कागदीपुरा (नालछा) में ही पंडित आशाधरजी द्वारा निर्मित विद्यापी
सारांश २३ अक्टूबर २००३ को नालछा के समीप कागदीपुरा से भगवान नेमिनाथ की १३ वीं शती की एक पद् —मासन सांगोंपांग प्रतिमा प्राप्त हुई।
इस प्रतिमा की प्राप्ति स्थल के ऐतिहासिक सन्दर्भों एवं पुरातात्विक अवशेषों का विश्लेषण प्रस्तुत आलेख में किया गया है।
नाालछा धार जिले की धार तहसील के माण्डव से १० कि.मी. एवं धार से २५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह २२० १६ उत्तरी अक्षांस ७५०२९’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। नालछा के अवशेषों में प्राचीनतम अवशेष के रूप में जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की उत्कीर्ण प्रतिमा, जो कुक्षी से प्राप्त हुई थी, के लेख पर मण्डालिका दुर्ग में प्रतिमा दान का उल्लेख है। यह प्रतिमा लगभग (६) छठी ईस्वी की है। धार से २० किलो मीटर धार मण्डव मार्ग पर लुनेरा (लुन्हेरा) ग्राम स्थित है। यह २२०२८’ उत्तरी अक्षांस व ७५० २५’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। इस गाँव के पास मानसरोवर तीर्थ स्थल स्थित है। गाँव के दक्षिण पश्चिम में अवश्य जैन मूर्तियाँ मिली हैं। पठार में नीचे उतरते ही तलहटी में मेवाड़ से आये हुए लोगों की एक बस्ती भी मिली है, जिसकी पहचान माण्डल दर्ग के रूप में की जा रही है। यहाँ एक मडलासी तालाब भी है। इस स्थल से पश्चिम में कुंजड़ा खोपडा (खाई) एवं चमार डांग क्षेत्र में प्राचीन काल के रिहायशी मकानों के अवशेष मिले हैं। मण्डल दुर्ग मूलत: राजस्थान के उदयपुर से १६१ कि.मी.है। यह एक पर्वतीय शिखर पर आधा मील के क्षेत्र में विस्तारित था और अपनी गोलाकार आकृति के कारण मण्डलाकार नाम से भी जाना जाता था, राजस्थान पर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भीषण विनाश किया और चारों ओर आतंक फैला दिया।
माण्डल दुर्ग भी मोहम्मद गौरी द्वारा जब जीत लिया गया तो प्रसिद्ध जैन विद्वान आशाधरजी अपने १७०० साथियों को साथ लेकर मालवा के परमार शासक विन्ध्य वर्मन के संरक्षण मेंचले आये, उन्होंने धार व माण्डु के मध्य स्थित नालछा ग्राम को अपना स्थायी निवास बनाने का निश् चय किया, पं. आशाधर परवर्ती परमार शासक सुभर वर्मा एवं जयतुंग देव के भी समकालीन रहे। आशाधर का पुत्र भी परमार शासकों की सेवा में था। नालछा के समीप आशाधर का निवास अज्ञात था। मई—जून १९८२ में राष्ट्रीय सेवा योजना के शिविर में एक स्थान खोज निकाला गया जहाँ पर कुछ समय पूर्व तक सौड़पुर के जागीरदारों का दरबार लगता था। यहाँ आम वृक्षों से घिरा ७² ७ वर्ग मीटर का एक ओटला (चबूतरा) है, इसी स्थान के समीप पूरी हुई एक बावड़ी है, जिसकी प्राचीर में प्रस्तर पर ‘माण्डल’ शब्द खुदा हुआ है। स्थानीय लोगों से ज्ञात हुआ कि यहाँ पर एक छोटा सा दुर्ग था जिसकी प्राचीरें दक्षिण में कूजंड़ा खोदड़ा, पश्चिम में चमार डांग एवं उत्तर में मानसरोवर तक विस्तृत थी। तालाब वाले इस क्षेत्र के उस पार जैन मन्दिर के अवशेषों के ढेर पड़े हैं, उनमें से मन्दिर के पत्थरों और अनेक जैन तीर्थंकरों की खण्डित प्रतिमाओं को कृषकों ने अपने खेतों में मेड़े पर लगा रखा है। पण्डित आशाधर के साथ आये लोगों ने मिलकर अपने मूल स्थान की स्मृति में नालछा के समीप ही दूसरा माण्डल दुर्ग स्थापित किया।
निश्चिित ही यह पर्वतीय शिखर के बजाय पठारी भाग पर बनाया गया था। यहाँ पर एक तालाब और जैन मन्दिरों का निर्माण भी करवाया गया। यहीं के जैन मन्दिर में रहकर पण्डित आशाधर ने भारत प्रसिद्ध जैन ग्रन्थों१ की रचना जिसके कारण नलकच्छपुर (नालछा) जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बन गया। लुन्हेरा—नाालछा के मध्य में धार—माण्डव मार्ग से एक कि.मी.पश्चिम में कागदीपुरा गांव स्थित है, यह २२०२७’ उत्तरी अक्षांस व ७५०२५’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। इस गाँव के बीहड़ में झाड़ियों में दबे गड्ढे मिले हैं, जो चूने व कांक्रीट से बने हैं। इन्हीं गड्ढे के समीप २०²१५ मीटर के पक्के चबूतरे (प्लेट फार्म) भी मिले हैं। यहाँ से दिनांक २३ अक्टूबर २००३ को धनतेरस के दिन रेखा नामक लड़की द्वारा मिट्टी खोदते समय बार्इंसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा प्राप्त हुई। पद्मासन की ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे हुए तीर्थंकर नेमिनाथ की यह दिगम्बर प्रतिमा नग्न अवस्था में है। सिर पर कुन्तालित केश, लम्बे कर्ण चाप, गर्दन में तीन मोड चिन्ह है। लम्बी नासिका थोड़ी रेखानक से अलग दिख रही है। शान्त मुद्रा, वक्ष पर श्रीवत्स, नाभि पर अष्ट रेखा का रेखांकन है। हाथों की हथेली एवं पैरों के तलवों पर भी सूर्य चक्र का रेखांकन है। पादपीठ पर चार पंक्तियों का लेख उत्कीर्ण है, जो पूष मासे १३ सोमवार, विक्रम सम्वत् १२९९ (ईस्वी सन् १२४२) का लेख उत्कीर्ण है।
इसमें मूलसंघे, पदमा पुत्र महादेव द्वारा यह प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराये जाने का उल्लेख है। लेख वाचन इस प्रकार है— १.सं. १२९९ वर्षो घोसरा १३ सोमवार २.मूलसंघे ऽ११ वीजयो तीरन शे वंश जिन ३.निज कूटान्वये सान्दाहडता जी माती पुत्र लीछा प्राटी श्री गिणी ४.सा विषे भंवरता जी पदमा पुत्र महादेव पूजा द्वारा दिव महादेव प्रति प्रण मति नितां यह प्रतिमा परमार शासक जय तुंग देव के समय की है। पण्डित आशाधरजी १२४२ में नलकच्छपुर (नालछा) में निवास कर रहे थे। इस प्रतिमा की प्राप्ति से यह प्रमाणित होता है कि इसी स्थान पर पण्डित आशाधर द्वारा स्थापित नेमिनाथ जिनालय था। यहाँ स्थित प्लेटफार्म एवं भवनों के अवशेष उनके द्वारा स्थापित साहित्य मन्दिर एवं विद्यापीठ के अवशेष प्रतीत होते हैं। यह शोध का विषय है। मालवा के साहित्यकारों में कवि आशाधर का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मोहम्मद गौरी के आक्रमण के पश्चात् ११९२ ई. के लगभग आशाधर के पिता श्री सल्लक्षण अपना निवास स्थान मांडवगढ़ छोड़कर धारा नगरी आ गये थे। आशाधर की माता का नाम श्री रत्नी, पत्नी का नाम सरस्वती और पुत्र का नाम छाहड़ था। आशाधर उस युग की महान विभूति थे, उन्होंने धारा नगरी के पांच परमार राजाओं का राज्य देखा और उनके राजाश्रय में सम्मान प्राप्त किया। जैनधर्म के उत्थान के लिये उन्होंने धारा नगरी के समीप नलकच्छपुर (नालछा) को अपना मुख्य निवास स्थान बनाया वहाँ के नेमि चैत्यालय में रहते हुए अनेक ग्रन्थ लिखे और लोगों को शिक्षित बनाया। उनकी शिष्य परम्परा में से अनेक विद्वानों को मध्यकाल की विभूति माना जाता है।
अर्जन वर्मन (भोज द्वितीय) परमार के समय जैन धर्म की शिक्षा और प्रचार-प्रसार के केन्द्र स्थापित किये गये। आशाधर ने स्वयं भी इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु नलकच्छपुर (नालछा) को अपना निवास बनाया। उन्होंने लिखा है कि— अब इस समय पुन: मालवा में जैन श्रावक स्वच्छन्दता पूर्वक बिहार करने लगे हैं। पण्डित आशाधर एक प्रकाण्ड विद्वान, विविध विषय विशेषज्ञ एवं कुशल ग्रन्थकार थे। गद्य और पद्य में लिखे हुए उनके बीस से अधिक गन्थ ज्ञात हैं। इनके विषय हैं— कोश, काव्य शास्त्र, वैहाक शास्त्र, पूजा प्रतिष्ठा, धर्म शास्त्र, दर्शन, सिद्धान्त तथा काव्य आदि। नलकच्छपुर (नालछा) के नेमिनाथ जिनालय में उन्होंने अपना एक साहित्य मन्दिर एवं विद्यापीठ स्थापित किया था। उनके शिष्य बाल सरस्वती मदन तथा अर्हद्दास ने भी कई ग्रन्थ लिखे। ‘‘पारिजात मंजरी’’ शासन चतुस्त्रिशतिका’’, ‘‘पुरुदेवचम्पू’’ और ‘‘भव्य जनकाण्ठा भरण’’ आदि इनमें प्रमुख हैं। एक अन्य समकालीन जैन कवि और सम्भवत: आशाधर के गुरु भाई दामोदर कवि कृत ‘‘नेमीनाथ चरित्र’’ भी ऐसी रचनाओं के साथ—साथ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आशाधर लगभग ३५ वर्षों तक मालवा में रहे और मृत्युपर्यन्त देवपाल देव तथा जैतुंगी देव के समय तक शासकीय सम्मान पाते रहे। नलकच्छपुर (नालछा) में रहते हुए उन्होंने जाति, कर्तव्य, स्याद्वाद तथा अर्हं्त की भी सुन्दर व्याख्या की।
परमार काल में मालवा में जैन धर्म प्रगति पर था। लेकिन इस प्रगति के साथ—साथ जैन धर्म में अनेक बुराईयाँ भी आ चुकी थीं। आशाधर जैसे विद्वानों ने उन्हें दूर करने के लिये अत्याधिक प्रयत्न किये। जैन धर्म में पनपा देवतावाद भी इनका मुख्य कारण था। मध्यकाल में जैन धर्म भी तांत्रिक प्रभाव से अछूता नहीं था और तीर्थंकरों के साथ—साथ अन्य देवताओं की पूजा प्रतिष्ठा में वृद्धि हो रही थी। हेलाचार्य, इन्द्रनंदि और मल्लिसेण जैसे दिग्गजों ने तांत्रिक साधना की जो प्रेरणा ९ वीं—दसवीं शती के लगभग समाज को दी वह आशाधर के समय खूब फैल चुकी थी। जैन परम्परा के पंच परमेष्ठियों की पूजन परम्परा की पूजन परम्परा का विधान बड़ा प्राचीन है। असद्भाव स्थापना पूजा, जिसे जैन प्रचारकों ने प्रारम्भ में अनुचित बताया है, मध्यकाल में वह प्रचलित हो रही थी। आशाधर जैसे विचारक असद्भाव स्थापना पूजा के विरूद्ध थे। अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रतिष्ठासारोद्धार’ में उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि असदभाव स्थापना से लोग मोहित होकर अन्यथा कल्पना की ओर उन्मुख हो जाते हैं। वे त्रिषष्ट शलाका पुरुषोें की आराधना को महत्व देते थे और सम्भवत: इसीलिए अनेक प्रतिष्ठा और चरित्र ग्रन्थों के होते हुए भी उन्होंने ‘त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र’ की रचना की थी।
आशाधर के समय जैन धर्म बहु देवतावाद से प्रभावित हो चुका था। चौंसठ योगिनियों और ९६ क्षेत्रपालों की पूजा को महत्व प्राप्त हो रहा था और उनसे सम्बन्धित स्तुति परक साहित्य का सृजन भी हो रहा था। भैरव पद्मावती कल्प, विद्यानुवाद, कामचाण्डलिनी कल्प, यक्षिणी कल्प, ज्वालिनी कल्प, दुवालिनी कल्प मंत्राधिराज कल्प आदि ग्रन्थों में यक्ष—यक्षियों के विविध स्वरूपों की कल्पनाएँ तो थी हीं, साथ—साथ देवी कल्प, अम्बिका कल्प और अद्भुत पद्मावती कल्प जैसे तांत्रिक प्रभाव से युक्त ग्रन्थों का प्रचार—प्रसार भी जैन मतावलम्बियों को प्रभावित करने लगा था। आशाधर की दृष्टि से इस प्रकार प्रभाव आम्नाय को विच्छेद की ओर उन्मुख करने वाला था मालवा के इस जैन पण्डित ने आम्नाय की एकता को दृष्टिगत रखते हुए विक्रम सम्वत् १२८५ (१२२८ ई.) में जब परमार नरेश देवपाल देव मालवा का शासन था तब, ‘प्रतिष्ठासारोद्धार’ नामक अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ जैन प्रतिमा विज्ञान की महत्वपूर्ण कड़ी है। जैन विद्वानों के जिसे कलियुग का कालिदास कहा है, वह सन् ११९५ सन् १२४५ तक यहीं के नेमि चैत्यालय में रह रहा था। उपरोक्त विवरण स्पष्ट होता है कि नालछा के आसपास का भाग, जहाँ कई नये गाँव बस गये हैं, परमार काल में नालछा नगर के अन्तर्गत थे। पण्डित आशाधर का निवास, नेमि जिनालय, साहित्य मन्दिर एवं विद्यापीठ की खोज के सन्दर्भ में मेरा यह सुनिश्चित मत है कि कागदीपुरा से मिली तीर्थंकर नेमिनाथ की दिगम्बर जैन प्रतिमा पण्डित आशाधर की समकालीन प्रतिमा होकर नेमि जिनालय में स्थापित मुख्य प्रतिमा है। मन्दिर का सम्पूर्ण भाग उसी स्थान पर बिखरा पड़ा है, वहाँ पैâले है, वहाँ पैâले अवशेष साहित्य मन्दिर विद्यापीठ के अवशेष हैं।
सन्दर्भ
१. पंडित आशाधर ने विपुल परिमाण में साहित्य का सृजन किया है। वे मेघावी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे। अब तक उनकी निम्नलिखित रचनाओं के उल्लेख मिले हैं—
१.प्रमेय रत्नाकर
२.भरतेश्वराभ्युदय
३.ज्ञान दीपिका
४.राजीमति विप्रलंभ
५.अध्यात्म रहस्य
६.मूलाराधना टीका
७.इष्टोपदेश टीका
८. भूपालचतुर्विशंति टीका
९. आराधना सार टीका
१०.अमरकीश टीका
११.क्रियाकलाप
१२.काव्यलंकार टीका
१३.सहास्रनामस्तवन सटीक
१४.जिनयज्ञ कल्प सटीक
१५.त्रिषष्ठिं स्मृति शास्त्र
१६.नित्यमहोद्योत
१७.रत्नत्रय विधान
१८.अष्टांगहृद्योतिनी टीका
१९.सागार धर्मामृत सटीक
२०.अनगार धर्मामृत सटीक
२.इन्दौर संग्रहालय में संरक्षित जैन तथा बौद्ध प्रतिमाएँ एवं कलाकृतियाँ, भोपाल, १९९१ मूति पर अंकित प्रशस्ति