नाटक के पात्र-राजा सिंहसेन-रानी रामदत्ता, सेठ समुद्रदत्त, पुरोहित शिवभूति (सत्यघोष), बहन जी (पाठशाला की मैडम), २-३ बच्चे, दासी, नागरिक, सत्यघोष की पत्नी, सभासद।
प्रथम दृश्य
समय- सायंकाल, स्थान-दि. जैन मंदिर का भवन (एक दि. जैन रात्रि पाठशाला का दृश्य जहाँ सभी बच्चे नीचे आसन पर लाइन से बैठे हैं। बाल विकास की पुस्तक लिए तभी वहाँ बहन जी (मैडम) का प्रवेश)
सभी बच्चे- (खड़े होकर) जय जिनेन्द्र बहन जी!
बहन जी- (कुर्सी पर बैठते हुए) जय जिनेन्द्र बच्चों! (सभी बच्चे अपने स्थान पर बैठ जाते हैं)
बहन जी- बच्चों! आपने कल का पाठ याद कर लिया।
बच्चे- (एक स्वर में) जी बहन जी।
बहन जी- (एक बच्चे की ओर इशारा करके) अर्हम्! तुम बताओ धर्म कितने होते हैं ?
अर्हम्- (खड़े होकर) जी दश धर्म होते हैं।
बहन जी– अच्छा देशना! उनके नाम बताओ।
देशना- (दोनों हाथ जोड़कर खड़े होकर) उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य।
बहन जी- बहुत अच्छा! बैठ जाओ।
दिव्यांशी- बहन जी! इन १० धर्मों का पालन कौन करते हैं ?
बहन जी- बेटा! मुनि, आर्यिका आदि साधु तो इनका पूर्ण पालन करते हैं। किन्तु श्रावकों को भी इनका आंशिक पालन अवश्य करना चाहिए।
आराध्या- बहन जी! मेरी मम्मी कह रही थी कि हमें कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए। नहीं तो खोटी गति में जाना पड़ता है और इस जन्म में भी अपमानित होना पड़ता है।
बहन जी- हाँ बच्चों! असत्य कभी नहीं बोलना चाहिए क्योंकि एक न एक दिन सत्य की विजय अवश्य होती है। प्यारे बच्चों, मैं तुम्हें आज झूठ बोलने का फल क्या मिलता है इसकी एक सच्ची पौराणिक कथा सुनाती हूँ।
सभी बच्चे- (एक स्वर में खुश होकर) हाँ, हाँ हमें भी सुनना है।
दूसरा दृश्य
(मंच पर बहन जी सूत्रधार के रूप में कथा सुनाना प्रारंभ करती हैं)
तर्ज-इचक दाना………………………………………..
कथा सुनो सब, कथा सुनो सब, कान खोलकर सुनना, ध्यान लगाना।-२
सत्य धर्म की कथा को सुनकर, सत्य का साथ निभाना,
ध्यान लगाना जीवन में कभी तुम झूठ मत बोलो।
सत्य वचन तुम तोल कर बोलो।।हो हो….
असत् वचन से दुर्गति मिलती, सत्य से मिले खजाना, ध्यान लगाना।
बोलो-बोलो हाँ……. सच्चे मनुज का है बोलबाला। झूठे का हरदम मुंह होता काला। हो-हो…..
‘‘सत्यमेव जयते’’ की सूक्ति जीवन में अपनाना, ध्यान लगाना। बोलो-बोलो हाँ…..
बच्चों! भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर में राजा सिंहसेन राज्य करते थे, उनकी रानी का नाम रामदत्ता था। उसी नगर में एक शिवभूति नाम का पुरोहित ब्राह्मण रहता था, जो सदैव अपनी जनेऊ में केंची बांधकर रखता था।
नगर का दृश्य- जहाँ एक ब्राह्मण जिसके सिर पर चोटी है तथा हाथ में पोथी लिए हुए गले में जनेऊ धारण किये हैं, जिसमें एक कैंची बांधे रहता है, बाजार में जा रहा है।
एक नागरिक- (हाथ जोड़कर) पंडित जी, प्रणाम।
पुरोहित-(आशीर्वाद देते हुए) खुश रहो! कैसे हो ?
नागरिक- (झुककर) सब आपकी कृपा है।
पुरोहित– (जनेऊ की कैंची दिखाते हुए) देखो मेरे पास सदैव ये कैंची रहती है। ‘‘यदि मेरी जिह्वा असत्य बोल दे तो मैं उसको काट डालूँ।’’
नागरिक– अरे पंडित जी! आप जैसे महापुरुष तो विरले ही होते हैं। तभी तो आपका ‘‘सत्यघोष’’ नाम सार्थक है।
(सूत्रधार- लोग विश्वास के साथ उसके पास अपना धन धरोहर रख देते थे और वह बहुत कुछ हड़प लेता था, किन्तु कोई उसे कुछ नहीं कह पाते थे और उसका ‘‘सत्यघोष’’ नाम प्रसिद्ध हो गया।)
तृतीय दृश्य-
(सत्यघोष के घर का दृश्य)
सत्यघोष-(घर में बैठा है) अरी भाग्यवान्! बड़ी जोरों की भूख लगी है, भोजन तो ले आओ।
सत्यघोष की पत्नी-(अंदर से) अभी लाती हूँ। जरा धैर्य रखिये। (तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज आती है)
सत्यघोष-अरे! देखो तो सही कौन आया है ?
सत्यघोष की पत्नी-अभी देखती हूूं। (दरवाजा खोलती है)।
सत्यघोष की पत्नी-(सामने खड़े व्यक्ति को देखकर) कहिए महाशय क्या कार्य है ?
समुद्रदत्त सेठ-(नम्रतापूर्वक) मैं एक व्यापारी हूँ मुझे सत्यघोष जी से मिलना है।
सत्यघोष की पत्नी-आइए, अंदर आइये। (अंदर जाते हैं)
समुद्रदत्त सेठ–(अंदर पहुँचकर हाथ जोड़कर) पुरोहित जी मैंने आपका बड़ा नाम सुना है कि आप कभी भी असत्य नहीं बोलते हैं तथा किसी की भी धरोहर को अपने पास रखकर पुन: उसी प्रकार लौटा देते हैं।
सत्यघोष-(कुछ संकोचपूर्वक) अरे सेठ जी आप तो मेरी अधिक प्रशंसा कर रहे हैं। साधर्मी ही साधर्मी के काम आता है।
सेठ जी-(रत्न की पोटली देते हुए) मैं व्यापार हेतु समुद्र के पार धन कमाने जा रहा हूँ। अत: आप मेरे ये ५ रत्न धरोहर रूप में रख लीजिए।
सत्यघोष-(रत्न लेते हुए) आप निश्चिंत होकर जाइए। आपकी अमानत मेरे पास सुरक्षित रहेगी। (सेठ जी चले जाते हैं।)
(सूत्रधार-समुद्रदत्त सेठ विदेश में धन कमाने चले जाते हैं। जब १२ वर्ष पश्चात् वे लौटते हैं, तो अशुभ कर्म के उदय से उनका जहाज पानी में डूब जाता है, सारी संपत्ति नष्ट हो जाती है। वे जैसे-तैसे अपने प्राण बचाकर उसी नगर में आते हैं।)
चतुर्थ दृश्य-
(सेठ समुद्रदत्त दीन-हीन अवस्था में सत्यघोष के घर पहुँचता है)
सेठ-(दु:खी होकर रोते हुए) पुरोहित जी मेरा बहुत बड़ा नुकसान हो गया, मैं बर्बाद हो गया। अब तो आपके पास धरोहर रखे रत्नों का ही सहारा है, मुझे वे मेरे रत्न दे दीजिए। जिससे मैं पुन: कुछ व्यापार कर सकूँ।
सत्यघोष-(सत्यघोष की नीयत बदल जाती है, वह चिल्लाकर कहता है) कौन हो तुम, कहाँ से आये हो और कौन से रत्नों की बात कर रहे हो। निकल जाओ यहाँ से।
सेठ-(आश्चर्य चकित होकर) अरे आप ये क्या कह रहे हैं।
सत्यघोष-(नौकर को आवाज देते हुए) अरे कोई है, निकालो इस पागल को यह मुझे झूठा बताता है, बाहर करो इसको। (तभी एक नौकर आकर सेठ को धक्के देकर घर से निकाल देता है)
पंचम दृश्य- (रत्न न मिलने पर समुद्रदत्त की सारी चेष्टाएं पागल के समान हो गई, वह गली-गली में विक्षिप्त होकर घूमने लगा।)
समुद्रदत्त-(नगर में गली में घूमते हुए) अरे मेरे पाँच रत्न सत्यघोष ने हड़प लिए हैं, वह झूठ बोल गया वह नहीं देता, मेरा न्याय करो, न्याय करो। (वह रानी के महल के पास भी रात्रि में वृक्ष पर चढ़कर चिल्लाता रहता था।)
(महल का दृश्य-राजा, रानी बैठे हैं आपस में वार्तालाप करते हुए)
रानी रामदत्ता-(नीचे समुद्रदत्त की ओर इशारा करके) महाराज ये व्यक्ति लगभग ६ महीने से इसी तरह गली-गली में क्यों चिल्लाता है आप इसका न्याय कीजिए।
राजा-प्रिये! ये पागल विक्षिप्त है। तुम इस पर ध्यान मत दो।
रानी-नहीं राजन्! ये पागल नहीं है। इसका भेद पता लगाने की मुझे आज्ञा दीजिए। मैं इसका न्याय करूँगी।
राजा-ठीक है। जैसी तुम्हारी इच्छा। (रानी ने सत्यघोष को अपने साथ द्यूतक्रीड़ा के लिए आमंत्रित किया। रानी का कक्ष जहाँ सत्यघोष और रानी द्यूतक्रीड़ा कर रहे हैं। चौपड़ बिछाकर खेलते हुए)
रानी रामदत्त-(मुस्कुराकर खेलते हुए) पुरोहित जी! आज तो मैं ही जीतूंगी।
सत्यघोष–जैसी ईश्वर की मर्जी।
रानी–अगर आज मैं जीती तो तुम्हारी जनेऊ और अंगूठी मेरी हुई।
सत्यघोष-जैसी आपकी आज्ञा मुझे मंजूर है। (और इस प्रकार रानी ने जुंए में पुरोहित की जनेऊ और अंगूठी जीतकर उसे अपनी दासी के हाथ चुपके से पुरोहित (सत्यघोष) की पत्नी के पास भेजा) (पुरोहित के घर पहुँचकर)
दासी-(दरवाजे से) पंडितानी जी, ओ पंडितानी जी।
पंडितानी-(बाहर आकर) कौन है ? क्या चाहिए।
दासी-(जनेऊ अंगूठी दिखाकर) पुरोहित जी ने सेठ समुद्रत्त के ५ रत्न महल में मंगवाए हैं।
पंडितानी-(रत्नों की पोटली देते हुए) ठीक है ये लो संभालकर ले जाना। (दासी रत्न लाकर रानी को दे देती है)
अंतिम दृश्य
(राज दरबार में राजा, रानी अपने सिंहासन पर बैठे हैं पूरी सभा लगी है व्यापारी समुद्रदत्त और सत्यघोष भी सभा में खड़े हैं।)
राजा-(अनेक रत्नों में उन ५ रत्नों को मिलाकर) आओ समुद्रदत्त! तुम इन रत्नों में से अपने ५ रत्न पहचानकर ले लो।
समुद्रदत्त सेठ-(खुश होकर) जो आज्ञा राजन्! (रत्न छांटते हुए) (और वह उनमें से अपने ५ रत्न निकाल लेता है। सत्यघोष सभा में अपना मस्तक नीचा करके खड़ा है)
सभी सभासद-(एक साथ) धिक्कार हो, सत्यघोष! धिक्कार हो!
एक सभासद–इस पापी को कठोर दण्ड मिलना चाहिए। इसने सत्य की आड़ लेकर भोले प्राणियों को लूटा है और अपने आपको सत्यघोष कहता है।
सत्यघोष-(गिड़गिड़ाते हुए हाथ जोड़कर) मुझे क्षमा कर दीजिए राजन्! क्षमा, क्षमा।
राजा-(गरजकर) नहीं! तुम्हारा अपराध क्षम्य नहीं है। तुमने भोले जीवों को ठगा है।
तुम्हारा दण्ड निश्चित है।(१) तीन थाली गोबर खाना
(२) मल्लों के मुक्के खाना या अपनी सारी संपत्ति छोड़कर देश से निकल जाओ। (तब उस पुरोहित ने क्रम से तीनों दण्ड भोगे आखिर अपमानित होकर देश से निकलना पड़ा)
पाठशाला का दृश्य- बहन जी-तो बच्चों इस प्रकार वह पुरोहित असत्य बोलकर इस भव में भी अपमानित हुआ और अंत में मरकर राजा के भंडार में सर्प हो गया और बहुत काल तक दुर्गति में भ्रमण करता रहा। अत: प्यारे बालकों! हमें कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि एक न एक दिन असत्य उजागर अवश्य होता है।
जगत में सूक्ति प्रसिद्ध है-‘‘सत्यमेव जयते’’, सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुंह काला।
सभी उच्च स्वर में एक साथ बोलते हैं- उत्तम सत्य धर्म की जय, उत्तम सत्य धर्म की जय। (पर्दा गिरता है)