एक बार की बात सुनो भाई, इक बच्चा माँ के संग चला।
पथ में चलते-चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।। टेक.।।
होता क्या है कुछ दूर पहुँचकर, बच्चा ठोकर खाता है।
माँ की अंगुली को छोड़ वहीं, मुन्ना रोने लग जाता है।।
माँ बोली कल तेरे भैया को चोट लगी, वह नहि रोया।
तू भी तो उसका भाई है चल खेल खिलौना भी खोया।।
प्रथमानुयोग ऐसे आदर्शों, को बतलाता सदा चला।
पथ में चलते चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।।१।।
बच्चे का रोना नहीं रुका, माँ के इस सम्बोधन पर भी।
तब माँ भी और तरीके से, समझाने लगी सड़क पर ही।।
कल तूने अपने भैया को हंस-हंसकर और चिढ़ाया था।
उसके फल में ही गिरा आज तू इसी मार्ग पर आया था।।
करणानुयोग शुभ-अशुभ कर्म के सुख-दु:ख फल को रहा चला।
पथ में चलते चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।।२।।
इतना कहते ही और चिढ़ गया मुन्ना रोकर कहता है।
भैया पर मैंने हंसा कभी, वह भी तो मुझ पर हंसता है।।
माँ भी कुछ गुस्से में बोली, तुमने नीचे क्यों नहि देखा।
पथ देख के चलने वाला मानव, निंह गिरता हमने देखा।।
चरणानुयोग पथ देख-देख चलने की सिखलाता है कला।
पथ में चलते चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।।३।।
तो भी वह बालक चुप न हुआ, आँसू का झरना फूट पड़ा।
रोना सिसकी में बदल गया, माँ के आंचल पर कूद पड़ा।।
माँ तो ममता की मूरत है, उसने मुन्ने को उठा लिया।
तू मेरा राजा बेटा है, नहि चोट तुझे लगती भइया।।
द्रव्यानुयोग आत्मा को राजा बेटा कह जड़ से बदला।
पथ में चलते चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।।४।।
ऐसे ही सरस्वती माता, जग को यह कला सिखाती है।
चारों अनुयोगों में निबद्ध, जिनवाणी राह दिखाती है।।
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग स्वाध्याय करो।
क्रम-क्रम से फिर द्रव्यानुयोग में, आत्मा का अध्याय पढ़ो।।
‘चंदनामती’ जग इसी तरह से, सीखेगा अध्यात्म कला।
पथ में चलते-चलते माँ ने, सिखलाई कैसी ज्ञान कला।।५।।