-सौ. समीक्षा नांदगांवकर, नागपुर (महा.)
भारत की पुण्यभूमि में यहाँ की मिट्टी को चंदन जैसा गौरव प्रदान करने के लिए महावीर भगवान का जन्म हुआ था। पहली बार प्राणीमात्र में समता, दया, ममता और अहिंसा का भाव निर्माण करने के लिए महावीर भगवान का आगमन हुआ था। ‘जिओ और जीने दो’ का सिद्धान्त प्रतिपादित करने के लिए, िंहसा को अिंहसा से जीतने के लिए, ‘अहिंसा परमो धर्म:’ के प्रणेता भगवान महावीर २४वें तीर्थंकर के रूप में कुण्डलपुर में अवतरित हुए थे। भगवान महावीर की पुण्य जीवनगाथा दीन-हीन में नवजीवन, असंयमी और कामुक जीवों में संयम और निष्ठा उत्पन्न कर देती है। महावीर भगवान की स्मृति का यशोगान करने वाले तीथक्षेत्र अजर-अमर हो गये। जैसे चांदखेड़ी, चांदनपुर, पावापुरी। पावापुरी से महावीर भगवान को निर्वाणपद प्राप्त हो गया। आज भी लोग कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन निर्वाणलाडू चढ़ाकर वहाँ निर्वाणोत्सव मनाते हैं। राजगृही में उनकी प्रथम देशना हुई थी। कुण्डलपुर में तो उन्होंने जन्म ही लिया था। काल परिवर्तन के कारण वर्तमान में बिहार प्रान्त के नालंदा जिले में स्थित कुण्डलपुर नगरी अल्पक्षेत्र वाली होकर वैभवहीन बन गई है। परन्तु यहाँ के कण-कण में महावीर भगवान के जन्म की पवित्रता आज भी विद्यमान है। इसलिए यहाँ की रज प्राप्त करने हेतु देश के कोने-कोने से जैन समाज के हजारों-लाखों श्रद्धालु कुण्डलपुर पहुँचते हैं और ‘कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानंद विभो’, ॐ जय महावीर प्रभो’ आदि पंक्तियों द्वारा भगवान महावीर की जोर-जोर से गाकर, घंटा बजाकर, दीपक जलाकर आरती करते हैं। महावीर स्वामी का भारत के इतिहास मेंं एक स्वर्णिम पृष्ठ बन गया है। वर्धमान महावीर भारतीय साहित्य में एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।
जब स्वर्ग में अच्युतेन्द्र की आयु छह महीने शेष रह गई थी और वह स्वर्ग से छह महीने बाद अवतार लेने वाला था। उस समय से कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ के नंद्यावर्त महल के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा होने लगी थी। वैशाली में राजा चेटक के यहाँ अर्थात् नाना-नानी के घर भगवान महावीर जन्म ले सकते थे। परन्तु तीर्थंकर के जन्म के छह महीने पहले से ही कुण्डलपुर में रत्नवृष्टि होना शुरू हो गई थी और वह १५ महीने तक होती रही। इसके आगम में प्रमाण मिले हैं वे रत्न क्या नाना-नानी के घर में बरस सकते थे? हरिवंशपुराण में भी जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि-
‘हिरण्य वृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि यतस्त्वयि, हिरण्यगर्भ इत्युच्यैर्गीवाणैर्गीयसे तत:।।२०६।। सर्ग ८।।
महावीर पुराण में भी यह रत्नवृष्टि राजा सिद्धार्थ के राजमहल में होती थी, ऐसा उल्लेख है। असग कवि के वर्धमान चरित्र में भी कुण्डलपुर के चारों ओर तिर्यग्विजृंभक नाम के देवगण कुबेर की आज्ञा से रत्नवर्षा करते थे ऐसा लिखा है। कहीं भी राजा चेटक के यहाँ वैशाली में रत्नवृष्टि हुई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। जहाँ रत्नवृष्टि हुई वहाँ अर्थात् कुण्डलपुर में ही महावीर भगवान का जन्म हुआ ऐसा मानना पड़ेगा। एक समय रात्रि में प्रियकारिणी जब कुण्डलपुर के राजभवन में नंद्यावर्त महल में शांतचित्त सो रही थीं तब रात्रि के पिछले प्रहर में उन्होंने सुन्दर सोलह स्वप्न देखे थे। राजा सिद्धार्थ ने निमित्तशास्त्र जानकर बताया कि हे रानी! तुम्हारे गर्भ से धर्मतीर्थप्रवर्तक, भावी तीर्थंकर का जन्म होगा। सर्वांग सुंदर, त्रिलोकपूज्य पुत्र प्राप्ति का शुभ समाचार सुनकर कौन सी माता प्रसन्न नहीं होंगी? इस प्रकार महावीर भगवान का आगमन सुनिश्चित हुआ था। सोलहकारण भावनाएं भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध बांधने वाले राजानंद का जीव सोलहवें स्वर्ग से चलकर आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन माँ त्रिशला के गर्भ में आया। माता-पिता के उत्साह, प्रसन्नता और धन-धान्यादिक वैभव के साथ-साथ बालक भी माँ के गर्भ में दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। हरिवंश पुराण में लिखा है कि-माता त्रिशला की सेवा करने ‘श्री, ह्री, धृति, कीर्ति आदि दिक्कुमारियाँ बड़े आनन्द से इन्द्र की आज्ञा से तत्पर थी। यथार्थ में वह प्रियकारिणी माता का सौभाग्य नहीं था-उन देवियों का ही सौभाग्य था कि उनको त्रिलोकीनाथ के माता की सेवा सुश्रूषा करने का श्रेष्ठ योग प्राप्त हो गया था। चिरप्रतीक्षा के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का शुभ दिन आया। कुण्डलपुर की जनता के लिए यह दिन चिरस्मरणीय हो गया। कुण्डलपुर को भगवान महावीर की जन्मस्थली होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, कुण्डलपुर की माटी भगवान महावीर की ऋणी हो गई। त्रिशला माता की कुक्षि धन्य हो गई।
‘स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्। नान्या सुतं तदुपमं जननी प्रसूता।।
यह मानतुंग आचार्य ने यथार्थ ही लिखा है। महावीर भगवान की माता होने का गौरव इसी महान नारी ‘त्रिशला’ को मिला था। भगवान महावीर की जन्मभूमि ‘कुण्डलपुर’ ही है ऐसा वर्णन श्री यतिवृषभ आचार्यदेव ने अतिप्राचीन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में किया है-
‘सिद्धत्थरायपियकारिणीहि, णयरम्मि कुण्डले वीरो। उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसियातेरसीए उप्पण्णो।।५४९।।
अर्थात् भगवान महावीर कुण्डलपुर में महाराजा सिद्धार्थ और महारानी प्रियकारिणी (त्रिशला) से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। ‘महावीर पूजा’ में-
‘जनम चैतसित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना। सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भव हरना।।’’
ऐसा लिखा है और भक्तगण ऐसा बोलकर ही महावीर भगावन के जन्मकल्याणक का अघ्र्य चढ़ाते हैं। इस प्रकार आगम द्वारा महावीर भगवान की जन्मभूमि बिहार प्रदेश में राजगिरि से १६ किमी. दूर ‘कुण्डलपुर’ ही है। यह प्रमाणित होता है। तीर्थंकर सामान्य व्यक्ति नहीं होते, वे इंद्र द्वारा पूजनीय होते हैं। उनके जन्म की इतिहास में और जन्मभूमि की इतिहास और भूगोल दोनों में स्मृति है। महावीर भगवान को तो ऐतिहासिक महत्व प्रदान है परन्तु उनकी जन्मभूमि के बारे में विवाद चल रहा है। जैन इतिहास और जैन भूगोल को सुरक्षित रखने के लिए आगम द्वारा प्रमाणित महावीर भगवान की जन्मभूमि कुण्डलपुर का विकास होना आवश्यक था। ‘नंद्यावर्त महल में भगवान महावीर का जन्म हुआ था यह जैन इतिहास में लिखा गया है। परन्तु ‘नंद्यावर्त महल’ का नाम वर्तमान में कुण्डलपुर में विद्यमान है। कुण्डलपुर जैनधर्म की धरोहर, जैनधर्म का उद्गम स्थान है। उसका विकास करना याने जैन संस्कृति का संरक्षण करना ही है। जब महावीर ने विवाह योग्य आयु में पदार्पण किया तो माता-पिता ने उनको गृहस्थी के बंधन में बांधने का खूब प्रयत्न किया परन्तु उन्होंने आत्मा का आश्रय लेकर संसार के सर्व बंधनों से मुक्त होने का निश्चय कर लिया था। माता-पिता का प्यार उनको अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सका। तीस वर्ष की भरी जवानी में वे घरबार छोड़कर साधु जीवन व्यतीत करने लगे थे। इस प्रकार महावीर भगवान वीतराग मार्ग पर-मोक्षमार्ग पर चल रहे थे। अंत में विहार करते हुए वे पावापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने विहार और उपदेश से विराम लिया। योग निरोधकर, शुक्लध्यान के माध्यम से शेष चार अघातिया कर्मों का नाश कर अंतिम देह का पूर्ण परित्याग करके निर्वाणपद प्राप्त किया। यह घटना कार्तिक कृष्णा अमावस्या की थी। चारों ओर रात्रि का गहन अंधकार छाया हुआ था। प्रभात होने में कुछ ही समय बाकी था। सूर्य की प्रथम किरण गिरि शिखरों पर प्रस्फुटित नहीं हो पाई थी कि महावीर प्रभु का निर्वाण हो गया। प्रभु के निर्वाण का समाचार पाकर देवों ने पावापुरी आकर दीपों की पंक्तियाँ लगाकर उनका निर्वाणोत्सव मनाया था। लोग प्रभु के बिछड़ने से जहाँ दुःखित थे तो वहीं उनको निर्वाण पद प्राप्त हो गया इसलिए हर्षित भी थे। यह पावन प्रसंग शोकमय हर्ष का और हर्षमय शोक का था। भगवान महावीर के निर्वाण से काली अमावस्या की रात्रि भी प्रकाशमय हो गई थी। आज तक लगातार एक वही कार्तिक अमावस्या की शाम काली होकर भी अनेकों दीपों के द्वारा जगमगाती है। अत: यह महान पर्व ‘दीपावली’ के नाम से विख्यात हो गया और महावीर भगवान विश्ववंद्य हो गये।