गाय का संरक्षण केवल उसके दूध और घी के लिए ही करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि गाय तो मनुष्य जाति की माँ है, क्योंकि उसकी दी हुई हर चीज इंसानों के लिए वरदान है। एक माँ अपने स्तन से जिस प्रकार बच्चे को दूध पिलाती है, उसी प्रकार गाय समस्त मानव जाति को दूध पिलाती है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह सिद्ध हो चुका है कि गाय का दूध पीने से मस्तिष्क बलवान बनता है, जिससे उसकी स्मरणशक्ति अधिक मजबूत बनती है। जिसका मन और मस्तिष्क स्वस्थ्य बनेगा वह हमेशा अल्लाह को याद करेगा इसीलिए मनुष्य समाज के विकास के लिए गाय का दूध एक मुनियादी जरूरत है। ऐसा लाभदायी पशु जो साक्षात् माता है, उसे मारना दुनिया का सबसे बड़ा पाप है। गाय के वध के मामले में अनेक फतवे समय—समय पर आये हैं, जिनमें गाय का मांस वर्जित घोषित किया गया है। परिस्थितिवश न तो उसे काटा जाए और न ही उसके मांस का भक्षण किया जाए। भारत में देवबंद, बरेली, फुलेरीशरीफ, लखनऊ और हैदराबाद जैसे उनके स्थानों में गाय को लेकर बहस उठती रही है, उनमें जो परिणाम सामने आये हैं वे गाय को नहीं काटने के पक्ष में आये हैं। गाय की सुरक्षा का पक्षधर जब इस्लाम है तो फिर भारतीय मुसलमानों को यह सवाल उठाना ही क्यों चाहिए ? मुसलमान स्वयं किसान हैं और गौ पालन का व्यवसाय करते हैं, इसलिए समझदारी का तकाजा यह है कि वह विवादास्पद मुद्दे को हमेशा—हमेशा के लिए समाप्त कर दें।
भारत सरकार यदि सम्पूर्ण देश में गौ वध पर पाबंदी लगा देती है तो मुसलमान निश्चित ही उसका स्वागत करेगा। देश के कानून की अवहेलना करने की सीख इस्लाम नहीं देता है। वास्तव में गाय की रक्षा के मामले में दोषी मुसलमान नहीं है, उससे भी अधिक दोषी भारत सरकार है, क्योंकि उसका लूला—लंगड़ा कानून और वोट बैंक की खुशामद इस मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है। कोई यह कह सकता है कि सरकार यदि गो वध पर पाबन्दी के लिए कड़े कानून नहीं बनाती तो इसमें कुर्बानी करने वाले का क्या दोष है ? लेकिन क्या सारे काम कानून के भय से ही होने चाहिए? अपनी आत्मा की आवाज पर हम स्वयु किसी जीव के वध पर नैतिक दायित्व के रूप में प्रतिबंध क्यों नहीं लगा सकते ? भारत में गाय और बैल का जो उपयोग होता है उसे देखते हुए स्वयं मुस्लिम ऐसा निर्णय लेंगे तो वह अधिक सुखद और स्थायी होगा। मुसलमान अपने गौ पालन के लिए मशहूर है। कई स्थानों पर गोशाला स्थापित करने में मुसलमानों ने सहयोग दिया है। सूफी संतों ने गायों को पाला है और गौभक्त होने का संदेश दिया है। नागपुर में ऐसे ही एक मुस्लिम संत और उनकी पत्नी गौशाला चलाया करते थे। ताजुउद्दीन बाबा सिद्ध गौ भक्त थे। उनके उर्दू कवियों ने गाय का गुणगान करते हुए कविताएँ लिखी हैं। हिन्दी में रसखान इसके लिए मशहूर हैं तो उर्दू में मेरठ के कवि मोहम्मद इस्माइल साहब प्रख्यात हैं जिनकी सरल और मधुर कविता को याद करके उर्दू कक्षाओं के विद्यार्थी गौ माता को यशोगान करते हैं। भारत के उपखण्ड का मुसलमान हर मामले में सउदी अरब को अपना आदर्श मानता है। क्या गाय के पालन के संबंध में भी वह ऐसा ही करना चाहेगा, भारत में गाय के प्रति एक विशेष प्रेम का कारण यह है कि गाय इस देश की माटी से जुड़ा हुआ प्राणी है।
कृषि प्रधान देश में गाय का वही महत्व है, अरबस्तान के लिए ऊँट का है। इसके बावजूद अरबी लोग गाय को इतना चाहते हैं और उसके लालन—पालन से कितना लाभ उठा रहे हैं। यह भारतीय मुसलमानों को जानने की आवश्यकता है। वास्तव में देखा जाए तो अलशफरीअ फार्म नहीं बल्कि गौ सेवा का एक जीवंत आंदोलन है। सउदी अरब के अलखिराज नामक स्थान पर जब सूर्य उदय होता है तो हजारों गायें एक विशाल शेड की छाया तले आकर शरण लेती हैं। यहाँ कम्प्यूटर द्वारा चढ़े तापक्रम पर नजर रखी जाती है उसके अनुसार गायों पर पानी की बौछारें बरसायी जाती हैं। शेड में स्वचालित पर्दे लगाये गये हैं। जिधर धूप होती है, पर्दे उसी दिशा में तन जाते हैं। धूप के आने से इन गायों को बड़ी राहत मिलती है। इस शेड के बाहर औसतन ४०० डिग्री सेल्सियम गीर्म होती है। ९०० मीटर लम्बे शेड में दर्जनों डेजर्ट वूâलर लगे हुए हैं। उक्त फार्म सउदी अरब की राजधानी रियाद से सौ किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है। इस फार्म को ‘अलशफीअ’ नाम दिया गया है। जिसका साधारण भाषा में अर्थ होता है ‘मेहरबान’ अर्थात् कृपालु। गाय के गुण के अनुसार ही उसका नाम है। वास्तव में यह पशु मानव जाति के कृपावंद है। गाय की सेवा के लिए यहाँ रात—दिन लगभग चौदह सौ आदमी काम करते हैं। यह फार्म अरबस्तान की शुष्क और बंजर जमीन पर बीस साल पूर्व स्थापित किया गया था। रेगिस्तान में जो कुछ कठिनाइयाँ होती हैं, उसका सामना करते हुए यह फार्म तैयार किया गया जो आज विश्व के अच्छे फार्म में गिना जाता है।
अलशफीअ फार्म में इस समय कुल छत्तीस हजार गायें हैं। इनमें पाँच हजार भारतीय नस्ल की हैं। भारतीय गायों का दूध सेवन करने वाला एक विशेष वर्ग है। रियाद स्थित परिवार में शाही परिवार में भारतीय गायों का चार सौ लीटर दूध जाता है। शेष मात्रा ऊँटनी के दूध की होती है। फार्म में जो भी अधिकारी काम करते हैं, उन्हें कोपेनहेगन अथवा न्यूजीलैंड की किसी डेयरी का पाँच साल का अनुभव होना अनिवार्य है। अलशफीअ फार्म ने लोगें के मन में यह विश्वास पैदा कर दिया है कि डेयरी का उद्योग भी एक लाभदायी उद्योग है। इस समय अलशफीअ फार्म की आयों से प्रतिवर्ष सोलह करोड़ पचास लाख का दूध निकाला जाता है। जो गायें दूध देना बंद कर देती हैं, उसका अलग से विभाग है। उसे कत्लखानें में नहीं बेचा जाता है बल्कि उसके गोमूत्र और गोबर का उपयोग खाद के रूप में होता है। मर जाने के बाद उसका चमड़ा निकाल लिया जाता है लेकिन उसके मांस एवं अन्य अवयवों को फार्म में दफन कर दिया जाता है। गायों को नहलाने से लेकर चराने तक में फार्म के कर्मचारी इस तरह से तल्लीन हो जाते हैं जैसा कि भारत के गोपाल कभी इन गायों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते थे।