मथुरा का धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास अत्यन्त गौरवशाली रहा है। मथुरा को यह गौरव प्राप्त है कि यहां पर भारत के प्रायः सभी प्रमुख धर्म-सम्प्रदायों का विकास हुआ था और यहाँ की धार्मिक संस्कृति ने विभिन्न कालों में देश के अधिकांश भागों को प्रभावित किया था। मथुरा में वैदिक एवं बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म का भी महत्त्वपूर्ण विकास हुआ।
कंकाली टीले से प्राप्त जैनधर्म से संबंधित पुरातात्विक अवशेषों में स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान परिलक्षित होता है। कंकाली टीला मथुरा नगर के दक्षिण-पश्चिम में भूतेश्वर कासिंग एवं बी.एस.ए. कॉलेज के मध्य में स्थित है। यहाँ ककाली देवी का एक मंदिर स्थित है। दुर्गाजी का एक रूप कंकाली भी है अतः इसे कंकाली टीले को “जैनी टीला” भी कहा जाता है, क्योंकि कंकाली टीले के उत्खनन में असंख्य जैन पुरातत्त्व प्राप्त हुआ है। यह एक संरक्षित क्षेत्र है।’
डॉ. रिमय ने कंकाली टीले को १५०० सेमी. लम्बा तथा ५५०० सेमी चौड़ा बताया है। सन् १८७१ ई. में “आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया” के निदेशक जनरल ए. कनिंघम ने कंकाली टीले के पूर्वी भाग का उत्खनन कार्य करवाया तथा पुनः १८८१, १८०२ तथा १८८३ ई में भी उत्खनन कार्य किया गया जिसमें प्रचुर मात्रा में जैन सामग्री प्राप्त हुई ?
कालान्तर में ग्राउस, फ्यूरर एवं व्यूहलर महोदय ने भी उत्खनन कार्य करवाया। फलतः असंख्य पुरावशेष प्राप्त हुए। ककाली से प्राप्त जैन पुरातत्व में जैन समाज के विभिन्न वर्ग की स्त्रियों ने दान दिया है जिसे अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट किया जा सकता है। यह कला की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पक्ष है। स्त्रियों का योगदान विशेष उल्लेखनीय है।
कंकाली से प्राप्त एक शिलालेख में जो कि एक प्रतिमा के पादपृष्ठ पर उत्कीर्ण है, तथाकथित देवनिर्मित ‘बोदव स्तूप’ पर अर्हत नन्द्यावर्त प्रतिमा के प्रतिष्ठापित किये जाने का वर्णन है। जिस प्रकार धर्म चक्र के लिए उत्तरापथ और जीवन्त स्वामी की प्रतिमा के कारण कौशल को प्रसिद्धि प्राप्त हुई है, उसी प्रकार देव निर्मित स्तूप कारण कंकाली टीला भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध है।”
कंकाली टीले से जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएँ, जैन आयागपट्ट तोरण- शीर्ष स्तम, छत्र, स्तंभ शीर्ष, वेदिका स्तंभ, उष्णीष, तोरण- खरह, अभिलिखित चरण चौकी एवं अन्य कलाकृतियां प्राप्त हुई है।
शिवघोषा द्वारा निर्मित एक आयागपट्ट” प्राप्त हुआ है जो कि अभिलिखित है। लेख का अधिकांश माग भन्न है। इसमें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का अकन किया गया है। यह शुंग काल का है। तीर्थंकर के ऊपर सप्तकणों का छत्र निर्मित है और उस पर दो फूलों की मालाएँ दायें-बायें लटक रही है।
शुंगकालीन एक अन्य अभिलिखित आपागपट्ट के अनुसार अचला ने अहंतपूजा के लिए इसे स्थापित करवाया था। इसमें दोनों और खज एवं सिंह का अंकन किया गया है। दायीं और से सुख, स्वास्तिक उल्टा घट, कमल के कलियों का गुच्छा, फूल के साथ कल्पवृक्ष और पत्रों पर रखा हुआ फूलों का दोना बना हुआ है।
सबसे नीचे की पट्टी पर अष्टमांगलिक प्रतीकों का अंकन किया गया है, जिनका दायीं ओर से कम इस प्रकार है- खण्डित श्रीवत्स, स्वस्तिक, अर्थ विकसित कमल, मत्स्य युग्म जिनके मुंह में हार है, पात्र, निधि सहित पात्र, भद्रासन तथा त्रिरत्न का अंकन किया गया है। एक वृत्त के मध्य में लघुपीठिका बनाई गई है उस पर जिन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा के ऊपर छत्र निर्मित है। लेख में विराम के लिए श्रीवत्स का चिह्न अंकित है।
भगवान् आदिनाथ की कुषाण कालीन एक प्रतिमा प्राप्त हुई है”। यह प्रतिमा ध्यानमुद्रा में स्थित है। यह अभिलिखित है। लेख के अनुसार प्रतिमा की प्रतिष्ठा महाराज राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव के शासनकाल में स. ८४ अर्थात् १६२ ई. में कुमारदत्त की प्रेरणा से मट्टदत्त उगभिनक की पुत्रवधू ने स्थापित करवाई थी”। प्रतिमा का बाहु एवं मस्तक खण्डित है तथापि किनारीदार प्रभावत अधिकांश सुरक्षित है। वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है तथा हाथों और पैरों के तलुवों पर चक्क चिह्न उत्कीर्ण है। आसन पर एक स्तंभ के ऊपर धर्मचक्र का अंकन है। दस स्त्री-पुरुष पूजा कर रहे हैं, जिनमें से दो धर्मचक्र स्तंभ के निकट घुटना टेके हैं और अन्य खड़े हैं।
कंकाली टीले से एक अन्य अभिलिखित प्रतिमा प्राप्त हुई है।” चरण चौकी पर उपासकों एवं धर्मचक्र का अंकन किया गया है। अभिलेख के अनुसार वर्षमान की यह प्रतिमा कोयिगण के चरवृद्धि और सत्यसेन के परामर्श पर दमित की पुत्री ओसारिका ने १६२.ई. में स्थापित करवाई थी। कला की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।
मस्तक एवं भुजा रहित एक अन्य अभिलिखित प्रतिमा प्राप्त हुई है।” चरण- चौकी पर लेख अंकित है लेगा के अनुसार दिन की वधु कुटुम्बिनी ने कौट्टियगण के पवहक कुल की मशम शाखा के सैनिक मट्टिबल की प्रेरणा से १६८ ई. में प्रतिष्ठित करवाया था।
ब्राह्मी लिपि का एक शिलापट्ट ७२ संवत् का कंकाली टीले से प्राप्त हुआ है। लेख के अनुसार स्वामी महाक्षत्रप शोडास के राज्यकाल में जैन मुनि की शिष्या अमोहिनी ने एक जैन आयागपट्ट की स्थापना करवाई थी।
कुषाणकालीन तोरण-स्तंभों का शिल्पांकन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। एक अभिलिखित तोरण कंकाली टीले से प्राप्त हुआ है, जिसमे आदिका बस हस्तिनी द्वारा दान देने का वर्णन है
प्राचीन भारतीय जैन समाज में गणिकाओं एवं नर्तकों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। यह भी अभिलेखीय साक्ष्यों से प्रमाणित हो जाता है कि उन्हें भी जैन धर्मादि कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी और समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान भी प्राप्त था।
जैनागमों के युग तक राजतन्त्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत गणिकाएँ राजकीय वैभव का ही एक प्रमुख अंग बन गई।” जैन ग्रन्थों में वर्णित नगर गणिकाओं के बहुत से सुन्दर सन्निवेशों से शोभायमान रहते ये” राजप्रश्नीय सूत्र में जुवई शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि यद्यपि आज इस शब्द का प्रयोग वेश्या के लिए होने लगा है और समाज में उसे बहिष्कृत मानकर तिरस्कार, घृणा और हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है, लेकिन यह शब्द तत्कालीन समाज की एक संस्था का बोध कराता है, जो अपने कला, गुण और रूप सौन्दर्य के कारण राजा द्वारा सम्मानित थी। कलार्थी कला सीखने के लिए उससे प्रार्थना करते थे और उसका आदर करते थे।”
गणिकाएँ नगर की शोभा मानी जाती थी। राजा उन्हें राजधानी का रत्न समझता था। मुख्य नगरों अथवा राजधानियों में प्रधान गणिका के अधीनस्थ हजारों की संख्या में गणिकाएँ अपना जीवन यापन प्रतिष्ठापूर्वक करती थीं। गणिकाओं के आवास को सियागृह कहा गया है।”
मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि ये गणिकाएँ और नृत्यांगनाएँ न केवल जैन धर्म में आस्था रखती ची, अपितु जिन प्रतिमा और पूजापट्टों का दान भी करती थीं।
कंकाली टीले से एक अभिलिखित आवागपट्ट प्राप्त हुआ है।”
लेख के अनुसार लवणशोभिका की पुत्री (चित्र क्यू. २) वसु (नामक गणिका ने निग डा अर्हतायन में
एक मंदिर, सभाभवन, प्याऊ और एक शिलापट्ट दान में दिया था। इन पुरावशेषों की प्राप्ति से तत्कालीन बैत्यों की आकृति का अन लगाया जा सकता है
जैन स्थापत्य के क्षेत्र में इसका विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। इस आयागपट्ट पर सामने चार सोपान, तोरण, लटकती माला, तीन अरवल, सबसे ऊपर दोनों ओर मन्दिपाद एवं श्रीवत्स तोरण के दोनों और वेदिका स्तंभ, सूची एवं उष्णीष का अंकन प्राप्त होता है। साढ़े स्तंभों का अंकन दोनों और दृष्टव्य है जिनमें दापी और का भाग क्षतिग्रस्त है।
उष्णीष पर एक-एक नृत्यांगना त्रिभंग मुद्रा में एक-एक हाथ से स्तूप को उठाये हुए अंकित है। स्तूप के अंड भाग के बीच वेदिका स्तंभ का भाग दृष्टिगोचर होता है इस आयागपट्ट की प्राप्ति से यह विदित होता है कि प्राचीन युग में नर्तकियों भी धार्मिक कार्यों में महान योगदान देती थी।
एक महत्त्वपूर्ण स्तूप का शिल्पांकन खण्डित प्रस्तर आयागप पर किया गया है, जिसका नीचे का भाग ही सुरक्षित है यह महत्त्वपूर्ण अभिलिखित आयागपट्ट कुषाणकालीन है और कंकाली टीले की अनूठी देन है। यह अभिलिखित आयागपट्ट है।
लेख से ज्ञात होता है कि एक नर्तक की पत्नी शिवयशा ने अहंतों की पूजा के लिए दान में दिया था।” (चित्र जे. २५५) स्तूप की प्रमुख विशेषताएँ अन्य स्तूप के समान है परन्तु इसकी पीठिका की ऊंचाई कम है।
फलस्वरूप तोरण तक पहुँचने के लिए चार सीढ़ियों पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं। मुख्य स्तूप के दोनों ओर दो स्तंभ है तथा स्तूप के ऊंचे बेलनाकार शिखर की निम्न तलवेदी ही सुरक्षित है। कुशलता से उत्कीर्ण तोरण के वक्राकार सरदल के सिरे मुड़ी हुई पूछों वाले मकरों के समान दृष्टिगोचर होता है। दोनों और एक-एक स्त्री आकृति एवं एक-एक स्तंभ का अंकन किया गया है। स्तंभों तथा शिलाखण्डों के बीच में जातियाँ निर्मित है।
निचले सरदल के केन्द्रीय भाग से माला सहित एक कमलगुच्छ लटक रहा है।
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि कंकाली से प्राप्त जैन पुरातत्व में गृहस्थ स्वियों के साथ-साथ गणिकाओं एवं नर्तकियों ने मी दान दिया। अभिलेखीय साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन जैन समाज में सामान्य स्त्रियों के साथ-साथ गणिकाओं को स्वेच्छा से दान दे सकती थीं और उस पर अपना नाम एवं अपने परिवार के अन्य सदस्यों का नाम भी उत्कीर्ण करा सकती थीं।
१. मीतल, प्रभुदयाल, ब्रज के धर्म-संप्रदायों का इतिहास, पृ.१
२. रिमय, बी.ए., दि जैन स्तूप एण्ड अंदर एण्टीक्वीटीज ऑफ मथुरा, पृ.१, इलाहाबाद, १९०१
३. विज्ञप्ति सं. ७०६ एम.एस./ ११० एम. एस. १६२७
४. वार्षिक रिपोर्ट, भाग-३, पृ.१३, भाग-१७, पृ. १११
५. पूर्वोक्त
६. ग्राउस, एफ.एस., मथुरा-ए डिस्ट्रिक्ट मेमोआर. पृ.४०
७. एपिग्राफिया इण्डिका, भाग-१, पृ. २६३
८. पूर्वोक्त पृ ३७५, ३९७
९ . न्यूडर्स, लिस्ट ऑफ ब्राह्मी इन्स्क्रिप्शन्स, क्रमाक ४७
१०. हण्डीकी, के. के. यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर, पृ. ४१६
११. वृहत्कल्प भाग्य, ५१५३६
१२. राज्य संग्रहालय लखनऊ, सं. जे. २५३.
१३. पूर्वोक्त स. जे. २५२
१४. अ. नमो अरहंतानम् मदय शसव भद्रनदिस भयाये।