प्रस्तुत आलेख में कलिंग जिन की प्रतिमा के इतिहास को विस्तृत एवं पात्रों के मतों की विस्तृत समीक्षा करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कलिंग जिन की प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा थी।
—संपादक
प्राचीन कंलिग देश जैन धर्म का केंद्र था। तीर्थंकर, ऋषभदेव , अजितनाथ , शीतलनाथ , श्रेयांसनाथ, अरहनाथ , अरिष्टनेमि , पाशर्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों का संबंध कंलिग देश से रहा। जैन धर्म प्राचीनकाल में कलिंग का राष्ट्रीय धर्म था। यहाँ जैन धर्म के बीच में राजा नंद नामक ई. पू. चौथी शताब्दी में व्यापक धर्म नहीं बल्कि उनकी जड़ें बहुत गहराई तक पहुँची हुई थीं। चीनी पर्यटक ह्यू एनत्सांग ने ई. ६२५ में उड़ीसा का भ्रमण करने के पश्चात कहा गया था कि उड़ीसा जैन धर्म का गढ़ था। ई. पू. दूसरी शताब्दी के सम्राट खारवेल के ‘हाथी गुम्फा’ नामक शिलालेख में ‘ कांग्लिग जिन’ का उल्लेख उड़ीसा में जैन धर्म की प्राचीनता का द्योतक है। कांगलिग वासी अपने आराध्य देव की कांगलिग जिन के रूप में पूजा और आराधना करते थे। ‘जिन’ शब्द हमारी धर्म और संस्कृति का प्रतीक है। क्योंकि ‘ कांगलिग जिन’ से अभिप्राय जैन तीर्थंकर है। प्रताप नगरी, बालेश्वर, कोरोपुर, खंडगिरि आदि का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है कि वहां से प्राप्त तीर्थंकरों की जयंती को आज भी अजैन—जन बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अपनी परंपरा के अनुसार पूजते हैं। उदयगिरि के हाथी गुम्फा शिला की १२वीं पंक्ति में जैन धर्म की प्राचीनता का अकाट्य प्रमाण है—’नन्दराजनीतं कलिंगजित संनिवेसं’ अर्थात् नन्द राजा कलिंग जिन को अपने राज्य में ले आये। यहाँ नन्दराजा से महापद्म राजा ही अभिप्रेत है। हाथी गुम्फा पत्थर के उल्लेख से प्रमाणित होता है कि कलिंग पर ई. पू. चौथी शताब्दी के राजा महापद्म के आक्रमण के समय कंलोग घटना ई. पू. ४ थी शताब्दी में घटी होगी। लेकिन इस बात का अफसोस है कि उक्त को ‘ कांलिग जिन’ का राष्ट्रीय गौरव था और कांलिग जिन की पूजा होती थी।
दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि खारवेल से पांच वर्ष पूर्व हुए उक्त नंद राजा कंलिग को ‘ कंलिग जिन’ का अपहरण कर अपने साथ मगध ले गए थे। इतिहास के मनुष्यों का मंतव्य है कि इस बात का उल्लेख मौखिक वर्णन में उपलब्ध नहीं है कि जिस समय महापद्म राजा ने कंलोग पर आक्रमण किया था, उस समय कंलोग में कौन सा राजा राज्य करता था। लेकिन यह स्पष्ट है कि खारवेल के पूर्ववर्ती राजाओं में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे मगध के शक्तिशाली राजाओं को परास्त कर कलिंग जिन को छीन कर वापस कंलिग ला सकें। यह कार्य चेदिवंश के गौरवशाली दाता और चेदिवंश की तीसरी पीढ़ी में हुए खारवेल सम्राट को करना पड़ा। ‘ कांगलिग जिन’ को अपनी प्रतिष्ठा और अपने राज्य की प्रतिष्ठा मान कर उन्होंने उसे मगध से वापस लाने का दृढ़ संकल्प किया। इस संकल्प को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने मगध पर दो आक्रमण किये। पहला आक्रमण अपने (स्वयं के) राजा होने के आठवें वर्ष में किया गया। कहा भी है—’अठमें च वसे महति सेनाय महत……..गोरथगिरि घटपयिता राजगहं उपपीडापयति।’ आठवें वर्ष में विशाल सेना लेकर गोरथगिरि किले को नष्ट कर राजगृह के ट्रस्ट का दमन किया गया था।
उक्त आक्रमण के समय खारवेल की आयु बत्तीस वर्ष थी। दूसरा आक्रमण उनके शासन के बारहवें वर्ष में किया गया था। वह समय उसकी आयु छः वर्ष का था। इस आक्रमण में वे अश्व, गज, रथ और पैदल विशाल सेना लेकर उत्तरपथ पर विजय प्राप्त करने के लिए गए थे। जब वे वापस हो रहे थे, तब अनेक राजाओं को मगध राज्य के गंगा तट पर डाल दिया गया था। उनके अनेक हाथियों और घोड़ों को गंगा का जल पीकर मगधवासियों के हृदय में भय का संचार हो गया था। उक्त समय में मगध नरेश और सम्राट खारवेल के मध्य युद्ध हुआ या नहीं हुआ, इसका उल्लेख ‘हाथी गुम्फा शिला’ में उपलब्ध नहीं है।
यदि युद्ध हुआ तो मगध देश परास्त हो गया था। यदि युद्ध नहीं हुआ तो खारवेल के प्रताप के कारण उन्होंने अपने चरणों की वंदना करके आत्मसमर्पण कर दिया था। कहा भी गया है—’मागधं च राजां बहसतिमितं पादे वंदपयति’ फलत: खारवेल ‘ कंगलिग जिन’ को मगध और अंग की विशाल सम्पत्ति के साथ कलिंग लाए थे। पिथुंड (पुरी) के क्षेत्र में ‘ कंगलिग जिन’ की पुन: स्थापना या प्रतिष्ठा की गई थी। यहाँ ध्यातव्य है कि उक्त शिला में तत्कालीन मगध नरेश द्वारा इनके पाद वंदना करने का उल्लेख मिलता है यथा ‘मागधं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदपयन्ति’ तो ‘ कंगलिग जिन’ की प्रतिष्ठा के अनुसार उनके राजा, रानी और कुमार को, मंचपुरी में पूजा करते हुए। गुफा के निचले भाग की दीवाल पर चित्रण किया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त ‘ कांगलिग जिन’ किस तीर्थंकर की प्रतिमा थी और उसका अवगाहना कितना था ? इस बात की चर्चा न तो हाथी गुम्फा आकृति में उपलब्ध है और न ही किसी अन्य साहित्य में। यही कारण है कि इस संबंध में विचारों में विविधता आती है। उन शास्त्रों में से किसी ने तीर्थंकर आदिनाथ , किसी ने अजितनाथ , किसी ने शीतलनाथ , किसी ने श्रेयांसनाथ , किसी ने अरहनाथ , किसी ने अरिष्ट नेमि तो अन्यान्यों ने पाशर्वनाथ और महावीर को कंलिग जिन कहा है। अत: यह विवेचनीय है कि ‘कलिंग जिन’ वास्तव में किस तीर्थंकर की मूर्ति है। उड़ीसा की खुदाई करने पर पुरातत्ववेत्ताओं को इस प्रकार की कोई सामग्री नहीं मिली है जो उक्त ‘ कंगलिग जिन’ के गुणचिन्हों को बता सके और उक्त विश्लेषण के आधार पर कह सके या सिद्ध कर सके कि यह अमुक तीर्थंकर की प्रतिमा है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जैन धर्मानुयायी ऐसी परम शक्ति या ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो सृष्टिकर्ता, धर्ता और संहारक हो। जैनागमानुसार अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठी हैं।
ये ही आराध्य, अर्चनीय, सत्त्वनीय और पूजनीय माने गए हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर की मूर्तियों की पूजा करने की परंपरा है। जैन परंपरा में मूर्ति पूजा के चिह्न और प्रमाण मौर्य और श्रृंग काल से निश्चित रूप से प्राप्त होते हैं। ध्यातव्य है कि एक प्रस्तर की बहुत पुरानी प्रतिमा पटना जिले के लोहानीपुर नामक स्थान से खोदकर निकाली गई है, जो जैन धर्म से संबंधित है। यह नग्न आकृति की प्रतिमा ऊपर उठाने वाली है। इस मूर्ति की पलिश उच्च कोटि की है, जिसके कारण इतिहासज्ञों ने इसे मौर्यकालीन माना है।१ इसकी नग्नता तथा बगल से सीधे, लटकते एवं तने लटकते हाथ या भुजाओं से सूचित किया जाता है कि उक्त मूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था की है और यह जिन या किसी तीर्थंकर है। की प्रतिमा है। दुर्भाग्य से इसका ऊपरी और निचला भाग नष्ट हो गया है। अत: यह निश्चित करने का कोई साधन नहीं है कि जिससे यह सिद्ध हो सके कि चौबीस तीर्थंकरों में से यह अमुक तीर्थंकर की मूर्ति है। इसी प्रकार मथुरा में जो महावीर की मूर्ति मिली है वह कुमारगुप्त कालीन है। श्री रामकृष्ण दास का मन्तव्य है कि मथुरा की सांस्कृतिक कला मुख्यत: जैन धर्म की है। अस्तु, अब यहाँ पर ‘ कांगलिग जिन’ के सम्बन्ध में विभिन्न तीर्थंकरों के रूप में ‘विज्ञान की उन कल्पनाओं पर विचार करना आवश्यक है। कांग्लिग जिन की मूर्ति आदिनाथ तीर्थंकर की है—काशीप्रसाद संरक्षक, आर. डी. ‘ कांलिग जिन’ को तीर्थंकर आदिनाथ माना जाता है। डॉ. काशीप्रसाद ने अपनी कृति ‘हाथी गुम्फा आकृति’ में लिखा है कि वह ( खारवेल राजा) कंलिग की कुलायत प्रथम जिन की मूर्ति या पट चिन्ह के साथ अपने घर में कंलिग वापस हुए थे।
आर. डी. ‘हाथी गुम्फा शिला’ नामक कृति में लिखा गया है – उसी वर्ष (बारहवें वर्ष) में राजा नंद द्वारा ले जाई गई जिन ( ऋषभ देव ) की मूर्ति को वापस ले जाया गया था। ‘ कंलिग के लिए’?
कलिंग जिन शीतलनाथ है
काशीप्रसाद सर्वर एवं आर. डी. पार्वती ने कलिंग जिन को दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ की माना है। वे लिखते हैं कि कांगलिग जिन कांगलिग देश के भद्राचलम अथवा भद्रापुरम से मिलते हैं—कुल मिलाकर भादलपुर में जन्म लेने वाले १०वें तीर्थंकर शीतलनाथ ही हैं। यह स्थान वर्तमान में अंधप्रदेश के गोदावरी जिले में है।
कलिंग जिन और अजीतनाथ
कटिपय साप्ताहिक की मान्यता है कि ‘ कांगलिग जिन’ दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ हैं। ‘ कांग्लिग जिन’ को अजितनाथ तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध करने के संबंध में उनके अनेक तर्क हैं। नवीन ने अपने लेख के समर्थन में प्रमुखता दी है कि तीर्थंकर अजितनाथ का प्रतीक हाथी है। कंलिग हाथों के लिए प्रसिद्ध था। अत: यह संभव है कि हाथी चिन्ह वाले कंलिग के तीर्थंकर अजितनाथ ही ‘ कंलिग जिन’ के रूप में विस्तृत हुए हों। लेकिन यहाँ ध्यातव्य है कि तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश में महाराजा जितशत्रु के यहाँ हुआ था। कांलिग जिन और ११वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ —कटिप्य शताब्दी ने ‘ कांलिग जिन’ को ११वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ माना है। जैन पुराणों और महावंश के अनुसार श्रेयांसनाथ का जन्म यशसिंहनाथपुर में हुआ था, ऐसा माना जाता है कि उस समय कंलिग की राजधानी थी। लेकिन जैन धर्मावलम्बी विद्वान वाराणसी के सारनाथ को ही सिंहपुर मानते हैं।
कलिंग जिन और १८ वें तीर्थंकर अरहनाथ—
कांग्लिग जिन की पहचान १८वें तीर्थंकर अरहनाथ के रूप में भी की जाती है। महापुराण के अनुसार कंलिग की राजधानी२ रामपुर या चक्रपुर के राजा अपराजित के यहाँ अरहनाथ की प्रथम कृति (आहार) हुई थी। इसी प्रकार यह उल्लेख भी मिलता है कि बीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि, परम चिन्ह नीलकमल है और शासनदेवी चामुंडी है (भुवनेश्वर का शिखर चामुंडी बहुत प्रसिद्ध है), ने कलिंग में विहार कर धर्मोपदेश दिया था। बीसवें तीर्थंकर पाशर्वनाथ के साथ भी ‘ कांलिग जिन’ का संबंध माना जा सकता है। उदयगिरि की रानी गुफा में उनके जीवन से संबंधित अनेक अंश चित्रावली में चित्रित किये गये हैं। नागेन्द्रनाथ वसु ने उल्लेख किया है कि पाशर्व ने ताम्रलिप्ति बन्दरगाह से कंलोग के अभिमुख आते समय कोपपटक के धन्य नामक श्रावक के यहाँ पारणा की थी। वर्तमान में उड़ीसा का बालासौर उड़ीसा जिले में कुपारी ग्राम कोपपटक स्थित है। डॉ. लक्ष्मीनारायण साहू ने ‘उड़ीसा में जैन धर्म’ में उल्लेख किया है कि उक्त ग्राम आठवीं शताब्दी में कोपार्क ग्राम के रूप में जाना जाता था। उड़ीसा में पाशर्वनाथ की अनेक प्राचीन प्रतिमाएं खंडगिरि की गुफाओं और जैन मन्दिर के अलावा भगवान महावीर के विभिन्न स्थानों में पाई जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय पार्श्वनाथ की पूजा होती थी। चम्बीसवें तीर्थंकर का प्राचीन कलिंग से रहा। हरिवंश पुराण में उल्लेख मिलता है कि तीर्थंकर नेकंलिगमें विहार किया था।
कहा भी है— मौक…….।
मध्यदेशानिभान् मन्यान् कलिंगकुरु जाङ्गलां,
धर्मेणायोजमद् वीरो विहरान् विभवान्वित: यथाव भगवत् पूर्व वृषभो भव्यवत्सल:।।
हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की वृत्ति में उल्लेख किया है कि जिन उपदेशों को ग्रहण करने के ग्यारहवें वर्ष में अपने उपदेश देने के लिए भगवान महावीर समग्र आये थे। तोसली (वर्तमान में दया नदी के किनारे स्थित धौली) में धर्मोपदेश देते हुए मोसली में विहार किया गया था। कहा भी गया है: ‘ततो भगवान तोसिंल गाओ…….तत्थ सुमागहो गाम रत्तो पिय्यत्तो भगवानयो सो मोए ततो सानि मोसिंल गाओ’। भगवान महावीर का समोवसरन कुमारी पर्वत पर आया और धर्मचक्र प्रवर्तन का उल्लेख भी जैन साहित्य में हुआ है। कलिंग में भगवान महावीर की विभिन्न स्थानों में विपुल प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं, जो इस बात का प्रतीक हैं कि कलिंग देश में विहार करने की स्मृति में पूर्ववर्ती तीर्थयात्रियों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका ज्ञानोदय वहां के लोगों के दिमाग में बिल्कुल ताजा है। यही कारण है कि उनके निधन के बाद कंलिग निवासियों ने उनकी पूजा के लिए अनेक यहूदियों का निर्माण किया होगा। प्राप्त की मूर्ति को मगधाधिपति नन्द ई. पू. चौथी शताब्दी में कलिंग विजयोपरांत हुए और उसी समय सम्राट खारवेल मगध को विजय कर वापस लाए। परन्तु इस प्रकार की सम्भावना अन्य तीर्थंकरों के प्रसंगों में प्रमुख आदिनाथ के संबंध में भी की जा सकती है। तीर्थंकर शीतलनाथ की जन्मभूमि भदिलपुर को उपयुक्त विद्वान मानते हैं क्योंकि भदिलपुर मलय जनपद की राजधानी थी जो जैन साहित्य में गणमान्य देशों की सूची में सम्मिलित है। यह स्थान हजारीबाग जिले के भदीय ग्राम को मलय जनपद की राजधानी के रूप में अंकित किया गया है। यहाँ कोल्हुआ पहाड़ पर कई प्राचीन मूर्तियाँ विद्यामान हैं। मैं स्वयं अपनी बेटी रजनी के साथ अचानक पहाड़ पर चला गया था। ग्रामवासी उक्त तीर्थंकर की मूर्ति को ग्राम देवता के रूप में पूजते हैं। अब प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भी यहाँ विचारणीय हैं। अधिकांश लोग मानते हैं कि ऋषभदेव ही ‘ कंगलिग जिन’ हैं। डॉ. एन. के. साहू ने उड़ीसा के इतिहास में लिखा है कि ऋषभदेव ही वे ‘ कांगलिग जिन’ के खारवेल पूजा या उपासना करते थे। खारवेल मथुरा से पवन राजा दिमित कोस्ट कर जिस कल्पवृक्ष को कलिंग लाया था—’सबत्सेन वाहुने विपमुचितुं मधुरं अप्यतो यवनराज…….पलव भार कपरूखे हय गज, राधा सह यति…….।
डॉ. नवीन साहू ने इसका संबंध ऋषभदेव के कैवल्य वृक्ष के रूप में माना है। अपने प्रशासन के ग्यारहवें वर्ष में प्रसिद्ध तथा पूज्य स्थान पिथुंड को बैलों से न तो जोड़ा गया, संभवतः इसका कारण यह है कि ऋषभदेव के प्रति उनकी अपरिमित समर्पण और श्रद्धा का होना है। (एकादसमे चवसे……युवराज निवेशं पिथुडं गधव नंगलेन कस्यति। मौखिक भावना आध्यात्मिक भावनाओं से संबंधित है। बैल ऋषभदेव का प्रतिनिधित्व करने वाला है। इसके अतिरिक्त खण्डगिरि की चोटी पर जैन मन्दिर ऋषभदेव के लिए समर्पित है। इसके अलावा संगमरमर से बना है) खंडिगिरि की गुफाओं में ऋषभदेव की प्रमुख और विशिष्ट रूप से स्थापित मूर्तियां हैं। सम्पूर्ण उड़ीसा राज्य में फली हुई मूसा और मूसा का सर्वेक्षण करने पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उड़ीसा के कोने—कोने में ऋषभदेव की मूर्तियां अत्यंत प्रसिद्ध थीं । मध्यकालीन उड़िया उड़ीसा साहित्य तथा प्रचलित विभिन्न परम्पराओं एवं परिवेशों में ऋषभदेव और उनकी शिक्षाओं और उपदेशों की प्रचुरता से व्यापक है। ८ अत: सिद्ध है कि आदिनाथ की मूर्ति ही ‘कलिंग जिन’ है। सी. जे. शाह का मत—शाह’ ‘जैनवाद इन नार्थ भारत’ में उक्त विषय का विश्लेषण करते हुए लिखा गया है कि उस समय ‘कलिंग जिन’ क्यों कहलाते थे ? यह विषय महत्वपूर्ण है और इंटरनेट से विचारणीय है। अंत में यह बात बहुत विचित्र लगती है। यह कंलोग मूर्ति क्यों कहलाती है ? उनका मत है कि यह मूर्ति किसी ऐसे तीर्थंकर की ओर संकेत नहीं करती है जिसका जीवन इतिहास से संबंध हो। मुनि जिनविजय के विवेचन के अनुसार ऐसा लगता है कि यह आदत या परंपरा प्रचलित है कि किसी स्थान पर विशेष स्थापित किसी तीर्थंकर को उसी स्थान के नाम से अभिहित किया जाना लगता है।
उदाहरणार्थ शत्रुञ्जय में स्थापित प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति को शत्रुञ्जय जिन कहा जाता है। आबू की मूर्तियों को अर्वुड जिन और मेवाड़ के धुलेव की मूर्तियों को धुलेव जिन कहते हैं। अत: ‘ कांगलिग जिन’ का यह आवश्यक आधार नहीं है कि यह ऐसे तीर्थंकर की प्रतिमा है जिसका जीवन इतिहास से संबंध कांगलिग देश से हो। ‘ कांगलिग जिन’—इसका अर्थ केवल यह है कि जिन नामक तीर्थंकर या जैनों की प्रतिमा कालिंग और उसकी राजधानी में पूजी जाती थी। नीलकंठ दास का मत—दास ने कलिंग जिन की पहचान जगन्नाथ के रूप में की है। उनका कथन है कि यह जगन्नाथ कंलिग (उड़ीसा) के समुद्री तट पर काले पाषाण का अंश कंलिग जिन या कलिंग का प्रतीक प्रतीत होता है।
कहा भी गया है—यह जगन्नाथ के रूप में प्रकट होता है, कलिंग (वर्तमान उड़ीसा) के तट पर काले पत्थर के एक टुकड़े के रूप में था जिसे कंलिग में जिन के प्रतीक या कंलिग में जिन के प्रतीक के रूप में कहा जाता था। उक्त कथन को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि इसके नमूनों ने इसका विश्लेषण करके ‘नील माधव’ कहा जाने लगा। ऐसी सम्भावना दिखती है कि इस व्याख्यात्मक नाम का संबंध महायान से विकसित शून्यवाद से है, जो उस समय भारतीय दर्शन पर छाया हुआ था। इस सिद्धान्त के अनुसार केवल शून्य की शक्ति है। संसार में कुछ भी सत्य नहीं है। महायान मानते हैं कि बुद्ध ने करुणा ग्रन्थ संसार की रचना की है। कलिंग जिन की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि नील नाम काला कुछ नहीं है।
माँ नाम माता या सृजनात्मक सृजनात्मक माँ और धवे नाम पृथ्वी प्रपञ्च। अत: ‘ कंलिग जिन’ यानी काले पत्थर के जिन चिह्न को बहुत समय पूर्व से नील माधव के रूप में जाने जाते थे। काला पत्थर जंगल में आदिवासियों द्वारा पूजा जाता है। उक्त कथन पर विश्वास होता है क्योंकि कलिंग जिन की मूर्ति काले पाषाण की थी। मौर्यकाल के पूर्व या मौर्य काल—यह पहले ही कहा जा चुका है कि उड़ीसा जैन धर्म का केन्द्र (गढ़) था। मगध शासकों ने कलिंग जिन को विजय वस्तु माना था। इस कलिंग जिन के लिए खारवेल सम्राट ने मगध के राजाओं के प्रति अनेक युद्धाभ्यास किये थे। कलिंग पर अशोक के आक्रमण में जैन धर्म संबंधी भावनाओं (विचारों) पर, जिसे कलिंग के राजा-प्रजा अत्यधिक राग रखने और समान रूप से प्रेमपूर्वक माने गए थे, प्रतिबन्धित लगा दिया गया था। उनका दण्ड कर कुचला गया था। क्योंकि ‘कलिंग जिन’ जगन्नाथ के पूर्व का रूप है या यह एक भिन्न स्तम्भ या मूर्ति है जो प्राचीन उड़ीसा में पूजनीय थी।
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान में जगन्नाथ के रूप में कलिंग जिन की पूजा होती है। मंचूरी गुफा के बरामदे की अन्दर की दीवाल पर कई चित्र दिखाए गए हैं जिनमें प्रतिमा की पूजा की जाती है। पूजनीय वस्तु वास्तव में क्षणिक आवेश, परिस्थितियों और तल भाग के संरक्षण के कारण बुरी तरह से प्रतिकूल हो गई है। चित्रित वस्तुओं की धुंधली समानताएँ अध्ययन के लिए समय पर अध्ययन की वस्तु रही। डी. एन. रामचंद्रन और उनके अनुकरण करने वाले के. सी. पाणिग्रही, एन. के. शाह ने पूजा जाने वाली अदृश्य वस्तु को ‘कलिंग जिन’ का सिरमौर बताया है। बहुत कुछ सम्भावना है कि यह ‘कलिंग जिन’ को खारवेल सम्राट द्वारा पुन: स्थापित करने से संबंधित दृश्य हैं, जिनमें खारवेल अपने परिवार सहित हैं। चौकी पर पूजनीय आभासी वस्तु रखी जाती है जिसे संरक्षित नहीं किया जा सकता। चार पैरों वाले हाथी जो तुरन्त राजसी हाथी से आये हुए हैं। उक्त चित्र में ऊपर अंकित सूर्य चिन्ह चित्रित किया गया है। दो उड़ते हुए गंधर्व दिव्य संगीत का संगीत रचे हुए हैं और उड़ता हुआ विद्याधर पूजा की सामग्री को बायें हाथ में थाली से फूलों को फैलाते हुए भावना से गति है। चित्र के बानी की ओर दूसरे चित्र के सिर पर मुकुट उसी प्रकार से चमक रहा है जैसे कि सारनाथ में मौर्यकालीन सिर पर शिरोभूषण होता है। उत्तरीय बायें कंधे से पार करता हुआ फैशन रूपी दुपट्टा में एक—दूसरे से दूरी पर खड़े हैं। सभी लम्बी धोती पहने हुए हैं। आड़े तिरछे लपेटे हुए दुपट्टे भारी कनफूलों से युक्त होते हैं। विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर टी. एन. रामचंद्रन खारवेल के परिवार के सदस्यों से संबंधपरक होते नजर आते हैं।
कहा भी है—क्या हम इस दृश्य को ऐसे लें जिसमें राजा ( खारवेल ), संभवतः कुदेपसिरी के राजकुमार और रानियां या राजकुमारियां कलिंग जिन की मूर्ति का सम्मान कर रहे हैं जिसे खारवेल ने मगध से प्राप्त किया था और अपने लोगों को लौटा दिया था। १ अर्थात् एक दृश्य में राजा खारवेल , राजकुमार, संभवतः कुदीपश्री और रानी अथवा कुमारी कांग्लिग जिन की अर्चना कर रहे हैं, जो मगध से लाए थे और अपनी प्रजा के लिए पुन: स्थापित किया था। कहा जा सकता है कि उन दिनों जैन धर्म सम्पूर्ण राज्य में व्याप्त था। सभी लोग किसी न किसी तीर्थंकर की पूजा करते थे। लेकिन कंलोग जिन तीर्थंकर की मूर्ति है, यह कह पाना कठिन है। तीसरी बात यह है कि खंडगिरि और उदयगिरि की गुफाओं में एवं हाथी गुम्फा चट्टानों में स्वस्तिक, श्री वस्त, नंद्यावर्त, वर्धमान, रूख चेतिय आदि अष्ट मांगलिक चिन्ह उपलब्ध होते हैं। संभव है कि इसकी भी पूजा जैन धर्म में की जा रही हो। जय—विजय और अनन्त गुफा में एक चैत्य वृक्ष की पूजा करते हुए सर्वप्रथम भक्तों को दिखाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय चैत्यवृक्षों की भी पूजा की जाती थी। डॉ. शशिकांत जैन का इस संबंध में यह मन्तव्य उचित ही है कि पूजा के समय उक्त अष्टमी की आवश्यकता होती है।
भगवान इंद्रजीत ने नंदीपात चिन्ह को चुल्ल कंलिग जातक के आधार पर सपेद बैल माना है जो कंलिग के रक्षक देव का आकार है। एम. के. दास का मत— कंलिग जिन के संबंध में विशिष्ट विचार करते हुए, प्राचीन भारत में कहा गया है कि ४—५वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जिन कलिंग जिन को मगध का राजा नन्द कलिंग से ले गए थे और जिसे खारवेल सम्राट वापीस कंलिग लाए थे, यह कलिंग जिन ई. पू. ४—५वीं शताब्दी से बहुत समय पहले भी थे और उस समय यह जगन्नाथ दर्शन का प्रतीक था। कुछ पुस्तक का कथन है कि पुरी समुद्री का प्रतीक ‘जिन’ या ‘ कंगलिग जिन’ है। पू. ४थी शताब्दी से प्रथम शताब्दी तक पुरी में नहीं थे। क्योंकि चौथी शताब्दी में नंद राजा का अपहरण कर मगध ले गए थे। इस काल में उक्त चिन्ह का रिक्त स्थान वेदी या महावेदी कहा जाता था। स्कन्ध पुराण के उत्कल काण्ड में उसी स्थान पर वेदी और महावेदी के नाम का उल्लेख है जिस स्थान (नील माधव के रिक्त स्थान) पर जगन्नाथ की मूर्ति स्थापित की गई थी।
पांचों युगों के अन्तराल के बाद खारवेल द्वारा पुन: स्थापित उसी ‘ कंलिग जिन ‘ या पाषाण को नील माधव नाम दिया गया हो, जो वास्तव में आदिनाथ ही थे। मर्विनशॉ नामक विद्वान ने ‘सेज आप दी भूमि जगन्नाथ ‘ में एक दंतकथा के आधार पर संभावना वाले व्यक्ति की है कि जिस काल्पनिक रूप में शिविंगलग की शवर लोग पूजा करते थे, उसी बाद में जैन तीर्थंकर की मूर्ति के रूप में संशोधित हो गई। इससे यह भी संभावना व्यक्त की गई है कि जिनेश्वर ही जगन्नाथ हैं और खारवेल ही गमलाधव हैं। उक्त कथन से यह सिद्ध हो सकता है कि कांग्लिग जिन की प्रतिमा खंगासन रूप में थी। विभिन्न मनुष्यों के मतों के विश्लेषण पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि— १. नंद राजा द्वारा ‘कलिंग जिन’ को मगध ले जाने का उल्लेख उड़ीसा की प्राचीन संस्कृति की दृष्टि से बहुत रोचक है। उड़ीसा प्राचीन काल में जैन धर्म का केन्द्र था। यहाँ ऋषभदेव या आदिनाथ का समवसरण (धर्म सभा) कलिंग में आया था। आदि पुराण में भी कहा गया है—
काशी मन्तिकुरुकोसलसुह्म पुण्ड्राण, चेद्यङ्ग वङ्गमगधन्ध्रकिंगलग मद्राण। सन्मार्ग देशन परो विजयहार धीर:।। प्रो. डॉ. राजाराम जैन ने मंजूश्री के मूलकल्प के कथन का निर्देश करते हुए लिखा है कि प्राचीन भारत के श्रेष्ठ साधकों में मूलकल्प के ऋषभदेव का भी अन्यतम स्थान था। १४२. कलिंग जिन का पिठौड़ में पुन: स्थापना करने के पूर्व उसे पवित्र करने की दृष्टि से उसे गढ़ों से जुतवाया जाना इस बात का प्रतीक है कि राजा खारवेल आदिनाथ तीर्थंकर के प्रतीक वृषभ को जोत कर वृषभनाथ के प्रति अनादर प्रकट नहीं करना चाहते थे। वर्तमान में उड़ीसा के जैन स्मारकों से संबंधित स्थानों का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है कि ऋषभदेव की मूर्तियां वहां पाई जाती हैं। फलत: यह कहने में कोई वृद्धि नहीं है कि ऋषभदेव कांगलिग के परम आराध्य देव थे और वे ही ‘ कांगलिग जिन’ के रूप में पूजे जाते थे। अत: उपर्युक्त कथन से सिद्ध है कि तीर्थंकर आदिनाथ ही कंलोग के जिन के रूप में विख्यात थे।
सन्दर्भ
१. जैनधर्म, पं. वैलाशचंद्र शास्त्री, प्रा. २०८-
२. महाभारत, शान्ति पर्व ४.३
३. हरिवंश पुराण, सर्ग ३, श्लोक १—७
४. आवश्यक सूत्र, आगमोदय समिति, प्र. १९—१९
५. उड़ीसा का इतिहास, भाग १, प्र. 3. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 19. 19. 20 …