कर्मवाद भारतीय दर्शन का एक प्रतिष्ठित सिद्धांत है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। ‘‘ पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है। कर्मवाद मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। अत: कर्मशास्त्र को कर्म मनोविज्ञान ही कहना चाहिए।
कर्मवाद में
कर्मशास्त्र में शरीर— रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्व तक, बन्धन से लेकर मुक्ति तक—सभी विषयों पर गहन चिंतन और दर्शन मिलता है। यद्यपि कर्मशास्त्र के बड़े—बड़े ग्रन्थ उपलब्ध हैं, फिर भी हजारों वर्ष पुरानी पारिभाषिक शब्दावली को समझना स्वयं एक समस्या है।
मनोविज्ञान में
आज के मनोवैज्ञानिक मन की हर समस्या पर अध्ययन और विचार कर रहे हैं, जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियों ने अध्ययन और विचार किया, उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं।
समन्वय की भाषा— यदि मनोविज्ञान के सन्दर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो उसकी अनेक गुत्थियां सुलझ सकती हैं, अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती हैं। यदि कर्मशास्त्र के संदर्भ में मनोविज्ञान को पढ़ा जाए तो उसकी अपूर्णता को समझा जा सकता है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकते हैं।
कर्म के बीज— राग और द्वेष
भगवान् महावीर ने कहा है— ‘‘राग और द्वेष—ये दोनों कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है।
कर्म जन्म— मरण का मूल है। जन्म—मरण से दु:ख होता है।’’.
प्रीति और अप्रीति—राग और द्वेष
दो ही प्रकार की अनुभूतियां हैं, एक है प्रीत्यात्मक अनुभूति और दूसरी है अप्रीत्यात्मक अनुभूति। प्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को राग कहते हैं और अप्रीत्यात्मक अनुभूति संवेदना को द्वेष कहते हैं। पातंजल, योग दर्शन में कहा गया है—
‘‘सुखानुशयी राग:’’ सुख भोगने की इच्छा राग है।
‘‘दु:खानुशयी द्वेष:’’दु:ख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है, उसे द्वेष कहते हैं। राग का स्वरूप ‘‘इष्ट पदार्थों के प्रति रतिभाव को राग कहते हैं।’’
धवला में कहा है—‘‘माया, लोभ—वेदत्रय हास्य रतयो राग:’’. —माया, लोभ पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नंपुसकवेद (काम भाव), हास्य और रति—इनका नाम राग है। वाचकवर्य उमास्वाति ने लिखा है— ‘‘इच्छा, मूच्र्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग भाव के पर्यायवाची हैं।’’. चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ में माया और लोभ को राग की संज्ञा दी गई है। माया के पर्यायवाची शब्द
माया के निम्नलिखित नाम हैं—
१. माया— कपटाचार।
२. उपाधि— ठगने के उदृेश्य से व्यक्ति के पास जाना।
३. निवृत्ति— ठगने के लिए अधिक सम्मान देना।
४. वलय— वक्रतापूर्ण वचन।
५. गहन— ठगने के उदृेश्य से अत्यंत गूढ़ भाषण करना।
६. नूम— ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना।
७. कल्क— दूसरों को हिंसा के लिए उभारना
८. कुरुक— निन्दित व्यवहार करना।
९. दंभ— कपट।
१०.कूट—नााप— तौल में कम—ज्यादा देना।
११. जैह्म— कपट का काम।
१२. किल्विषिक— भाड़ों के समान चेष्टा करना।
१३. अनाचरण— अनिच्छित कार्य भी अपनाना।
१४.गूहन— अपनी करतूत को छिपाने की करतूत करना।
१५. वंचन— ठगी।
१६. प्रतिकुंचना— किसी के सरल रूप से कहे हुए वचनों का खंडन करना।
१७. साचियोग— उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। ये सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएं हैं। लोभ
लोभ के पर्यायवाची नाम इस प्रकार हैं—
१. लोभ — संग्रह करने की वृत्ति।
२. इच्छा — अभिलाषा।
३. मूच्र्छा — तीव्र संग्रहवृत्ति
४. कांक्षा — प्राप्त करने की आशा।
५. गृद्धि — आसक्ति।
६. तृष्णा — जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति।
७. मिथ्या — विषयों का ध्यान।
८. अभिध्या — निश्चय में डिग जाना या चंचलता।
९. कामाशा — काम की इच्छा।
१०. भोगाशा — भोग्य पदार्थों की इच्छा
११. जीविताशा — जीवन की कामना।
१२. मरणाशा — मरने की कामना।
१३. नंदी — प्राप्त संपत्ति में अनुराग।
१४. राग —इष्ट वस्तु प्राप्ति की इच्छा। द्वेष का स्वरूप
‘‘अनिष्ट विषयों में अप्रीति रखना ही मोह का एक भेद है, उसे द्वेष कहते हैं।’’
‘‘असंह्यजनों में तथा पदार्थों के समूह में बैर के परिणाम रखना द्वेष कहलाता है’’
धवला मेंं बताया गया है—क्रोध, मान, अरति, शोक, भय व जुगुप्सा
ये छह कषाय द्वेषस्य है।‘‘ईष्र्या, रोष, दोष, द्वेष, परिवाद, मत्स्र, असया वैर एवं प्रचंडनआदि द्वेष भाव के पर्यायवाची हैं।
वाचकवर्य उमास्वाति ने द्वेष के निम्नलिखित नाम बताए हैं।
चार कषायों क्रोध, मान, माया और लोभ में क्रोध और मान को द्वेष की संज्ञा दी गई है।
क्रोधसमवायांग में क्रोध के निम्नलिखित नाम दिए गए हैं—
१. क्रोध — आवेग की उत्तेजनात्म अवस्था।
२. कोप — क्रोध से उत्पन् न स्वभाव की चंचलता।
३. रोष — क्रोध का परिस्फुट रूप।
४. अक्षमा — अपराध क्षमा न करना।
५. संज्वलन — जलन या ईष्या की भावना।
६. कलह — अनुचित भाषण करना
७. चांडिक्य — उग्र रूप धारण करना।
८. भंडन — हाथापाई करने पर उतारू होना।
९. विवाद — आक्षेपात्मक भाषण करना दोष—स्वयं या दूसरे पर दोष थोपना। मान
जैन—जगत् में मान के अष्ठ भेद हैं—
इन्हें आठ मद भी कहा जाता है—
१. जाति,
२. कुल,
३. बल (शक्ति),
४. ऐश्वर्य, ५.बुद्धि
६. ज्ञान (सूत्रों का ज्ञान),
७.सौन्दर्य
८. अधिकार मान के निम्नलिखित पर्यायवाची हैं—
१. मान— अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति।
२. मद — अहंभाव में तनमयता।
३. दर्प — उत्तेजनापूर्ण अहं भाव।
४. स्तंभ — अविनम्रता।
५. आत्मोकर्ष — अपने को दूसरे से श्रेष्ठ करना मानना।
६. गर्व —अहंकार।
७. परपरिवाद —परनिन्दा।
८. उत्कर्ष — अपना ऐश्वर्य प्रकट करना।
९. उन्नत — दूसरोें को छोटा मानना।
१० उन्नाय — गुणीं के सामने न झुकना।
११.पुर्नाम —यथोचित रूप से न झुकना
संवेगों— भावों का मनोवैज्ञानिक वर्गीकरणमनोवैज्ञानिक राबर्ट बुडवर्थ ने कहा है— ‘‘यह एक महत्वपूर्ण बात है कि विभिन्न भावों और भावधाराओं के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। एक ही शब्द के सैकड़ों पर्यायवाची—समानार्थक शब्दों की खोज करना कोई बड़ा कार्य नहीं हैं।
‘‘मैं …..अनुभव करता हूं’’ इस वाक्य को पूरा करने वाले ये शब्द हैं— सुख — आनन्द, हर्ष, प्रसन्नता, गर्व, उल्लास, दु:ख — असंतुष्टि शोक, उदासी, अप्रसन्नता, खिन्न, प्रमोद — मनोविनोद, आमोद, उत्तेजना — हलचल, शान्त — संतुष्टि, स्तब्धता, रुचि शून्यता, परिश्रान्त, आशा — उत्कंठा, मनोरथ, आश्वासन, उत्साह, संशय — लज्जा, व्याकुलता, आकुलता, चिन्ता, भय — त्रास उद्धेग, भयंकर, भयातुर, विस्मय — आश्चर्य, अदभुत, अनोखा, अचंभा, इच्छा — अभिलाषा, लालसा, कामना, प्रेम (राग), पराङ मुखता — अरुचि, घृणा, अनिच्छुकता, क्रोध — द्वेष, कोप, उद्विग्न, रोष, कलह,उपर्युक्त सूची में प्रत्येक वर्ग का पहला शब्द उस वर्ग के सारांश को व्यक्त करता है। इनसे बड़े या छोटे अन्य वर्गीकरण भी किए जा सकते हैंं।
२० दो मुख्य वर्गो— राग और द्वेष में सभी भावों का समावेश हो जाता है।
शत्रुता का कारण—राग—द्बेष
शिष्य बोला— गुरूदेव! एक ओर तो आप इन्द्रियों को परम उपयोगी बता रहे हैं और दूसरी तरफ उन्हें शत्रु कहा जा रहा है।
आचार्य ने कहा—
आविष्टानि यदा तानि, रागद्वेष प्रभावत:।
तदा तानि विपक्षाणि, नेतराणि महामते।।
महामति शिष्य! इन्द्रियां जब राग — द्वेष के प्रभाव से आविष्ट होती हैं, तभी शत्रु कहलाती हैं।
राग— द्बेष मुक्त इन्द्रियां शत्रु नहीं हैं। ‘‘जब गंगा के निर्मल पानी में फैक्ट्रियों का दूषित कचरा मिलता है तो वह पानी भी जरा दूषित हो जाता है।
इन्द्रियों—ज्ञान की निर्मल— धारा में राग और द्वेष का कचरा मिल जाता है, उस अवस्था में वे शत्रु बन जाती हैं। यह बात अध्यात्म की भूमिका पर कही जा सकती है। इन्द्रियां एक साधक के लिए अहितकर भी है और शत्रुता का काम भी करती है। जब इनमें मूच्र्छा का मिश्रण हो जाता हैं, तब अध्यात्म विकास में बाधक उत्पन्न हो जाती है। जब मोह की गंदी नाली इन्द्रियों के साथ जुड जाती हैं, इन्द्रियां इस से आविष्ट हो जाती हैं, तब वे चित्त की निर्मल धारा को कलुषित कर देती हैं’’। राग—द्बेष—क्रोध—मान—माया—लोभ पर विजय
भगवान् महावीर ने क्रोध, मान माया, लोभ पर विजय पाने का एक सूत्र २२ दिया है—
‘‘उपसम (क्षमा) भाव से क्रोध को जीतना चाहिए।
मार्दव विनम्रता से अभिमान को जीतना चाहिए’’।
आर्जव सरलता से भावा से माया को जीतो और संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करनी चाहिए।’’ महषि पंतजलि ने कहा है ‘‘वितर्क बाधने प्रतिप भावनम् ‘‘एक पक्ष को तोड़ना है तो प्रतिपक्षी भावना को उत्पन्न करो।
क्रोध की प्रतिपक्षी भावना है— क्षमा अत: क्रोध—मान—माया—लोभ के भावों को इनके प्रतिपक्षी क्षमा, विनम्रता, ऋजुता तथा सन्तोष के भावों से शान्त किया जा सकता है।
परिवर्तन का मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त
मनो वैज्ञानिक का मत है कि मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन से व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है। चार पद्धितयों द्वारा यह परिवर्तन संभव है—
१. अवदमन— (REPRESSION)
२. विलयन (INHIBITION)
३. मार्गान्तरीकरण (REDIRECTION)
४. शोधन (SUBLIMATION) विलयन पद्धति के अन्तर्गत दो साधन हैं—
१. निरोध और २. विरोध
‘‘दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों को साथ ही उत्तेजित कर देने से मूलप्रवृत्तियों में परिवर्तन लाया जा सकता है। काम—प्रवृत्ति के उत्तेजित होने के समय यदि भय अथवा क्रोध उत्पन्न कर दिया जाए तो कामभावना ठंडी पड़ जाएगी। संग्रह—प्रवृत्ति त्याग भावना से शान्त की जा सकती है। अत: पातंजल योग दर्शन की प्रतिपक्ष की भावना, जैनागम के क्रोधादि भावों को उपशम(क्षमा) आदि से शांत करना तथा मनोवैज्ञानिक का विलयन (विरोधन) के सिद्धान्त में आश्चर्य कारी साम्य—समानता है। अत: यह समन्वयात्मक ज्ञान आत्म—विकास के लिए परम हितकर है। जिसका अध्ययन अपेक्षित है।
सन्दर्भ
१. कर्मवाद, युवाचार्य महाप्रज्ञ, पृष्ठ—२३५।
२. कर्मवाद, कर्मशास्त्र मनोविज्ञान की भाषा में।
३.उत्तराध्ययन, ३२.७।
रागो या दोसो निय कम्मवीथं, कम्मंच मोहप्पभवं वयंति।
किब्बिसिए आणायरणया गुहगया वंचणया पलिकुंचण या सातिजोगे।
११. समवाओं, ५२:। —
लोभे इच्छा मुच्छा कंरवा गेही जिण्हा भिज्जा अभिज्जा,
कामसा, भोगासा, जीवियासा मरणासा नंदी रागे।
१२. (क) प्रवसनसार/त—प्र/८५: —
मोहम—अनभिष्ट विषयाप्रीत्याद्वेष मिति।
(ख) सर्वार्ससिद्धि/आ/५१:—अप्रीतिरूपो द्वेष:
१३.नियमसार, तात्पर्य वृत्ति/६६:—
असहयजनेषु वापि चासहय पदार्थ
सार्थेषु वा वैरास्य परिणामो द्वेष:
१४.धवला १२/४,२,८/ ८/२८३/८
१५.प्रशमरति, १९, उमास्वाति—
ईष्या, रोषो, दोष: द्वेष परिवाद मत्सरासूया:।
वैर प्रचंडनाद्या नैके द्वेषस्य पर्याया: ।।१९।।
१६.ठाणांग—२.४.९६ १७. समवायांग, ५२: —
कोहे, कोवे, रोसे, दोसे अखमा,संजलणे,
कलहे, चंडिक्के भंडणे विवाए।
१८.समवाओ, ५२: —
माणे, मदे दप्पे, थंभे, अत्तुक्कोसे, गव्वे,
परपरिवाए, उक्कोसे, उन्नए, उन्नामे।
१९. Psychology: A study of Mental life Feeling abd Emotion- P.334 Robert S. Woodworth & Donald G. Marquis- Methuen & Co. Lodon: It is remarkable how many words there are in common use for various feelings. it would be no great task to find a hundred words, same of them, no doubt, synonmous to complete the senten, I feel……… Here are a few names of feelings and emotions, roughly grouped in to classes. Pleasure-happiness, joy, delight, elation, raptoore. Displeasure- discontent grief, sadness] sorrow, dejection. Mirth-amuserment hilarity. Excitement – Agitation. Calm-contentiment, munbress, apathy weariness. Expectancy- eagerness, hopen, assuance, courage. Doubt-shyness,embrasment, anxiety, worry. Dread- fear, fright, terror, horror. Surprise- amazement, wonder, relief, disappointment. Desire- disgust, longing, yearning love. Aversion- dishust, Roathing, nat e. Anger- resentment indignation, sullenness, rage, fray.
२०. The first word in each class is intended to give the keynote of the class. other classification could be made broader or narrpwer. Two broad classes pleasant and unpleasant would incloude most of the feelings.