तेइसवें तीर्थेश हैं , पार्श्वनाथ भगवान |
उनकी भक्ती से मिले,क्रमशः पद निर्वाण ||१||
वीतराग सर्वज्ञ को, मन मंदिर में ध्याय |
चालीसा उनका कहूँ , मनवांछित मिल जाय ||२||
जय जय जय श्री पार्श्व जिनेश्वर, तुम कहलाए सर्व हितंकर ||१||
क्षमाशील हो विघ्नविनाशक, प्रभु तुम मोक्षमार्ग परकाशक ||२||
कर्मशत्रु के संहारक हो, लोकालोक सकल ज्ञायक हो ||३||
विश्वसेन नृप के घर जन्मे, वामा माता धन्य हैं तुमसे ||४||
पंचकल्याणक इन्द्र मनाते, भक्ती करके स्तुति गाते ||५||
वाराणसी में जन्म हुआ है ,गिरि सुमेरु सुर न्हवन किया है ||६||
बचपन में देवों संग खेले, स्वर्ग का ही भोजन वे लेते ||७||
एक बार मित्रों को लेके, क्रीड़ा करने वन में पहुंचे ||८||
वहाँ एक तापसी दिखा था, पंचाग्नी तप जो तपता था ||९||
जिस लक्कड़ को जला रहा था, नाग-नागिनी से युत वह था ||१०||
प्रभु ने जब उसको सम्बोधा, क्रोध में तापसि को नहिं सूझा ||११||
रिश्ते में उनका नाना था, क्रोधी,द्वेषी,अभिमानी था ||१२||
ले कुदाल लक्कड़ को चीरा, नागयुगल को दुसह पीड़ा ||१३||
उन घायल जीवों को प्रभुवर, संबोधन दें णमोकार पढ़ ||१४||
शुभ भावों से मरकर दोनों,पद्मावति धरणेन्द्र बने वो ||१५||
अब यौवन ने ली अंगडाई, किन्तु विरक्ती मन में आई ||१६||
जातिस्मृति से त्याग समाया,प्रभु ने ब्याह नहीं रचवाया ||१७||
पौष वदी ग्यारस शुभ आई, गए अश्ववन दीक्षा भाई ||१८||
घोर तपश्चर्या को करते, अश्वबाग में ध्यान लीन थे ||१९||
पापी कमठासुर आ पहुंचा, सात दिवस उपसर्ग किया था ||२०||
स्वात्मध्यान में प्रभु थे अविचल, शांतचित्त थे और थे निश्चल ||२१||
पदमावति धरणेन्द्र ने आकर, फण फैलाया पार्श्वनाथ पर ||२२||
तत्क्षण केवलज्ञान हो गया, समवशरण निर्माण हो गया ||२३||
वह स्थल अहिछत्र कहाया, महिमा ग्रंथों में है गाया ||२४||
दिव्यध्वनि सुन भवि हरषाया , कमठासुर भी दौड़ा आया ||२५||
क्षमा क्षमा कह रखता माथा, सम्यक्त्वी बन वह सुख पाता ||२६||
पहुंचे प्रभु सम्मेदशिखर पर, योग निरोधा मुक्त हुए तब ||२७||
श्रावण सुदि सप्तमि की तिथि थी, सिद्धिप्रिया से प्रीती की थी ||२८||
मरकत मणि सम आभाधारी , करुणासिंधु परम हितकारी ||२९||
केतूग्रह के तुम स्वामी हो, संकटमोचन जगनामी हो ||३०||
परम पिता तुम परम दयालू, केतू ग्रह से मुक्ती पा लूँ ||३१||
एक बार मम ओर निहारो, कृपादृष्टि मुझ पर भी डालो ||३२||
जन्मकुंडली में जब यह ग्रह, अशुभ जगह पर आ जाता है ||३३||
रोगी तन हो मन अशांत हो, प्राणी को बस भटकाता है ||३४||
शुभ स्थान में हो यदि तो यह, सदा सौख्य को दिलवाता है ||३५||
सांसारिक सुख के संग प्राणी, आध्यात्मिकता को भी पाता है ||३६||
सुना बहुत लाखों को तारा, कितनों को भव पार उतारा ||३७||
सांसारिक दुःख से अकुलाया, अतः आपकी शरण में आया ||३८||
दयासिन्धु अब दया दिखाओ, ग्रह के कष्ट से मुक्ति दिलाओ ||३९||
जय हो हे वामा के नंदन, पाम पिता हे जगदानन्दन ||४०||
श्री पार्श्वनाथ का चालीसा,जो श्रद्धायुत हो पढ़ते हैं |
चालिस दिन विधिवत पाठ करें, सारे अनिष्ट तब टलते हैं ||
दुर्गति का ‘इंदु’ निवारण हो, सांसारिक वैभव मिल जाता |
क्रम से आत्मा की उन्नति हो, इक दिन वह सिद्धिप्रिया पाता ||१||