सुषमा –बहन जी! मेरी माँ खूब उपवास करती हैं, क्या करें? उन्हें कैसे समझायें? देखो! न केवल वे शरीर को सुखाती रहती हैं, क्या उपवास से मोक्ष मिल सकता है? उन्हें आत्मा का ज्ञान तो बिल्कुल है ही नहीं।
अध्यापिका –सुषमा, तुम्हें ये कैसे मालूम है कि तुम्हारी माँ को आत्मज्ञान नहीं है?
सुषमा –हाँ जी, उन्होंने कभी भी समयसार का स्वाध्याय नहीं किया है। मैं कुछ कहती हूँ, तो मुझे ही शिक्षा देने लगती हैं और कहती हैं कि देख! तुझे महीने में एक उपवास अवश्य करना चाहिए और मुझे तो उपवास के नाम से बड़ी चिढ़ आती है, मैं ३६५ दिनों के अन्दर जब भादों के अनन्त चतुर्दशी के दिन उपवास करती हूँ, तो रात्रि भर नक्षत्र गिनते-गिनते खूब आकुलतापूर्वक रात बीतती है। दिन निकलते ही जल्दी से मेरी माँ बादाम का हलुआ खिलाती है, तब कहीं चैन पड़ती है।
अध्यापिका -सुषमा देखो, तुम्हारी माँ की यदि शरीर से कुछ ममता कम नहीं हुई है, तो वे कैसे उपवास करती हैं? अरे! तुम तो एक उपवास से ही घबरा जाती हो, क्या कारण है, यही कारण है कि तुमने शरीर को अपना मान रखा है और उसी के सुख में सुखी तथा दु:ख में दुखी हो जाती हो। देखो! जिनको सम्यग्दर्शन प्रगट होकर आत्मज्ञान हो गया है, वे समझते हैं कि-
यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम्।
यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम्।।
ऐसा श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है कि जिससे जीव का उपकार होता है, उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का उपकार होता है, उससे जीव का अपकार होता है। इन उपवासों से यद्यपि शरीर को कुछ कष्ट अवश्य होता है किन्तु सम्यग्दृष्टि संसार के अनन्त कष्टों के आगे उसे कुछ नहीं गिनते हैं और शरीर को दुर्जन या नौकर के समान समझकर उसे अपने आत्महित में लगाते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि वे इसे नष्ट कर देते हैं। नहीं, इसकी रक्षा के लिए संयम से भोजन देकर संयमित जीवन बनाते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। अरे! क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि-
‘मूलं संसारदु:खस्य देह एव आत्मधीस्तथा।’
शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दु:खों का मूल कारण है। तुम्हारी माँ बहुत समझदार है, उन्होंने तत्त्व को समझ लिया है भले ही उसका शास्त्रीय ज्ञान क्यों न कम हो!
सुषमा –क्या बिना तपश्चर्या के मुक्ति नहीं मिलती है?
अध्यापिका –मुक्ति तो शरीर से पूर्णतया निर्मम होने से होती है, जो शरीर से बिल्कुल निस्पृह होकर आत्मा का ध्यान करते हैं, वे मुक्त होते हैं। फिर प्रारंभिक अवस्था में शरीर से ममता घटाने के अभ्यास के लिए उपवास-व्रत आदि भी अवश्य करणीय हो जाते हैं। देखो
‘‘चौबीस तीर्थंकरों ने अपने पूर्वभव में गुरु के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया है। एक ऋषभदेव मात्र ग्यारह अंग चौदह पूर्वों के पाठी थे। चौबीस तीर्थंकरों ने ही पूर्वभव में ‘सिंहनिष्क्रीडीत’ नाम के महान व्रत को किया था और गुरु के पादमूल में सोलह कारण भावनाएँ भायी थीं। अनन्तर अन्त में सभी ने एक-एक महीने का उपवास ग्रहण कर प्रायोपगमन संन्यास से सल्लेखना मरण किया था। सभी ही अपने-अपने भावों के अनुसार सर्वार्थसिद्धि, ग्रैवेयक या स्वर्ग में इन्द्र हुए थे पुन: ये भारतवर्ष में ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। यह वर्णन हरिवंशपुराण में है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपवास कितने महत्त्व की चीज है।
सुषमा – जो कर्मक्षय की भावना से करते हैं, उनके लिए ठीक कहो किन्तु जो अनेक भोगों की प्राप्ति हेतु करते हैं, उन्हें तो पाप ही होगा।
अध्यापिका –उन्हें भी तो पाप नहीं होगा प्रत्युत् तपश्चरण से अलौकिक सुख मिल जावेंगे किन्तु कर्मों का नाश नहीं होगा। हर स्थिति में उपवास गुणकारी है। देखो! शरीर में कष्ट सहन करने की हिम्मत आती है। यदि सीता ने बचपन में राजघराने में उपवास का अभ्यास नहीं किया होता, तो क्या एकदम रावण के घर में ग्यारह उपवास कर सकती थीं? दूसरी बात यह है कि उपवास से स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। वृहत्पल्य, चक्रवाल आदि के उपवासों से तो अगणित उपवासों का फल मिलता है। नन्दीश्वर पर्व में भी विधिवत् आष्टान्हिकाव्रत करने से निम्नलिखित फल मिलता है।
कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ शुक्ला अष्टमी से पूर्णिता पर्यन्त यह व्रत किया जाता है। सुदी में सप्तमी को एकाशन करके अष्टमी को उपवास, नवमी को एकाशन, दशमी को पानी और भात, एकादशी को अवमौदर्य, द्वादशी को एकाशन, तेरस को इमली और भात, चौदश को त्रिवेली और भात तथा पूर्णिमा को उपवास करें। क्रम से अष्टमी के उपवास से दस लाख उपवास का फल है। ऐसे ही नवमी के एकाशन से दस हजार उपवासों, दशमी के व्रत से साठ लाख प्रोषध, एकादशी को एक लाख उपवास, द्वादशी को चौरासी लाख उपवास, तेरस को चालीस लाख उपवास, चौदस को एक लाख उपवास और पूर्णिमा को साढ़े तीन करोड़ उपवास का फल होता है, यह व्रत प्रतिवर्ष में तीन-तीन बार किया जाता है। इस प्रकार आठ वर्ष, पाँच वर्ष या तीन वर्ष तक किया जाता है।
सुषमा –तब तो अभ्यास के लिए मुझे भी महीने में एक उपवास अवश्य करना चाहिए।
अध्यापिका -वैसे तो दो अष्टमी और दो चतुर्दशी, ऐसे एक महीने में चार पर्व आते हैं, इन चारों दिन उपवास का विधान है। यदि नहीं हो सके तो कम से कम एक उपवास की आदत अवश्य डालना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि उपवास करने वालों की निन्दा-उपहास कभी भी नहीं करें क्योंकि आत्मज्ञानी तो शरीर से अधिक निस्पृह होते हैं, फिर उनका कर्तव्य है कि उपवास करने वालों को तपस्वी मानकर उनका अनुसरण करें, सर्वत्र गुणग्राहकता होना चाहिए।
सुषमा –अब मैं अपनी माँ से बहस नहीं करूँगी। प्रत्युत् उन्होंने मुझे जिनगुणसंपत्ति व्रत के लिए कहा था, मैं उसकी विधि समझ लूँगी और महीने में एक-दो व्रत जितने बन सकेगे, करती रहूँगी