एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्म-बन्धो, घोरं दु:खं भव-भव-गतो दुर्निवार: करोति।
तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेज्- जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:।।१।।
तर्ज-चन्दाप्रभु के दर्शन करने सोनागिरि को जाऊँगी…..
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
हे जिनसूर्य! मेरी आत्मा के, संग कर्म तन्मयता से।
बंधते रहते हैं अनादि से, दुख देते निर्दयता से।।
उनसे मुक्ती पाने हेतू, तेरी भक्ती करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जब ये दुर्निवार बन्धन भी तुम वन्दन से कटते हैं।
तब भौतिक संताप भला क्यों नहिं जीते जा सकते हैं।।
सब संताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
ज्योतीरूपं दुरित-निवहध्वान्त-विध्वंस-हेतुं, त्वामेवाहुर्जिनवर! चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ता:।
चेतोवासे भवसि च मम स्फार-मुद्भासमान- स्तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे।।२।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तत्त्वज्ञानि गणधर मुनि सब, चिरकाल से तुमको ध्याते हैं।
पाप तिमिर के नाश हेतु, तुमको ही ज्योति बताते हैं।।
तेरी दिव्यज्योति से प्रभुवर! अन्तस्तम को हरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
निज मानस में मैंने तुमको, अच्छी तरह बिठाया है।
पाप तिमिर बस इसीलिए, नहिं पास फटकने पाया है।।
सब संताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
आनन्दाश्रु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्, यश्चायेत त्वयि दृढ-मना: स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम्।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यान्- निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:।।३।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
अन्तर्मन का हर्ष अश्रु बन, जब आँखों से छलकता है।
वही समर्पण भक्तों की, शारीरिक व्याधि को हरता है।।
तन वामी की सभी व्याधियाँ, दूर मुझे अब करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जैसे मंत्रों से वामी के, सांप भी बाहर आते हैं।
वैसे ही प्रभु भक्ती से, तन रोग सभी भग जाते हैं।।
सब संताप निवारणहित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
प्रागेवेह त्रिदिव-भवनादेष्यता भव्यपुण्यात्, पृथ्वी-चव्रं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम्।
ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त-गेहं प्रविष्ट- स्तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि।।४।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भव्यों के पुण्योदय से, हे नाथ! धरा पर आते हो।
मातगर्भ में आने से, पहले हि रतन बरसाते हो।।
पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती, आगम का यह कहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
वैसे ही मम ध्यान द्वार से, हो प्रविष्ट मन में तन को।
व्याधिरहित कर दो सुवर्णमय, इसमें क्या आश्चर्य अहो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निर्निमित्तेन बन्धु- स्त्वय्येवासौ सकल-विषया शक्तिरप्रत्यनीका।
भक्ति-स्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:।।५।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नाथ! आप जग भर के अकारण, बन्धु सदा कहलाते हो।
सब पदार्थ के ज्ञाता बाधा रहित, सुखी कहलाते हो।।
अद्वितीय तुम शरण प्राप्त कर, शाश्वत सुखमय बनना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मेरी मनरूपी पवित्र, शय्या पर सदा निवास करो।
मुझमें संभव दुख समूह को, जिनवर! शीघ्र विनाश करो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा, प्राप्तैवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयूष-वापी।
तस्या मध्ये हिमकर-हिम-व्यूह-शीते नितान्तं, निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:।।६।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
स्वामिन्! मैंने काल अनादी से, जग में परिभ्रमण किया।
अब अमृतरसभरी बावड़ी, बड़े कष्ट से प्राप्त किया।।
स्याद्वाद नय कथा आपकी, मगन उसी में रहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
चन्द्रबिम्ब अरु बर्प से भी, शीतल जल भरा बावड़ी में।
उसमें कर स्नान मेरे, सारे दुख क्षय होंगे क्षण में।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं, हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे, श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति।।७।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
श्रीविहार से प्रभो! आपने, सारा जगत पवित्र किया।
तुम पदतल स्पर्श मात्र से, कमल सुगंधित स्वर्ण हुआ।।
लक्ष्मीगृह बन गया कमल, इस अतिशय का क्या कहना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मैंने तो सर्वांग से प्रभुवर, आपको है स्पर्श किया।
अत: सर्वकल्याणमयी, सुख को अब मैंने प्राप्त किया।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पात्र्या पिबन्तं, कर्मारण्यात्पुरुषमसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्।
त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं, क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति।।८।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
कर्मरूप वन से अनुपम, आनन्द धाम शिवपद पाया।
दुर्जय कामदेव का मद हर, विजयपताका लहराया।।
ऐसे हे जिन! तुमको लखकर, नेत्र सफल अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
भक्ति कटोरे से तव वचनामृत, का पान करें जो भी।
व्रूराकार रोग कण्टक, उनके नश जाते शीघ्र सभी।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न-मूर्ति- र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्ग:।
दृष्टिं प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां, प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:।।९।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
पाषाणों से निर्मित, मानस्तंभ इतर पत्थर सम है।
रत्नमयी होने पर भी, उसमें विशेषता ही कम है।।
उस विशेषता में केवल, प्रभु का अतिशय ही कहना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मान नष्ट होता है सबका, मानस्तंभ देखने से।
प्रभु सामीप्य बिना नहिं संभव, है यह मात्र निरखने से।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही, सद्य: पुंसां निरवधि-रुजा धूलिबन्धं धुनोति।
ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्ट- स्तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:।।१०।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तव तन पर्वत निकट से बहने, वाली वायु मनोहर से।
जन जन के बहुतेक रोग, नश जाते धूलि धरोहर से।।
उसी वायु से मुझे भी अपने, रोग नष्ट सब करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
जो जन तुम्हें ध्यान के द्वारा, हृदय कमल में धरते हैं।
इस जग में वे भव्योत्तम, लोकोपकार बहु करते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
जानासि त्वं मम भवे-भवे यच्च यादृक् च दु:खं, जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या, यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव! एव प्रमाणम्।।११।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भव भव में मैंने अगणित दुख, जो भी पाए हैं जिनवर!
आप जानते हैं सबको, जिनका सुमिरन भी है दुखकर।।
शस्त्र सदृश आघात पहुँचता, उसे याद नहिं करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
आप दयालू सबके स्वामी, अत: आप ढिग आया अब।
करना है जो करो आप ही, हो प्रमाण यह पाया अब।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
प्रापद्दैवं तव नुति-पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:, पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम्।
क: सन्देहो यदुपलभते वासव-श्री-प्रभुत्वं, जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्।।१२।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जीवन्धर ने इक कुत्ते को, णमोकार का मंत्र दिया।
मरण समय वह पापाचारी, सुन करके यक्षेन्द्र हुआ।।
मुझको भी तुम पद में नत हो, नाम तुम्हारा जपना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मणियों की माला से जो भी, नाममंत्र तुम जपते हैं।
इसमें नहिं संदेह कि वे, इन्द्रों का वैभव लभते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा, भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्।
शक्योद्धाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो, मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम्।।१३।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
शुद्ध ज्ञान निर्मल चरित्रयुत, जो नर तुमको ध्याते हैं।
अनवधि सुख की हेतु भक्ति, कुंजी को साथ में लाते हैं।
इस कुंजी से मुक्तिद्वार को, खोल सिद्धि को वरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
इस युक्ती के बिना मुमुक्षू, सुख का सार न तोल सवें।
महामोह मुद्रा से अंकित, दृढ़ कपाट नहिं खोल सवें।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
प्रच्छन्न: खल्वयमघमयैरन्धकारै: समन्तात्, पन्था मुत्ते: स्थपुटित-पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:।
तस्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी, यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती रत्न-दीप:।।१४।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
यह शिवपथ पापाधंकार से, ढका हुआ चौतरफा है।
दुखरूपी गड्ढों से है यह, विषम न मारग दिखता है।।
वहाँ पहुँचने हेतु मात्र प्रभु! तत्वज्ञान का शरणा है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
तव वाणी सम रत्न दीप का, यदि प्रकाश नहिं हो आगे।
तब न कोई नर चल सकता है, उस पथ पर आगे आगे।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
आत्म-ज्योतिर्निधि-रनवधि-द्र्रष्टुरानन्द-हेतु:, कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाज:, स्तोत्रैर्बंध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:।।१५।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
आत्मज्ञान की ज्योतिरूप, सम्पत्ति कर्म से आच्छादित।
मिथ्यात्वी को प्राप्त न हो यह, ज्ञानी होते आल्हादित।।
यही आत्म ज्योती अब मुझको, प्राप्त हृदय में करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
प्रकृति बंध आदिक कठोर, भूमी को भक्ति कुदाली से।
खोद खोद कर भव्य शीघ्र, हो जाते गुणमणि माली हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरे-रायता चामृताब्धे:, या देव! त्वत्पद-कमलयो: संगता भक्ति-गङ्गा
चेतस्तस्यां मम रुचि-वशादाप्लुतं क्षालितांह:, कल्माषं यद्भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:।।१६।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नय हिमगिरि से निकली तव, पदकमल भक्ति की गंगा है।
मुक्तिरूप सागर तक लम्बी, यह सच्ची शिवगंगा है।।
उसमें रुचिवश डूब डूब कर, स्वच्छ निजातम करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
इस भक्ति गंगा में नहाकर, पाप कालिमा धुलती है।
इसमें नहिं संदेह है कोई, मुक्ति इसी से मिलती है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद-सुख-त्वामनुध्यायतो मे, त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति-मभ्रेषरूपां, दोषात्मानोऽप्यभिमत-फलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति।।१७।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
निश्चल सुख को प्राप्त तुम्हारा, ध्यान हृदय को भाता है।
जो तुम हो मैं भी वह हूँ, यह भाव उपज ही जाता है।।
यद्यपि यह मिथ्या है फिर भी, मन सन्तुष्ट तो करना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
ऐसा चिन्तन भी अविनाशी, सुख को प्राप्त कराता है।
तव प्रसाद से क्योंकि सदोषी, भी इच्छित फल पाता है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
मिथ्यावादं मल-मपनुदन्सप्तभङ्गी-तरङ्गै- र्वागम्भोधि-र्भुवन-मखिलं देव! पर्येति यस्ते।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्-चेतसैवाचलेन, व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृतासेवया तृप्नुवन्ति।।१८।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
सप्तभंगमय अनेकान्त, लहरों का सागर लहराता।
तव वचनों के वारिधि से, मिथ्यात्व दुराग्रह नश जाता।।
परवस्तू में आत्मबुद्धि की, मिथ्या भ्रान्ती तजना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
मिथ्या एकान्तों का घेरा, सारे जग में फैला है।
उसे हटाने में समर्थ, बस तव वच सिन्धु अकेला है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:, शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां, तत्किं. भूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:।।१९।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जो स्वभाव से सुंदर नहिं, वे वस्त्राभरण पहनते हैं।
जो अयोग्य हैं विजय प्राप्ति में, शस्त्र ग्रहण वे करते हैं।।
मुझको स्वाभाविक आत्मिक, सौंदर्य प्राप्त अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
नाथ आप सर्वांग सुभग हो, शत्रु न जीत तुम्हें सकते।
वस्त्राभरण व शस्त्रों के, अतएव न तुम धारण करते।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते, तस्यैवेयं भव-लय-करी श्लाघ्यता-मातनोति।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धि-कान्ता-पतिस्त्वं, त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्।।२०।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
इन्द्र आपकी सेवा करता, इससे आप बड़े नहिं हैं।
किन्तु इन्द्र की सेवा उसके, लिए प्रशंसित जग में है।।
मुझको भव दुख नाश हेतु, अब तुम सेवा ही करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
तुम संसार जलधि से सबको, पार लगाने वाले हो।
सिद्धिप्रिया के पति त्रिभुवन-अधिपति सबके रखवाले हो।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
वृत्तिर्वाचामपर-सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:, स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टा- स्ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति।।२१।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नाथ! हमारी वाणी तो, सब अल्पज्ञों के ही सम है।
किन्तु आप तो अतुलनीय, तीनों लोकों में अनुपम हैं।।
स्तुति के उद्गार हमारे, फिर भी स्वीकृत करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
चाहे वचन न पहुँचे तुम तक, नाथ हमारी भक्ती के।
फिर भी इच्छित फल देंगे, क्योंकी भक्ती में शक्ती है।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
कोपावेशो न तव न तव क्वापि देव! प्रसादो, व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयै-वानपेक्षम्।
आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधि-र्वैर-हारी, क्वैवं भूतं भुवन-तिलकं प्राभवं त्वत्परेषु।।२२।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
नहीं किसी पर क्रोध आपको, नहीं किसी से प्रेम करें।
स्वार्थ रहित है चित्त आपका, केवल निज में नेह धरें।।
जग से उदासीन हो क्योंकी, आतम में बस रमना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
फिर भी जग आधीन आपकी, ही समीपता चाह रहा।
नहीं आपसे भिन्न किसी में, यह आकर्षण बांध रहा।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
देव! स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं, तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान-मूर्तिर्जनो य:।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था: तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मत्र्य:।।२३।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
जिनकी कीर्ति के गीत, देवियों का समूह भी गाता है।
सकल विषय के ज्ञाता जिनवर, का यश बढ़ता जाता है।।
मुझे आपकी धवल कीर्ति का, सुमिरन ही अब करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
ऐसे प्रभु के भक्त कभी, शिवपथ से नहीं भटकते हैं।
तत्त्वग्रंथ स्मरण विषय में, मूच्र्छित हो न अटकते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
चित्ते कुर्वन्निरवधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूपं, देव! त्वां य: समय-नियमादाऽऽदरेण स्तवीति।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृतिस्तावता पूरयित्वा, कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम्।।२४।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
तुम अनन्तसुख ज्ञान दर्श अरु, वीर्य चतुष्टय धारी हो।
तुमको मन में धारण करने-वाला नर अविकारी हो।।
तीनों कालों में प्रभु तुम प्रति, विनयभाव को धरना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
निश्चय ही स्तोता नर को, पंचकल्याणक मिलते हैं।
श्रेयोमार्ग प्राप्त करके वे, सिद्धिप्रिया से मिलते हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
भक्ति-प्रह्व-महेन्द्र-पूजित-पद! त्वत्कीर्तने न क्षमा: सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम्।
अस्माभि: स्तवन-च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम:।।२५।।
हे जिनेन्द्रप्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है।
मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।टेक.।।
भक्ति विनत इन्द्रों से पूजित, जिनवर पदयुग मनहारी।
उनके गुणकीर्तन में नहिं, सक्षम हैं सूक्ष्मज्ञानधारी।।
योगी भी नहिं हैं समर्थ यदि, तो मेरा क्या कहना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।१।।
फिर भी स्तुति के छल से, मम आदर भाव प्रदर्शित है।
हो कल्याणकल्पद्रुम तुम, हम आतम सुख के इच्छुक हैं।।
सब सन्ताप निवारण हित प्रभु! तुम पद वन्दन करना है।
मन मंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।२।।
वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्विक-सिंह:।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय:।।२६।।
वादिराज मुनि के चरणों में, शत शत वन्दन करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।टेक.।।
वादिराज मुनि शब्द अर्थ के, ज्ञाता तार्किक सिंह कहे।
वादिराज की काव्य कृती यह, सारे जग में अमर रहे।।
भव्यों पर उपकार हेतु, इस कृति को वन्दन करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।१।।
इस स्तोत्र से वादिराज, मुनिवर का रोग समाप्त हुआ।
तन मन की स्वस्थता हेतु, मैंने हिन्दी अनुवाद किया।।
आत्म स्वस्थता हेतु ‘‘चन्दनामती’’ वन्दना करना है।
एकीभाव स्तोत्र को पढ़कर, सर्वरोग को हरना है।।२।।