है। उसी प्रकार से सज्जन भी घिसने—पिलने से ही चमकते हैं। देखो! अग्निमय स्थान टिकता नहीं है, खाक हो जाता है किन्तु जलमय स्थान टिके रहते हैं तभी तो असंख्यातों समुद्र और नदियाँ जहाँ की तहाँ स्थिर हैं। कषायों की वासना काल को समझकर हमेशा अपने अंतरंग का शोधन करते रहना चाहिये। अनंतानुबंधी कषाय अनंत संसार का कारण है। यह मिथ्यात्व की सहचारिणी है इसका काल संख्यात, असंख्यात और अनंत भव है। भव—भव में बैर को बाँधते चले जाना भी इसी का काम है, अप्रत्याख्यानावरण कषाय एक देशव्रत को भी नहीं होने देती है। इसका वासना काल अधिक से अधिक छह महीना है। सम्यग्दृष्टि को अधिक से अधिक इतनी वासना रह सकती है। प्रत्याख्यानावरण महाव्रत नहीं होने देता है, इसका वासना काल पन्द्रह दिवस का है। व्रती श्रावकों में अधिक से अधिक इतने दिन तक बैर के संस्कार रह सकते हैं। संज्वलन की वासना का अंतर्मुहूर्त मात्र काल है इसलिये साधु यदि किसी पर क्रोध भी करते हैं तो भी अंतर्मुहूर्त के बाद उसके प्रति दया और क्षमा का भाव जाग्रत हो जाता है। ‘जो क्षमादेवी की उपासना करके हमेशा सभी कुछ सहन कर लेता है वह उपसर्गों और परीषहों को जीतकर पार्श्वनाथ तीर्थंकर के सदृश महान् हो जाता है। क्या क्रोध से शांति हो सकती है ? क्या बैर से बैर का नाश हो सकता है ? क्या खून से रंगा हुआ वस्त्र खून से ही साफ हो सकता है ? यदि अपकार करने वाले के प्रति तुझे क्रोध आता है तो फिर तू क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि यह क्रोध तो तेरे दोनों लोकों का विनाश करने वाला महाशत्रु है। पांडव, गजकुमार आदि महामुनि अपने प्राणों का घात करने वाले महाशत्रुओं को भी क्षमा करके ‘सर्वंसह’ सिद्ध हो गये हैं उनको मेरा नमस्कार होवे। द्रव्य और भाव इन दो प्रकार के क्रोध को मैं अपने आत्मिंचतन के बल से भेदन करके उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चितरूप से प्राप्त करूँगा। १ से ५।। हमेशा ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।
क्षमा धरम की कविता
सब कुछ अपराध सहन करके, भावों से पूर्ण क्षमा करिये।
यह उत्तम क्षमा जगन्माता, इसकी नितप्रति अर्चा करिये।
कमठासुर ने भव भव में भी, उपसर्ग अनेकों बार किया।
पर पाश्र्वप्रभू ने सहन किया, शान्ति का ही उपचार किया।।१।।
क्या बैर से बैर मिटा सकते, क्या रज से रज धुल सकता है?
क्या क्रोध से भी शान्ति मिलती, क्या क्रोध सुखी कर सकता है?
यदि अपकारी पर क्रोध करो, तो क्रोध महा अपकारी है।
इस क्रोध पे क्रोध करो बंधु, यह शत्रु महा दुखकारी है।।२।।
यह क्रोध महा अग्नि क्षण में, संयम उपवन को भस्म करे।
यह क्रोध महा चांडाल सदृश, आत्मा की शुचि अपहरण करे।।
पांडव आदि मुनियों ने भी, इस क्षमा को मन में धारा था।
मुनिगण ने सर्वंसह असि से, इस क्रोध शत्रु को मारा था।।३।।
यह क्रोध अनंत अनुबंधी, अगणित भव तक संस्कार रहे।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, छह महीने ऊपर नहीं रहे।।
यह प्रत्याख्यानावरण क्रोध, पन्द्रह दिन तक रह सकता है।
संज्वलन क्रोध अंतर्मुहूर्त, से अधिक नहीं टिक सकता है।।४।।
उदयागत क्रोध द्रव्य पुद्गल, इसको भी निज से भिन्न करूँ।
फिर निज में ही स्थिर होकर, सब भाव क्रोध को छिन्न करूँ।।
निज उत्तम क्षमा स्वभावमयी, निज को निज में पा जाऊँ मैं।
पर से सम्बन्ध पृथक् करके, निज पूर्ण सौख्य प्रगटाऊँ मैं।।५।।