इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमंत्रण और उपसपंत्।
इच्छाकार-सम्यग्दर्शन आदि इष्ट को हर्ष से स्वीकार करना। इसमें स्वेच्छा से प्रवृत्ति करना।
मिथ्याकार- अतिचारों के होने पर ‘यह अपराध मिथ्या हो’ ऐसा मैं फिर नहीं करूँगा। ऐसा कहना।
तथाकार- गुरु आदि से सूत्र का अर्थ सुनकर ‘यह सत्य है’ ऐसा कहना।
आसिका- रहने के स्थान, मंदिर-गुफा आदि से निकलते समय वहाँ के व्यंतर आदि देवों से पूछकर जाना।
निषेधिका- जिन मंदिर, निवास स्थान में प्रवेश करते समय नि:सही बोलते हुए वहाँ के व्यंतर आदि से पूछकर प्रवेश करना।
आपृच्छा- गुरु आदिकों से वंदनापूर्वक प्रश्न करना। आहार आदि के लिए जाते समय पूछना।
प्रतिपृच्छा-किसी बड़े कार्य के समय गुरु आदि से बार-बार पूछना।
छन्दन- उपकरण आदि के ग्रहण करने में या वन्दना आदि क्रिया में आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति करना।
सनिमंत्रण- गुर्वादि से विनयपूर्वक पुस्तकादि की याचना करना।
उपसंपत्- गुरुजनों के लिए ‘‘मैं आपका ही हूँ’’ ऐसा आत्मसमर्पण करना।