विगत दिनों विभिन्न जैन पत्र-पत्रिकाओं में भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर अथवा वैशाली? पर विभिन्न विद्वानों एवं संतों के विचार, तर्क और प्रमाण, इतिहास, पुरातत्व, भूगोल और आगम के आधार पर देखने को मिले। सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से कुण्डलपुर (नालंदा) अथवा वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि सिद्ध किया। इस संदर्भ में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास इंदौर के हम ४ पत्रकार जब चर्चा करने गये तो उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि दिगम्बर जैन आगम के प्रकाश में ही हमें तीर्थंकरों के निर्वाण स्थलों अथवा जन्मस्थानों को मान्यता देनी चाहिए क्योंकि पुरातत्व, इतिहास और भूगोल अथवा बौद्ध एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर जब हम निर्णय करते हैं तो हम अपने मूल लक्ष्य से भटकते हैं। उन्होंने कहा कि आचार्य श्री वीरसेन कृत धवला, जय धवला में कुण्डलपुर के अकाट्य प्रमाण हैं। आचार्य पूज्यपाद कृत निर्वाण भक्ति में भी इसकी चर्चा आई है अत: आगम को ही प्रमाण माना जाना चाहिए। मैं न इतिहास का विशेषज्ञ हूँ न भूगोल का और न ही पुरातत्व की मुझे जानकारी है। मैं आगम का भी मर्मज्ञ नहीं हूँ और ना ही कोई भाषा शास्त्री किन्तु सन् १९५९ से जब से होश संभाला है, समाज का छोटा सा कार्यकर्ता हूँ। धर्मचक्र और जनमंगल कलश आदि के माध्यम से तथा महासमिति का तीन वर्ष तक साहू अशोक जी एवं पद्मश्री बाबूलाल जी पाटोदी के साथ अ.भा.दि. जैन युवा प्रकोष्ठ का संयोजक रहने के नाते काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस कारण समाज के नेतृत्व के साथ रहकर समाज को मैंने निकट से देखा। मेरी मान्यता है कि आम आदमी सिर्पâ तीर्थों से श्रद्धा से जुड़ा है। वह श्रद्धा के आगे किसी तर्क को स्वीकार नहीं करता। मैंने इस संदर्भ में पं. सुमेरचंद जी दिवाकर, इतिहास और भूगोल के विशेषज्ञ डॉ. सुदीप जैन, प्रखर वक्ता एवं चिंतक प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन (सम्पादक-जैन गजट), आर्यिका श्री चंदनामती माताजी (हस्तिनापुर), वरिष्ठ विद्वान पं. शिवचरणलाल जी (मैनपुरी) एवं बाबू कामताप्रसाद जी तथा अन्य विद्वानों के लेखों का अध्ययन किया। मैंने पटना से प्रकाशित स्मारिका भगवान महावीर स्मृति तीर्थ- वैशाली भी देखी। मुझे आश्चर्य हुआ कि कुण्डलपुर के स्थान पर महावीर को सीधे ही वैशाली का राजकुमार निरूपित कर दिया गया। उन्हें कुण्डलपुर का राजकुमार कहें या वैशाली का? क्या नाना के नाम से भगवान महावीर पहचाने जायेंगे? मैंने देश के सर्वाधिक वयोवृद्ध आचार्य श्री सीमंधरसागर जी से इंदौर में चर्चा की और अन्य आचार्यों एवं मुनियों से भी चर्चा की किन्तु किसी ने वैशाली के पक्ष में अपना मत नहीं दिया। इस संदर्भ में यदि विचार करें तो २६०० वर्ष में हमारा भूगोल बहुत बदला है। नदियों ने अपनी धाराएं बदली हैं। अब हम विदेह और मगध को कैसे स्थापित करेंगे और फिर इतिहासकारों के मत तो रोज बदल रहे हैं। २६०० वर्षों में भूगोल ने कितनी करवटें ली हैं, देशों की सीमाएँ भी या तो सिकुड़ गईं या फिर फैल गईं अत: हम विदेह और मगध की सीमाओं को कहाँ-कहाँ ढूँढेंगे? कैसे ढूँढेंगे? फिर क्या भगवान महावीर से हम जैनधर्म का उद्भव मानेंगे? यदि श्वेताम्बर परम्परा और बौद्ध परम्पराओं से स्वीकार करने लगे तो बहुत सी विकृतियाँ पैदा होने लगेंगी? बौद्ध ग्रंथों के आधार पर और पुरातत्व के आधार पर वैशाली को जन्मस्थान मानकर क्या हम मामा से महावीर की पहचान कराना चाहते हैं? फिर क्या सिद्धार्थ का राज्य छोटा-सा राज्य था? जैसे कई विवादों को जन्म मिलेगा। फिर प्रश्न उठता है कि क्या विद्वान् खोज करना बंद कर दें? क्या पुरातत्ववेत्ता अपना काम छोड़ दें? क्या इतिहासकार इतिहास पर कलम चलाना बंद कर दें? नहीं, सभी अपना काम करें किन्तु श्रद्धा के विषय में कलम चलाते समय सावधानियाँ अनिवार्य हैं। अभी एक स्थान पर पढ़ा था कि जो अभी शिखर जी मधुबन झारखंड में स्थित है, वह तो गया के समीप कोई दूसरे स्थान पर है। यह शिखरजी वास्तविक शिखरजी नहीं है। बीस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि पर भी प्रश्न चिन्ह? कोई कहता है कि कोल्हुआ पहाड़ वास्तविक शिखरजी है, किसी विद्वान ने पावापुरी को भी किसी दूसरे स्थान पर बताया है और हम सभी तीर्थों पर अपनी विद्वत्ता, खोज और इतिहास के आधार पर विवाद पैदा करने लगे और तर्क व प्रमाण जुटाने लगे हैं। आगम में से अपने अनुकूल अर्थ निकालने लगे हैं। विद्वत्ता समाज को सही दिशा देने की अपेक्षा विवाद का कारण बन रही है। मैं प्रश्न करता हूँ कि क्या प्रमाण है आपके पास कि चंद्रप्रभु भगवान शिखरजी की उसी टोंक से उसी स्थान से मोक्ष गये और इतने करोड़ मुनि वहाँ से मोक्ष गये? कैसे प्रमाणित करेंगे? पुरातत्व के प्रमाण यदि अयोध्या में राम मंदिर पर नहीं मिले और इतिहासकारों ने मानो उसके पक्ष में मत व्यक्त नहीं किया तो क्या यह सिद्ध हो गया कि रामजन्मभूमि नहीं है? कौन मानेगा आपकी बात को? इसलिए तर्क व प्रमाण के आधार पर तीर्थ नहीं बनते, वह तो श्रद्धा के केन्द्र हैं। मैं तो अपने अनुभव के आधार पर यह कह सकता हूँ कि सभी विद्वान मिलकर सिर पर सारे तर्क व प्रमाण लेकर पूरे देश में घूम लें और सारे देश की दिगम्बर जैन समाज को यह समझाने का प्रयास करें कि शिखरजी यह तीर्थ क्षेत्र नहीं दूसरा है, यह पावापुरी नहीं दूसरी पावापुरी है और कुण्डलपुर यह नहीं दूसरा कुण्डलपुर है, तो आने वाले १०० वर्षों तक भी समाज की श्रद्धा को नहीं बदल पाएंगे। तीर्थ इतिहास, भूगोल और पुरातत्वों से नहीं सिर्फ श्रद्धा से बनते हैं। पत्थर की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर भगवान मान लेते हो और तीर्थ में इतिहास, भूगोल और पुरातत्व का तर्क लगाने लगते हो तो ये तर्क समाज की श्रद्धा को नहीं तोड़ सकते। इसलिए मेरा अपना मत है कि तीर्थ परम्परा एवं पीढ़ियों की श्रद्धा का परिणाम है, जिसको श्रद्धा से स्वीकार किया गया वह तीर्थ बन गया और सैकड़ों वर्षों से जो तीर्थ मान लिया गया, अब उसमें परिवर्तन असंभव है। सरकार, विद्वान, पुरातत्त्ववेत्ता, इतिहास विशेषज्ञ विद्वान क्या मानते हैं, इससे तीर्थ के प्रति श्रद्धा और भक्ति में कोई अंतर नहीं आता। वे अपना काम करते रहें किन्तु श्रद्धा और भक्ति के समक्ष तर्क व्यर्थ हैं। तीर्थ तर्क से नहीं श्रद्धा से बनते हैं। श्रद्धा किसी तर्क, प्रमाण और तथ्य की मोहताज नहीं होती। अत: मेरे तथा आम श्रावक के मत में कुण्डलपुर (नालंदा) ही भगवान महावीर की जन्मस्थली है।
‘‘तीर्थ तर्क से नहीं श्रद्धा से बनते हैं श्रद्धा तर्क की मोहताज नहीं होती’’