अर्थ-चैतन्यस्वरूप अनुपम आनंद के सद्भाव वाले, अविनश्वर और सदा शांत ऐसे परमात्मा को मैं अपने समस्त कर्मों को शांत करने के लिए नमस्कार करता हूँ। जो परम ज्योति चिदानंद स्वरूप है, देवेन्द्रों से पूजित है, पांचों इन्द्रियों से रहित है अथवा आकाश आदि पांचो तत्त्वों से रहित है और आठों कर्मों से रहित है ऐसी परम ज्योति की मैं वंदना करता हूँ।।१-२।।
भावार्थ-‘ख’ का अर्थ इंद्रिय है अत: चैतन्य आत्मा इंद्रियों से रहित है पुन: ‘ख’ का अर्थ आकाश भी है अत: वैदिक संप्रदाय के अनुसार यह आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी इन पांच भूतों से भी रहित है। यह कथन यहाँ शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ही है क्योंकि ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ सभी जीव शुद्धनय की अपेक्षा से शुद्ध ही हैं, ऐसा आगम वाक्य है।
श्लोकार्थ-ऐसा यह चैतन्य आत्मा अज्ञानीजनों के लिए अस्पष्ट है फिर भी सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षुधारियों के लिए व्यक्त-स्पष्ट है, सर्व वस्तुओं में सारभूत है ऐसे इस चिच्चैतन्य आत्मा के लिए मेरा नमस्कार होवे। यह चैतन्य तत्त्व प्रत्येक प्राणियों के शरीर में ही स्थित है किन्तु अज्ञानरूपी अंधकार से आच्छादित हुए जीव उस तत्त्व को नहीं जानते हैं इसीलिए वे बाहर-बाहर ही भ्रमण करते रहते हैं।।३-४।।
भावार्थ- अज्ञानीजन आत्मा के स्वरूप को न समझकर पौद्गलिक शरीर आदि को ही जानते हैं अत: वे आत्मतत्त्व को स्पष्ट-प्रगटरूप या अनुभवरूप नहीं कर पाते हैं किन्तु सम्यग्ज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत मुनि ऐसे आत्मतत्त्व को निश्चयनय से ज्ञानदर्शनस्वरूप मानते हैं, श्रद्धान करते हैं पुन: अप्रमत्तसंयत मुनि निर्विकल्पध्यान में लीन होकर शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं उसे व्यक्त-स्पष्ट-अनुभवगम्य कर लेते हैं। यह शुद्ध, सिद्ध आत्मा सभी संसारी प्राणियों के शरीर में स्थित है फिर भी सम्यग्दृष्टि आत्मा ही इस आत्मा का अनुभव करने में प्रयत्नशील होते हैं किन्तु जो मिथ्यात्वरूपी अंधकार से व्याप्त हो रहे हैं वे बाह्य शरीर आदि पदार्थों में और पंचेन्द्रियों के विषयों में ही रमते रहते हैं।
श्लोकार्थ-कोई-कोई जीव हमेशा शास्त्रों के समूह में भ्रमण करते हुए भी परम तत्त्व को नहीं जानते हैं जैसे कि काष्ठ में शक्तिरूप से विद्यमान अग्नि को नहीं जाना जाता है।। ५।।
भावार्थ-जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विद्यमान है अथवा दूध में घी शक्तिरूप से मौजूद है वैसे ही शरीर में विद्यमान आत्मा शक्तिरूप से परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा है ऐसा ज्ञान निश्चयनय से होता है। जो भी चारों अनुयोगों के जैनग्रंथ हैं वे द्वादशांग के सारभूत ही हैं उन अनेक ग्रंथों को पढ़कर भी सभी जीव शुद्धात्मा को नहीं जानते हैं किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव ही शास्त्रों को पढ़कर अपने शुद्धतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
श्लोकार्थ- यदि किसी गुरु ने करुणाबुद्धि से उस आत्मतत्त्व का स्पष्टरूप से कथन भी किया है तो भी कोई-कोई जीव महामोह से मलिन हुए उस तत्त्व को न मानते हैं और न सुनते ही हैं जिस प्रकार जन्म से अन्धे मनुष्य हाथी के स्वरूप को नहीं जानते हैं वैसे ही कोई-कोई मंदबुद्धि प्राणी खोटे शास्त्रों के निमित्त से अनंत धर्मात्मक तत्त्व को एकांतरूप से ही जानकर नष्ट हो जाते हैं। कितने ही मनुष्य किसी से किंचित् मात्र कुछ भी जानकर महाअभिमानी हो जाते हैं तब वे सारे जगत को मूर्ख समझते हुए बुद्धिमानजनों का आश्रय ही नहीं लेते हैं।। ६-९।।
विशेषार्थ-प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्म रहते हैं जैसे एक मनुष्य में अनेक संबंध-रिश्ते विद्यमान हैं वह किसी का पुत्र है तो किसी का पिता भी है, किसी का भाई है तो दूसरे का भतीजा भी है, एक का पोता है तो किसी का बाबा भी है, किसी का पति है तो किसी का ससुर भी हो सकता है, इत्यादि नाना संबंध एक समय में ही देखे जाते हैं। उसी प्रकार से एक जीव द्रव्य पर्याय दृष्टि से अनित्य है, जन्म-मरण को प्राप्त हो रहा है तो भी द्रव्यदृष्टि से नित्य है, कहीं न कहीं किसी न किसी पर्याय में वही तो है। निश्चयनय से शुद्ध है तो व्यवहारनय से अशुद्ध है इत्यादि। फिर भी एकांतवादी लोग एकरूप से ही स्वीकार करते हैं, बौद्ध आत्मा को क्षणिक ही मानता है तो सांख्य सर्वथा नित्य ही मानता है। ये एकांतवादी कथंचित् विवक्षा-नयविवक्षा को नहीं समझते हैं यह सब स्याद्वाद मत से बाह्य कुशास्त्रों का ही प्रभाव है। जात्यंधहस्ती का उदाहरण ऐसा है-एक बार कई एक जन्म से अंधे मनुष्य हाथी को जानने के लिए हाथी के पास लाए गये, एक ने हाथी का पैर पकड़ा, दूसरे ने पेट, तीसरे ने पूंछ और चौथे ने सूंड़ पकड़ ली, तभी पहले ने कहा-हाथी खंभे के समान है, दूसरे ने कहा-नहीं-नहीं हाथी तो दीवाल के समान है, तीसरे ने कहा-चुप रहो, हाथी तो झा़ड़ू के समान है तभी चौथे ने कहा-नहीं, हाथी तो बड़े भारी हाथों के समान है और ये चारों आपस में अपना-अपना निर्णय देते हुए लड़ने लगे। इसी बीच एक बुद्धिमान सज्जन आये और इन जन्मांध लोगों के झगड़े को निपटाने के लिए खड़े हो गये। सभी ने अपने-अपने निर्णीत हाथी के स्वरूप को बताया, तब वे सज्जन हंसकर बोले- भाइयों, तुम चारों की बात सही है, सुनो, हम तुम्हें हाथी का सही स्वरूप बताते हैं। तुम चारों ने हाथी के एक-एक अवयवों को ही हाथी मान लिया है। देखो, तुम्हारे भी तो हाथ हैं, पैर हैं, पेट है और सिर है वैसे ही खंभे के समान तो हाथी के पैर हैं, दीवाल के समान हाथी का पेट है, झाड़ू के समान हाथी की पूंछ है और बड़े हाथ के समान हाथी की लंबी सूंड़ है। इन सब अवयवों को मिलाकर ही हाथी बना है। इतना सुनकर चारों अंधे खुश हो गये। इसी प्रकार से कोई बौद्ध आत्मा को क्षणिक कहते हैं और सांख्य आत्मा को नित्य किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि आत्मा पर्यायोें की अपेक्षा से क्षणिक है और द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है इत्यादि।
श्रीअमृतचंद्रसूरि ने भी कहा है
परमागमस्य बीजं, निषिद्धजात्यन्धसिंधुरविधानम्।
सकलनयविलसितानां, विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्१।।
जो परमागम का बीज है, जिसमें जन्म से अंधे हुये लोगों द्वारा हाथी के एक-एक अवयव के ज्ञान का निषेध है और जो संपूर्ण नयों के परस्पर के विरोध का परिहार है ऐसे ‘अनेकांत’ को मैं नमस्कार करता हूँ। इसलिए जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित और जैनाचार्यों द्वारा रचित ऐसे तीन ग्रंथों का ही स्वाध्याय, पठन-पाठन करना चाहिए। धर्म का लक्षण-जो दु:खरूपी गड्ढे में गिरते हुए प्राणी का उद्धार करता है वह धर्म है किन्तु लोगों ने भ्रांति से इसका स्वरूप विपरीत कर दिया है अत: उस धर्म को परीक्षा करके ही ग्रहण करना चाहिए।।९।। सर्वज्ञ और वीतराग भगवान के द्वारा कहा गया धर्म ही सत्यता-यथार्थता को प्राप्त होता है क्योंकि पुरुष की प्रमाणता से ही वचनों की प्रमाणता मानी जाती है।।१०।।
विशेषार्थ- जो अल्पज्ञ हैं उनके वचन असत्य हो सकते हैं अथवा जो राग द्वेष-पक्षपात से सहित हैं उनके वचन भी असत्य होते हैं। इसीलिए जो सर्वज्ञ हैं-केवलज्ञानी हैं और अठारह दोषों से रहित पूर्ण वीतरागी हैं उनके वचन पूर्णतया सत्य ही होते हैं। आज यद्यपि सर्वज्ञ देव नहीं हैं फिर भी परंपरा से अवधिज्ञानी-मन:पर्यय ज्ञानी आचार्यों से प्राप्त ज्ञान से ही पूर्वाचार्यों ने ग्रंथ रचना की है अत: पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रंथ भी प्रमाण ही हैं। उन ग्रंथों में कहे गये विषय-अहिंसामयी धर्म आदि प्रमाणभूत हैं।
श्लोकार्थ- सर्व बाह्य विषयों का संबंध सभी जीवों के सदाकाल बना ही रहता है किन्तु इन बाह्य विषयों से भिन्न चैतन्य आत्मा और सम्यग्ज्ञान का संबंध ही दुर्लभ है।।११।। जो भव्य जीव पांच लब्धिरूप सामग्री विशेष से सम्यग्दर्शन आदि-रत्नत्रय की पात्रता को प्राप्त हैं वह मोक्षमार्ग में स्थित हैं, ऐसा समझना।।१२।।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए पांच लब्धियां मानी हैं-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। क्षयोपशम लब्धि-कर्मों के मलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशम लब्धि होती है। विशुद्धि लब्धि-पहली क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम उसकी जो प्राप्ति वह विशुद्ध लब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और उसके विपक्षी विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। देशना लब्धि-लब्धिसार में कहते हैं कि-छह द्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश देने वाले आचार्य का लाभ मिलना देशना लब्धि है अथवा उनके द्वारा उपदेशित पदार्थों के धारण करने का लाभ होना यह तृतीय लब्धि है। आचार्य, उपाध्याय आदि छह द्रव्यादि का उपदेश करने वाले हैं उनका जो मिलना है वही देशना की प्राप्ति है अथवा चिर अतीत काल में उपदेशित पदार्थ के धारण करने का लाभ होना वह देशना लब्धि है। गाथा में ‘तु’ शब्द है उससे यह अर्थ समझना कि उपदेश करने वालों से रहित नरक आदि पर्यायों में पूर्वभव में सुनकर धारण किया हुआ जो तत्त्वों का अर्थ है उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसा यहाँ सूचित किया गया है। प्रायोग्य लब्धि-सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत: कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात् पाँचवीं करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं। यह लब्धि भव्य और अभव्य दोनों के समान है अर्थात् अभव्य भी यहाँ तक स्थिति को पा सकते हैं किन्तु करण लब्धि उनके नहीं हो सकती है। करण लब्धि-इस प्रकार स्थिति और अनुभागों के कांडक घात को बहुत बार करके गुरु के उपदेश के बल से अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके अभव्य जीवों के योग्य अध:प्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है अर्थात् करण नाम परिणामों का है।
इस करण लब्धि के तीन भेद हैं-अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण।
अध:करण-जिस भाव में वर्तमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के साथ संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अध:करण कहते हैं। इस अध:करण का काल अंतर्मुहूर्त है और परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं।
अपूर्वकरण-जिस काल में प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि को लिए हुए अपूर्व-अपूर्व परिणाम होते हैं, उन परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण के विभिन्न समयों में वर्तमान जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते किन्तु विसदृश या असमान और अनन्तगुणी विशुद्धता से युक्त पाए जाते हैं। अध:प्रवृत्तकरण की अपेक्षा इसका काल अल्प है किन्तु परिणाम उससे असंख्यातलोक गुणित हैं।
अनिवृत्तिकरण-इसमें एक समयवर्ती जीव के एक ही परिणाम पाया जाता है और एक समयवर्ती अनेक जीवों के भी एक सदृश ही परिणाम पाये जाते हैं। एक कालवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति, भेद या विसदृशता नहीं पायी जाती है इसीलिए उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसके परिणामों की संख्या उसके काल के समयों के समान ही है क्योंकि इस अनिवृत्तिकरण काल के समय-समय में एक-एक ही परिणाम होते हैं।
मोक्ष के कारण- श्लोकार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष का कारण है। मोक्ष में ही सुख है अत: मोक्ष के लिए प्रयत्न करना चाहिए।।१३।। आत्मतत्त्व में जो निश्चय है वही सम्यग्दर्शन है, उसका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है और इस आत्मा में स्थिर होना ही चारित्र है, इन तीनों का संयोग ही मोक्ष का आश्रय-कारण है।।१४।। अथवा शुद्ध निश्चयनय से ये तीनों एक चैतन्यस्वरूप ही हैं क्योंकि उस चैतन्यस्वरूप एक अखंडवस्तु में विकल्पों-भेदों का क्या स्थान है ? ।।१५।।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों पृथक् -पृथक् स्वरूप से व्यवहार रत्नत्रय हैं किन्तु शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ये तीनों आत्मस्वरूप एक ही हैं, इनमें कोई भेद नहीं है इसलिए निश्चयनय की अपेक्षा से रत्नत्रय में भेदकल्पना संभव नहीं है। श्रीकुंदकुंददेव ने कहा है-
ववहारेणु वदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।
ज्ञानी आत्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन हैं यह व्यवहारनय का उपदेश है किन्तु निश्चयनय की अपेक्ष से ज्ञानी के न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र ही है, मात्र यह आत्मा ज्ञायकभाव वाला-ज्ञातास्वरूप शुद्ध ही है। यहाँ यह समझना है कि व्यवहाररत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग है और निश्चयरत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है, व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है।
श्लोकार्थ- प्रमाण, नय और निक्षेप ये अर्वाचीन पद में स्थित हैं किन्तु केवल एक शुद्धनय आत्मा ही प्रतिभासित होता है।।१६।।
विशेषार्थ-जहाँ तक व्यवहारनय और भेद अवस्था प्रधान है वहां तक ही प्रमाण, नय और निक्षेप प्रतिभासित होते हैं आगे निश्चयनय में-अभेदरूप निर्विकल्प ध्यान में ये प्रतिभासित ही नहीं होते हैं। समयसार में कहा भी है-
उदयति न नयश्रीरस्तमेतिप्रमाणं क्वचिदपि।
न च विद्मो याति निक्षेपचक्रम्।।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्।
अनुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।
नयों की लक्ष्मी-भेद, प्रभेद उदय में नहीं आते हैं, प्रमाण भी अस्त हो जाता है, कुछ समझ में नहीं आता है कि निक्षेप के समूह कहां चले जाते हैं और अधिक तो क्या कहें, सभी विकल्पों को समाप्त करने वाले ऐसे आत्मतेज का अनुभव आने पर विकल्प-भेद-प्रमाण आदि रूप भेद प्रतिभासित ही नहीं होते हैं। वास्तव में यह अवस्था निर्विकल्प ध्यान मेें महामुनियों की ही होती है, उसके पूर्व छठे-सातवें गुणस्थान तक ये प्रमाण, नय, निक्षेप और भेद रत्नत्रय सभी प्रयोजनीभूत ही हैं। श्लोकार्थ-मैं निश्चयनयरूप एक अद्वितीय नेत्र से सदा भ्रांतिरहित होकर उसी एक चैतन्यस्वरूप आत्मा को देखता हूँ और व्यवहारनयरूपी नेत्र से ऊपर कथित सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को पृथक्-पृथक् रूप से देखता हूँ।।१७।। जो महापुरुष जन्म रहित, एक-अद्वितीय, उत्कृष्ट, शांत और संपूर्ण उपाधि से रहित आत्मा को आत्मा के द्वारा जानकर आत्मा में स्थिर होकर ठहरता है वही अमृत-मोक्षमार्ग में स्थित होता है, वही अमृत-मोक्ष को प्राप्त करता है, वही अर्हन्तस्वरूप तीनों लोकों का स्वामी है और वही प्रभु एवं ईश्वर कहा जाता है।।१८-१९।।
श्लोकार्थ-केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनंतसौख्य स्वभाव वाला जो वह परम तेज है उसको जान लेने पर अन्य क्या नहीं देख लिया गया, उसके देख लेने पर अन्य क्या नहीं देख लिया गया और उसके सुन लेने पर भला क्या नहीं सुन लिया गया है ? अर्थात् इस केवलज्ञान आदि उत्कृष्ट आत्मा के स्वभाव को जान लेने, देख लेने और सुन लेने पर सभी कुछ जान, देख और सुन लिया है ऐसा समझना।।२०।।
श्लोकार्थ-अत: विद्वान् पुरुषों को निश्चय से वही एक परम आत्मा का तेज जानने योग्य है, वही एक सुनने योग्य है और वही एक आत्मतत्त्व ज्योति देखने योग्य है, उससे भिन्न-अन्य परद्रव्य न जानने योग्य हैं, न सुनने योग्य हैं और न देखने योग्य ही हैं।।२१।। योगी-महाव्रती मुनिगण उसी एक आत्मतेज को गुरु के उपदेश से, अभ्यास से और वैराग्य भाव से प्राप्त करके कृतकृत्य-पूर्णतृप्त-मुक्त हो जाते हैं, न कि उससे भिन्न अन्य किसी वस्तु को प्राप्त करके, अत: उस आत्मतेज-ज्योति के प्रति मन में प्रीति को धारण करके जिन योगी ने उसकी बात भी सुनी है वे निश्चित ही भव्य हैं क्योंकि वे ही आगे निर्वाण प्राप्त करने वाले हैं।।२२-२३।। जो ज्ञानी जीव कर्मों से पृथक्, अभेद अवस्था को प्राप्त हुए ऐसे एक परब्रह्म आत्मा को जानते हैं और उसी ज्ञानस्वरूप आत्मा में लीन होते हैं वे ही उस परब्रह्मस्वरूप आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं।।२४।। किसी भी परपदार्थ के साथ जो संबंध होता है वह बंध का कारण है किन्तु इससे विपरीत शांत और उत्कृष्ट एकत्वपद में जो आत्मा की स्थिति है वही मुक्ति के लिए कारण है।।२५।। नाना विकल्परूपी लहरों के भार से रहित, शांतस्वरूप आत्मा कर्मों के अभाव में केवल्यरूप परमधाम को प्राप्त हो जाता है जैसे कि वायु के अभाव में समुद्र लहरों की चंचलता से रहित हो जाता है।।२६।। संयोग से जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह सभी मुझसे भिन्न है उसके परित्याग के निमित्त से मैं मुक्त हो चुका हूँ ऐसा मेरा निश्चय है।।२७।।
विशेषार्थ-यह संसारी स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, मकान आदि पर वस्तुओं के साथ एकत्व स्थापित कर इनके संयोग से ही दु:खी हो रहा है, इस संयोग संबंध के त्याग करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होगी ऐसा निश्चय है। कहा भी है-
यह शरीरधारी प्राणी इस जन्मरूपी गहन वन में संयोग से ही अनेक प्रकार के दु:खों को भोगता है अत: अपनी मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने के इच्छुक जनों को मन-वचन-काय से इस संयोग संबंध का त्याग कर देना चाहिए। ये पुण्य-पापरूप व्रूâर राक्षस मेरा क्या कर सकेगे ? क्योंकि अब मैंने राग-द्वेष के त्यागरूप महामंत्र से इन्हें कीलित कर दिया है।।२८।।
भावार्थ- जो पुण्य और पापरूप शुभ-अशुभ कर्म हैं ये व्रूर राक्षस के सदृश दु:खदायी हैं इनका उदय आने पर राग और द्वेष होता है। इन राग द्वेष के निमित्त से पुनरपि पुण्य-पाप कर्मों का बंध होता है। जब महामुनि राग-द्वेष का त्याग कर वीतरागी निर्विकल्प ध्यानी बन जाते हैं तब ये कर्मबंध रुक जाते हैं। इसी का नाम संवर है, इस संवर से आत्मा कर्मों से छूट कर मुक्त हो जाता है। जब तक पुण्य का संवर हम नहीं करते तब तक पांचों पापों का त्याग कर पाप का संवर करते हुए पुण्य के संवर की भावना भाते रहना चाहिए। महात्मा-महामुनियों को संबंध-निमित्त के मिलने पर भी इन राग-द्वेष का त्याग कर देना चाहिए। जो जीव उस-निमित्त के बिना भी राग-द्वेष करते हैं वे वात रोग से ग्रसित रोगी के समान अपना कौन सा अहित नहीं कर लेते हैं ? अर्थात् वे रागी द्वेषी मनुष्य सभी प्रकार से अपना अहित ही कर लेते हैं।।२९।। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से उन पुण्य-पापरूप कर्मों की वृद्धि होती है। अत: मुमुक्षु-मुनिगण उस मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भिन्न ऐसे एक शुद्ध आत्मतत्त्व की ही उपासना किया करते है।।३०।। द्वैतभाव से द्वैत और अद्वैत भाव से अद्वैत उत्पन्न होता है जैसे लोहे से लोहे का पात्र और सोने से सोने का पात्र बनता है।।३१।।
विशेषार्थ- बंध, मोक्ष या संसार-मोक्ष, पुण्य-पाप, आत्मा और कर्म ये सब व्यवस्था द्वैत कहलाती है तथा एक निर्विकल्प आत्मतत्त्व का अनुभव अद्वैत है। सम्यग्दृष्टि श्रावक और छठे गुणस्थानवर्ती मुनि ये द्वैतभाव में-सविकल्प अवस्था में ही रहते हैं, इससे भिन्न निर्विकल्प ध्यान में स्थित हुए मुनियों को ही अद्वैत भाव का अनुभव आता है। समयसार कलश काव्य में कहा भी है-एक आत्मतत्त्व का अनुभव आ जाने पर नय, प्रमाण, निक्षेप आदि प्रतिभासित नहीं होते हैं। इस अद्वैत में स्थित हुये मुनि शुक्लध्यान से कर्मों का नाश करके सर्वकर्म से रहित होकर एक अद्वैत स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं और जो अद्वैत में स्थित हैं ऐसे अव्रती, श्रावक या मुनि सम्यक्त्व के प्रभाव से अद्वैत की भावना भाते हुए परंपरा से मोक्ष के भागी बनते हैं। किन्तु जो मिथ्यादृष्टी हैं ऐसे जो बंध, संसार आदि द्वैतभाव में ही रमे रहने के कारण चतुर्गति संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं अत: सम्यक्त्व सहित द्वैतभाव से अद्वैतभाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
श्लोकार्थ- निश्चय से जो एकत्व है-पर द्रव्यों से आत्मा को पृथक समझकर एक आत्मतत्त्व मात्र का जो श्रद्धान है, वही अद्वैत है और वही उत्कृष्ट अमृत-मोक्षस्वरूप है किन्तु दूसरे-कर्म आदि के निमित्त से किया गया जो द्वैत भाव प्रकट होता है वह व्यवहार की अपेक्षा रखने से संसार का कारण है।।३२।। बंध और मोक्ष, राग और द्वेष, कर्म और आत्मा तथा शुभ और अशुभ इस प्रकार की बुद्धि द्वैत के निमित्त से होती है यह संसार के लिए कारण है।।३३।।
भावार्थ-यह द्वैतबुद्धि सम्यग्दृष्टि के भी छठे गुणस्थान तक संभव है और निर्विकल्प ध्यान में ही अद्वैत अवस्था होती है फिर भी सम्यक्त्व के निमित्त से अद्वैत की भावना करने से ही परंपरा से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। उदय, उदीरणा और सत्त्व ये सब कर्मों का ही विस्तार है किन्तु ज्ञानस्वरूप जो आत्मा की ज्योति है वह उन सभी कर्मों से भिन्न एक है और उत्कृष्ट है।।३४।। क्रोधादि कर्मों का संयाग होने पर भी वह उत्कृष्ट आत्मज्योति विकार से रहित है, क्या विकार को करने वाले मेघों से आकाश विकारी हो सकता है ? अर्थात् नहीं।।३५।।
भावार्थ-निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मतत्त्व कर्मों से रहित निर्विकार चिच्चैतन्यस्वरूप ही है और व्यवहारनय की अपेक्षा से कर्मों से सहित संसारी है विकारी ही है ऐसा समझना। यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा से ही आत्मतत्त्व का वर्णन किया जा रहा है।
श्लोकार्थ-‘आत्मा’ यह नाम-आत्मा का वाचक शब्द भी निश्चय से उस आत्मा से भिन्न है क्योंकि निश्चय से यह आत्मा संज्ञा से रहित अनिर्वचनीय है। वास्तव में विद्वानों ने जन्म-मरण आदि को शरीर का कर्म ही कहा है।।३६।। उस चैतन्य का ज्ञान के साथ भी जो संयोग है वह केवल कल्पना मात्र है क्योंकि वह आत्मा और ज्ञान इन दोनों में निश्चय से एकत्व-अभेद ही है अर्थात् आत्मा और ज्ञान एक ही हैं, दो नही हैं क्योंकि आत्मा को छोड़कर ज्ञान अन्यत्र नहीं पाया जाता है।।३७।। यह आत्मज्योति गमन आदि क्रिया और कर्ता, कर्म आदि कारक के संबंध से रहित है, ऐसी यह एक परंज्योति ही मोक्ष के इच्छुक जनों के लिए शरणभूत है।।३८।। वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट ज्ञान है, वही एक आत्मज्योति निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही एक आत्मज्योति चारित्र है और वही एक आत्मज्योति निर्मल तप है अर्थात् यह आत्मज्योति ही निश्चय संपूर्ण गुणमयी है।।३९।। वही एक आत्मज्योति नमस्कार करने योग्य है, वही एक आत्मज्योति मंगलस्वरूप है, वही एक उत्तम है और सज्जन पुरुषों के लिए वही एक शरणभूत है।।४०।। वही एक आत्मज्योति अप्रमत्त योगियों का आचार है, वही उन योगियों की आवश्यक क्रिया है और वही उनका स्वाध्याय है।।४१।।
विशेषार्थ- यहाँ ‘अप्रमत्तस्य योगिन:’ पद आया है, इससे स्पष्ट है कि जो छठे गुणस्थान से आगे के निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि हैं उनके उस निश्चय चारित्र में वह परमज्योति स्वरूप आत्मा ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है। वही नमस्कार के योग्य है, वही मंगल लोकोत्तम और शरण है। वही पंचाचार, षडावश्यक क्रिया और स्वाध्याय स्वरूप है। वास्तव में व्यवहारनय के आश्रित ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आदि पृथक्-पृथक् हैं, मूलाचार ग्रंथ के अनुसार इनका विस्तार से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि पालन करते हैं। चार ही मंगल हैं-अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म, ये चार उत्तम हैं और ये ही चार शरण हैं। ‘चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं’इत्यादि। ऐसे ही ज्ञानाचार आदि पांच आचार, सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाएं और पांच प्रकार के स्वाध्याय ये सभी व्यवहार चारित्र हैं। सरागमुनि छठे-सातवें गुणस्थान में रहते हुए इनको धारण करते हैं ये सभी निश्चय चारित्र के लिए साधन हैं। इनके होने पर ही आत्मा का ध्यान होता है। उस ध्यान में स्थित महामुनि ही इनको अभेद-एकरूप से प्राप्त कर लेते हैं। इसे ही निश्चय रत्नत्रय-अभेद रत्नत्रय, वीतराग चारित्र, निर्विकल्प ध्यान और शुक्लध्यान के नामों से जाना जाता है। श्लोकार्थ-इस एक परमज्योति-आत्मज्योति का अनुष्ठान करने वाले महासाधु के गुणों की, संपूर्ण शीलों की और अत्यंत निर्मल धर्म की संभावना होती है अर्थात् महामुनि ही आत्मज्योति का ध्यान-अनुभव करते हुए समस्त गुण, शील और धर्म को पूर्ण कर लेते हैं किन्तु बिना स्वात्मानुभव के ये सभी असंभव ही हैं ऐसा समझना।।४२।। वही एक आत्मज्योति संपूर्ण शास्त्ररूपी महासागर का एक उत्कृष्ट रत्न है और वही संपूर्ण रमणीय पदार्थों में आगे स्थित है-प्रधान है।।४३।। वही एक आत्मज्योति परम तत्त्व है, वही एक परम पद है, वही एक भव्यों के द्वारा आराध्य है और वही एक परम तेज है।।४४।। वही एक आत्मज्योति साधुजनों के लिए जन्मरूपी वृक्ष को छेदन करने वाला शस्त्र है और वही एक ज्योति ध्यान में लीन हुए महायोगियों के लिए प्रयोजनीभूत है-इष्ट है।।४५।। मुमुक्षु-मोक्ष के इच्छुकजनों के लिए वही एक आत्मज्योति मोक्ष का उपाय है, अन्य कोई नहीं है और उस आत्मज्योति को छोड़कर अन्य किसी स्थान में आनंद की भी संभावना नहीं है।।४६।।
विशेषार्थ- यह पूरा प्रकरण आत्मध्यानी-शुक्लध्यानी महामुनियों का ही है क्योंकि योगनिष्ठ-योगी और मुमुक्षु शब्दों का प्रयोग सर्वत्र दिगबर जैन महामुनि के लिए ही है। यथा-
इक्ष्वाकुवंश के आदि में जन्म लेने वाले, जितेन्द्रिय, भगवान आदिनाथ, प्रभु, मुमुक्षु ने प्रवज्या-दीक्षा ली, ये प्रभु सहिष्णु और अच्युत हैं, ऐसा श्रीसमंतभद्र स्वामी ने कहा है। श्लोकार्थ-संसाररूपी घोर-भयंकर घाम-सूर्य के संताप से सदा संतप्त हुए प्राणी के लिए वह आत्मज्योति यंत्रधारागृह-जल फव्वारों से सहित शांत और के समान शीतल है।।४७।। वही एक आत्मज्योति कर्मरूपी शत्रुओं के लिए दुर्गम किला है और वही एक इन कर्मशत्रुओं को तिरस्कृत करने वाली अपनी श्रेष्ठ सेना है।।४८।। वही एक आत्मज्योति महती विद्या है, वही स्पुâरायमान मंत्र है और वही जन्मरूपी रोग को नष्ट करने वाली परम-श्रेष्ठ औषधि है।।४९।। वही एक आत्मज्योति अक्षय-अविनाशी आनंदरूपी महाफलों के भार की शोभा से सहित अक्षय ऐसे मोक्षरूपी सुंदर महावृक्ष का एक उत्कृष्ट बीज है।।५०।। वही एक आत्मज्योति तीनों लोकों के गृह का स्वामी है ऐसा तुम समझो, कि जिस एक के बिना यह तीन लोक- रूपी गृहनिवास से सहित होकर भी उससे रहित निर्जन वन के समान ही प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि तीनों लोकों में संपूर्ण द्रव्यों के रहने पर भी उस एक आत्मज्योति के बिना इस जीव के लिए कुछ भी नहीं है।।५१।। ‘जो शुद्ध चैतन्य है, वही मैं हूँ इसमें संदेह नहीं है’, इस कल्पना से भी रहित वह आत्मज्योति आनंद का स्थान है।।५२।। भावार्थ-‘जो शुद्ध चैतन्य है वही मैं हूँ’ यह शब्दों से भायी गई भावना है किन्तु ‘आत्मज्योति’ इस शब्द कल्पना से परे निर्विकल्प ध्यानरूप है और उसमें आनन्द का ही अनुभव आता है।
श्लोकार्थ-मोक्ष के लिए की गई इच्छा भी मोह के उदय से उत्पन्न हुई है अर्थात् इच्छा मोह की ही पर्याय है इसीलिए वह मोक्ष में रुकावट डालने वाली ही है फिर भला शांतचित्त हुए मुमुक्षु-महामुनि अन्य किसी वस्तु की इच्छा कैसे करेंगे ? ।।५३।।
विशेषार्थ-श्री अकलंकदेव ने भी कहा है-‘मोक्षेऽपि यस्य नाकाङ्क्षा स मोक्षमधिगच्छति’ जिसकी मोक्ष के लिए भी आकांक्षा नहीं है वही मोक्ष को प्राप्त करता है। बात यह है कि इच्छा होना भी एक विकल्प है चाहे वह मोक्ष के लिए ही क्यों न हो और विकल्पों को छोड़कर निर्विकल्प ध्यान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। दूसरी बात यह भी है कि-‘
‘‘छाया तरुं संश्रयत: स्वत: स्यात्, कश्छायया याचित आत्मलाभ:२।।’’
अर्थात् जैसे-वृक्ष के नीचे पहुँचने पर छाया स्वयं मिल जाती है उसकी याचना-इच्छा-आकांक्षा करने की आवश्यकता नहीं रहती है। वैसे ही मोक्ष प्राप्ति के उपायस्वरूप व्यवहार रत्नत्रय के बल से निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करके ध्यान में स्थित हुए महामुनि को मोक्ष की इच्छा की आवश्यकता ही भला क्या है ? वह तो अपने आप मिलेगा ही मिलेगा।
श्लोकार्थ-मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूँ, उससे भिन्न अन्य कुछ भी मेरा कभी भी नहीं हो सकता है। किसी के साथ मेरा संबंध भी नहीं है, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है।।५४।। साधुजन शरीर आदि बाह्य पदार्थों की चिंताओं के संपर्क से रहित अपने चित्त को निरंतर अपने शुद्ध आत्मा में स्थित करके ही रहते हैं।।५५।। हे आत्मन्! ऐसी आत्मा में स्थिर होने रूप अवस्था के होने पर जो कुछ भी है वही रहे यहाँ अन्य पदार्थों से भला क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है। इस चैतन्यस्वरूप आत्मा को प्राप्त कर तुम शांत होवो और सुखी होवो।।५६।। विद्वानजन इस तत्त्वरूपी अमृत को पीकर अपार जन्म की परंपरा के मार्ग में परिभ्रमण करने से उत्पन्न हुई थकावट को दूर करें।।५७।। यह आत्मज्योति अतिशय सूक्ष्म है और अतिस्थूल भी है, एक है और अनेक भी हैं स्वसंवेद्य है और अवेद्य भी है तथा अक्षर-क्षयरहित है और अनक्षर भी है। वह ज्योति उपमारहित है, निर्देश रहित होने से अनिर्देश्य है, मेय-ज्ञेय रहित होने से अप्रमेय है और अनाकुल है। शून्य भी है-पर वस्तुओं से रहित होने से शून्य है और ज्ञानादि गुणों से पूर्ण है। वह नित्य है और अनित्य भी है ऐसा महासाधुओं ने कहा है।। ५८-५९।। वह ज्योति शरीर रहित है, आलंबन रहित है, शब्दरहित है और उपाधि रहित है। ऐसी यह चैतन्यस्वरूप परमज्योति वचन और मन के अगोचर ही है।।६०।।
विशेषार्थ- यह आत्मज्योति निश्चयनय की अपेक्षा से रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित है अतएव सूक्ष्म है तथा अनंत गुणों का आश्रय होने से स्थूल भी है। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से एक है और अनंत गुणों की अपेक्षा से अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणरूप रत्नत्रय की अपेक्षा से अनेक भी है। सहज ज्ञान या केवलज्ञान से जानने योग्य होने से अथवा शुद्धोपयोग में स्थित मुनियों के अनुभवगम्य होने से स्वसंवेद्य है फिर भी क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा जानने योग्य न होने से अवेद्य है। कभी इस ज्योति का क्षरण-विनाश नहीं होता है-शुद्धनय से यह सदैव अविनश्वर है अत: ‘अक्षर’ है पुन: पर्यायार्थिक नय से उत्पाद, व्यय की अपेक्षा अनक्षर भी है-विनाशशील भी है अथवा अक्षर-भाषा आदि से रहित होने से अनक्षर है। असाधारण गुणों से सहित होने से उपमा रहित है। इइस ज्योति को शब्दों से कह नहीं सकते अत: अनिर्देश्य-अवाच्य है। सांव्यवहारिक आदि प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों का विषय न होने से अप्रमेय है एवं आकुलता रहित होने से अनाकुल है। मूर्तिक बाह्य पदार्थों के संयोग से रहित होने से शून्य है अथवा पुद्गलादि पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से रहित होने से शून्य है अथवा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से पूर्ण है। यह ज्योति द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। यह आत्मज्योति औदारिक शरीर से रहित, परवस्तु के अवलंबन से रहित, शब्द वर्गणाओं से रहित और कर्मों की उपाधि से रहित ही है, अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय होने से मन, वचन के अगोचर है।
श्लोकार्थ-इस प्रकार उस परमात्मा के दुरधिगम्य और अत्यन्त दुर्लक्ष्य होने पर उसके विषय मेें जो कुछ भी कहा जाता है वह आकाश में चित्रलेखन के समान ही है।।६१।।
भावार्थ-जैसे अमूर्तिक आकाश में चित्र बनाना असंभव है ऐसे ही अतीन्द्रिय-अमूर्तिक आत्मा के विषय में कुछ भी कहना असंभव ही है यह आत्मा तो केवल स्वानुभवगम्य ही है। जो उस आत्मा में लीन हैं उनकी बात तो दूर ही रहे किन्तु उस आत्मा का जो चिंतन मात्र भी करते हैं उनका जीवन प्रशंसनीय है और वे देवों द्वारा भी पूजित होते हैं।।६२।। साम्यभाव ही शांति का उपाय है।
श्लोकार्थ-जो सर्वज्ञदेव असंसारी हैं-ईषत्संसारी होने से जीवन्मुक्त भी कहलाते हैं, समीचीन ज्ञान-केवलज्ञानरूपी नेत्र से सहित हैं उन्होंने इस आत्मा की आराधना का उपाय एकमात्र समताभाव ही बतलाया है।।।६३। साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्त का निरोध और शुद्धोपयोग ये सब एकार्थवाचक ही हैं।।६४।। जहाँ पर न आकार है, न अक्षर है, न वर्ण है और न कोई विकल्प ही है किन्तु जहाँ केवल एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही प्रतिभाषित होता है वही साम्य शब्द से कहा जाता है।।६५।।
विशेषार्थ- जिस निर्विकल्प ध्यान में समचतुरस्र आदि संस्थान, अकार आदि अक्षर, कृष्ण, नील, शुक्ल आदि वर्ण और कोई भी विकल्प प्रतिभासित नहीं होते हैं केवल शुद्ध आत्मा ही अनुभव में आता है ऐसे शुद्धोपयोगी महामुनि के ही यह ‘साम्यभाव’ घटित होता है। यहाँ आचार्य ने स्वयं शुद्धोपयोग को भी साम्य का पर्यायवाची कहा है।
श्लोकार्थ-यह साम्यभाव ही एक उत्कृष्ट कार्य है-कत्र्तव्य है, यह समताभाव ही परम तत्त्व है और यह समताभाव ही मोक्ष के लिए संपूर्ण उपदेशों का उपदेश है अर्थात् सर्व शास्त्रों का सार है।।६६।। यह साम्यभाव समीचीन ज्ञान को उत्पन्न करने वाला है, यह शाश्वत आनंद का घर है, यही साम्यभाव शुद्धात्मा का स्वरूप है और वही साम्यभाव मोक्षरूपी एक अद्वितीय महल का द्वार है।।६७।। विद्वान महापुरुषों ने इस साम्यभाव को संपूर्ण शास्त्रों का ‘सार’ कहा है। यह साम्यभाव ही कर्मरूपी महावन को जलाने के लिए दावानल अग्नि के समान है।।६८।। इस साम्यभाव को शरणागत जनों के लिए शरण देने वाला है, योगियों के ध्यान का विषय है और बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह के निमित्त से उत्पन्न हुए समस्त दोषों को नष्ट करने वाला है।।६९।।
शुद्ध हंस आत्मा को नमस्कार
श्लोकार्थ-जो शुद्ध हंस आत्मा अणिमा, महिमा आदि कमलवन अर्थात् स्वर्ग की अभिलाषा से रहित है, साम्यभावरूपी सरोवर में स्नेह करने वाला-रहने वाला है, पवित्र है और मुक्तिरूपी हंसी की ओर दृष्टि रखने वाला-मुक्ति में आसक्त है ऐसे आत्मारूपी हंस को मेरा नमस्कार हो।। ७०।।
भावार्थ-हंस सरोवर में रहता है उसे उसमें इतना आनंद आता है कि वह स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करता है, शुचि-श्वेतवर्ण का होता है और हंसी की ओर अपनी दृष्टि रखता है। ऐसे ही यहाँ पर शुद्ध आत्मा को हंस बनाया है। यह शुद्धात्मा अणिमा आदि ऋद्धियों से सहित स्वर्ग की भी इच्छा नहीं रखता है क्योंकि इसकी मुक्तिरूपी हंसी में आसक्ति है, यह समताभाव में निवास करता है वही इसके लिए सरोवर है और यह शुचि-श्वेत अर्थात् कर्मरज से रहित होने से पवित्र है।
श्लोकार्थ-मृत्यु तापकारी होते हुये भी ज्ञानी मुनियों के लिए अमृत-मोक्ष का कारण है। जैसे कि इस संसार में कच्चे घड़े का परिपाक अमृत-पानी के संयोग का कारण है।।७१।।
भावार्थ-जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े को अवे की अग्नि में पकाया जाता है तभी उसमें पानी भरने पर ठंडा-ठंडा मिलता है। वैसे ही मृत्यु यद्यपि संसारी जीवों को दुखदायी है फिर भी ज्ञानी जनों को वह मोक्षसुख का कारण हो जाती है। यहां अमृत के दो अर्थ किए गये हैं अमृत-जहां मरण नहीं है ऐसा मोक्ष और अमृत-मरण से बचाने वाला जल।
श्लोकार्थ-मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल में जन्म, संपत्ति, बुद्धि और कृतज्ञता-किये हुए उपकार को मानना, ये सब सामग्री होकर भी विवेक के बिना कुछ भी कार्यकारी नहीं है।।७२।। चेतन और अचेतन ये दो भिन्न तत्त्व हैं। उन दोनों के भिन्न-भिन्न स्वरूप का विचार करना ही विवेक कहलाता है। इसीलिए हे आत्मन्! तुम ग्रहण करने योग्य चैतन्य आत्मा को ग्रहण करो और छोड़ने योग्य अचेतन पुद्गल द्रव्य को छोड़ो।।७३।। इस संसार में कुछ दु:ख है और कुछ सुख है ऐसा मूढ़ात्मा को मन में प्रतिभासित होता है किन्तु विवेकी-सम्यग्ज्ञानी जनों को तो इस संसार में सदा सर्व दु:ख ही दु:ख प्रतिभासित होता है।।७४।।
विशेषार्थ- दु:ख के शारीरिक, मानसिक और आगंतुक ऐसे तीन भेद हैं फिर तत्त्वज्ञानी को तो संसार में तो सदा दु:ख ही दु:ख प्रतिभासित होता है। वह एक तो जन्म-मरण की अपेक्षा है दूसरा मुख्यरूप से आकुलता लक्षण वाला है। कहा भी है-‘आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिये।’ वास्तव में अविवेकी प्राणी कभी इष्ट सामग्री के प्राप्त होने पर सुख का अनुभव करता है किन्तु विवेकी आत्मा चिंतन करता है-‘कल्पनामात्रमेवैतत् सुखं दु:खं च देहिनाम्’। संसारी प्राणियों के लिए ये सुख और दु:ख कल्पना मात्र ही हैं ऐसा समझना।
श्लोकार्थ-विवेकी मनुष्य को कर्म तथा उसके कार्य रागादि भाव ये सब छोड़ने योग्य हैं और उपयोगरूप-ज्ञान-दर्शन लक्षण वाली ऐसी उत्कृष्ट आत्मज्योति ही ग्रहण करने योग्य है।।७५।। ‘‘जो चैतन्य है वही मैं हूँ’’ वही चैतन्य आत्मा जानता है और वही देखता है। वही एक चैतन्य उत्कृष्ट है। मैं स्वभाव से उसी चैतन्य के साथ एकता को प्राप्त हूँ।।७६।। जो यह ‘एकत्वसप्तति’ रूपी आकाशगंगा ऊँचे श्री पद्मनन्दि आचार्यरूपी हिमालय पर्वत से उत्पन्न हुई है और यह मोक्षपदरूपी समुद्र में प्रविष्ट हुई है। इस गंगा में जो मनुष्य अवगाहन-स्नान कर सकता है वह मनुष्य परम विशुद्धि को प्राप्त होता है।।७७।। इस एकत्व भावना को श्री पद्मनंदि आचार्य ने अस्सी श्लोकों में कहा है। आचार्यश्री ने इस भावना को गंगानदी की उपमा दी है और स्वयं को ऊँचा हिमवान पर्वत बताया है। इस भावना से मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है अत: इस नदी को मोक्षसमुद्र में प्रवेश कराया है। जो मनुष्य इस एकत्व भावना को भाएंगे वे अतिशय परिणाम विशुद्धि को प्राप्त करेंगे। यह एकत्व भावना का उपदेश संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए पुल के समान है। जिन साधुओं ने इस उपदेश का आश्रय लिया है। उनके उत्तम समाधि की विधि की समीपता से निश्चलता को प्राप्त हुए अंतरंग में क्या मल का लवमात्र भी स्थान प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता।।७८।।
भावार्थ-यह एकत्व भावना संसार समुद्र से पार करने वाली है और सम्यक्त्व सहित समाधि-धर्मध्यान और शुक्लध्यान की सिद्धि कराने वाली है। इस भावना से निश्चल मन होता है और पापरूपी मल दूर हो जाता है, ऐसा यह इस एकत्वभावना का महत्त्व है।
श्लोकार्थ-आत्मा भिन्न है, उसका अनुसरण करने वाला कर्म मुझसे भिन्न है, आत्मा और कर्म के संबंध से जो विकार भाव उत्पन्न होता है वह भी उसी प्रकार भिन्न है तथा अन्य भी जो काल, क्षेत्र आदि हैं वे भी भिन्न ही हैं। अपने-अपने गुणों और कलाओं से अलंकृत ये सब भिन्न-भिन्न ही हैं।।७९।।
भावार्थ- निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा से कर्म भिन्न हैं अत: कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए रागादि भाव भी भिन्न ही हैं। इसी प्रकार अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि भी भिन्न ही हैं क्योंकि ये सभी अपने-अपने गुण पर्यायों से पृथक्-पृथक् ही हैं। वास्तव में निश्चयनय से न संसार है और न मोक्ष ही अत: निश्चयनय से आत्मा को शुद्ध समझकर पुन: व्यवहारनय से रत्नत्रय को ग्रहण कर आत्मा की शुद्ध शक्ति को व्यक्त करना चाहिए।
श्लोकार्थ-जो भव्य जीव इस आत्मतत्त्व का बार-बार अभ्यास करते हैं, उसका कथन करते हैं, पुन:-पुन: उसी आत्मतत्त्व का चिंतन करते हैं और उस आत्म तत्त्व की बार-बार भावना भाते हैं, वे शीघ्र ही अक्षय, परिपूर्ण, अनंत सुख से सहित और नवकेवललब्धिरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।।८०।।
भावार्थ-केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, अनंतवीर्य, क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिक-यथाख्यात चारित्र को नव केवललब्धि कहते हैं। जो महामुनि इस आत्मतत्त्व की भावना का पुन:-पुन: अभ्यास, कथन, चिंतन एवं भावना करते हैं वे परंपरा से सर्वगुण और सर्वसौख्य से परिपूर्ण मोक्षसुख को प्राप्त कर लेते हैं ऐसा नियम है।
एकत्वसप्तति अधिकार का सारांश
इस एकत्वसप्तति अधिकार में श्री पद्मनन्दि आचार्य ने आत्मा के चिच्चैतन्यस्वरूप एकत्व भाव का सुंदर विवेचन किया है। यह आत्मा शुद्धनिश्चयनय से परद्रव्यों से भिन्न है, एक है। इसमें सम्यक्त्व के लिए पांच लब्धियों का भी संक्षिप्त वर्णन है। इसमें श्लोक २२ में कहा है कि- योगी-महामुनि गुरु के उपदेश से, अभ्यास से और वैराग्य से उसी एक आत्मज्योति को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाते हैं। इस ‘योगी’ शब्द से यह स्पष्ट है कि इस एकत्व को प्राप्त करने वाले महामुनि ही हो सकते हैं न कि पंचसूना व गृहस्थाश्रम में पंâसे हुए गृहस्थ लोग। श्लोक ३० में मुमुक्षुभि: पद है,टीकाकार ने यहां मुमुक्षिभि:-मुनीश्वरै:लिखा है। इससे स्पष्ट है कि मुमुक्षु शब्द मुनीश्वरों के लिए ही आता है। श्लोक ४१ में कहा है-‘अप्रमत्तस्य योगिन:’ प्रमाद से रहित हुए मुनि का वही एक आत्मज्योति आचार है, वही आवश्यक क्रिया एवं स्वाध्याय है। यहां पर भी ‘अप्रमत्तस्य योगिन:’ पद से सप्तम गुणस्थानवर्ती ध्यानस्थ मुनि विवक्षित हैं। यहां ‘परं ज्योति’ स्वरूप आत्मज्योति को परमज्ञान आदि कहते हुए अनेक श्लोकों में उस आत्मज्योति को सभी गुणों में सिद्ध किया है। इसे ‘यन्त्रधारागृह’ रूप बर्प जैसा शीतल कहा है। टीकाकार ने ५३ वें श्लोक के ‘मुमुक्षव:’ का अर्थ ‘‘मुक्तिवाञ्छका: मुनय:’’ लिखा है एवं ५७ वें श्लोक में मनीषिण: शब्द का अर्थ भी ‘मुनय:’ कहा है। आगे ‘साम्य’ शब्द का विस्तार करते हुए कहा है- ‘साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चेतोनिरोधन और शुद्धोपयोग’ ये पर्यायवाची शब्द हैं। यह शुद्धोपयोग निर्विकल्प ध्यान में ही घटित होता है। यह निर्विकल्प ध्यान सप्तम गुणस्थान के सातिशय अप्रमत्त से शुरु होकर शुक्लध्यान में-आठवें, नवमें, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में होता है और यहाँ तक ही शुद्धोपयोग माना गया है। आगे ६९ वें श्लोक में स्वयं आचार्यश्री ने कहा है-‘साम्यं शरण्यमित्याहुर्योगिनां योगगोचरम्’ यह साम्य ही शरणभूत है और योगियों के योग-ध्यानगम्य है। आगे एक श्लोक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है-
’यहां संसार में कुछ दु:ख है और कुछ सुख है ऐसा मूढ़ात्मा के हृदय में प्रतिभासित होता है किन्तु संसार में हमेशा दु:ख ही दु:ख है ऐसा विवेकी-ज्ञानीजनों के हृदय में प्रतिभासित होता है। बचपन में इस श्लोक से मेरे हृदय में विवेक-सम्यग्ज्ञान का और वैराग्य का अंकुर उदित हुआ था। हमेशा इस श्लोक का चिंतन करती रहती थी। जब घर छोड़ा था तब भी यह श्लोक मस्तिष्क में घूमा करता था और आज भी यह श्लोक मुझे याद है मेरे स्मृतिपटल पर अंकित सा हो गया है। अधिक कहने से क्या ? इस एकत्वसप्तति अधिकार के एक-एक श्लोक भी अमूल्य हैं, ऐसा समझकर मुमुक्षुजनों को और संसार से भयभीत हुए सम्यग्दृष्टि श्रावकों को सदा इसका चिंतन, मनन, अभ्यास और पठन-पाठन करते रहना चाहिए। इसी एकत्वभावना से ही आत्मा को पर संबंध से छुटाकर शुद्ध बनाया जा सकता है।