कलम कमठ सी मद्धम है, तुम काल चक्र की महागती।
कैसे वन्दन कर पाऊँगा, हे महा आर्यिका ज्ञानमती।।
क्या लिखूँ मैं नश्वर दीप भला, तुम हर्ता महा दिवाकर पर।
तुम गगन को छूती डाल वृहद्, मैं हूँ नन्हा पक्षी बिन पर।।
स्वर्ण गिरी की आभा क्या, घाटी तल से दिख सकती हैं।
घट की बूंदें कैसे कविता, सागर जल पर लिख सकती हैं।।
मैं सुमन धरा की गोद पला, तुम कल्पवृक्ष सी पावन हो।
मैं शब्द ज्ञान अभी सीख रहा, तुम महाकाव्य मन भावन हो।।
मैं अक्षर तट सा वेगहीन, तुम बहते जल सी वेगवती।
कैसे वन्दन कर पाऊँगा, हे महा आर्यिका ज्ञानमती।।
जग उपवन से हे मात अमृते! तुमने पीर चुनी केवल।
हे धु्रवे! सदा तप वैभव की, तुमने आकृति बुनी केवल।।
कभी न तुमने स्वप्न रचे, सम्मान मिले-सत्कार मिले।
नहीं पिपासा जगी हृदय में, निज मठ-निज जयकार मिले।।
चिर प्रभे! रहीं तुम अनासक्त, यश ख्याती के उपहारों से।
संसार को अमृत दिया निरन्तर, उलझ-उलझ विषधारों से।।
हे गजमुत्ते! हे शब्द शिल्पि! हे युग परिवर्तक कालगती।
कैसे वन्दन कर पाऊँगा, हे महा आर्यिका ज्ञानमती।।
जग का कहना कवि तिमिर हरे, बहु तुरत ज्ञान का दीप जले।
ज्यों खारे जल के तलघर में, सुन्दर मोती कोई सीप ढले।।
हे नील गगन की नृप! यूँ हम, संसार को तो छल सकते हैं।
हम तो केवल हैं तुच्छ दीप, तेरी पूजा में जल सकते हैं।।
तुम हो कविता की कल्पतरु, हम शब्दों के अंकुर केवल।
हम लघु ज्यों छोटा ताल कोई, तुम बहती नदिया की कल-कल।।
हम मृण्मय माटी की काया तुम हो चिन्मय स्व-श्वास गती।
कैसे वन्दन कर पाऊँगा, हे महा आर्यिका ज्ञानमती।।
जिन तीर्थों ने पग-पग कल्मष, धोया औ जीवोद्धार किया।
उन तीर्थों का निज हाथों से, पावनतम जीर्णोद्धार किया।।
उन-उन धामों को प्राण दिये, जो अर्चन के अधिकारी थे।
सरल सुलभ वो ग्रंथ लिखे, जो कल्याणक हितकारी थे।।
अद्र्ध शती तक तप अग्नी में, तपा सो कुन्दन रूप धरा।
तुम को पाकर अम्बर झूमा व नर्तन में रम गई धरा।।
हम जंगम-जड़ता जड़ बुद्धि, तुम तो हो पावन देवमती।
कैसे वन्दन कर पाऊँगा, हे महा आर्यिका ज्ञानमती।।