जया—क्यों बहन विजया! अब तो तुम ठीक हो न, कैसा स्वास्थ्य है तुम्हारा ?
विजया—क्या बताऊं…न जाने मैंने इस जन्म में किसी को सताया हो फिर भी भगवान पता नहीं क्यों मुझे ऐसा कठोर दण्ड दे रहा है ?
जया—नहीं, नहीं! ऐसा मत कहो विजया, भगवान कभी किसी को दण्ड नही देवा वह तो वीतरागी है। क्या तुम इस बात को नहीं जानती कि हर व्यक्ति अपने कर्मों का ही कर्ता और भोक्ता है। अरे… अंजना, चन्दना, और मैना इन सबके जीवन पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि कई भव पूर्व में बांधे गए कर्म उनकी इन पर्यायों मे फलित हुए थे।
विजया—तो अब मैं क्या करूँ ? कहाँ तक डाक्टर के चक्कर लगाती रहूँ ? घर की सारी सम्पत्ति भी मेरे पीछे स्वाहा हुई जा रही है। बहन! तुम्हीं कुछ उपाय बताओ मैं तो अब बहुत तंग आ गई हूं। मै सोचती हूं ऐसी जिन्दगी से तो मरना ही अच्छा है।
जया—अरे विजया, ऐसे गन्दे विचार तुम्हारे मन में क्यों आते हैं ?क्या तुम सोचती हो कि मर जाने से अगले जन्म में सुख मिल जायेगा ? सुनो विजया! मेरी समझ में आता है कि दवा के साथ-साथ तुम कुछ दूसरे बीमारों के लिए औषधिदान भी दिया करो तब दवा जल्दी लाभ करेगी।
विजया—अरे तुमने तो एक और खर्च का काम बढ़ा दिया। मुझे अपनी दवाई के लिए ही पैसा मिल पाना मुश्किल हो रहा है कहाँ तक दूसरों की दवाइयां करूंगी ?
जया—तुम ऐसा मत सोचो विजया! थोड़ा उदारता से काम लो केवल दवाई ही स्वास्थ्य को नहीं सुधारती बल्कि दवा के साथ दुआ भी काम करती है। देखो! मुझे एक उदाहरण याद आ गया कि एक लड़की ने एक मुनिराज के लिए थोड़ी सी औषधिदान रूप सेवा की थी सो अगले जन्म में उसको इतना निरोग शरीर प्राप्त हुआ कि उसके शरीर के स्नान के जल से ही लोगों के रोग दूर होने लगे।
विजया—क्या कभी ऐसा भी हो सकता है ? मुझे लगता है कि तुम मुझे सांत्वना देने के लिए ऐसी-ऐसी बातें कर रही हो।
जया—नहीं-नहीं, यह कोई कल्पना नहीं पौराणिक सत्य कथा है। सुनो, मै तुम्हें सुनाती हूँ- कावेरी नगरी में राजा उगसेन राज्य करते थे उसी नगर में एक धनपति नाम सेठ रहता था जिसकी पत्नी का नाम धनश्री था। पूर्व पुण्य के उदय से धनश्री ने एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम वृषभसेना रखा गया। वृषभसेना को धाय रूपवती हमेशा नहलाया धुलाया करती थी। इसके नहाने का जल बह-बह कर एक गड्ढे में जमा हो गया। एक दिन की बात है कि रूपवती वृषभसेना को नहला रही थी उसी समय एक महारोगी कुत्ता उस गड्डे में गिर पड़ा। क्या आश्चर्य की बात है कि जब वह कुत्ता उस पानी से बाहर निकला तो बिलकुल निरोगी हो गया।
विजया—यह तो मुझे बिलकुल ही बकवास लगता है। भला उस लड़की के स्नान के जल से कोई रोगी शरीर नीरोगी हो जावे तो अस्पतालों और डॉक्टर, वैद्यों की जरूरत ही नहीं रह जायेगी।
जया—हाँ, जैसे तुम्हें यह बात बकवास लगी वैसे ही रूपवती धाय को भी आश्चर्य हुआ था। उसने सोचा कि मैं इस पानी की और परीक्षा करके देखूंगी तभी दृढ़ विश्वास हो सकेगा कि क्या यह जल सचमुच ही रोगनाशक है ? यह सोचकर रूपवती वृषभसेना के स्नान के जल को लेकर अपनी माँ के पास आई। इसकी माँ की आँखें बारह वर्षों से खराब हो रही थीं इससे वह बड़ी दुखी थी। माँ की आंखों को रूपवती ने इस जल से धोकर साफ किया और देखा तो उनका रोग बिलकुल समाप्त हो गया, वे पहले से भी अधिक सुन्दर हो गर्इं।
विजया—अच्छा… तो मतलब वह बड़ी पुण्यशालिनी लड़की थी। फिर तो उन सेठजी के घर दिन भर रोगियों की भीड़ लगी रहती होगी ?
जया—पहले तो सेठ-सेठानी को किसी भी तरह का पता ही नहीं लगा। इस रोगनाशक जल के प्रभाव से रूपवती चारों ओर बड़ी प्रसिद्ध हो गई। आंख, पेट, सिर, कोढ़ यहां तक कि जहर सम्बन्धी समस्त रोगों को रूपवती केवल इसी स्नानजल से ठीक करने लगी। एक दिन सेठजी के कानों तक भी रूपवती की महिमा सुनाई पड़ी तब सेठ ने अपनी धाय से पूछा। धाय ने सारी सत्य घटना बता दी तब सेठ और सेठानी पुत्री की विशेषता से परिचित हुए।
विजया—फिर आगे क्या हुआ ? तुम्हारी कहानी सुनकर मुझे जैसे अपने शरीर में नीरोगता महसूस हो रही है।
जया—हाँ विजया! मैं इसीलिए तुम्हें उस औषधिदान को देने वाली कन्या की रोमांचक कहानी सुनाने बैठी हूँ। आगे सुनो— कावेरी नगरी के राजा उग्रसेन और मेघपिंगल राजा की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। एक बार दोनों राजाओं में युद्ध हुआ तब मेघपिंगल ने जहरीला शस्त्र उग्रसेन के ऊपर चला दिया जिससे उग्रसेन की तबियत काफी बिगड़ गई। जब किसी भी तरह उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ तो रूपवती के जल की चर्चा सुनकर उग्रसेन ने अपने आदमियों को शीघ्र ही सेठ के यहां जल लाने भेजा। अपनी लड़की का स्नान जल लेने को राजा के आदमियों का आया देख सेठानी को कुछ संकोच हुआ कि मेरी लड़की के स्नान का जल राजा के मस्तक पर छिड़कना उचित नहीं जान पड़ता किन्तु सेठ ने कहा कि इसमें अपने बस की क्या बात है ? दोनों ने विचार कर वृषभसेना के स्नान का जल लेकर रूपवती को उग्रसेन के महल पर भेजा। रूपवती ने उस जल को राजा के सिर पर छिड़ककर आराम कर दिया और उग्रसेन रोगमुक्त हो गये, उन्हें बहुत खुशी हुई। जानती हो विजया! फिर उग्रसेन ने रूपवती से जल का हाल पूछा। रूपवती ने कोई बात न छिपाकर सच्ची बात राजा से कह दी।
जया—क्यों विजया! एक लड़की के स्नान जल को अपने ऊपर छिड़का जानकर राजा को गुस्सा नहीं आया ?
विजया—इसमें गुस्से की क्या बात है ? यह तो उसके शरीर की विशेषता थी उसने जानबूझ कर कोई ढोंग तो रचा नहीं था बल्कि राजा ने तो सेठजी को अपने पास बुलाकर वृषभसेना के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। तब सेठ ने कहा—राजराजेश्वर! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है किन्तु इसके साथ ही आपको आष्टाह्निक पूजा महान उत्सवपूर्वक करनी होगी और जो पशु-पक्षी पिंजरे में बन्द हैं उनको तथ समस्त कैदियों को मुक्त करना होगा, तब मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ कर सकता हूँ। राजा ने तुरन्त धनपति सेठ की सभी बातें स्वीकार कर लीं और उसी समय उन्हें कार्य रूप में परिणत कर दिया। शुभ मुहूर्त में वृषभसेना का विवाह हो गया। राजा की समस्त रानियों में पट्टरानी बनने का सौभाग्य उसे ही प्राप्त हुआ। राजा उग्रसेन उसके प्रेमपाश में इतना बंध गये कि राजकीय कार्यों से बहुत कुछ सम्बन्ध कम कर दिया। पर जया, यह मत समझना कि वृषभसेना उन स्वर्ग सरीखे सुखों को भोगते हुए अपना सभी धर्म कर्म भूल गई होगी,वह तो प्रतिदिन प्प्रातःकाल मंदिर में अष्टद्रव्य से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करती,,चारों प्रकार के दान बाँटती, अपनी शक्ति के अनुसार व्रत,संयमादि का पालन करती और धर्मात्मा सत्पुरुषों की आदर-सत्कारपूर्वक वैयावृत्ति भी करती थी। इस प्रकार अपने गृहस्थोचित कर्तव्यों का पालन करती हुई वृषभसेना सुखपूर्वक जीवन यापन कर रही थी। उग्रसेन ने विवाह के समय समस्त कैदियों को मुक्त कर दिया था किन्तु उनका एक शत्रु बनारस का राजा पृथ्वीचंद भी कैद था, वह अधिक दुष्ट था इसीलिए उसे नहीं छोड़ा।
जया—अरे! राजा ने तो सेठ को वचन दिया था कि सभी कैदियों को छोड़ दूंगा फिर भी अपने वचन को नहीं निभाया ?
विजया—हाँ,यद्यपि उसे यह उचित नहीं था किन्तु इतने सारे कैदियों के छूट जाने पर किसी को पृथ्वीचन्द्र की याद भी नहीं आई और वह अपने कर्मों का फल भोगता हुआ जेल में ही बन्द रहा, पृथ्वीचन्द्र की पत्नी नारायणदत्ता ने अपने मंत्रियों की सलाह से कुछ युक्तियाँ प्रारम्भ कीं। सर्वप्रथम उसने बनारस में वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएं खुलवाई।
जया—ऐं….! बनारस की रानी ने अपने शत्रु की पत्नी के नाम दानशालाएं खोलीं, कैसी वित्रित बात लगती है।
विजया—हाँ, बात तो विचित्र ही है किन्तु आगे देखो तो सही, क्या होता है ? उसे तो अपने पति को राजा उग्रसेन की कैद से मुक्त कराना था।
जया—फिर आगे क्या हुआ ? कैसे उसका पति जेल से छूटा ?
विजया-अब तो हो गया है बहन! यह कथा मैं अगली बार सुनाऊँगी। अच्छा अब चलती हूँ।
जया—रुको तो सही, तुमने यह तो बताया ही नहीं कि उसने औषधि का दान कहाँ दिया।
विजया—यह बात भी मैं अगली बार बताऊंगी।