जीवतत्त्व को प्रभावित करने वाली किसी एक सत्ता को सभी आस्तिक दर्शन स्वीकारते हैं; क्योंकि इसे स्वीकारे बिना जीवों में दिखने वाली विषमता, विविधता तथा विभिन्न कालों में घटित होने वाली विभिन्न अवस्थाओं के बीच सामन्जस्य हो पाना किसी भी प्रकार संभव नहीं है सभी जीव जब स्वभावत: समान है, तो फिर उनमें परस्पर वैमनस्य क्यों है ? कोई निर्धन है, कोई काला है तो कोई गोरा है, कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप है, कोई ज्ञानी है तो अज्ञानी है, कोई मनुष्य है तो कोई पशु है इत्यादि। इसी तरह यदि यह जीव अमूर्त है तो देह के कारागृह में क्यों कैद है ? इन सारे प्रश्नों का समाधान किसी जीव—प्रभावक सत्ता को स्वीकारे/ माने बिना संभव नहीं है। उस सत्ता को वेदान्त दर्शन में ‘माया’ सांख्यदर्शन में ‘प्रकृति ’, वैशेषिक दर्शन में ‘‘अदृष्ट’’ और जैनदर्शन में ‘‘कर्म’’ कहा गया है।
वस्तुत: यह सारा संसार कर्मों की ही विचित्र लीला/ क्रीड़ा है ; क्योंकि संसार की समस्त क्रियाओं का आधार ये कर्म ही हैं। जैनागमों में कर्म और कर्मसिद्धांत का मौलिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से बड़ा सूक्ष्म तथा विस्तृत विवेचन है। इसकी विस्तृत सांगोपांग विवेचना से जैनदर्शन की वैज्ञानिकता, श्रेष्ठता सिद्ध और पुष्ट होने के साथ ही साथ प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता तथा कर्मठता भी प्रमाणित होती है। यह सिद्धान्त वैज्ञानिक तात्त्विक तथा तार्किक दृष्टियों से व्यक्ति के आचरण और अध्यात्म की और उसमें विद्यमान उसके व्यवहार की कार्य— कारण—लक्ष्यी मीमांसा करता है। जीव के साथ बँधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्धों की बड़ी सूक्ष्म विवेचना करता है। अत: इसका परिज्ञान और पारायण एक ओर हमें कर्मों की शक्ति का बोध कराता है। तो दूसरी ओर इस अनादिकालीन कर्मचक्र को तोड़ने—भेदने का उचित उपाय भी बतलाता है। इस दृष्टि से जैनाभिमत यह कर्मवाद किसी को भी भाग्यवादी बनाकर निराश और अकर्मण्य नहीं करता, अपितु आत्महितकारी श्रेष्ठ पुरूषार्थ करने की पावन प्रेरणा ही देता है। यह व्यक्ति को विद्यमान विपदाओं बाधाओं और कठिनाईयों को समताभावों के साथ सहने की अपूर्व शक्ति देकर भावी जीवन को तथा भविष्य की पर्याय को सुधारने का शुभ—संदेश भी देता है।
कर्म स्वरूप मीमांसा
‘कर्म’— शब्द के अनेक अर्थ हैं— (१) कर्मकारक (२) क्रिया तथा (३) जीव के साथ बंधने वाले पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप परिणत इन पुद्गल—स्कन्धों का विशेष रूप से प्ररूपण केवल जैनदर्शन ही करता है। वास्तव में ‘कर्म’ का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। मन—वचन—काय के द्वारा यह जीव कुछ न कुछ करता है, वह सब उसकी क्रिया या कर्म है। यह ‘‘योगक्रिया’’ कहलाती है, जो परिस्पन्द रूप से प्रतिसमय होती है। मन—वचन—काय ये तीनों उसके द्वारा हैं। इसे जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं। इसी के निमित्त से जो पुद्गल—स्कन्ध आकर ज्ञानावरण आदि भाव को प्राप्त होते हैं, वे ‘द्रव्यकर्म’ कहे जाते हैं। भावकर्म (जीवकर्म) को प्राय: सभी स्वीकार करते हैं, परन्तु भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल—स्कन्ध जीव—प्रदेशों में प्रवेश कर उसके साथ बंधते हैं’ — यह तथ्य केवल जैनागम ही बताता है। यही सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध अजीवकर्म या द्रव्यकर्म’ कहलाते हैं। ये रूप —रस—गंध —स्पर्श के धारी—मूर्तिक होते हैं। जैसे—जैसे कर्म यह जीव करता है, वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्यकर्म उसके साथ बंधते हैं और कुछ काल बाद परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं। उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिरोभूत /ढँक जाते हैं। इसे ‘‘कर्मों का फल देना’’ कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण ये कर्मरूप पुद्गल—स्कन्ध दिखाई नहीं देते।
जीव को जो परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिन के द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें ‘‘कर्म’’ कहते हैं अथवा जीव के द्वारा मिथ्या—दर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं उपार्जित होते हैं वे ‘‘कर्म’’ है।२
सिद्धांतचार्य पं. श्री कैलाशचन्द जी ने लिखा है ३ — ‘‘साधारण: जो किया जाता है, वह ‘कर्म’ है। जैसे — खाना—पीना, चलना—फिरना, सोचना, विचारना, हँसना—खेलना आदि। दूसरे धर्म, रागद्वेष से युक्त जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते है, और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी वे संस्कार को स्थायी मानते हैं, जबकि जैनदर्शनानुसार कर्म केवल संस्कार मात्र ही नहीं है, अपितु वस्तुभूत पदार्थ हैं। रागी—द्वेषी जीव की प्रत्येक क्रिया— (मानसिक—वाचिक—कायिक) के साथ एक द्रव्य जीव में आता है और रागद्वेष भावों का निमित्त पाकर जीव से बंध जाता है, वही ‘कर्म’ है, जो आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है।
प्रवचनसार में आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है — ‘रागद्वेष से युक्त आत्मा जब अच्छे या बुरे कर्मों में लगती है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करती है। इस तरह कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीव के साथ बंधता है। यही द्रव्यकर्म है। कर्मसिद्धान्त का समस्त वर्णन द्रव्यकर्मप्रधान है। पुद्गलपिंड को ‘‘द्रव्यकर्म’’ और उसमें रहने वाली फलदान—शक्ति को ‘‘भावकर्म’’ कहते हैं। जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा के साथ बंधती है, वे ‘‘कर्म’’ कहलाती है।
(अनादिकालीन कर्मों के वशीभूत होकर) कर्मबद्ध संसारी जीव नाना प्रकार का विकृत परिणमन (अशुद्धभाव)—रागद्वेष मोहभाव करता है। जिसमें पुद्गल परमाणु अपने आप कर्मरूप परिवर्तित होकर तत्काल जीव के साथ संबद्ध हो जाते है ५ बंधने के पूर्व इन्हें ‘कार्मण—वर्गणा’ कहते हैं और बंधने पर वे ‘कर्म‘ कहे जाते हैं।
पुद्गलजातिय २३ वर्गणाओं में केवल पांच वर्गणाएँ ही ग्रहण के योग्य हैं— (१) आहारवर्गणा (२) भाषा वर्गणा (३) मनोवर्गणा (४) तैजस वर्गणा और (५) कार्मण—वर्गणा । कार्मण —वर्गणा से कर्म और शेष चार वर्गणाआ से ‘नोकर्म’ बनते हैं। जीव के आत्मप्रदेशों पर स्थित जो विस्रसोपचयरूप पुद्गल है ६, वे ही कर्मरूप से परिणत होते हैं। कर्म कहीं बाहर से आकर नहीं बँधते हैं। जीव के प्रदेशों के साथ बँधे कर्म और नोकर्म के प्रत्येक परमाणु के साथ जीवराशि से अनन्तानन्त गुणे ‘विस्रसोपचयरूप परमाणु भी संबद्ध हैं, जो कर्मरूप या नोकर्मरूप तो नहीं है, किन्तु कर्मरूप या नोकर्मरूप होने के लिए उम्मीदवार हैं, उन्हें ही ‘विस्रसोपचय’ कहते हैं।
(पुद्गल कर्म परमाणुओं का जीव के आत्म प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाही संबन्ध स्थापित कर लेना ‘कर्मबन्ध’ कहा जाता है। आ. श्री उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में— (८/२) कहा है ७ कषाय सहित होने से/ रागद्वेषरूप भावनात्मक परिणमन करने के कारण जीव कार्मण—वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है, इसी का नाम बन्ध है—सकषायत्त्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स: बन्ध’—८/२ त.सूत्र। इस बन्ध का मूल कारण जीव की मनसा—वाचा—कर्मणा होने वाली विकृत परिणति है। इसी के फलस्वरूप पुद्गल द्रव्य का जीवद्रव्य के साथ संयोग ही बंध कहलाता है। पंचाध्यायी में कहा है कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है, जो पुद्गलपुंज के निमित्त को पाकर आत्मा में विकृति उत्पन्न करती है।
अनेक जड़ परमाणुओं या वर्गणाओं का परस्पर में अथवा जीव के आत्मप्रदेशों के साथ विशेष प्रकार के घनिष्ठ संश्लिष्ट संबन्ध होने को ‘बन्ध’ कहते हैं। इसमें जड़ और चेतन दोनों ही पदार्थ अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर किन्हीं विचित्र विजातीय भाव—विकारों को धारण कर लेते हैं। जीवों की योग तथा उपयोगात्मक क्रिया अथवा द्रव्यकर्म के रूप में बँध जाती हैं। जैविक रासायनिक प्रक्रिया से ये पुद्गल — परमाणु जीव के साथ बँधते हैं। तब जीव और कर्म अपने स्वरूप में नहीं रहते। यह बन्ध एकक्षेत्रावगाही, एकाकार और अखण्ड होता है। जैसे—
ऑक्सीजन और हाईड्रोजन गैस वायुरूप है और अग्नि को भड़काने की शक्ति रखती हैं: परन्तु दोनों मिल जाने पर जल बन जाती हैं जिसमें आग को भड़काने के बजाय उसे बुझाने की शक्ति आ जाती है— ऐसा बन्ध ही संश्लेष बन्ध कहलाता है। समस्त रासायनिक प्रयोगों का आधार भी यही बन्ध होता है। जैसे—सोना और ताँबा तथा पीतल और कांसा मिलकर एक विजातीय पिंड बन जाते हैं। दोनों ही धातुएँ अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहती । इस संश्लिष्ट बन्ध का यही वैशिष्टय है कि द्रव्य के स्वचतुष्टय ही बदलकर विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। वे विकारी हो जाते हैं। फलत: बन्ध को प्राप्त सभी जड़ परमाणुओं का तथा जीव का परिणमन एक दूसरे की अपेक्षा रखकर होता है। उसका यही तो विकार है कि अपने शुद्ध स्वतंत्ररूप को छोड़कर अन्य के अधीन हो जाना और अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखना। विकारी भाव से द्रव्य अपने शुद्ध स्वभाव से व्युत होकर विजातीय प्रकार का हो जाता है। जैसे—दूध की मिठास दही की खटास के रूप में बदल जाती है।
यहाँ यह आशंका होना स्वाभाविक है कि जीव जानने —देखने वाला है और इसमें संकोच—विस्तार की भी शक्ति है तथा यह अमूर्तिक भी है। जबकि कर्म जड़ है,मूर्तिक है। मूर्तिक कर्मों का अमूर्तिक जीव के साथ बन्ध कैसे संभव है ? समाधान—तत्त्वार्थसार में आ. श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि अपेक्षा से आत्मा भी मूर्तिक है। अमूर्तिक आत्मा का द्रव्यकर्मों के साथ धारा प्रवाहीरूप से सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। मूर्तिक द्रव्यकर्मों के साथ क्षेत्रावगाही अनादि संबन्ध होने से आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक है। अत: कथंचित् मूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्मों के साथ बन्ध होना संभव है। जैसे— सोना—चांदी गलाने पर मिलकर एक रूप हो जाते हैं। द्रव्यसंग्रह में ९ आ.श्री नेमिचन्द्रजी भी कहते है कि जीव में यद्यपि पांच वर्ण, ५ रस, दो गंध और आठ स्पर्श नहीं होते। अत: निश्चय से वह अमूर्तिक ही है, परन्तु कर्मों से बँधा होने के कारण व्यवहार से वह मूर्तिक है। अत: कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मों का बंध होने में कोई बाधा नहीं है।
‘‘घी मूलत: दूध में और सोना मूलत: पाषाण में मिलता है। इन्हीं की तरह जीव भी मूलत: द्रव्य—क्षेत्र—काल—भावरूप संश्लेष संबन्ध को प्राप्त अपने अमूर्तिक स्वभाव से च्युत हुआ ही प्राप्त होता है। अत: वह मूलत: अमूर्तिक न होकर कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा मान लेने पर संसार दशा में अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिक कर्म से बन्ध होने में कोई विरोध नहीं आता।’’
कर्म सिद्धान्त —श्री जिनेन्द्रवर्णी
प्रश्न/ शंका— इन पुद्गल कर्मों में ऐसी क्या शक्ति है, जो चेतनस्वभावी आत्मा को विभावभावों में परिणमाती है ?
समाधान— जैसे पीने वाले को शराब पागल/ मोहित कर देती है। शराब के नशे में मदहोश होकर सब कुछ भूल जाता है वैसे ही जड़ कर्म भी जीव को विमोहित कर अपने स्वभाव से च्युत कर देते हैं अर्थात् विभावभावों में परिणत करा देते हैं। इस विषय में श्री टोडरमलजी कहते हैं— जैसे किसी पुरूष के सिर पर मंत्रित धूल डाल दी जाती है तो वह उसके निमित्त से अपने को भूलकर—विपरीत चेष्टा करता है ; क्योंकि मंत्र के निमित्त से धूल में ऐसी शक्ति आ जाती है कि सयाना पुरूष भी विपरीत परिणमन करने लगता है। इसी प्रकार आत्मप्रदेशों में रागादि के निमित्त से बंधे हुए जड़कर्मों के प्रभाव से आत्मा अपने को भूलकर नानाविध विपरीत भावों से परिणमन करती है। फलत: जड़ कर्मों में ऐसी शक्ति आ जाती है जो चैतन्य पुरूष को विपरीत परिणमाती है। चेतनस्वभावी जीव के स्वभाव का पराभव कर यह जड़ कर्म ही मनुष्य आदि पर्यायों में उत्पन्न कराता है।’’
श्री पद्मपुराण में भी कहा है कि बलों में कर्मकृत बल ही प्रबल है। ‘बलानां हि समस्तानां बलं कर्मकृतं परम्’’ तथा बड़े खेद की बात है कि ये संसारी प्राणी इन कर्मों के द्वारा चतुर्गति में कैसे नचाये जाते हैं ?
संसारी जीव कर्माधीन है वस्तुत: संसार दशा में सभी जीव कर्माधीन होते हैं। जैनदर्शनानुसार कर्म करने में जीव स्वतंत्र है, परन्तु कर्मों का फल भोगने में वह कर्माधीन होता है—‘स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते’ ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मशुभाशुभम’’ तथा ‘‘स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ’’ भावना द्वात्रिंशिका।
आप्तपरीक्षा में भी कहा है कि ‘‘ कर्मों के द्वारा संसारी जीव परतंत्र होता है। सभी संसारी जीव अपने—अपने कर्मों से बंध होते हैं। अत: कर्मों के अनुसार ही उनकी बुद्धि और प्रवृत्ति होती है। ‘‘बुद्धि कर्मानुसारिणी’’ अच्छे कर्मों के अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाती है तथा बुरे कर्मों के अनुसार उत्पन्न बुद्धि कुमार्ग की ओर ले जाती है। सन्मार्ग पर चलने से मुक्तिलाभ होता है और कुमार्ग पर चलने से संसार में भटकना होता है। अत: बुद्धि के कर्मानुसार होने से मुक्ति की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। जयधवला भाग— १६ पृष्ठ १८७ मेंं भी कहा है कि संसारी जीव अनादिकालीन कर्म के संबन्ध में पराधीन है।
दोनों की स्वतन्त्र सत्ता— आत्मा के साथ कर्मों का एकक्षेत्रावगाही संश्लेष संबन्ध होने पर भी इन दोनों की सत्ता स्वतंत्र बनी रहती है। वह सत्ता अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाती है, पर समाप्त नहीं होती। बंध दशा में दोनों की वैभाविक परिणति रहने से वे अपने—अपने स्वभाव से च्युत रहते हैं। कर्म—्नाोकर्म से बँधकर जीव विजातीय बने रहते हैं; परन्तु सत्पुरूषार्थ से जीव जब कर्मों से मुक्त हो जाता है तो वह पूर्ण शुद्ध होकर अपने स्वभाव में आ जाता है और जड़कर्म भी बंधनमुक्त होकर अपने शुद्धस्वभाव को पा लेता है। जैसे—जल रासायनिक प्रयोग से ऑक्सीजन और हाईड्रोजन रूप मूलस्वभाव में आ जाते हैं। यह अवश्य है कि पूर्ण कर्ममुक्त हुआ जीव फिर कर्मों में नहीं बंधता। जैसे—घी फिर दूध नहीं बनता।
एकक्षेत्रावगाही संबन्ध में रहते हुए भी जीव जीव ही रहता है और पुद्गल पुद्गल ही रहता है। दोनों अपने मौलिक गुणों को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते। जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही होती है। जीव की जीव के द्वारा और पुद्गल की पुद्गल के द्वारा प्रक्रिया संपन्न होती रहती है; परन्तु इन दोनों की प्रक्रियाओं में ऐसी समता /एकरूपता रहती है कि जीव द्रव्य कभी पुद्गल की प्रक्रिया को अपनी और अपनी प्रक्रिया को पुद्गल की मान बैठता है। जीव की यही भ्रान्त मान्यता मिथ्यात्व, मोह या अज्ञान कहलाती है और यही संसार की बीज है।
प्रत्येक जीव अपनी—अपनी प्रकृति के अनुसार अलग—अलग कर्म करता है । वह कर्म प्रत्येक जीव में भिन्न—भिन्न ढ़ंग से स्वतंत्ररूप से व्यक्त होता है। यही कारण है कि मानव की बाह्य रचना बनावट एक जैसी होने पर भी उनके आकार—प्रकार, बुद्धि, वैभव, स्वास्थ्य, हावभाव तथा व्यक्तिव आदि पृथक्—पृथक् होते हैं। एक ही माता की संतानों में भी व्यवहार, बुद्धि, आचार विचार आदि अलग—अलग पाये जातें हैं। इससे भी कर्मों की स्वतंत्रता सिद्ध होती है।
बँध दशा में जीव के स्वाभाविक गुण कर्मों से आवृत्त होने के कारण उसकी दृष्टि विकारयुक्त रहती है। अत: प्रत्येक पदार्थ को विपरीत देखता—जानता है और तदनुसार क्रियाएँ /चेष्टाएँ करता है, परन्तु बंध दशा में भी जीव और कर्मरूप पुद्गल अपने—अपने स्वाभाविक गुणों को छोड़कर अन्यरूप नहीं होते। जीव कर्म नहीं बन जाता और कर्म जीवरूप परिणत नहीं होते। अपने—अपने स्वाभाविक गुणों के साथ दोनों की सत्ता स्वतंत्र बनी रहती है।
आत्मा और कर्म —सम्बन्ध अनादि से है—जब से जीव है तभी से जीव के साथ कर्मों का संयोग भी है। चूँकि जीव अनादि है। अत: उसके साथ कर्मसंबन्ध भी अनादि है। अनादिकाल से ही ये दोनों बंधी हुई दशा में पाये जाते हैं। जैसे सोने की खान में सोना तथा अन्य विजातीय पदार्थ अनादि से ही संयुक्त अवस्था में पाये जाते हैं। खदान में उन्हें किसी ने मिलाया नहीं है। इसी तरह किसी ने जीव के साथ कर्मों का जबरन संबंन्ध नहीं कराया है।
परमात्म प्रकाश में भी उल्लेख है ‘‘ जीवों के कर्म अनादिकाल से हैं। इस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये तथा कर्मों ने भी जीव को नहीं उपजाया; क्योंकि जीव और कर्म का संबन्ध अनादि है।’’ कर्मप्रकृति में भी ऐसा ही कथन है— ‘संसारी जीव का स्वभाव रागादि रूप से परिणत होने का है और कर्म का स्वभाव उसे रागादिरूप से परिणमाने का कहा जाता है। इस तरह जीव और कर्मों का यह स्वभाव अनादिकालिक है । अत: दोनों की सत्ता भी अनादिकाल से है।’’
पंचास्तिकाय में आ.श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है ‘‘जन्म—मरण के चक्र में पड़े हुए संसारस्थ प्राणी के रागद्वेष रूप परिणाम होते हैं। उनसे नये कर्म बँधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं और इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है। विषयों के ग्रहण से इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष करता है। इस तरह संसारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्मबंध और कर्मबंध से रागद्वेषरूप भाव होते रहते हैं। यह संसारचक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि-अनंत है तथा भव्यों की अपेक्षा अनादि—सान्त है।’’ निष्कर्षत: कहां जा सकता है कि जीव और कर्म का संबन्ध अनादि है।
तत्वार्थसूत्र में१८ आ. श्री उमास्वामी कर्तजन्य शरीरों की विशेषताएं बतलाते हुए कहते हैं कि औदारिक, वैक्रयिक, आहारक, तैजस और कार्मण—इन पांचों में से अन्तिम दो शरीर तैजस और कार्मणशरीर पूर्व शरीरों से उत्तरोत्तर अनन्तगुणे—अनन्तगुणे सूक्ष्म हैं, प्रतिघात रहित हैं, सभी संसारियों के अनादिकाल से संबंधित हैं तथा अन्तिम कार्मणवर्गणाओं से बना हुआ कार्मण—शरीर भोग रहित है।१९ अस्तु, कर्म और जीव परस्पर अनादिकाल से सम्बद्ध हैं।
कर्मसिद्धान्त का आधार जीव—पुद्गल का निमित्त—नैमित्तिक संबन्ध जड़ कर्म/ मूर्त पुद्गल तथा अमूर्त जीव के बीच निमित्त—नैमित्तिक—भावरूप—संबन्ध है। कर्म—संश्लिष्ट शरीर और संयोगी धन—धान्यादि पदार्थों का प्रभाव हम सभी के जीवन पर पड़ता है जिसकी प्रतीति हम सभी सदा करते रहते हैं। इनके प्रति हमारी चित्तवृत्तियाँ आकृष्ट होती हैं। शरीर में रोग/पीड़ा होने पर दु:ख होता है। इससे सिद्ध है कि जड़ पदार्थों में भी अमूर्तिक जीव के भावों को प्रभावित करने की शक्ति है। इसी से इनके बीच निमित्त—नैमित्तिक संबन्ध होने की पुष्टि होती है।
ऐसा ही संबन्ध इस जीव का अन्य चेतन पदार्थों के साथ भी है। तभी तो हम पुत्र—कलत्र आदि चेतन पदार्थों के सुख में सुखी और दु:ख में दु:खी होते हैं। क्रोधी को देखकर भय तथा वीतरागी सन्त को देखकर श्रद्धा—भक्ति के भाव जाग्रत होते हैं। इससे भी एक जीव का अन्य जीवों के भावों के साथ निमित्त—नैमित्तिक संबन्ध सिद्ध होता है। इससे यह भी प्रकट होता है कि जीव के अमूर्तिक भावों में बाह्य जड़ पदार्थों पर तथा अन्य जीवों के अमूर्तिक भावों पर निमित्तरूप से प्रभाव डालने की सामथ्र्य है।
इनके सिवाय जीव की इच्छा का निमित्त पाकर हाथ—पांव का संचालित होना, इच्छावान कुम्हार द्वारा घटादि पदार्थों की उत्पत्ति होना जड़ चेतन दोनों में परस्पर निमित्त—नैमित्तिक शक्ति को सिद्ध करते हैं।
कर्म एक रूप अनेक— संसार का मूलभूत मिथ्याभावरूप भावकर्म तथा द्रव्यरूप में बद्ध हुआ पुद्गल पिण्डरूप द्रव्यकर्म मूल में एक रूप ही (भेदरहित) होता है, परन्तु बंधने के बाद द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिरूप से आठ भेदरूप तथा १४८ उत्तर प्रकृतिरूप परिणत हो जाता है। जैसे एक बार में खाये गये एक ही अन्न का रस रूधिर आदि सात धातुरूप से परिणमन होता है वैसे ही एक आत्म परिणाम से ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरणादि अनेक भेदरूप हो जाते हैं।२३ आ. श्री अकलंकदेव ने भी कहा है कि जैसे एक अग्नि में दाह, पाक, प्रताप, प्रकाश और सामथ्र्य है, वैसे ही एक पुद्गल में आवरण तथा सुख—दु:ख आदि में निमित्त होने की शक्ति है— उसमें कोई विरोध नहीं है।— (तत्वार्थ राजवा. ८/४)
आ. श्री वीरसेन स्वामी का भी कथन है २४ कि एक कर्म अनेक प्रकृतिरूप हो जाता है। जीव स्वयं ऐसी आठ शक्तियोें वाला है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों के आश्रय से जीव के साथ एक अवगाहना में स्थित कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध एकरूप होते हुए भी आठ कर्मों के आकाररूप परिणत हो जाते हैं। जैसे— मेघ का जल पात्र विशेष (नीम, ईख,नदी, सरोवर आदि) में पड़कर विभिन्न रसों में परिणमन कर जाता है। उसी तरह ज्ञानशक्ति का उपरोध होने पर ज्ञानावरण सामान्यरूप से परिणमित हो जाता है। इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल और उत्तर प्रकृति रूप से परिणमन हो जाता है। श्री भास्करनन्दी का कथन है कि जैसे खाये हुए अन्न आदि को विकारोत्पादक वाले पित्त—कफ उसे रस रक्त आदि परिणमनरूप भेद को करा देते हैं, वैसे ही आत्म—परिणाम द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल प्रवेश करते समय ही अपनी सामथ्र्य से आवरण अनुभवन, मोहोत्पादन, भवधारण, नाना जातिरूप नामकरण, गोत्र और विघ्नकरण की सामथ्र्य युक्त होने से अनेक रूप से परिणमन करते हैं।
कर्मभेद— द्रव्यकर्म और भावकर्म के भेद से कर्म दो प्रकार का है— पुद्गलपिंड रूप द्रव्यकर्म और उसकी शक्ति भावकर्म है— ‘‘पोगलपिंडं दव्वं तस्सत्ति भावकम्मं तु’’ —गो. कर्मकाण्ड।।६।। शास्त्रों में प्रधान रूप से पुद्गल की पर्याय क्रियाप्रधान और जीव की पर्याय भावप्रधान है। इसलिए पुद्गल—वर्गणाओं के आपसी संबन्ध से बना स्कन्ध द्रव्यकर्म है और जीव के उपयोग में राग आदि के कारण ज्ञेयों के साथ हुआ बन्ध भावकर्म है। योगों की परिस्पन्द क्रिया के फलस्वरूप द्रव्यकर्मरूप पुद्गलस्कन्ध जीव के आत्म प्रदेशों के साथ बँधते हैं। वर्गणाभेद की अपेक्षा—पुद्गल की २३ वर्गणाओं में से केवल पांच वर्गणाएँ—(१) आहारवर्गणाएं (२) भाषावर्गणाएं (३) मनोवर्गणाएं (४) तेजोवर्गणाएं (५) कार्मणवर्गणाएं ही जीव के द्वारा कर्मरूप से ग्रहण करने योग्य हैं। उन्हें जीव द्रव्यकर्म रूप से ग्रहण करता है और छोड़ता है। इनमें से कार्मण—वर्गणा से कार्मण—शरीर, तैजसवर्गणा से तैजसशरीर और शेष तीन वर्गणाओं से शरीर, भाषा, श्वासोच्छवास, द्रव्यमन आदि बनते हैं। इसे नोकर्म कहते हैं। इस प्रकार कर्म और नोकर्म—ये द्रव्यकर्म के दो भेद हैं। जीव जिस प्रकार योगों द्वारा कार्मण—वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसी प्रकार शरीर संबन्धी नोकर्म—वर्गणाओं को भी ग्रहण करता है। इसमें नामकर्म निमित्त होता है।
जीव का उपयोग रूप भावकर्म संकल्परूप होने से गणनीय नहीं है, परन्तु स्थूलरूप से भावकर्म को चौदह प्रकारों में विभक्त किया गया है—मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा तीन वेद। ये सभी मोह, राग, द्वेष में गर्भित हैं। मिथ्यात्व—मोह में, मान, लोभ, हास्य, रति और तीनों वेद—ये सात राग में तथा क्रोध, माया, अरति,शोक, भय और जुगुप्सा—ये छह द्वेष में समाहित है। राग भी शुभ और अशुभ—दो प्रकार का है। दान, पूजा, दया, संयम, तप आदि शुभराग है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि अशुभ है। शुभ को पुण्यकर्म और अशुभ को पापकर्म कहा गया है। द्वेष तो सर्वथा अशुभ /पापरूप ही होता है।
भाव से प्रभावित कर्म और कर्म से प्रभावित भाव —जैसे शराब पीने से पीने वाले के शरीर, मन, नाड़ीतंत्र, क्रियाकलाप प्रभावित होते हैं, वैसे ही जीव के योग (आत्मप्रदेशों के कंपन) एवं उपयोग (भाव विचार, संवेग—आवेग) से भी कर्म प्रभावित होते हैं। शुभ—योग—उपयोग से कर्म परमाणु पुण्य-प्रशस्त/सुखदायी कर्मरूप में परिणमन करते हैं तो अशुभ योग-उपयोग से ही वे कर्म परमाणु पाप (अशुभ—अप्रशस्त/ दु:खदायी) कर्मरूप से परिणमन कर लेते हैं। शुद्धोपयोग से/ आत्मा के निर्मल परिणाम से कर्मपरमाणु पुण्य या पापरूप से परिणमन नहीं करते हैं। शुभ अशुभ और शुद्ध योग—उपयोग से केवल बंधने वाले नवीन पुद्गल परमाणुओं में भी परिवर्तित होते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म भी प्रभावित होते हैं। शुद्ध परिणामों से बंधे हुए प्राचीन कर्म—परमाणुआ के बन्धन में शिथिलता आती है और निर्जरा या क्षय हो जाता है। इस सिद्धान्त को मनोविज्ञान, शरीर विज्ञान, चिकित्साविज्ञान, जीनोमथ्योरी, विधि—कानून आदि भी स्वीकार करते हैं तथा अनुभव में भी ऐसा आता है। देखिए—
शरीर विज्ञान के अनुसार अच्छे भावों से शरीर—ग्रंथिओं से स्रवित रस बड़ा गुणकारी होता है और दूषित भावों से स्रवित रस हानिकारक होता है। प्रेम एवं वात्सल्यभाव से पिलाया गया माँ का दूध अमृत—तुल्य प्रभावक होता है तथा दूषित परिणामों से पिलाया दूध विषतुल्य बन जाता है। इसी तरह आत्मविश्वास अनुकूल सद्विचार आदि अच्छे परिणामों से रोग—प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और रोग शीघ्र दूर हो जाते हैं। दुश्चिन्ता, क्रोध, ईष्र्या, तनाव, आवेग—उद्वेग आदि दूषित भावों से विभिन्न शारीरिक मानसिक रोग होते हैं तथा दया,सेवा, क्षमा, परोपकार, नम्रता, सरलता और सद्विचारों में प्राय: आधि—व्याधि नहीं होतीं, रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, श्वेत रक्त—कणिकाओं में वृद्धि होती है, आभामंडल दीप्त/उदीप्त होता है।
जीनोमथ्योरी के अनुसार
जीनो की विविधतानुसार भाव, रोग, अंग—उपांग होते हैं। जीव में परिवर्तन के साथ जीव संबन्धी भाव आदि में भी परिवर्तन होता है। प्रायश्चित विधि के अनुसार जो सच्चे भावों से दोषों को स्वीकार कर विनय करता हुआ पुन: दोष न करने की प्रतिज्ञा लेता है, उसके भावों में निर्मलता आती है, तनाव दूर होता है। गुरू भी उसे दोषमुक्त कर कम दण्ड देते हैं। इस विवेचना से यह सिद्ध होता है कि ‘‘ अमूर्तिक सूक्ष्मभावों में बाहर के जड़ तथा चेतन पदार्थों को प्रभावित करने की विचित्र सामथ्र्य होती है।
बन्ध के कारण
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये ५ कर्मबन्ध के कारण कहे गये हैं।२८ कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गल—स्कन्धों को जो ग्रहण करता है,वह बन्ध है। २९ बंध योग्य सूक्ष्म पुद्गल वर्गणाएँ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त—अनन्त स्थित है। काजल की डिब्बी की भांति ये संपूर्ण लोक में परिव्याप्त है। अत: ये जीव के आत्मप्रदेशों में/पर भी स्थित है। बंधयोग्य इन वर्गणाओं को ‘ विस्रसोपचय’ कहते हैं। जीव से रागद्वेषादि भावों का निमित्त पाकर ये ही द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप से परिणत हो जाती हैं।
कार्मण—शरीर
द्रव्यकर्म रूप कार्मण—वर्गणाओं से ही सूक्ष्म शरीर ‘कार्मण—शरीर’ की रचना हुई है। ये वर्गणाएं आत्मप्रदेशों पर एक क्षेत्रावगाही रूप से स्थित है। कार्मण—शरीर ही जीव का मूलभूत शरीर है, जो जीव की एक पर्याय समाप्त होने पर भी साथ नहीं छोड़ता। अनादिकाल से ही यह जीव से साथ बंधा चला आ रहा है। इसमें यद्यपि प्रतिक्षण कुछ पुराने कर्म झगड़ते हैं और कुछ नये जुड़ते चले जाते हैं। संतानक्रम से यह शरीर धु्रव बना रहता है। जीव के बाह्य शरीरों का और रागादिभावों का प्रेरक यही कार्मण शरीर है। इसका पूर्ण नाश (क्षय) होने पर ही मुक्ति होती है। मुमुक्षु साधक इसी मुक्ति को पाने हेतु सतत साधनारत रहते हैं।
बन्ध—भेद
प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार का है।३० (क) प्रकृतिबन्ध—आत्मा के संबन्ध के साथ बन्ध को प्राप्त कर्मों में स्वभावों का प्रकट होना प्रकृतिबन्ध है। प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे नीम का स्वभाव कडुवा तथा ईख का स्वभाव मीठा होता है। जीव का स्वभाव जानना—देखना है और पुद्गल का स्वभाव रूप—रसादिरूप है। जैसा—जैसा चित्र—विचित्र योग तथा उपयोग यह जीव करता है वैसा—वैसा विचित्र स्वभाव इस कार्मण—शरीर में पड़ जाता है। जैसे यह औदारिक शरीर चलने—बोलने, देखने—सुनने आदि विभिन्न प्रकृतियों को पाकर अनेक अंगोपांग वाला हो जाता है वैसे ही यह एक कार्मण—शरीर भी विभिन्न स्वभावों को पाकर अनेक भेदों वाला हो जाता है। इस तरह द्रव्यकर्म की ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियाँ तथा १४८ उत्तर प्रकृतियाँ कर्म प्रतिपादक शास्त्रों में कही गई है।
आठ प्रकृतियाँ और उनका स्वभाव—३१
(१) ज्ञानावरण—जो ज्ञान को ढके। इसका स्वभाव देवता के मुख पर वस्त्र जैसा है। वस्त्र देवता विशेष का ज्ञान होने में बाधक है।
(२) दर्शनावरण—जो वस्तु को नहीं देखने देवे। जैसे— प्रतिहार—राजद्वार पर बैठा पहरेदार। यह राजा को देखने से रोकता है। इसी तरह दर्शनावरण वस्तु का दर्शन नहीं होने देता।
(३) वेदनीय—सुख—दु:ख का वेदन (अनुभवन) कराता है। इसका स्वभाव शहदलपेटी तलवार की तरह है जिसे चखने पर कुछ सुख मिलता है पर जीभ के कटने से बहुत दु:ख होता है। इसी तरह साता—असाता वेदनीय सुख—दु:ख वेदन कराते हैं।
(४) मोहनीय—मोहित/ अचेत करना। इसका स्वभाव मदिरा जैसा है। मदिरा शराबी को मदहोश/अचेत कर देती है। उसे अपने स्वरूप का/ अपने का कुछ भी बोध नहीं रहता।इसी प्रकार मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित/ बेभान बना देता है।जिसे उसे अपने स्वरूप का बोध ही नहीं हो पाता।
(५) आयुकर्म—जो किसी पर्याय— विशेष में रोक रखे। इसका स्वभाव लोहे की सांकल या काठ के यंत्र की तरह है। आयुकर्म सांकल या काठ के यंत्र की भांति अपने ही स्थान/पर्याय में रोके रखता है। आयुसमाप्ति के पूर्व अन्य पर्याय में नहीं जाने देता।
(६) नामकर्म- नााना तरह के कार्यों को करने वाला। इसका चित्रकार की तरह है। चित्रकार की भांति यह नाम कर्म भी नाना रूपों का निर्माण करता है।
(७) गोत्रकर्म—ऊँच—नीचपने को प्राप्त कराना। इसका स्वभाव कुंभकार के समान है। जैसे कुम्हार मिट्टी के छोटे बड़े बर्तन बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म ऊँच—नीच गोत्रों में जन्म कराता है। जीव की ऊँच—नीच अवस्था बनाता है।
(८) अन्तराय—जो अन्तर/ बाधा या व्यवधान करे। इसका स्वभाव भंडारी (खजांची) की तरह होता है। जैसे भंडारी दूसरे को दानादि देने में विघ्न करता है, वैसे ही यह अन्तरायकर्म दान, लाभ,भोग,उपभोग मेें बाधा उपस्थित करता है।
घाती—अघाती प्रकृतियाँ
जीव में दो प्रकार के विकार होते हैं। (१) द्रव्य—प्रदेशविकार और (२) भावविकार।
(१) प्रदेशविकार अर्थात् बाह्ययसंयोग —वियोग। जैसे जीव का शरीर काला—गोरा, दुबला—पतला या छोटा—बड़ा होना।
(२) भावविकार अर्थात् जीव के राग—द्बेष मोह भावों का होना, ज्ञान की हानि—वृद्धि होना। जीव के अंतरंग/ शुद्धभाव मुख्यत: ज्ञान—दर्शन—सुख—वीर्य हैं। ‘घातिया कर्म’ जीव के इन्हीं गुणों को प्रकट नहीं होने देते। ये कर्म जीव के भावों को आच्छादित /विकृत करते हैं। इसी से घाती/घातिया कहलाते हैं। ऊपर कही गई कर्म की ८ मूल प्रकृतियों में से ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय—ये चार घातिया कर्म हैं। ये भी सर्वघाति और देशघाती के भेद से दो प्रकार के हैं। कर्मों की कुल १४८ उत्तर प्रकृतियों में से २० सर्वघाती और २६ देशघाती उत्तर प्रकृतियाँ हैं।
(२) जीव के यदि मोह—मिथ्यात्व नहीं है। तो उसके प्रदेशविकारों का (बाह्य संयोग—वियोगरूप द्रव्यविकारों का) उसके शुद्ध स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे अरिहन्त अवस्था में अघातिया कर्मों के रहते हुए भी उनके ज्ञानादि गुणों का घात नहीं होता, जीव के रागद्वेषात्मक भाव नहीं होते, स्वाभाविक गुणों का घात नहीं होता। इसीलिए ये अघातिया कहे जाते हैं। वेदनीय, आयु नाम और गोत्र—ये चार अघातिया कर्म हैं। प्रशस्त (पुण्यरूप) और अप्रशस्त (पापरूप) के भेद से ये भी दो प्रकार के प्रकृतियों की संख्या भेदविवक्षा से ६८ और अभेदविवक्षा से ४२ हैं।३३ अप्रशस्त प्रकृतियों की संख्या भेदविवक्षा से बंधयोग ८२ और उदययोग्य ८४ प्रकृतियां हैं।३४ ५ वर्ण ५ रस २ गंध और ८ स्पर्श—ये २० प्रकृतियां प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों रूप होती हैं। अत: इनकी गणना दोनों में होती है।
वेदनीय को अघातिया कर्मों में गिनाया है परन्तु यह सर्वथा अघातिया नहीं है। मोहनीय के सद्भाव में यह सुख—दु:ख का तीव्र वेदन कराती है। अत: वेदनीय अघातिया मूल प्रकृति होते हुए भी घातीवत् मानी गई है। यह मोही जीवों को ही सुख—दु:ख को वेदन कराती है, निर्मोही वीतरागियों को नहीं।
(ख) स्थितिबन्ध—जीव के रागादि भावों के निमित्त से कार्मण—वर्गणाओं का ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों के रूप में परिणमन हो जाने के बाद जितनी अवधि तक वह जीव के आत्मप्रदेशों के साथ बद्धरूप से टिकी रहे उतना काल उस बन्ध की स्थिति कहलाती है। अर्थात् बद्ध कर्म में स्थिति (कालावधि) का निश्चित होना ‘‘ स्थितिबन्ध’’ कहलाता है। जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इसके अनेक भेद हैं। सबसे जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट स्थिति तक इसके अनेक भेद हैं। सबसे जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है।
प्रत्येक कर्मप्रकृति की जघन्य उत्कृष्ट अथवा मध्यम बन्ध स्थिति अवश्य होती है। दर्शनमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाको़ड़ी सागर है। आठों कर्मों की स्थिति में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ाकोड़ी सागर है। नाम और गोत्र कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ाकोड़ी सागर है । आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर मात्र है।३५ वेदनीय की जघन्य स्थिति १२ मुहुर्त, नाम —गोत्रकर्मों की जघन्य स्थिति ८ मुहुर्त तथा शेष सभी कर्मों की जघन्य स्थिति , अन्तमुहुर्त है।
बन्ध—सत्त्व—उदय—निर्जरा—बद्धकर्मविशेष बन्धस्थिति से लेकर जितने काल तक बिना फल दिए बेकार सा पड़ा रहता है, इसे ‘‘कर्म की सत्ता’’ कहा जाता है। परन्तु बन्धस्थिति काल पूरा होने पर जब वह कर्म फलोन्मुख होता है, जीव के भावों पर अपना प्रभाव डालने के लिए तत्पर होता है, तो यह उसका—परिपाक या उदयकाल’’ कहलाता है। स्थितिकाल का अन्तिम क्षण ही वस्तुत: ’’उदयकाल’’ है,क्योंकि उस क्षण में वह फल देकर उत्तरवर्ती क्षण में ही आत्मप्रदेशों से छूटकर पुन:कार्मण—वर्गणाओं में मिल जाता है ।इसे ही ‘‘ कर्म—निर्जरा’’ कहा जाता है।
निषेक रचना—समय—समय पर जो कर्म खिरैं/ निर्जीर्ण हों, उनके समूह को ‘‘निषेक’’ कहते है। कर्मों की स्थिति में निषेकों की रचना होती है। किसी एक समय में बंधा हुआ कर्म—वर्गणाओं का एक पिण्ड ‘‘एक समय प्रबद्ध ’’ कहलाता है। इसमें आठों कर्म प्रकृतियों के कार्मण—स्कन्ध शामिल रहते हैं। प्रत्येक प्रकृति के स्कन्ध में अनन्तों कार्मण—वर्गणाएं होती हैं ; जो समान स्थिति वाली नहीं होती। कुछ की स्थिति सबसे कम होती है, कुछ की अधिक और कुछ की उससे भी अधिक होती है। इस क्रमानुसार अन्तिम कुछ वर्गणाओं की स्थिति सबसे अधिक होती है। यही उस विवक्षित कर्म की सामान्यस्थिति कही जाती है।
कर्म विशेष की विवक्षित स्थिति के समयों को ईंटो की भाँति नीचे ऊपर क्रम से स्थापित करके एक समयप्रबद्ध की एक—एक प्रकृति के द्रव्य को वर्गणाओं में विभाजित कर उन क्रमबद्ध समयों पर नीचे से ऊपर की ओर स्थापित करें। सबसे अधिक वर्गणाएं स्थितिकाल के सबसे निचले प्रथम समय पर रखें। उनसे कुछ कम वर्गणाएं उसके ऊपर दूसरे समय पर स्थापित करें। उससे कम तीसरे समय पर रखें। इस प्रकार हानिक्रम से प्रत्येक समय पर कुछ—कुछ कम वर्गणाएं रखते जाएँ। सबसे ऊपर अन्तिम समय पर सबसे कम अन्तिम शेष भाग रखकर उस विवक्षित द्रव्य को समाप्त करें। इस प्रकार एक—एक समय पर स्थापित वर्गणाओं का पिंड ही उस—उस समय का निषेक होता है।
उदस—सत्तारूप से निश्चेष्ट पड़ा कर्म जब फलोन्मुख होता है तब वह ‘‘ उदय में आया’’ कहा जाता है, परन्तु उदयोन्मुख होने पर भी नींद से उठे व्यक्ति की खुमारी की तरह वह कर्म कुछ काल तक फल देने में समर्थ नहीं हो पाता। उतने काल को ‘‘आबाधाकाल’’ कहा जाता है।
एक समयप्रबद्ध का सारा द्रव्य एक ही बार फल देकर नहीं खिरता, अपितु उपर्युक्त निषेक रचना के अनुसार प्रतिसमय क्रम से एक—एक निषेक उदय में आकर फल देकर खिरता है। इस क्रम में खिरते हुए अन्तिम समय पर स्थित अन्तिम निषेक उदय में आकर झड़ जाता है। इस प्रकार खिरते हुए , जितने समयों में कुल द्रव्य खिर जाता है, वह उस विवक्षित कर्म की ‘‘सामान्यस्थिति’’ कही जाती है तथा जितने-जितने काल के पश्चात् जो—जो निषेक खिरता है उतने—उतने कालप्रमाण उस निषेक की ‘‘ विशेष स्थिति’’ कहलाती है। यह विशेष स्थिति एक विवक्षित निषेक की अपेक्षा केवल एक सूक्ष्म समयप्रमाण होती है। उदयागत निषेक के अलावा आगामी समयों पर स्थित निषेक ‘‘सत्तागत निषेक’’ कहलाते हैं। उदय में आने पर ही ये अपना अच्छा या बुरा फल देते हैं।
(ग) अनुभाग बन्ध—‘विपाकोऽनुभव:’ —८/२१ त.सूत्र। बद्धकर्म का परिपाक होना, उसमें फलदान शक्ति का पड़ना ‘‘अनुभागबन्ध’’ है। कर्म की फलदान शक्ति की तरन्तमता का नाम अनुभाग है, जो भावात्मक होता है। इसलिए इसका माप ‘‘अविभागप्रतिच्छेद४० से किया जाता है। आज की भाषा में इसे ‘‘डिग्री’’ कह सकते हैं। ताप का माप ‘डिग्री’ में किया जाता है। ‘शक्ति—अंश’ या ‘‘भावनात्मक—यूनिट’’ का नाम ‘‘अविभाग प्रतिच्छेद’’ है।
प्रकृति और अनुभाग में अन्तर—प्रकृति कर्म के स्वभाव को बतलाती है जबकि अनुभाग कर्म की तीव्र या मन्द फलदान शक्ति (रस) को कहा जाता है। प्रकृति सामान्य है और अनुभाग उसका विशेष है। जैसे आम की प्रकृति सामान्यत: उसकी मिठास है, परन्तु वह कितना मीठा है ? कम या अधिक । यह उसका अनुभाग है। इसी प्रकार दूध भी सभी समान प्रकृति वाले होते हैं, परन्तु भैंस के दूध में गाय की अपेक्षा ज्यादा चिकनाहट होती है और बकरी के दूध में गाय के दूध से भी कम होती है। इसी तरह बद्ध कर्म में फलदान शक्ति की तरत्तमता का नाम अनुभाग है।
राग—द्वेषात्मक भावकर्म की तीव्रता और मन्दता के अनुसार ही कर्मों में फलदान की शक्ति पड़ती है। अधिक तीव्रता वाले भावकर्म से अधिक अनुभाग युक्त द्रव्यकर्म का बन्ध होता है और हीन या मन्द कषाय वाले भावकर्म से हीन अनुभाग युक्त द्रव्यकर्म का बन्ध होता है। यह अनुभाग बन्ध ही जीव के गुणों के विकास में बाधक है, प्रकृति बाधक नहीं होती है।
घातिया कर्मोंकी फलदानशक्ति लता, काठ, हड्डी और पत्थर के समान है। इनमें जैसा क्रम से अधिक—अधिक कठोरपना है, वैसा ही इन कर्मों के अनुभाग में होता है। दारूभाग के अनन्तवें भाग तक शक्तिरूप स्पद्र्धक सर्वघाती है। इनके उदय होने पर आत्मा के गुण प्रकट नहीं होते।
अघातिया—कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति भेद गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान उत्तरोत्तर मीठापन लिए हुए हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों के शक्तिभेद नीम, कांजीर विष और हालाहल के समान जानना चाहिए अर्थात् सांसारिक सुख—दु:ख की कारण भूत दोनों ही पुण्य और पापकर्म—प्रकृतियों की शक्तियों को चार—चार तरह से तरन्तम रूप से समझना चाहिए।
(घ) प्रदेशबन्ध—बद्ध क्रमस्कन्ध में स्थित परमाणुओं की संख्या ‘‘प्रदेशबन्ध ’’ है। द्रव्यकर्म की प्रत्येक प्रकृति में जिसने कर्मपरमाणु बंध को प्राप्त होते हैं, उन्हें उस कर्मप्रकृति का ‘प्रदेशबन्ध’ कहते हैं। एक समय प्रबद्ध की तो बात ही क्या है, एक निषेक में भी अनन्तानन्द प्रदेश होते हैं। आ. श्री उमास्वामी ने कहा है ४३ कि प्रति समय योग विशेष से कर्मप्रकृतियों के कारणभूत एकक्षेत्रावगाहीरूप से स्थित सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु सब ओर से आत्म प्रदेशों में संबन्ध हो प्राप्त होते है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्रदेश बंध से जीव को कोई हानि या लाभ नहीं होता, क्योंकि कम प्रदेश हों या अधिक प्रदेश हों, फल तो तीव्र या मन्द अनुभाग का ही होता है, प्रदेश संख्या का नहीं।
समयप्रबद्ध का ८ कर्मप्रकृतियों में बंटवारा—एक समय में ग्रहण किया हुआ समय प्रबद्ध आठ मूल प्रकृतिरूप परिणमता है। सभी मूल प्रकृतियों में आयुकर्म का हिस्सा सबसे थोड़ा है। नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग आपस में बराबर होता है, पर आयुकर्म से अधिक होता है।अन्तराय, दर्शनावरण और ज्ञानावरण का भाग भी आपस में समान है, तो भी नामकर्म, और गोत्रकर्म से अधिक है। इससे भी अधिक मोहनीय कर्म का हिस्सा है तथा मोहनीय से भी अधिक भाग वेदनीय कर्म का रहता है।४४ चूंकि वेदनीय कर्म सुख—दु:ख का कारण है। इसलिए इसकी निर्जरा भी अधिक होती है। इसी से द्रव्यकर्म का सबसे अधिक भाग इस वेदनीय कर्म के खाते में जाता है ४५ बाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिक होती है, उसे अधिक हिस्सा जाता है, कम स्थिति को कम तथा समान स्थिति वाले को समान हिस्सा मिलता है।
उपर्युक्त चारों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्ध जीव के योगों द्वारा होते हैं तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायरंजित उपयोग द्वारा होते हैं।४७ इन चारों में स्थितबन्ध और अनुभागबन्ध ही घातक है। इन्हें रोकने के लिए आत्म हितैषियों को सतत सावधान रहना चाहिए।
सभी कार्य स्वभाव से ही निष्पन्न होते हैं—कर्मबन्ध के कार्य/द्रव्यबन्ध के बंध उदय आदि कार्य सहज स्वभाव से ही निमित्त—नैमित्तिक भाव के द्वारा निष्पन्न होते रहते हैं। इनका कोई संचालक, दिशानिर्देशक या नियंत्रणकर्ता नहीं है। संसार के सारे क्रियाकलाप अपने आप भी नियन्ता की आवश्यकता नहीं होती। जब तक द्रव्यकर्म और भावकर्म का निमित्त—नैमित्तिक संबन्ध रहेगा, तब तक संसार इसी भांति चलता रहेगा। भावों को शुद्धिपूर्वक साधनारत रहकर संसार—भ्रमण का अन्त किया जा सकता है।
स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध की मुख्यता—उपर्युक्त चारों बन्धों में स्थिति और अनुभागबन्ध ही हानिप्रद और बाधक हैं, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध नहीं, क्योंकि कम अनुभाग वाले अधिक प्रदेशों का उदय जीव को थोड़ी ही बाधा पहुँचाता है,जबकि अधिक अनुभाग वाले थोड़े भी प्रदेशों का उदय अधिक हानि पहुंचा सकता है। जैसे खौलते हुए जल की एक कटोरी ही देह में फोड़े और जलन पैदा कर देती है, जबकि कम गरम जल की एक बाल्टी भी व्यक्ति को कोई हानि नहीं पहुँचाती। अत: कर्मसिद्धान्त में सर्वत्र स्थिति और अनुभाग के बन्ध, उदय, उत्कर्षण आदि ही मुख्य हैं, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध नहीं।
कर्मबन्ध के मुख्य दो कारण—(१) योग और (२) कषाय से ही कर्म आकृष्ट होकर जीव के साथ बंधते हैं। योगों—मन—वचन—काय की हलनचलन रूप क्रिया से कार्मण वर्गणा जीव की ओर आकृष्ट होती हैं, और कषाय से ये आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध को प्राप्त हो जाती हैं। आगे चलकर ये ही उदय में आकर अपना फल देती हैं।
जीवात्मा को स्वच्छ दीवाल, कषायों को गोंद और योग को वायु मान लें तो कर्मबन्ध की प्रक्रिया सरलता से बोधगम्य हो जाती है। योग की आँधी से उड़कर आयी हुई कर्मरूपी धूल कषायरूपी गोंद से अनुरंजित जीव की आत्मप्रदेशरूपी दीवाल पर चिपक जाती है। कषायरूपी गोंद की पकड़ जितनी सबल या निर्बल (तीव्र या मन्द) होगी, बंध भी उतना ही प्रगाढ़ या शिथिल होगा। अस्तु जीव यदि कषायभाव न करे तो योगों से कर्मों का आगमन भले ही होता रहे, परन्तु वे आत्मप्रदेशों से चिपकेंगे नहीं! क्योंकि कषाय के अभाव में आत्मप्रदेश स्वच्छ , सूखी दीवाल की भांति रहेंगे। अत: कर्म आकर उनसे चिपकेंगे नहीं, सूखे—कषायरहित आत्मप्रदेशों से लगकर तुरन्त खिरगिर जायेंगे। सकषायी जीवों के ही कर्मबन्ध होता है, अकषायी—वीतरागी जीवों के नहीं। अरिहन्त दशा में योग के सद्भाव में कर्म आत्मप्रदेशों की ओर आते अवश्य हैं पर वे कषाय के अभाव में बंधते नहीं हैं। तुरन्त झड़/ गिर जाते हैं। इसी से अरिहंन्तों के ईर्यापथ आस्रव होना ही कहा गया है।
कर्मसंगति से जीव दु:खी हैं—कर्म जड़ हैं, निबर्ल है और जीव चेतन है, सबल है, अनन्त शक्ति संपन्न है, परन्तु अनादिकाल से कर्मों की संगति से चतुर्गति के भ्रमण के दु:खों को भोग रहा है । जैसे लोहे की संगति से अग्नि भी घनों से पीटी जाती है। किसी विचारक ने ठीक ही तो कहा है—‘कर्म विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घन—घात, लोह की संगति पाई।। (चन्द्रप्रभपूजन)
उपसंहार—जैनदर्शन का यह कर्मसिद्धान्त अनेक वैशिष्टय संपन्न है, जो विश्व के अनेक रहस्यों को उद्घाटित करता है। यह विश्व विविधता का तर्क पूर्ण वैज्ञानिक समुचित समाधान करता है। संसार—संचरण की सटीक सरल बोधगम्म व्याख्या करता है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया का बोध कराके उससे मुक्ति हेतु मोक्षमार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देता है तथा ईश्वरकर्तृत्ववाद, भाग्यवाद, नियतिवाद जैसी मिथ्या भ्रान्त एवं एकान्त मान्यताओं का युक्तिपूर्वक निराकरण करता है। कर्मविषयक सत्य को उद्घाटित करता है। जीव और कर्मों के अनादिकाल सम्बन्ध की उद्घोषणा कर सच्चे सुखशांति के सन्मार्ग को प्रकाशित करता है। आत्मा की अनन्तशक्तियों को उद्घाटित करने का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें उद्घाटित करने की प्रेरणा देता है। थर्मामीटर की भांति जीव के ऊँच—नीच भावों/ परिणामों का परिचय कराता है। जीव और कर्म दोनों में स्वतंत्र सत्ता का दिशाबोध देता है। जैन सिद्धान्त और तत्वज्ञान में सुदृढ़ आस्था पैदा करता है। जीव को स्वयं के सुख—दु:ख का कर्ता—भोक्ता—हर्ता का बोध कराके संतोषी, स्वावलम्बी और आत्मनियंता बनने की प्रेरणा भी देता है। अस्तु जैनाभिमत यह कर्मसिद्धान्त जीवन और दृश्य जगत के अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर चिंतकों तथा विचारकों को चमत्कृत करता है|
संदर्भ :
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश—भाग—२, पृष्ठ—२५
२. ‘‘जीवं परतंत्रीकृर्वन्ति स परतंत्री क्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै: क्रियन्ते रति कर्माणि’’ आप्तपरीक्षा—टीका—११३/२९६
३. जैनधर्म (कर्मसिद्धान्त) पृष्ठ— १४२—१४३
४. प्रवचन—गाथा १८७—सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द जी