आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी महोत्सव वर्ष के पावन प्रसंग पर १८-१९ अक्टूबर १९८७ को इंदौर नगर में आयोजित जैन विद्या संगोष्ठी में समागत जैन विद्या मनीषियों के साथ विचार मंंथन से प्राप्त नवनीत के रूप में दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के अंतर्गत एक शोध संस्थान की स्थापना का निर्णय श्री देव कुमार सिंह कासलीवाल की प्रेरणा से किया गया। तदनूरूप ही १९.१०.१९८७ को प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोतीलाल जी वोरा की उपस्थिति में कुन्दकुन्द विद्यापीठ की स्थापना की गई। इस संस्थान का विस्तृत प्रारूप तैयार कर क्रियान्वयन करने में अग्रणी भूमिका का निर्वाह करने वाले डॉ. अनुपम जैन वर्तमान में मानद सचिव तथा डॉ. अजितकुमार सिंह कासलीवाल कोषाध्यक्ष के रूप में दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं। दवी अहिल्या विश्वविद्यालय के पूव्र कुलपति प्रो. ए.ए. अब्बासी के मार्गदर्शन में ९ सदस्यीय निदेशक मंडल के निर्देशन में ज्ञानपीठ की विभिन्न अकादमिक गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं। जिसका संक्षिप्त परिचय कार्य की महत्ता के साथ आगामी पंक्तियों में प्रस्तुत करेंगें किसी राष्ट्र के स्वर्णिम अतीत की स्मृतियों का संरक्षण एवं उन्हें यथावत् आगामी पीढ़ी को हरूतांतरित करना वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है। वर्तमान में समृद्ध अतीत के नाम पर पश्चिम के पास विशेष कुछ नहीं है, किन्तु हम भारतवासियों को इस बात का सौभाग्य प्राप्त है कि वर्तमान में हम भले ही विकासशील हो, किन्तु अतीत में हम समृद्धि के चरम पर पहुँच चुके थे। साहित्य, संगीत, कला एवं विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयमनीषियों का अवदान विश्व में प्रसिद्ध है और यह विपुल ज्ञान प्राचीन पाण्डुलिपियों के रूप में अनेक झंझावातों को झेलता हुआ हमें अल्प मात्रा में ही सही, आज भी उपलब्ध है।
श्रमण संस्कृति की जैन परमपरा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है, बल्कि यदि यह कहा जाये कि श्रमण संस्कृति को अलग करके भारतीय दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष आदि अनेकानेक विषयों पर भारतीय मनीषियों के यागदान को भलीभाँति मूल्यांकित करना संभव नहीं है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैनाचार्यों ने आत्म कल्याण की भावना से प्रेरित होकर विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन किया है। २०वीं शताब्दी की मुद्रण क्रान्ति के बावजूद आज भी अनेकों जैन पाण्डुलिपियाँ जैन ग्रन्थ भंडरों तथा देश-विदेश के प्रसिद्ध पाण्डुलिपि-ग्रंथागारों में सुरक्षित हैं। विगतत शताब्दियों के साम्प्रदायिक विद्वेष एवं जातीय उन्माद के कारण जलाई गई जैन ग्रन्थों की होलियों में लाखों पाण्डुलिपियाँ भस्म हो गई, किन्तु आज भी शेष बचे ग्रन्थ यत्र-तत्र विर्कीण व्यक्तिगत संग्रहों, मंदिरों, सरस्वती भंडारों में दीमक एवं चूहों का आहार बनने के साथ ही सम्यक् संरक्षण के अभाव में सीलन आदि से भी प्राकृतिक रूप से नष्ट हो रहे हैं। महान जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत जिनवाणी की इन अमूल्य निधियों को हम एक बार नष्ट होने के बाद सर्वस्त समर्पित करके भी दोबार प्राप्त नहीं कर सकते। पता नहीं किस भण्डार में कौनसी निधि छिपी मिल जाये यह कहा नहीं जा सकता, किन्तु निधियों को पाने हेतु हमें योजनाबद्ध ढ़ग सऐ दीर्घकालीन प्रयास करने होंगे।
इन प्रयायों की शृंखला में सर्वप्रथम हमें वर्तमतान में उपलब्ध समस्त पाण्डुलिपियों एवं अब तक प्रकाशित जैन साहित्य का सूचीकण करना होगा। इससे किसी भी अप्रकाशित पाण्डूलिपि के प्राप्त होने पर उसके पूर्व प्रकाशित होने या न होने के बारे में निश्चित रूप से निर्णय किया जा सकेगा। यद्यपि विभिन्न, ग्रामों, कस्बों, नगरों में स्थित जिनालयों, सरस्वती भवनों एवं व्यक्तिगत संग्रहों में स्थित ५ लाख से अधिक प्राचीन पाण्डूलिपियों का सूचीकण, संरक्षण एवं संकलन वर्तमान पीढ़ी, विशेषत: समाजत की शीर्ष संस्थाओं, का दायित्व है तथापि इस दिशा में व्याप्त उदासीनता को देखकर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर के यशस्वी अध्यक्ष श्री देवकुमारसिंह जी कासलीवाल ने ज्ञानपीठ के कार्यकर्ताओं को यह कार्य करने की प्रेरणा दी। श्री कासलीवाल ने मूर्ति एवं पाण्डूलिपिसर्वेक्षण के कार्य को साठ के दशक में भी कराने का प्रयास किया था किन्तु पुन: व्यवस्थित रूप से यह कार्य कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने १९९३ में डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन के मार्गदर्शन में अमर ग्रन्थालय इन्दौर की पाण्डूलिपियों के सूचीकरण की योजना से प्रारम्भ किया।
१९९३-१९९६ की अवधि में इस योजना के अन्तर्गत उन्होंने अमर ग्रन्थालय (दि. जैन उदासीन आश्रम) इन्दौर में संग्रहीत ९११ ग्रन्थों का सूचीकरण किया अमर ग्रंथालय की सूचियों का पुनर्परीक्षण १९९९ में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा ही श्री सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के सहयोग से किया गया। पुâटकर संकलन के बंडलों एवं अपूर्ण ग्रन्थों के मध्य कई नये ग्रन्थ मिले जिससे इस सूची में कुछ नये नाम जुड़े हैं।२ देश-विदेश के शास्त्र भंडरों के सर्वेक्षण के मध्य प्राप्त किसी अचर्चित पांडूलिपि के प्राप्त होने पर वह पूर्व प्रकाशित है या अद्ययन अप्रकाशित, यह निर्णय करने में बहुत असुविधा होती थी फलत: १ जनवरी ९९ से ३१ मार्च २००१ तक कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर एवं सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर के संयुक्त तत्वाधान में प्रकाशित जैन साहित्य के सूचीकरण की योजना का क्रियान्वयन डॉ. अनुपम जैन के मार्गदर्शन में कुन्कुन्द ज्ञानपीठ परिसर में हुआ। भगवान महावीर २६०० वाूं जन्म जयन्ती महोत्सव कार्यक्रमों की शृंखला में संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार द्वारा अनेक योजनाओं हेतु विभिन्न संस्थाओं से प्रस्ताव आमंत्रित किये गये।
इस क्रम में २२.०२.२००१ को कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ , इन्दौर द्वारा भी विभिन्न योजनाएँ प्रस्तुत की गई। राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली द्वारा २१.०९.२००१ को आयोजित की गई जैन विद्या एवं प्राकृ अध्ययन की राष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ. अनुपम जैन द्वारा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ (इन्दौर) एवं जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) में जैन पांडूलिपियों का सूचीकरण शीर्षक ८ पृष्ठीय शोध आलेख प्रस्तुत किया गया। तदुपरान्त १०.१०.२००१ को के अन्तर्गत एक विशिष्ट योजना मंत्रालय के सममुख प्रस्तुत की गई। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने इस योजना में मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र अंचल में सर्वेक्षण एवं सूचीकरण का प्रस्ताव किया। गहन विचार-विर्मश के उपरान्त राष्ट्रीय पंजी के निर्माण का निश्चय किया गया। इस क्रम में राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा संस्कृति मंत्रालय के सचिव महोदय की अध्यक्षता में ५.९.०२ को सम्पन्न बैठक में सम्पूर्ण देश को ५ भागों में विभाजित कर ५ नोडल एजेन्सियों (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, श्री देवकुमार जैन ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट-आरा, भोगीलाल लहेरचन्द प्राच्य विद्या संस्कथान, दिल्ली सत्रुत प्रभावना ट्रस्ट-भावनगर, राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं समाशोधन केन्द्र-श्रवणबेलगोला) का चयन किया गया। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ को म.प्र. (छत्तीसगढ़ सहित), महाराष्ट्र अंचल का कार्य मार्च २००३ में सौंपा गया। प्राथमिक सर्वेक्षण के मध्य यह महसूस किया गया कि आवश्यकता के अनुरूप आबंटित क्षेत्र में गाँव-गाँव में विर्कीण लक्षाधिक पाण्डूलिपियाके के सर्वेक्षण, सूचीकरण एवं प्रारम्भिक संरक्षण हेतु प्रशिक्षित मानवशक्ति प्राथमिक आवश्यकता है।
इस कार्य हेतु कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दोर द्वारा ज्ञानपीठ में ३ प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जा चुके हैं – १. १६-१८ मई २००३ २. २२-२४ जुलाई २००३ ३. १९-२१ सितम्बर २००३ इनमें से तृतीय शिविर अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं व्यापक था। इस शिविर में ४० प्रशिक्षणार्थियों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। इस प्रशिक्षण में प्रशिक्षक के रूप में निम्नांकित ५ विद्वानों ने सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया एवं ६५ प्रतियोगियों ने लाभ उठाया। १. डॉ. प्रमोद मेहरा, उपनिदेशक, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली २. ब्र. संदीप जैन ‘सरल’, संस्थापक, अनेकान्त ज्ञान मन्दिर (शोध संस्थान), बीना ३. डॉ. संजीव सराफ, पुस्तकालयाध्यक्ष, शासकीय महाविद्यालय, पथरिया जिला सागर ४. डॉ.महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, कुन्कुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर ५. ब्र. रजनी जैन, शोध छात्रा, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर प्राप्त सामग्री के संकलन, रख-रखाव, पत्राचार, सर्वेक्षण हेतु दलों के निर्धारण, यात्रा कार्यक्रमों (टूर प्रोग्राम) के निर्माण में श्री अरविन्द्र कुमार जैन, प्रबन्धक ने ज्ञानपीठ के सहयोगियों के साथ अहर्निश श्रम किया है। प्रशिक्षणार्थियों ने विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर निम्न स्थानों पर उपलब्ध पांडूलिपियों की सूची तैयार की है।
१ अप्रैल २००३ से ३१.१०.२००४ के मध्य सम्पन्न सूचीकरण कार्य !
क्र. !! राज्य का नाम !!
सूचीकृत जैन भंडार !! सूचीकृत पाण्डूलिपियाँ –
1. मध्य प्रदेश ३२२ ४१,९००-
2. महाराष्ट्र ९६ १३,१३१-
३. छत्तीसगढ़ ०३ १४६-
४. सीमावर्ती उ.प्र.के जिले ५८ ५८,७६६-योग ४७९५८,७६६ राष्ट्रीय पांडूलिपि मिशन भारत सरकार संस्कृति मंत्रालय द्वारा इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अधीन संचालित राष्ट्रीय पाण्डूलिपि मिशन ने कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ को जैन पाण्डूलिपियों के सूचीकरण में प्राप्त अनुभव एवं विशेषता के कारण २० मई २००५ को पाण्डूलिपि स्रोत केन्द्र मनोनीत किया। इस परियोजना के अधीन ३१.१०.०७ तक सम्पन्न कार्य का सारांश निम्नवत् है।