अर्थ – जिसके मुख की आकृति शांत हो, प्रसन्न हो, मध्यस्थ हो, नेत्र विकाररहित हो, दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर हो, जो केवलज्ञान के सम्पूर्ण भावों से सुशोभित हो, जिसके अंग उपांग सब सुन्दर हों, रौद्र आदि भावों से रहित हों, आठों प्रातिहार्यों से विभूषित हों, चिन्ह से सुशोभित हों, यक्ष-यक्षी सहित हों और ध्यानस्थ हों, इस प्रकार के शुभ लक्षणों से सुशोभित जिनप्रतिमा बनवाना चाहिए और प्रतिष्ठा कराकर पूजा करनी चाहिए। जिस प्रतिमा में ये लक्षण न हों, वह अरहन्त की प्रतिमा नहीं कही जा सकती।
अर्थ – जिनप्रतिमा के दार्इं ओर यक्ष की मूर्ति होनी चाहिए, बाई ओर शासन देवता अर्थात् यक्षी की मूर्ति होनी चाहिए और सिंहासन के नीचे जिनकी प्रतिमा हो, उनका चिन्ह होना चहिए।स्थापयेदर्हतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णके। पीठं भामण्डलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुन्दुभिम्।। स्थिरेतरार्चयो: पादपीठस्थायौ यथायथम्। लांच्छनं दक्षिणे पाश्र्वे यक्षो यक्षी च वामके।।
अर्थ – अरहन्त प्रतिमा के निर्माण के साथ-साथ तीन छत्र, अशोक वृक्ष, सिंहासन, भामण्डल, चमर, दिव्यध्वनि, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि ये आठ प्रातिहार्य अंकित होने चाहिए। प्रतिमा चाहे चल हों, चाहे अचल हों परन्तु उनका चिन्ह सिंहासन के नीचे होना चाहिए।
प्रातिहार्याष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम्। भावरूपानुविद्धांगं कारयेद्बिम्बमर्हत:।। प्रातिहार्यं बिना शुद्धं सिद्धं बिम्बमपीदृशम्। सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम्।।
अर्थ – भगवान जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा लक्षण सहित बनवानी चाहिए। जो समचतुरस्र संस्थान हो, तरुणावस्था की हो, दिगम्बर हो, उसका आकार वास्तुशास्त्र के अनुसार दशताल प्रमाण हो, उसके आकार के एक सौ आठ भाग हों, अंग-उपांगों का विभाग प्रतिमा के अनुसार ही होना चाहिए। जो आठ प्रातिहार्यों से सुशोभित हो, जिसके सम्पूर्ण अवयव हों, जो शुभ हो, उसका शरीर केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले भावों से परिपूर्ण हो, इस प्रकार अरहन्त की प्रतिमा बनवानी चाहिए। यदि उस प्रतिमा के साथ आठ प्रातिहार्य न हों, तो वह सिद्धों की प्रतिमा हो जाती है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमा भी आगम के अनुसार बनवानी चाहिए।
कारयेदर्हतो बिम्बं प्रातिहार्यसमन्वितम्। यक्षाणां देवतानां च सर्वालंकारभूषितम्।। स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वांगसुन्दरम्।
अर्थ –जिनप्रतिमा आठ प्रातिहार्य सहित होनी चाहिए तथा यक्ष-यक्षी सहित होनी चाहिए। वे यक्ष और यक्षी समस्त अलंकारों से सुशोभित होने चाहिए, अपने-अपने आयुध और वाहन सहित हों तथा सर्वांग सुन्दर हो। सैद्धं नु प्रातिहार्यांकयक्षयुग्मोज्झितं शुभम्। अर्थ – जिस प्रतिमा में आठ प्रातिहार्य न हों और यक्ष-यक्षी न हों, उनको सिद्ध प्रतिमा कहते हैं। अष्टप्रातिहार्यसमन्वितार्हत्प्रतिमा तद्रहिता सिद्धप्रतिमा। अर्थ – जिस प्रतिमा में आठ प्रातिहार्य हो, वह अरहन्त की प्रतिमा है तथा जिसमें प्रातिहार्य नहीं है वह सिद्ध प्रतिमा है। प्रतिष्ठा के समस्त ग्रंथो में अरहन्त प्रतिमा का यही स्वरूप बतलाया है। त्रिलोकसार, राजवार्तिक में भी प्रतिमा का यही स्वरूप है। यथा-
सिरि देवी सुअदेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं। रूवाणिय जिणपासे मंगलमट्ठविह मवि होई।।९८८।।
अर्थ –जिनप्रतिमा के निकट इन चारित्र का प्रतिबिम्ब होई है। यहाँ पर प्रश्न-जो श्रीदेवी तो धनादिक रूप है और सरस्वती जिनवाणी है। इनका प्रतिबिम्ब कैसे होई है। ताका-समाधान-श्री और सरस्वती ये दोऊ लोक में उत्कृष्ट हैं तातें इनका देवांगना का आकार रूप प्रतिबिम्ब होई है। बहुरि दोऊ यक्ष विशेष भक्त हैं तातें तिनके आकार हो हैं। आठ मंगल द्रव्य हों।
गोवदन, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुम्बुरव, मातंग, विजय, अजित, ब्रह्म, ब्रह्मेश्वर, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, कुबेर, वरुण, भृकुटि, गोेमेध, पाश्र्व, मातंग और गुह्यक, इस प्रकार ये भक्ति से संयुक्त चौबीस यक्ष ऋषभादिक तीर्थंकरों के पास में स्थित रहते हैं।।९३४-९३६।। चव्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वङ्काशृंखला, वङ्काांकुशा, अप्रतिचव्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, वैरोटी, सोलसा, अनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, वूष्माण्डी, पद्मा और सिद्धायिनी, ये यक्षिणियाँ भी क्रमश: ऋषभादिक चौबीस तीर्थंकरों के समीप में रहा करती हैं।।९३७-९३९।।
गाथार्थ-वे जिनप्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और यक्षों के बत्तीस युगलों सहित, पृथक्-पृथक् एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन जिनप्रतिमाओं के पाश्र्वभाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह्न यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएँ हैं तथा अष्टमंगल द्रव्य भी होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मंगल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८-१०८ प्रमाण होते हैं।।९८७-९८८-९८९।। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में भी कहा है-
अर्थ – प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाह्न व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।।१८८१।।
विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवता शांतिहेतवे। व्रूरास्तु देवता: हेया येषां स्याद्वृत्तिरामिषै:२।।
अर्थ – जिनागम में विश्वेश्वर, चव्रेश्वरी, पद्मावती आदि देवता शान्ति के लिए बतलाये हैं परन्तु जिन पर बलि चढ़ाई जाती है, जीव मारकर चढ़ाये जाते हैं, ऐसे चण्डी-मुण्डी आदि देवता त्याग करने योग्य हैं। इसका भी खुलासा इस प्रकार है-
अर्थ –जो देव मिथ्यात्वी, व्रर, हिंसक हैं, शस्त्र, परिग्रह सहित हैं, मांस की वृत्ति और मद्य की वृत्ति होने से निंद्य और हीन हैं, ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, उमा, चण्डी, मुण्डी आदि देवता कुदेवता कहाते हैं। उनकी पूजा करना मिथ्यात्व का कारण है इसलिए मिथ्या भेष को धारण करने वाले ऐसे कुदेव त्याज्य हैं परन्तु जो देव सम्यग्दृष्टि हैं, जो जिनधर्म की प्रभावना करने वाले हैं, ऐसे चव्रेश्वरी, दिक्पाल, यक्ष आदि देवता शान्ति प्रदान करने वाले हैं। ऐसे देव सम्यग्दृष्टी होने के कारण पूज्य हैं, ऐसा जैन शास्त्रों का आदेश है, उनकी पूजा करने में देवमूढ़ता नहीं होती क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा पूज्य होता है। पूजा के प्रकरण में प्रमाण श्री पूज्यपाद आचार्यदेव ने अपने ‘अभिषेक पाठ’ के अन्त में जो यक्ष-यक्षी आदि के अघ्र्य चढ़ाने के लिए कहा है, उसका पूरा क्रम और विधि ‘प्रतिष्ठातिलक’ ग्रंथ में उपलब्ध है। पूजा प्रारंभ विधि में जो क्रिया है वह सब श्री पूज्यपादस्वामी के अभिषेक पाठ के प्रारंभिक श्लोकों के अनुसार ही है सो देखिये-
‘‘पूजा अभिषेक के प्रारंभ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हंत देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्रस्नान से और व्रतस्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अघ्र्य देकर, धुले हुए सपेद धोती और दुपट्टे को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ। तथा द्वारोद्घाटन कर और मुख वस्त्र पहनकर विधिपूर्वक ईर्यापथ शुद्धि करके, सिद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा द्रव्य की शुद्धि, पूजा पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक पूजा प्रारंभ करता हूूँ। इस कथित विधि के अनुसार आचार्य श्री नेमिचंद्र कृत प्रतिष्ठातिलक में क्रम से सर्वविधि का वर्णन है। प्रारंभ में जलस्नान के अनंतर ‘‘मंत्रस्नान’’ विधि का वर्णन है। अनंतर ‘‘पूजामुख विधि’’ शीर्षक में मंदिर में प्रवेश करने से लेकर सिद्धभक्ति तक का वर्णन है अर्थात् मंदिर में प्रवेश करना, प्रदक्षिणा देना, जिनालय की तथा जिनेन्द्रदेव की स्तुति करना, ईर्यापथ शुद्धि करके सकलीकरण करना, द्वारोद्घाटन, मुखवस्त्र उत्सारण (वेदी के सामने का वस्त्र हटाना) पुन: सामायिक विधि स्वीकार कर विधिवत् कृत्य विज्ञापना करके सामायिक दंडक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि करके लघु सिद्धभक्ति करना यहाँ तक पूजामुख विधि होती है। पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। अनंतर नित्य पूजा के बाद अंत में जो विधि करनी चाहिये उसके लिये ‘‘अभिषेक पाठ’’ में ही अंत में चार श्लोक दिये गये हैं उन्हें देखिये-
अर्थ –इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि को पूर्ण करके पूर्वाेक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करे, पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्वदिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जैनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मंडल बना लेवे। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इंद्रों को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ। इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान् का पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंतदेव की आराधना करे। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन की घोषणा करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा/आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात् पूजा के लिये बुलाए गए देवों का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद’’ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी’’ से पूजित श्री विद्वान् मत्र्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है। (३७ से ४०) पुन: प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में देखिए- नित्य अभिषेक पाठ में पहले पंचकुमार पूजा व दशदिक्पाल पूजा दी है। पुन: पंचामृत अभिषेक पाठ है। अनन्तर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा, श्रुतपूजा, गणधरदेव पूजा दी है। अनन्तर यक्ष-यक्षी की पूजा दी है।
अथ यक्ष पूजा –
उपजाति छंद-
यक्षं यजामो जिनमार्गरक्षा-दक्षं सदा भव्यजनैकपक्षम्।