जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर की वसुंधरा रानी से ‘अपराजित’ नामक पुत्र एवं अनुमति रानी से अनन्तवीर्य पुत्र ऐसे बलदेव और नारायणपदवी धारक दो पुत्र उत्पन्न हुये। यौवन अवस्था में राजा ने इन दोनों का राज्याभिषेक करके आप दीक्षा ले ली। इनके यहाँ बर्वरी और चिलातिका नाम की दो नृत्यकारिणी थी। किसी दिन दोनों राजा उन दोनों का नृत्य देखते हुए, सुख से बैठे ही थे कि उसी समय नारद जी आ गये। दोनों भाई नृत्य की आसक्ति में नारद जी का आदर नहीं कर सके। कलह प्रेमी नारद उसी समय क्रोधित हुए और उठकर शिवमन्दिर नगर में राजा दमितारी के पास जाकर नर्तकियों के विषय में बोले कि राजन्! वे नर्तकियाँ तुम्हारे ही योग्य हैं। दमितारी ने दूत को नर्तकियों को लाने के लिये प्रभाकरी नगर में भेज दिया। वहाँ से वे दोनों राजा विचार-विमर्श कर स्वयं नर्तकी का वेश बनाकर आ गये। राजा दमितारी ने नर्तकियों के नृत्य से प्रसन्न हो आज्ञा दी कि तुम दोनों मेरी कन्या को नृत्य सिखला दो। किसी दिन दोनों नर्तकियों ने नृत्य करते हुए कन्या कनकश्री के सामने अनन्तवीर्य राजा के गुणरूप का अत्यधिक वर्णन किया और कन्या को आसक्त देख अपना रूप प्रकट कर उसे लेकर चले गये। राजा दमितारि ने यह घटना सुनते ही अपने योद्धागण भेजे, किन्तु दोनों ने सबको पराजित कर दिया। अनन्तर दमितारि ने स्वयं उन अपराजित और अनन्तवीर्य के साथ युद्ध करते हुए अपना चक्ररत्न चला दिया। अनन्तवीर्य के सामने आया हुआ चक्र उनकी प्रदक्षिण करके उनके पास ठहर गया, तब अनन्तवीर्य ने उसी चक्ररत्न से दमितारि को मार दिया।
युद्ध समाप्त कर जाते हुए
युद्ध समाप्त कर जाते हुए विमान से स्तंभित होने से दोनों राजा कनकश्री सहित नीचे उतरे और ‘कीर्तिधर’ जिनराज के समवसरण में पहँुचे। ये कीर्तिधर जिनराज कनकश्री के बाबा थे। सबने वन्दना-स्तुति के बाद उपदेश सुना, कनकश्री ने अपने निमित्त से अपने पिता की मृत्यु का कारण पूछा, जिनेन्द्रदेव ने बतलाया कि इसी भरतक्षेत्र में शंखनगर के देविल वैश्य की तू श्रीदत्ता कन्या थी। तू कपटी, लंगड़ी, टोंटी, बहरी, कानी, कुबड़ी और खाँजी ऐसी अपनी बहनों की सेवा किया करती थी। किसी समय सर्वयश मुनि की वन्दना करके तुमने अहिंसाव्रत लिया और धर्मचक्र नाम का उपवास ग्रहण किया। एक समय आर्यिका को तूने आहार दान दिया। उनका पहले दिन का उपवास होने से उन्हें वमन हो गया, जब तूने ग्लानि की। व्रत और दान के प्रभाव से तू स्वर्ग में देवी हुई और वहाँ से आकर अर्धचक्री प्रतिनारायण राजा दमितारि की पुत्री हुई है किन्तु आर्यिका से घृणा करने के निमित्त से तुझे यह दु:ख देखना पड़ा है, इसीलिये बुद्धिमान लोग साधु से कभी भी घृणा नहीं करते हैं। अनन्तर किसी समय कनकश्री के भाई सुघोष और विद्युदंष्ट को युद्ध में अनन्तवीर्य ने बाँध लिया है, यह सुनकर कनकश्री बहुत दु:खी हुई और पति से प्रार्थना करके दोनों भाईयों को बंधन से छुड़वाकर आप स्वयं विरक्त होकर स्वयंप्रभ तीर्थंकर के समवसरण में जाकर सुप्रभा नाम की गणिनी आर्यिका से आर्यिका दीक्षा लेकर सम्यक्त्व और तपश्चरण के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में देव पद प्राप्त कर लिया।