डॉ० गोपीलाल ‘अमर’ एक परिश्रमी लेखक हैं, जो अध्ययन एवं चिंतनपूर्वक दर्शन, कला, पुरातत्त्व आदि विषयो पर लेखनकार्य करते रहते हैं। आप सुप्रतिष्ठित संस्था ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ में कार्यरत हैं। आपकी मेधावी लेखनी से प्रसूत यह संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण लेख माननीय है। जैन शास्त्रों के प्रवचन से पूर्व आमतौर पर किया जाने वाला संकलित मंगलाचरण इस श्लोक से शुरू होता है:-
इस शलोक का हिन्दी शब्दार्थ। यह होगा : कामना-दायक और माोक्षदायक बिन्दु-सहित ओंकार का योगी पुरुष सदा ध्यान करते हैं; ओंकार के लिए नमस्कार, नमस्कार। ओंकार की स्तुति और नमस्कार में लिखित इस श्लोक का संदर्भ, प्रसंग आदि अब भी शोध का विषय है, उसके मूलपाठ पर तो और भी गंभीर चर्चा आवश्यक है। मूलपाठ में सबसे गंभी चर्चा होनी चाहिए ‘चैव’ शब्द पर जो इस श्लोक के तीसरे चरण के अंत में आया है। इस के स्थान पर ‘देवम् ’ शब्द का पाठ अधिक युक्ति-संगत है। कुछ तर्क प्रस्तुत हैं –
१.‘च’ और ‘एव’ शब्दों की वृद्धि-एकादेश नामक संधि होने पर ‘चैव’ पद बनेगा। इसमें पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ का ‘वृद्धिरेचि’ सूत्र (६.१.८८) लगेगा। आमतौर पर ‘च’ का अर्थ होता है ‘और’; ‘एव’ का अर्थ होता है ‘ही’ शब्द अनावश्यक है; काव्य-रचना में अनावश्यक शब्द का रहना दोष माना गया है। ‘च’ शब्द आवश्यक है, परंतु संस्कृत काव्य-रचना में ‘च’ शब्द का प्रयोग किये बिना भी उसका अर्थ स्वत: स्वीकृत माना जा सकता है। इस दृष्टि से इस श्लोक में ‘चैव’ अनावश्यक है।
२.‘चैव’ के तुरन्त बाद ‘ओंकाराय’ शब्द आया है। इनकी संधि होने पर पद बनेगा, ‘चैवोंकाराय’, जैसा कि पाणिनि की ‘अष्टयायी के सूत्र ‘ओमाङोश्च’ (६.१.९५) के अनुसार ‘शिवाय + ओम् ’ का ‘शिवायोम्’ बनता है। संस्कृत -लेखन का विर्विकल्प नियम है कि जहाँ संधि हो सकती हो, वहाँ वह अवश्य की जाए; अन्यथा लेखन सदोष माना जाएगा। संधि कर देने से ‘चैवोंकाराय’ पद बनेगा। उसमें ‘ओम् ’ अक्षर का स्वतं अस्तित्व नहीं रहेगा, जिसके फलस्वरूप इस श्लोक के चौथे चरण में एक अक्षर कम हो जाएगा। एक अक्षर की कमी से इस श्लोक में ‘छंदोभंग’ नामक दोष जा जाएगा। यह दोष संस्कृत में इतना निकृष्ट माना गया है कि ‘माष’ शब्दा को ‘मष’ लिखना पड़ जाए तो लिख लेना चाहिए, परंतु छंदाभंग नहीं करना चाहिए। (अपि माषं मषं कुर्याच्छंदोभंग न कारयेत्)। मतलब कहने का यह है कि इस श्लोक में ‘चैव’ पद से या तो व्याकरण-विरोध होता है छंदोभंग होकर रहेगा। इसलिए वहाँ उस पद का होना अभीष्ट नहीं।
३.अनावश्यक और अनभीष्ट ‘चैव’ के स्थान पर ‘देवम्’ शब्द के प्रयोग से व्याकारण-विरोध और छंदोभंग- दोनों से बचा जा सकेगा। वैसे भी ‘देवम्’ शब्द का प्रयोग वहाँ अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।
४. जिसका ध्यान योगी करते हैं और जिसे नमस्कार पर नमस्कार किया गया है, ऐसा ‘ओंकार’ कौन है ? ओंकार एक विशेषण है, तो इसका विशेष्य क्या है ? दोनों प्रश्नों का एक ही उत्तर है, ‘देव’। ‘देव’ का अर्थ आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव किया जा सकता है, जो (म) का स्वामी होने से (अ + ऊ + म्) ‘ओम् ’ हैं, अर्थात् ‘ओंकार हैं। कोई अन्य तीर्थंकर भी ‘ओंकार’ हो सकता है, किंतु अपने ‘आदिदेव’, ‘पुरुदेव’ आदि विशेषणों के रूप में ऋषभदेव को ही ‘देव’ शब्द से संबोधित किए गए हैं। इन सब कारणों से उपर्युक्त श्लोक इस प्रकार लिखा जाए :
‘वाद’ मुक्ति का मार्ग नहीं‘‘क्व च तत्वाभिनिवेश: क्व च संरम्भातुरेक्षणं वदनम् । क्व च सा दीक्षा विश्वसनीयरूपतानृतुवार्द: ।।’’
अर्थ –कहाँ तो तत्त्वान्वेषण के प्रति मन का लगाव और कहाँ वाद के समायोजन में आतुर (त्रस्त) नयनोंवाला मुख ? इसी प्रकार कहाँ मुक्ति के प्रति विश्वसनीयता वाली श्रमण दीक्षा और कहाँ यह कुटिलवाद ?
अर्थ – आत्मकल्याण एक ओर है और दूसरी ओर बैल (साँड) जैसे (लड़ने का उद्यत) वादी लोग विचरण कर रहे हैं। मुनिराजों ने कहीं भी वाक- समरभ (वाद-कोलाहल) को मुक्ति का मार्ग नहीं कहा है।