सूत्रधार-मेरे प्यारे भाइयों और बहनों! आज मैं आपको ले चलता हूँ भारतवर्ष के कुरुमरी गाँव में, जहाँ एक ग्वाले ने एक शास्त्र का दान देकर किस प्रकार कालान्तर में दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली, तो आइए चलते हैं उस प्यारे से गांव में। गोविन्द नाम का एक सीधा-सादा, भोला-भाला ग्वाला प्रतिदिन सभी को दूध देकर सबकी सेवा करता है, वह सभी को बहुत प्रेम करता है, विनय करता है और सभी का स्नेहपात्र है।
एक बार की बात है वह गाय लेकर जंगल में गुनगुनाता हुआ अपनी धुन में चला जा रहा था, तभी उसने देखा- गोविन्द ग्वाला-
मैं हूँ इक ग्वाला मतवाला, दूध सभी को देने वाला,
गउओं का रक्षक कहलाता, छोटे-बड़े सभी को भाता।
थोड़ा खाकर भी खुश रहता, दीन दुखी की सेवा करता,
नहीं कभी करता आराम, कुरूमरी है मेरा धाम।।मैं हूँ इक……..।।
(थोड़ी दूर तक चला जाता है फिर सोचता है)-अरे रे! मुझे ऐसा क्यों लगता है कि उस वृक्ष की कोटर में कुछ रखा है, चलूं लौटकर देख ही लेता हूँ क्या है ? वर्ना, मेरे मन में ना, उथल-पुथल मची ही रहेगी। (लौटकर देखता है) अरे वाह! यह तो कोई पुस्तक लगती है। (उठाता है, देखता है) थोड़ा तो मैं भी पढ़ा हूूँ, देखूँ तो (खोलकर) ओ हो! यह तो जैनधर्म का कोई पवित्र ग्रंथ है। (मस्तक पर लगाता है और कहता है) पता नहीं इसे यहाँ कौन रख गया, मैं तो इसे अपने घर ले जाऊँगा और रोज इसकी पूजा करूँगा। (मस्तक पर रखकर बड़ा प्रसन्न होकर गाता हुआ चला जाता है)-
मैं हूँ इक ग्वाला मतवाला……………………………………
सूत्रधार–वह ग्वाला उस ग्रंथ को अपने घर पर ले गया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन की बात है दूध लेकर जाते समय उसने पद्मनंदि नामक मुनिराज को उस गांव से जाते हुए देखा। मुनिराज को देखते ही उसे लगा कि क्यों न वह ग्रंथ मैं महाराज को दे दूँ, बस वह सामान छोड़कर मुनि की ओर दौड़ पड़ा- (महाराजश्री चले जा रहे हैं तभी ग्वाला दौड़कर उन्हें प्रणाम कर कहता है-)
मुनिराज–(रुककर) कल्याणमस्तु भव्यात्मन्! कहो, तुम कौन हो ?
ग्वाला–हे प्रभो! मैं एक ग्वाला हूँ, मेरा नाम है गोविन्द, मैं दूध बेचकर अपना जीवन यापन करता हूँ।
मुनिराज–कहो वत्स! क्या चाहते हो ?
ग्वाला–महाराज! आप दो क्षण के लिए ठहरिए, मेरे पास एक ग्रंथ है, उसे मैं आपको भेंट करना चाहता हूँ।
मुनिराज–(एक वृक्ष के नीचे बैठकर) ठीक है भाई, तुम चाहते हो तो मैं बैठ जाता हूँ। देखूँ तो, तुम मुझे क्या देना चाहते हो ?
ग्वाला–(दौड़कर जाते हुए) महाराज! मैं अभी गया और अभी आया। (घर से ग्रंथ लाकर उसे मस्तक पर चढ़ाकर पुन: मुुनि को देते हुए) हे स्वामिन्! अगर आप इसे ग्रहण करेंगे तो मुझे बहुत ही प्रसन्नता होगी।
मुनिराज–(उस ग्रंथ को लेकर मस्तक पर चढ़ाकर देखते हुए) गोविन्द! यह ग्रंथ तो बहुत प्राचीन है, यह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ ?
ग्वाला–(हाथ जोड़कर) गुरुदेव! एक दिन मैं जंगल में गाय चराने गया था, वापस लौट रहा था तो वृक्ष की कोटर में मुझे यह ग्रंथ मिला, मैं इसे घर ले आया और तब से लगातार इसकी पूजा किया करता हूूँ किन्तु स्वामी! यह ग्रंथ वहाँ रखा किसने ?
मुनिराज–गोविन्द! ऐसा लगता है कि इस ग्रंथ के द्वारा पहले भी मुनियों ने यहाँ भव्यजनों को उपदेश दिया है, पूजा-महोत्सव द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की है, अनेक भव्यजनों को कल्याणमार्ग में लगाकर सच्चे मार्ग का प्रकाश किया है और बाद में इस ग्रंथ को वृक्ष की कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। तुम चाहो तो इसे अपने पास रखकर पूजा करो।
ग्वाला-(विनयपूर्वक हाथ जोड़कर) स्वामिन्! मैं तो इसमें कुछ भी समझ नहीं पाऊँगा पर अगर यह आपके पास में रहेगा तो न जाने कितने भव्य जीवों को ज्ञान का अमृत पिलाकर उनका कल्याण करेगा।
मुनिराज–ठीक है भव्यात्मन्! तुम यही चाहते हो तो मैं इसे ले जाता हूँ।
ग्वाला-(खुश होकर) प्रणाम गुरुवर प्रणाम! आज मैं धन्य हो गया, कृतकृत्य हो गया (बार-बार प्रणाम करता है) मुनिराज-(प्रसन्न होकर) वत्स! तुम्हारा कल्याण हो।
सूत्रधार–इस प्रकार मुनिराज उस ग्रंथ को लेकर चले जाते हैं। गोविन्द ग्वाले को उस गांव से अत्यधिक प्रेम था। एक बार गोविन्द का स्वास्थ्य बहुत ज्यादा खराब हो गया, जब उसने यह जान लिया कि मेरी मृत्यु निश्चित है तो उसने उसी गांव में जन्म लेने का निदान कर लिया और मरकर निदान के फलस्वरूप उसी कुरुमरी गांव के चौधरी अर्थात् श्रेष्ठी का पुत्र हो गया जो विलक्षण बुद्धि का धनी और अत्यन्त रूपवान था, जिसकी सुन्दरता देख लोगों की आँखें उस पर से नहीं हटती थीं।
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(एक ५-६ वर्ष का अत्यन्त सुन्दर बालक खेल रहा है, लोगों की दृष्टि उस पर से नहीं हट रही है, लोग उसे देखने के लिए वहीं खड़े हो जाते हैं और चर्चा करते हैं)
श्रावक १-(दूसरे से) भइया धनदत्त! देखो तो कितना सुन्दर बालक है।
श्रावक २–(पहले से) हाँ जिनदत्त! मेरी तो इसके ऊपर से नजर ही नहीं हट रही है।
श्राविका १-भाई, जी करता है मैं यहीं बैठकर इसकी बाललीला देखती ही रहूँ।
श्राविका २-लेकिन ये है किसका पुत्र ?
श्रावक १-अरे काकी! तुझे नहीं मालूम, यह अपने गांव के सेठजी का पुत्र है।
श्राविका २-(आश्चर्य) क्या, यह सेठजी का पुत्र है ?
श्रावक २-हाँ बहन! अपने सेठजी का पुत्र है, यह सेठ के समान ही बड़ा धर्मात्मा है, छोटा है पर रोज मंदिर जाता है।
श्राविका १-भाइयों! बहुत पुण्य के उदय से ही ऐसे पुत्र प्राप्त होते हैं। जरूर सेठजी ने पूर्व जन्म में विशेष पुण्य किया होगा, जो उन्हें ऐसी सन्तान मिली है।
सूत्रधार–सभी चर्चा करते हुए चले जाते हैं। धीरे-धीरे वह बालक युवावस्था को प्राप्त हो जाता है, एक दिन वह कहीं जा रहा था, तभी उसे सामने धर्मोपदेश सुनाते हुए एक मुनिराज दिख जाते हैं।
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(मुनिराज बैठे हैं, लोग उनके पास बैठे हैं, श्रेष्ठीपुत्र उधर से निकलकर सोचता है)
श्रेष्ठीपुत्र–अरे! ये तो कोई दिगम्बर मुनिराज हैं, ये तो सभी को उपदेश सुना रहे हैं, पास में जाकर देखता हूँ (पास से देखकर) अरे! ऐसा क्यों लगता है कि मैंने इन्हें कहीं देखा है, मेरा इनसे पूर्व का परिचय है। (तभी उसे जातिस्मरण हो जाता है और वह मुनिराज के चरणों में जाकर साष्टांग लेट जाता है)
श्रेष्ठीपुत्र–(मुनिराज के चरणों में नमन करते हुए) हे गुरुदेव! आपकी जय हो, आपकी जय हो, आज आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।
मुनिराज–तुम्हारा कल्याण हो पुत्र! कहो, तुम कौन हो ?
श्रेष्ठीपुत्र-(हाथ जोड़कर) स्वामिन्! मैं कुरुमरी गांव के सेठ का पुत्र हूँ। हे प्रभो! क्या आपको आज से १५-२० वर्ष पुरानी कुछ घटना याद है ?
मुनिराज–(चिंतन करते हुए) कौन सी घटना वत्स ?
श्रेष्ठीपुत्र-हे योगिराज! वर्षों पूर्व गोविन्द नाम के एक ग्वाले ने आपको एक ग्रंथ भेंट में दिया था।
मुनिराज-हाँ, हाँ, मुझे अच्छी तरह से याद है। मगर तुम्हारा उससे क्या संबंध है ?
श्रेष्ठीपुत्र-स्वामिन्! वह ग्वाले का जीव मैं ही हूँ, उस पुण्य के प्रताप से मैं सेठ का पुत्र हुआ हूँ। आज आपके दर्शन करते ही मुझे जातिस्मरण हो आया और मैं आपके दर्शनार्थ आ गया, कृपया मुझे उपदेश देकर कृतार्थ करें।
मुनिराज–अति उत्तम! देखो भव्यात्मन्! यह जिनधर्म प्राणी मात्र को अपनी आत्मा का कल्याण करने की शिक्षा देता है। इस संसार में प्राणी के लिए जिनधर्म ही सहाई है अत: उत्तम कुल, उत्तम शरीर और सद्बुद्धि को प्राप्तकर भव्य जीवों को चाहिए कि वे शीघ्र ही अपनी आत्मा का कल्याण कर लें अन्यथा काल कब आकर किसे मृत्यु का ग्रास बना ले, कुछ नहीं पता।
श्रेष्ठीपुत्र–(कुछ सोचकर) हे गुरुदेव! मैं भी अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहता हूँ अत: आप मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर मुझ पर महान उपकार करें।
मुनिराज–वत्स! तुमने बहुत ही उत्तम विचार किया है, इस जैनेश्वरी दीक्षा से ही आत्मा का कल्याण संभव है।
सूत्रधार-वह श्रेष्ठीपुत्र मुनिराज से दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करने लगे, दिनोंदिन उनके हृदय की पवित्रता बढ़ती गई और आयु के अंत में शांतिपूर्वक मृत्यु का वरण कर पुण्योदय से वे कौण्डेश नाम के राजा हुए। यह कौण्डेश राजा बहुत ही शूरवीर था, जो तेज में सूर्य की टक्कर लेता था, सुन्दरता में कामदेव को फीका करता था और शत्रु जिसके नाम से कांपते थे, ऐसे राजा के गुणों की चर्चा पूरे राज्य में चलती थी।
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(सारी प्रजा में राजा के गुणों की चर्चा चल रही है)
प्रजा के लोग
श्रावक १–भइया! हम तो धन्य हो गये जो हमें ऐसा राजा मिला जो महापराक्रमी, महादयालु और न्यायनीति से राज्य का संचालन करता है।
श्रावक २–हाँ भाई! बड़े-बड़े शत्रु भी इनका नाम सुनकर कांप जाते हैं।
श्रावक ३–ऐसे सूर्य के समान तेजस्वी, प्रजापालक राजा के राज्य में इसीलिए तो हम सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
श्रावक ४–भइया! यह तो हम सबका पुण्य है, जो ऐसे महाप्रतापी महाराजा हमें प्राप्त हुए हैं।
श्राविका १–भाइयों! अपने महाराजा प्रतापी होने के साथ-साथ कितने सुन्दर हैं, उनको देखो तो लगता है बस देखते रहो।
श्राविका २–हाँ बहन! जरूर पूर्वजन्म में उन्होंने कुछ विशेष पुण्य किया होगा, जो वे सर्वगुण सम्पन्न हैं।
श्राविका ३-मैं तो सदैव भगवान से कहती हूँ कि ऐसे राजा के समान पुत्र सबको प्राप्त हों, जिनसे उनके कुल का गौरव सदैव वृद्धि को प्राप्त हो।
एक वृद्धा माँ–भगवान करें मेरे कौण्डेश महाराज युग-युग जिएं, यशस्वी हों और उनकी कीर्ति दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़े, हमारी उम्र भी उन्हें लग जाए।
सभी-(जोर से) कौण्डेश महाराज की जय, कौण्डेश महाराज की जय।
सूत्रधार–इस प्रकार सारी प्रजा महाराज का गुणगान करते नहीं थकती थी। देखते-देखते कौण्डेश राजा का काफी समय इसी प्रकार सुखपूर्वक व्यतीत हो गया। एक दिन ऐसा कोई निमित्त मिला कि उन्हें संसार से वैराग्य हो गया।
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(राजा अपने कक्ष में गहन चिंतन में निमग्न हैं, तभी मंत्री एवं सेनापति वहाँ प्रवेश करते हैं)
राजा-(मन में) ओह! यह जीवन कितना नश्वर है, शरीर क्षणभंगुर है। प्राणी बालक से युवा और युवा से वृद्ध हो जाता है और धीरे-धीरे काल के गाल में समाहित हो जाता है। बड़े पुण्य से उत्तम कुल, उत्तम शरीर एवं उत्तम धर्म मिलता है अत: इस उत्तम बुद्धि का सदुपयोग अब आत्मकल्याण में करके मुझे अपनी मानव पर्याय को सार्थक कर लेना चाहिए। (तभी मंत्री-सेनापति प्रवेश कर)
मंत्री-राजाधिराज की जय हो।
सेनापति–स्वामी! हमारा प्रणाम स्वीकार करें।
राजा-(चौंककर) आइए, आइए मंत्रिवर! सेनापति! कहिए किस प्रयोजन से आना हुआ। क्या प्रजा में कोई कष्ट है।
मंत्री–नहीं स्वामिन्! ऐसी कोई बात नहीं है, आपके शासनकाल में प्रजा बहुत सुखी है।
सेनापति–हाँ स्वामी! चारों दिशा में आपकी कीर्ति व्याप्त हो रही है। प्रभो! आज्ञा दें तो एक प्रश्न पूछूँ ?
राजा-अवश्य, कहिए क्या पूछना है ?
सेनापति-(हाथ जोड़कर) हम दोनों जब अंदर आए तो आप गहन चिंतन में थे, वह चिंता क्या है राजन् ?
राजा–सेनापति! देखो ना, यह शरीर कितना नश्वर है, संसार की अस्थिरता देख मन में बार-बार वैराग्य उमड़ रहा है, सोचता हूँ जितनी जल्दी हो सके आत्मा के कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले लूँ।
सेनापति–स्वामी! आप तो इतने बड़े साम्राज्य के अधिपति हैं। आप इन बातों की ओर कहाँ चले गए, दिव्य सुख आपका इंतजार कर रहे हैं, उनका उपभोग कीजिए।
मंत्री-प्रभो! आप सुखों का उपभोग करने के साथ-साथ पुण्य कर्मों को भी कर रहे हैं, फिर ऐसा चिंतन क्यों ?
राजा-मंत्रिवर! ये विषय-भोग रोग के समान हैं। सम्पत्ति, राज्य सम्पदा बिजली की तरह चंचल है, जो देखते ही देखते नष्ट हो जाने वाली है। यह शरीर मांस, रुधिर, मल आदि महा अपवित्र वस्तुओं से भरा है इसलिए मुझे शीघ्र ही जिनधर्म की शरण लेनी चाहिए।
सूत्रधार–मंत्री, सेनापति आदि के द्वारा बार-बार समझाने पर भी कौण्डेश राजा राज्य, विषयसुख आदि से उदासीन होते गए और जैनधर्म के रहस्य को जानने वाले उन महाराज कौण्डेश के हृदय में वैराग्य भावना निरन्तर वृद्धिंगत होती गई, उन्हें अब घर वैâदखाने के समान दिखने लगा अत: उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंप दीक्षा का विचार किया।
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(अन्त:पुर में राजा अपनी रानी और पुत्र के साथ बैठे हैं।
राजा कहते हैं- राजा-(रानी से) महारानी! मुझे राज्य सम्पदा और भोगों से अरुचि हो गई है अत: मेरी इच्छा है कि मैं अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूँ।
रानी-(आश्चर्य से) स्वामी! आप यह वैâसी बात कर रहे हैं ? यह राज्य आपके बिना केसे चलेगा ? मैं आपके बिना वैâसे रह पाऊँगी ?
राजा–देखो महारानी! इस जीवन का कोई भरोसा नहीं, शरीर नाशवान है। मुझे उत्तम कुल, उत्तम शरीर मिला है जिसका मुझे सदुपयोग करना चाहिए।
रानी-(आँखों में अश्रु भरकर) किन्तु महाराज! (रोने लगती है)
राजा–महारानी! यह मोह ही तो भव-भव में भटकाता है और इसे ही मुझे जीतना है अत: कल ही मैं पुत्र का राज्याभिषेक कर जैनेश्वरी दीक्षा लेना चाहता हूँ।
पुत्र-(विह्वल होकर) किन्तु पिताश्री! मैं आपके बिना राज्य संचालन केसे कर पाऊँगा ?
राजा-(पुत्र के सिर पर प्यार से हाथ फेरकर) पुत्र! मैंने भी तो इसी प्रकार राज्य संभाला था फिर तुम तो मुझसे भी योग्य हो। (पुन: सैनिकों से) सैनिकों! जाओ महामंत्री को बुलाकर लाओ।
सेवक–जो आज्ञा स्वामी! (सेवक जाता है और महामंत्री के साथ प्रवेश करता है)
महामंत्री-महाराज की जय हो! स्वामी! आपने मुझे याद किया ?
राजा-महामंत्री जी! युवराज के राज्याभिषेक की तैयारी कीजिए, कल शुभ मुहूर्त में हम इनका राज्याभिषेक करके राजा घोषित करेंगे।
महामंत्री–परन्तु महाराज……..
राजा-(बात काटकर) मंत्रिवर! अब मुझे राज्यवैभव में कोई रुचि नहीं है, मैं अब शीघ्र दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ अत: शीघ्र ही शुभ मुहूर्त निकलवाइए।
मंत्री-जो आज्ञा स्वामी! (प्रस्थान करते हैं)
सूत्रधार-महामंत्री चले जाते हैं। राजा शुभ मुहूर्त में अपने पुत्र को राज्याधिकार सौंप स्वयं जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक पूजन कर निग्र्रन्थ गुरू के पास पहुँचकर उनसे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और घोर तपश्चरण कर शास्त्रज्ञान के प्रभाव से श्रुतकेवली हो जाते हैं, द्वादशांग के ज्ञाता हो जाते हैं। तो बंधुओं! आपने जाना कि ज्ञानदान का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है, उन कौण्डेश महाराज ने तो मात्र कोटर में पड़ा एक शास्त्र मुनिराज को दिया था फिर जो भव्य जीव ज्ञानदान स्वरूप ग्रंथ छपाते हैं, शास्त्र देते हैं, उनको धन, यश, ऐश्वर्य, उत्तम कुल, गोत्र, दीर्घायु आदि नाना प्रकार के सुख प्राप्त हो जाएं तो कौन सी बड़ी बात है अत: सदैव भव्यात्माओं को ज्ञानदान में तत्त्पर रहना चाहिए।