अपने अपने मार्ग पर सुचारू रूप से चलने के लिए प्रत्येक प्राणी को किसी न किसी आधार की आवश्यकता होती है। इसी आधार का दिग्दर्शन कराने हेतु उमास्वामी श्रावकाचार के अनुसार कुछ प्रकरण प्रस्तुत हैं— मुख्यरूप से संसार में मनुष्यों के लिए दो ही मार्ग बताये हैं—मुनिमार्ग एवं गृहस्थ मार्ग। साधु अवस्था को निवृत्ति मार्ग कहते हैं एवं गृहस्थ धर्म को प्रवृत्तिमार्ग कहते हैं। अनादिकाल से इस वसुन्धरा पर दोनों ही मार्ग प्रशस्त रूप में चले आ रहे हैं। यूं तो गृहस्थों को उनके कत्र्तव्य सिखाने हेतु अनेक श्रावकाचारों का निर्माण हुआ। जिनमें से आज भी ३६ प्रकार के श्रावकाचार उपलब्ध हैं। वर्तमान में श्री समन्तभद्राचार्य रचित मात्र एक रत्नकरण्डश्रावकाचार ही प्रचलित हुआ है जिसका स्वाध्याय मंदिरों में प्राय: श्रावक लोग करते हैं किन्तु यहाँ ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है, उमास्वामी श्रावकाचार पर, जिसे तत्त्वार्थसूत्र की रचना करने वाले आचार्यश्री उमास्वामी ने लिखा है इसमें जहाँ श्रावक के पूजा—पाठ आदि कत्र्तव्यों का वर्णन किया है वहीं उनके लिए कहा है कि आप अपना मकान बनवाते समय गृहचैत्यालय किस दिशा में कहाँ बनाएं? यद्यपि यह विषय वास्तुशास्त्र (शिल्पशास्त्र) का है किन्तु इस ग्रंथ में यह विषय ग्रंथ की उपयोगिता को बढ़ा देता है।
अर्थात् घर में प्रवेश करते समय जिस दिशा में अपना बायां अंग हो, घर के उसी भाग में चैत्यालय बनवाना चाहिए। जिस भूमि में हड्डी आदि किसी मलिन पदार्थ के रहने का संदेह न हो ऐसे स्थान में चैत्यालय बनवाना चाहिए। उस चैत्यालय में वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ होनी चाहिए। यदि वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ से कम होगी तो वह चैत्यालय बनवाने वाला अपनी संतति के साथ ही नीचता को प्राप्त होगा। इसी प्रकरण में वहाँ पर किस—किस दिशा में मुख करके भगवान् की पूजन करनी चाहिए। स्वयं स्नान, भोजन, दन्तधावन आदि किस दिशा में मुख करके करना, चाहिए यह सब दृष्टव्य है। इसी प्रकार गृहचैत्यालय में विराजमान करने वाली प्रतिमा का प्रमाण बताते हुए कहा है कि ११ अंगुल से अधिक ऊँची प्रतिमा गृह चैत्यालय में नहीं विराजमान करना चाहिए। एक, तीन, पांच, सात, नौ और ग्यारह अंगुल तक प्रमाण वाली प्रतिमाएँ गृहचैत्यालय के लिए श्रेष्ठ मानी गई हैं। यह प्रतिष्ठा ग्रंथ का विषय भी उमास्वामी आचार्य ने इसमें निहित करके अत्यन्त उपयोगी बना दिया है। श्रावकों के लिए एक जगह तो आचार्यश्री ने बहुत आवश्यक निर्देश देते हुए कहा है कि फटे, गले, मैले वस्त्र पहनकर दान, पूजन आदि नहीं करना चाहिए।
खण्डिते गलिते छिन्ने मलिने चैव वाससि।
दान पूजा जपो होम: स्वाध्यायो विफलं भवेत्।।३९।।
इस प्रकार कुल ४७६ श्लोकों में निबद्ध यह उमास्वामी श्रावकाचार श्रावकों की प्रत्येक क्रिया अपने में समाहित किए हुए हैं। जो कि विशेष रूप से स्वाध्याय के लिए उपयोगी है। पंथवाद के दुराग्रह से रहित ही इसका स्वाध्याय करने में विशेष उपलब्धि हो सकती है। यह श्रावकाचार ग्रंथ पं. श्री हलायुध द्वारा हिन्दी में अनुदित है तथा ग्रंथ के अन्त में परिशिष्ट में उन्होंने कुछ प्रतिष्ठा ग्रंथों के प्रमाण देते हुए जिन प्रतिमा निर्माण की प्रेरणा दी है जिसे पढ़कर सुडौल, समचतुरस्र आकार वाली प्रतिमाओं का निर्माण कराकर अतिशय पुण्य लाभ लेना चाहिए। इस ग्रंथ के परिशिष्ट में भगवान की प्रतिमाओं के अतिरिक्त श्रीदेवी, श्रुतदेवी और सर्वाण्हयक्ष की प्रतिमाओं का निर्माण करने का भी सप्रमाण निर्देश किया है। त्रिलोकसार ग्रंथ की गाथाओं पर पं. श्री टोडरमल जी द्वारा प्रस्तुत किए गए शंका समाधान भी दिए हैं। जैसा कि— प्रश्न—श्रीदेवी तो धनादिक रूप है और सरस्वती ये दोऊ लोक में उत्कृष्ट हैं तातें इनका देवांगना का आकार रूप प्रतिबिम्ब होई है। बहुरि दोऊ यक्ष विशेष भक्त हैं तातैं तिनके आकार हो हैं। (पंडित टोडरमल जी)। इस प्रकार श्रावकों के कत्र्तव्यों का सम्पूर्ण प्रकरण इस उमास्वामी श्रावकाचार में एक ही जगह प्राप्त हो जाता है अत: श्रावकों के लिए पठितव्य है।
अमितगति श्रावकाचार में वर्णित आचार संहिता
आचार्य अमितगति—आप माथुर संघ के प्रसिद्ध आचार्य देवसेन के शिष्य अमितगति नेमिषेण व उनके शिष्य माधवसेन के शिष्य थे। जैन इतिहास के मनीषी डॉ. ए. एन. उपाध्ये के अनुसार आप दशवीं शताब्दी की महान विभूति थे। पं. वैâलाशचन्द्र जी शास्त्री ने आपको आचार्य अमृतचन्द्र का निकट उत्तरवर्ती माना है। इनका अस्तित्व राजा मुञ्ज के राज्यकाल में सिद्ध होता है। आप बड़े प्रतापी, दूरदृष्टा और दृढ़ अनुशास्ता थे। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे तथा भाषा, व्याकरण, न्याय, अलंकार एवं आगम ज्ञान के धारी थे। आपकी कवित्व—साधना स्पृहणीय है। आप चारों अनुयोगों के उत्कृष्ट विद्वान थे। आपकी रचना शैली आचार्य गुणभद्र, चाणक्य एवं भतृहरि से मिलती है जिसमें स्थान—स्थान पर नीति—प्रधानता दृष्टिगोचर होती है। इनके वात्सल्यपूर्ण, सरस उद्बोधन में हितोपदेश की प्रधानता है। शब्दों का चयन बेजोड़ है। प्रवाह, सरलता, सुबोधता और हृदयग्राहकता उसके प्रधान गुण हैं। सूक्ष्म विषयों को भी क्लिष्ट शब्दावली से बचाकर सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में आचार्य अमितगति अति सफल सिद्ध हुए हैं। उन्होंने अपेक्षित किसी विषय को अछूता नहीं छोड़ा है। स्खलन नाममात्र को भी नहीं है। विषय प्रतिपादन सूक्ष्म रूप से करने में वे दक्ष हैं। वे स्पष्ट वक्ता के रूप में प्रकट होते हैं। उन्होंने विपुल मात्रा में जिनवाणी की सेवा की है। उनका व्यक्तित्व जैन वाङ्मय में सदैव प्रकाशित रहेगा। कृतियाँ—उनकी कृतियाँ निम्न हैं। १. पञ्चसंग्रह (संस्कृत) १—जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ४. साद्र्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. धर्मपरीक्षा, ७. सुभाषितरत्न सन्दोह , ८. भगवती आराधना (अनुवादरूप संस्कृत श्लोक) ९. सामायिक पाठ १०. योगसार, ११. अमितगति श्रावकाचार, जिसका परिचय यहाँ अभीष्ट है। अमितगति श्रावकाचार—सागर धर्म का निरूपण करने वाला यह विशालकाय ग्रंथराज है। प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य विशेष रूप से विद्वद्वर्ग का ध्यान इस ओर आर्किषत करने का है ताकि वे लेखन, प्रवचन आदि में इसका भरपूर उपयोग करने में सक्रिय हों। इस अद्भुत ग्रंथ के वृहदरूपेण प्रचार की महती आवश्यकता है। आचार्य अमितगति जैनेतर जनता में भृतहरि एवं चाणक्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ रूप में प्रचारित हो सकते हैं। इस विशाल ग्रंथ की श्लोक संख्या १४६४ है। कलेवर के आधार पर यह उत्कृष्ट श्रावकाचारों में एक हैं। सांगोपांग विषय विवेचन, सामयिक हितोपदेश एवं नीतिपरक भाषा में अपेक्षित मार्गदर्शन इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं। इसकी पं. भागचन्द्रकृत हिन्दी टीका भी देखने में आई है। यहाँ अधिकारों के क्रम से इस पर दृष्टिपात कराना अभीष्ट है। इससे विषय वस्तु का सामान्य दिग्दर्शन अति संक्षिप्त रूप में होगा। शोधार्थी अध्ययन हेतु आमन्त्रित हैं।
प्रथम परिच्छेद—श्लोक संख्या ७२। मंगलाचरण, ग्रंथ रचना की प्रतिज्ञा, धर्म की महिमा, नीति उपदेश, पुण्य की प्रेरणा, सम्यग्दर्शन व्रत चारित्र का कथन, समभाव। एक मधुर उदाहरण—
धर्मेण हीनं व्रत जीवितव्यं, न राजते चन्द्रमसा निशीथं।।१६।।
द्वितीय परिच्छेद—श्लोक संख्या ९०। विषय—सम्यक्त्व एवं तद् विषयक तत्वश्रद्धान् अनेकान्तप्रतिपादन, मिथ्यात्व के ७ भेदों—एकान्त संशय, विनय, गृहीत, विपरीत, निसर्ग (अगृहीत), मूढत्व (अज्ञान)। विवक्षाभेद से आचार्य श्री ने विशिष्ट वर्णन किया है। वे लिखते हैं—
इस अध्याय में करणानुयोग की दृष्टि से सम्यक्त्व उत्पत्ति का विशद विवेचन एवं सम्यक्त्व के कई दृष्टियों से भेदों का वर्णन है। मिथ्यात्व की निंदा एवं सम्यक्त्व की प्रशंसा सूचक निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं।
न मिथ्यात्वसम: शत्रुर्न मिथ्यात्व समं विषम्। न मिथ्यात्वसमो रोगो न मिथ्यात्वसमं तम:।।२८।।
तृतीय परिच्छेद—श्लोक संख्या—८६। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष का तत्वार्थसूत्रानुसार स्वतंत्र शैली में वर्णन सम्यक्त्व के अष्टांगों का वर्णन, सुरुचिपूर्ण शैली में परिलक्षित होता है। धर्मास्तिकाय की प्रबल निमित्त—कारणता का प्रतिपादन देखिये—
यह अध्याय द्रव्यानुयोग का सारांश ही प्रतीत होता है।
चतुर्थ परिच्छेद— श्लोक संख्या ९८। न्याय परिपाटी के अनुसर एकान्त पक्ष का निराकरण कर जीवादि पदार्थों का सहेतुक वर्णन। प्रमाण का भेद—प्रभेद सहित वर्णन। परोक्ष, प्रत्यक्ष प्रमाण सांख्यव्यवहारिक एवं परमार्थ प्रत्यक्ष, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान का विवेचन। परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद स्मृति, प्रतयभिज्ञान तर्क, आगम और अनुमान का स्वरूप स्वार्थानुमान, परार्थानुमान। परार्थानुमान के पांच भेद प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण एवं निगमन। एकान्त मतान्तरों का निरसन कर जैन न्याय की स्थापना। आचार्य अमितगति के श्रावकाचार में प्रयुक्त न्याय—पाण्डित्य दर्शनीय है। ब्रह्माद्वैत का निषेध रूप वचन देखिए—
नात्मासर्वागतो वाच्यस्ततस्वरूपविचारिभि:। शरीरव्यतिरेकेण येनासौ दृश्यते न हि।।२५।।
वेदों के अपौरुषेयवाद का निरसन दृष्टव्य है—
कृत्रिमेवप्यनेकेषु न कत्र्ता स्मर्यते यत:। कर्त स्मरमतो वेदों युक्तो नाकृतत्रिममस्तत:।।९०।।
पञ्चम परिच्छेद—श्लोक संख्या ७४। श्रावक के मूलगुणरूप व्रतों का वर्णन। तीन प्रकार मद्य, मांस मधु के साथ नवनीत त्याग, विस्तृत प्रभावक वर्णन, रात्रिभोजन त्याग का सयुक्तिक २८२ श्लोकों में वर्णन। पाँच उदम्बर फल त्याग का उपदेश। अभक्ष्य त्याग की प्रेरणा। रात्रि भोजन त्याग की प्रेरणास्वरूप एक छन्द देखिए :
ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयोस् तुल्यतां रचितपुण्यपापयो:। ते प्रकाशतमसो: समानतां दर्शयन्ति सुखङखकरिणो:।।५३।।
षष्ठम् परिच्छेद— श्लोक संख्या १००। गृहस्थ के १२ व्रतों का विवेचन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत। सर्वत्र अध्यात्म दृष्टि में हिंसा निरूपण के प्रकरण में आत्मा और शरीर के सर्वथाभेदवादियों (निश्चयक्रान्त) का निरसन
आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा गतिविवेगा:। कायवधे हन्त कथं तेषां सञ्चायते हिंसा।।२१।।
अहिंसा व्रत का ४१ श्लोकों में तर्कशैली में व्याख्यान। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय से अधिक सुस्पष्ट विवेचन में आप सफल सिद्ध होते हैं।
सप्तम परिच्छेद—श्लोक संख्या—६८। व्रतों की महिमा, व्रतों के ७० अतिचारों का वर्णन। (सम्यक्त्व और सल्लेखना सहित) शल्यों का निषेध। प्रशस्त अप्रशस्त निदानों का उल्लेख। कषायों का निषेध। मिथ्या शल्य का अध्यात्म ग्रंथों के अनुसार वर्णन। ११ प्रतिमाओं का स्वरूप। रागद्वेष की उत्पत्ति में कर्म की प्रबल
अष्टम परिच्छेद— श्लोक संख्या १०९। षट् आवश्यक (मुख्य रूप से उत्कृष्ट श्रावक के लिए) सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। इनका विस्तृत विश्लेषण। पदयोग्य विनय समाचार। वन्दना एवं कायोत्सर्ग के ३२-३२ दोष। आवश्यकों की विधि, यह विशिष्ट है।
नवम् परिच्छेद—श्लोक संख्या १०८। श्रावकों का चार प्रकार का मुख्य धर्म। १. दान, २. पूजा ३. शील, ४. उपवास। अन्य आचार्यों ने गृहस्थ के ६ आवश्यक देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान र्विणत किए हैं। आचार्य अमितगति ने अष्टम परिच्छेद में सामायिकादि छ: आवश्यक मुनि अथवा उत्कृष्ट श्रावक परक (क्षुल्लक ऐलक) लिखे हैं और उनको गौण रूप से प्रथम प्रतिमा के अभ्यास रूप में बताया है अत: नवम् अध्याय में ४ ही विवक्षा भेद से वर्णित है। तप—स्वाध्याय को ऊपर लिया है। नवम् अध्याय में दान—दाता पात्र आदि का विस्तृत विवेचन है। दान की महिमा देखिए—
शील की परिभाषा, शीलभंग के कारणभूत सप्त व्यसन त्याग का उपदेश, मौनव्रत पालने की प्रेरणा, मौन का विस्तृत वर्णन, बहुआयामी स्वरूप कथन, उसका विधि—विधान एवं फल, ३ प्रकार के उपवास का स्वरूप आदि का संग्रह।
त्रयोदश परिच्छेद—श्लोक संख्या १०१। सात प्रकार के उत्तम श्रावक , ४ प्रकार की विनय, भक्ति, तप, वैयावृत्य, प्रायश्चित, स्वाध्याय आदि का हृदयग्राही विवेचन इस परिच्छेद में निबद्ध है। २ स्थल प्रस्तुत हैं :
पञ्चदश परिच्छेद— २२४ श्लोकों में चतुर्विधध्यान का स्वरूप वर्णन, ध्यान—ध्याता—ध्येय—फल, पिडस्थ—पदस्थ—रूपस्थ—अरुपस्थ ध्यान का व्याख्यान। परमात्मा, अन्तरात्मा, बहिरात्मा का वर्णन। कषाय की विद्यमानता में ध्यान अशक्य, यह प्रतिपादन अवलोकनीय है।
इस अन्तिम अध्याय में समाधि का सुरुचिपूर्ण कथन किया गया है।
प्रशस्ति
इसमें ९ श्लोक हैं। इनमें आचार्य अमितगति ने अपनी गुरु परम्परा की है। यह इस प्रकार है। माथुर संघ में आचार्य देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमिषेण, माधवसेन व उनके शिष्य प्रकृत आचार्य अमितगति। उक्त प्रकार अमितगति श्रावकाचार पर एक दृष्टिपात किया गया है। ग्रंथ शोध्य एवं परिपूर्ण है। श्रावकाचार के बारे में जैन परम्परा में सर्वमान्य, प्रमाणिक एवं प्रथम पंक्ति का ग्रंथ आचार्य समन्तभद्र द्वारा लिखित ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ है। इस ग्रंथ के १५० श्लोकों में से ४१ श्लोक प्रथम अध्याय में हैं जिसमें सम्यग्दर्शन यानी सच्ची मान्यता (श्रद्धा) का वर्णन किया गया है। आज के वैज्ञानिक युग में तनाव से ग्रसित मन को तनाव से मुक्ति पाने हेतु आज के मनोवैज्ञानिक यह सुझाव देते हैं कि मनुष्य सृष्टि के सारे कार्यों का भार अपने ऊपर न समझे। इस ग्रंथ के श्लोक १—१२ में इसी बात का साधार विवरण आज से लगभग १८५० वर्ष पूर्व समन्तभद्राचार्य ने प्रदान किया था। इसी प्रकार तनाव के एक अन्य कारण अहंकार का श्लोक १-२५ द्वारा इस ग्रंथ में निराकरण हुआ है। मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचार—विचार से महान होता है। इस तथ्य को आचार्य ने श्लोक १-२८ में स्पष्ट शब्दों में बताया है। अंध विश्वासों पर श्लोक १-२२ में बहुत अच्छा प्रहार है। धर्म के नाम पर नदी और समुद्र में स्नान आदि करने को आचार्य ने मूर्खता कहा है। परस्पर एक-दूसरे के लिए सन्मार्ग में उपयोगी बनने हेतु श्लोक १-१५, १-१६ एवं १-१७ में समन्तभद्राचार्य ने बहुत ही अच्छे ढंग से प्रेरणा दी है। मिलावट एवं टैक्सचोरी के विरुद्ध श्लोक ३-५८ में आचार्य ने सावधान किया है तो शीलव्रत की प्रेरणा श्लोक ३-६० में देकर आचार्य ने शिष्यों का जीवन संवारा है एवं समाज को एड्स जैसी महामारी से भी बचाया है। अनावश्यक संग्रहवृत्ति को श्लोक ३-६२ में पाप बताकर आचार्य ने शांति का मार्ग प्रशस्त किया है। पानी को अब तक निर्मूल्य माना जाता रहा है। जल समस्या इस नये युग की समस्या है किन्तु आचार्य ने इस ग्रंथ के श्लोक ४-८० में पानी के दुरुपयोग को पाप बताकर समाज का बहुत पहले से ही उपकार सोचा है। तनाव से शांति पाने हेतु आज वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर चुके हैं कि स्थिर होकर ध्यान करने से शांति तो मिलती ही है ब्लडप्रेशर भी नियंत्रित होता है। आज के इस संदर्भ में श्लोक ५-९७ में वर्णित सामायिक की आवश्यकता स्पष्टत: प्रतिभासित होती है। कोलेस्ट्राल एवं हार्टअटैक की समस्या का एक बड़ा कारण अण्डे एवं मांस का सेवन है। इसे आज वैज्ञानिक मान रहे है। आचार्य ने श्लोक ३-६६ द्वारा इन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी है जिसका लाभ आज भी लाखों-लाखों नर-नारी उठा रहे हैं। जिसके सेवन से लाखों परिवारों की शांति नष्ट हो गई है, कई हत्याएं होती रहती हैं व कई तलाक हो रहे हैं व गर्भावस्था में शिशु का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है (गर्भावस्था में शराब हानिकारक है इस तथ्य को अमरीकी सरकार ने शराब की प्रत्येक बोतल पर १९८९ से छापना आवश्यक कर दिया है) ऐसे मद्यपान को भी छुड़ाने हेतु आचार्य ने श्लोक ३-६६ में इसे श्रावक के आठ मूलगुणों में गिनाकर हमारा अत्यन्त उपकार किया है। वस्तुत: श्रावक के १२ व्रत (५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत एवं ४ शिक्षाव्रत) जो इस ग्रंथ में वर्णित हुए हैं, उनकी महत्ता का वर्णन सैकड़ों पृष्ठों में भी संभव नहीं है। यहाँ तो कुछ ही उदाहरण संकेत के रूप में दिये हैं। एक तथ्य यह भी विचारणीय है कि आज भी वैज्ञानिक ज्ञान बहुत ही सीमित है। विज्ञान के विकास के साथ श्रावकाचार की महत्ता अधिक-अधिक प्रगट होती रहेगी। शाकाहार की महत्ता भी इन्हीं वर्षों में प्रगट हुई है। पिछले दशक में ही अमरीकन मेडीकल एसोसिएशन ने स्पष्टरूप से यह स्वीकारा है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से शाकाहार मांसाहार की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हैं। इन सबके साथ यह भी शुभ है कि आत्मद्रव्य की समझ एवं उसकी प्राप्ति का मार्ग कई उच्चकोटि के वैज्ञानिकों के चिन्तन के रुचिकर विषय इन वर्षों में बनते जा रहे हैं।