केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर की अभिलिखित जैन मूर्तियां
सारांश
मध्य प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी एवं वर्तमान में शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र इन्दौर होलकर नरेशों के काल से ही महत्वपूर्ण रहा है। होलकर नरेश यशवन्तराव होलकर के समय १९२९ में स्थापित केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर नवीन भवन में १९६५ स्थानान्तरित हुआ। इसी संग्रहालय में संरक्षित कतिपय जैन शिल्पों का परिचय यहाँ प्रस्तुत है। केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर की स्थापना तत्कालीन होलकर नरेश यशवन्तराव होलकर द्वितीय ने अक्टूबर १९२९ में नवरत्न मंदिर में की गयी। होलकर रियासत के केन्द्रीय संग्रहालय नामकरण को मध्य भारत एवं मध्य प्रदेश सरकार ने भी यथावत रखा। ईस्वी सन् १९६५ में नवीन भवन का निर्माण कार्य रुपये ८,८९,००० की लागत से १०,८०४ वर्गफीट क्षेत्रफल में पूर्ण हुआ। यह दो मंजिला भवन आगरा—बम्बई मार्ग पर स्थित है। जहाँ १९६५ में संग्रहालय स्थानान्तरित हुआ। संग्रहालय में बड़े पैमाने पर पूरा सामग्री का संकलन हुआ और वर्तमान में दोनों मंजिलों पर आठ दीर्घाएँ प्रर्दिशत हैं। संग्रहालय में पश्चिमी मालवा से प्राप्त महत्वपूर्ण जैन प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं, जिनमें कुछ अभिलिखित महत्त्वपूर्ण जैन मुर्तिया का विवरण इस प्रकार है—
नेमिनाथ
तीर्थकर नेमिनाथ की यह प्रतिमा ऊन जिला पश्चिमी निमाड़ (खरगोन) से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ५९४२) पद्मासन पर अंकित परमेष्ठी नेमिनाथ की इस प्रतिमा का सिर व बायीं भुजा भग्न है। वक्ष स्थल पर श्रीवत्स तथा आसन पर ध्वज लाछन शंख का आलेखन कलापूर्ण है। हल्के हरे रंग के पत्थर पर र्नििमत प्रतिमा ५र्५ े ५र्० े २० सेमी आकार की है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १२२७ (ईस्वी सन् ११७०) का तीन पंक्तियों का एक स्थापना लेख अंकित है। क्षरण के कारण उसके कुछ अक्षर अस्पष्ट हो चुके हैं। इस लेख में ‘श’ के स्थान पर ‘स’ तथा अनुनासिक न के स्थान में अनुस्वार का प्रयोग हुआ है। लेख के आदि में दो अनुष्टुप छन्द में र्नििमत श्लोक है, इनके बाद गद्य भाग है, जिसमें प्रतिष्ठा कारक का नामोल्लेख है। लेख में देशी गण में बुद्धि सम्पन्न महामुनि, रत्नत्रय रूपी प्रवद्र्धमान लक्ष्मी से उदधि स्वरूप पण्डिताचार्य गुणचन्द्र के शिष्य महादानी, ज्ञानियों में विचक्षण, चन्द्र स्वरूप संघ, के आचार्य संघ में शास्त्रों के ज्ञाता, तीव्रचन्द हुए, सम्भवत: प्रतिमा—प्रतिष्ठा कार्य में प्रतिष्ठाचार्य का कार्य उन्होंने ही सम्पन्न किया था। गुर्जरान्वय में हुए शाहतीकम का पौत्र और पुत्र वीन (वीनू) संवत् १२७७ में इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराकर नित्य वन्दना करता हैजैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’, भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय—मध्य प्रदेश : १३वीं शती तक, दिल्ल, २००१, पृष्ठ २००—२०११ क्रमांक १८८ लेख का पाठ इस प्रकार है—
१.संवत् १२२७।
श्री मदेसी (शी) गणाधीस (श) गुण चंद्रो महामुनि (:।)
श्री वद्धित पंतिडताचार्य श्रव्य (सर्व) रत्नत्रयों ।घि:।।
तस्यणि (शि) स्य महो।
२.दान…..(ज्ञान) चंद्र विचक्षणा:।।
तीव्रचंद्र संघाचाय्र्य संघे सा (शा) स्त्र—विसा
३.तत्पुत्रों बीन प्रणमति नित्यं।
पार्श्रवनाथ— यह तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की प्रतिमा बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ३८१ अ) कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित यह प्रतिमा किसी मूल प्रतिमा के पाश्र्व में अंकित रही होगी। इसमें बांयी ओर परिकर के रूप में गज एवं सिंह व्यालाकृतियाँ तथा चामरधारी का आलेखन है। संगमरमर पत्थर पर निर्मित प्रतिमा (५र्१ २र्५ ११ सेमी. आकार की है। आसन पर दो पंक्तियों में विक्रम संवत् १३४२ (ईस्वी सन् १२८५) का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है, इसमें संवत् १३४२ वैशाख सुदी द्वितीया शनिवार के दिन परीक्षि और जशवीर ने पाश्र्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई।
लेख का पाठ इस प्रकार है—
१. संवत् १३४२ वर्षे वैशाष (ख) सुदि २ शनौ प
२. रीक्षिज (स) (प्रतीष्ठित) वीर श्री श्री पाश्र्वनाथ बिंब।
पार्श्रवनाथ—
यह तीर्थकर पाश्र्वनाथ की प्रतिमा बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ३८१ ब) यह कायोत्सर्ग रूप में अंकित तीर्थकर का दाहिना हाथ अंशत: भग्न है। यह कलाकृति मूल प्रतिमा के दाहिनी ओर की ‘का उस्सग्ग’ प्रतिमा होगी। क्योंकि परिकर का निर्माण करने वाले सिंह व्याल तथा चामरधारी का आलेखन भी स्थानक मुर्ति के दाहिनी ओर ही किया हुआ हैं। संगमरमर पत्थ पर निर्मित प्रतिमा ५र्१ २र्५ १० सेमी आकार की है। पादपीठ पर तीन पंक्तियाँ में विक्रम संवत् १३४२ (ईस्वी सन् १२८५) का स्थापना लेख उत्कीर्ण है। जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में संवत् १३४२ वैशाख सुदी द्वितीया शनिवार के दिन परीक्षि और जसवीर भक्त ने पाश्र्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई।
३ लेख का पाठ इस प्रकार है—
१. संवत् १२४२ वर्षे बैशाष (ख) सुदि २ शनौ
२. परीक्षि जसवीर समक्त श्री पाश्र्वनाथ बिं
३. बस्य।।
पार्शवनाथ प्रतिमा पादपीठ—
तीर्थकर पार्शवनाथ प्रतिमा का पादपीठ बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुआ है। (सं. क्र. ३८१ स) शास्त्रोक्त पद्धति के अनुरूप निर्मिंत यह प्रतिमा पादपीठ तीर्थंकर पाश्र्वनाथ से संबंधित होना चाहिए। सिंहासन के कोनों पर पाश्र्व यक्ष एवं यक्षणी पद्मावती का आलेखन है। मध्य में धर्मचक्र एवं मृग युगल तथा चतुर्भुजी देवी प्रतिमा का अंकन है। शासन देवताओं और धर्मचक्र के मध्य गज तथा सिंह की प्रभावोत्पादक आकृतियाँ बनी है। संगमरमर पत्थर पर निर्मित प्रतिमा पादपीठ १२र्७ ४र्० ३५ से. मी. आकार का है। पादपीठ पर दो पंक्ति में विक्रम संवत् १३४२ वें वर्षे के वैशाख सुदि द्वितीया शनिवार को सम्मेदाचल विहार में माथुरगच्छ धर्वट वंश के परीक्षि, रत्नाचार्य माल्हणि के पुत्र नासल तथा कुवरपाल सिंह और अट्ट सिंह तथा उसकी पत्नी जसदेवी तथा पुत्र अभय सिंह कुमार पौत्र पद्म िंसह जाटव आदि समुदाय द्वारा श्री पाश्र्वनाथ प्रतिमा का निर्माण कराया गया तथा श्री शालिसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराई गई।
लेख का वाचन इस प्रकार है—
१.श्री संवत् १३४२ वर्षे वैशाष (ख) सुदि २ शनौ श्री काशोदभव ग्रप्ततिबद्ध प्रासादे श्री संमेद विहारे श्री माथुर गच्छे श्री द्यर्वटवंशे परीक्षि रत्नाचार्य माल्हणि पुत्र नासल कुवर पालसी।
२.ह अट्टसीह भार्या चांद पुत्र परीक्षि जसवीर भार्या जसदेवि पुत्र अभयसिंह कुमार पुत्र पदमसिंह जाटव समुदायेन श्री पार्शवनाथ बिंव कारितं प्रतिष्ठित श्री शालिसूरिभि:।।
जैन प्रतिमा पादपीठ—
यह प्रतिमा पादपीठ ऊन जिला पश्चिमी निमाड़ (खरगोन) से प्राप्त हुआ है।जैन बलभद्र, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग तीन, बम्बई १९७९, पृष्ठ ३११ (सं. क्र. ४२०) इस विशालकाय प्रतिमा पादपीठ पर सामने मध्य में धर्मचक्र तथा उसके दोनों ओर गज एवं सिंहाकृतियाँ बनी हुई है। वैसे तो धर्मचक्र प्राय: आदिनाथ की प्रतिमाओं से सम्बद्ध माना जाता है, किन्तु मालवा में अन्य तीर्थकरों के आसनों पर भी उसे अंकित किया गया है। अत: निश्चित पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि यह आसन किस तीर्थंकर से संबंधित रहा होगा। बलुआ पत्थर पर निर्मित पादपीठ १२र्० ५र्० ३५ से. मी. आकार का है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १३३२ (ईस्वी सन् १२७५) का प्रतिष्ठा लेख भी अंकित है, जिसकी लिपि नगरी भाषा संस्कृत है। इसमें पादपीठ के दायीं ओर लेख में माघ वदी सप्तमी सोमवार को मूल संघ बलात्कारगण के पण्डिताचार्य सम्भवत: टुमनदेव के प्रशिष्य और सागरचन्द्र के शिष्य पंडिताचार्य श्री रत्नर्कीित संभवत: प्रतिष्ठाचार्य के रूप में प्रतिष्ठा कराकर नित्य प्रणाम करते हैं। पादपीठ पर बायीं ओर के लेख में प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराने वाले दो परिवार थे। प्रथम परिवार में शाह कदम्ब का पौत्र तथा शाह माहण का पुत्र शाह खाऊल और उसकी पत्नी जोजे प्रतिष्ठा कराकर प्रतिमा को नित्य प्रणाम करते हैं, दूसरे परिवार में उदयादित्य देव के राज्य में तीकव की माता उसका पुत्र शाह बहिण तथा उसकी पत्नी और पुत्र मंगल महा श्री की कामना से नित्य प्रणाम करते हैं।इन्दौर संग्रहालय में संरक्षित जैन तथा बौद्ध प्रतिमाएं एवं विविधकला कृतियाँ, मालवा की मूर्तिकला, पांच पृष्ठ ८०-८१ लेख का पाठ इस प्रकार है— पादपीठ की दायीं ओर अंकित संवत १३३२ वर्षे माघ्य वदि सोमे।।……अघे (मूलसंघे) हल: करगणधम (बलात्मकार गणमान्ये) पडिताचार्य (य्र्य) श्री उमान दिड (टुमन देव)……(तस्य सिस्य स्री सागर चन्द्र तास्तस्य) पंडिताचार्य (य्र्य) श्री रतनर्कीित: प्रणमति नित्यं। ==
पादपीठ की बायीं ओर अंकित
झंडरीलाल साधु…...कदम्ब तस्य सुत साधु माहण तस्य सुत साधु साउल प्रतस्य स्पर्धा (भार्या) जोज (जोजे) प्रथलज्य (प्रतिष्ठाय्य) प्रणम (मं) ति नित्यं।। साहु तीकव भ्रातृ…..(उदयादित्य देव) राज्य (ये) तस्य श्रुत (सुत) सा, (साहु) वहिण तस्य भार्या…..लताया: : पुं ……(पुत्र) प्रणम (मं) ति नित्यं।। मंगल महा श्री।। अम्बिका—यक्षी अम्बिकाकी यह प्रतिमा पुरागिलाना जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. २०) ऊँचे स्थाण्डिल पर सव्य ललितासन में बैठी हुई अम्बिका का सिर एवं चारों हाथ भग्न है। चतुर्भुजी होने के कारण समान्यतया इसे दिगम्बर सम्प्रदाय से संबंधित माना जा सकता है। यक्षी के दाहिनी ओर आसन के समीप बैठे हुए पुत्र शुभकर का अंकन है। वे अपने बायें हाथ से देवी का स्पर्श कर रहे हैं। अम्बिका की गोद में प्रियकर का भी आलेखन था, किन्तु वह टूट चुका है। आसन पर सिंह का आलेखन है। बलुआ पत्थर पर र्नििमत प्रतिमा ६र्५ ५र्३ २३ से. मी. आकार की है। पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में पार लगाने वाली महान देवी का सर्पिणी नित्य प्रणाम करती है। आर. एस. गर्ग ने इसे रूपिणी पढ़ा है, जबकि डॉ. कस्तूरचन्द जैन सुमन इसे र्सािपणी पढा है,जैन कस्तूरचन्द्र ‘सुमन’ भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ परिचय—मध्यप्रदेश : १३वीं सती तक, पृष्ठ ३०१-३०२ क्रमांक ३०१ लेख वाचन इस प्रकार है—
महान्तारिका सर्पिणी नित्य
अम्बिका—यक्षी अम्बिका की यह प्रतिमा पुरागिलाना जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. २१)। सव्य ललितासन में बैठी यक्षी अम्बिका के पैरों के समीप फल लिए लघुकाय, नग्न रूप में स्थानक शुभकर का अंकन बडा भावपूर्ण है। बायी और गोद में प्रियकर का आलेखन था, किन्तु वह टूट चुका है। यक्षी के चारों हाथ भग्न है और चतुर्भुजी होने के कारण इसे दिगम्बर सम्प्रदाय की अम्बिका कहा जा सकता है। यक्षी अम्बिका का अलंकरण १२वीं शती के अनुरूप बोझिल है। चौड़ी मेखला का आलेखन अत्यन्त सादा है। पैरों में कड़े और हाथों को चूड़ियाँ भी सामान्य स्तर की है, आसन अनुपात से अधिक ऊँचा है। बुलआ पत्थर पर र्नििमत प्रतिमा ९र्० ५र्५ २० सेमी. आकार की है। पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है, इसमें पार लगाने वाली महान देवी को रूणिनी नित्य प्रणाम करती हैपाठक नरेश कुमार, मध्य प्रदेश का जैन शिल्प, पूर्वोक्त, पृष्ठ ७२ लेख का पाठ इस प्रकार है—
महान्तारिक रूपिणी प्रणमति नित्यं
विद्या देवी अच्छुप्ता— विद्या देवी अच्छुप्ता की यह प्रतिमा हिगलाजगढ़ जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ५८९२) दिगम्बर परम्परा में चौदहवी परम्परा में अच्छुप्ता है। श्वेताम्बर परम्परा में अच्छुप्ता है। वर्ण, वाहन तथा आयुघ खडग के संबंध में दोनों परम्पराओं के वर्णन में समानता है। श्वेताम्बर परम्परा में भी अच्युता नाम की देवी अवश्य है, परन्तु वहाँ छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की यक्षिणी मानी जाती है। प्रवचन सारोद्धार में नेचिन्द्र सूरि ने उसे सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ की यक्षिणी लिखा है। वसुनंदि ने अच्युता को बङ्का हस्ता कहा है। आशाधर ने उसके दो हाथों को नमस्कार मुद्रा में बताया है। नेमिचन्द्र ने उसका मुख्य आयुध खडग माना है। इस प्रकार दो हाथ नमस्कार मुद्रा में एक हाथ में खडग और एक हाथ में वङ्का, अच्युता का स्वरूप माना जा सकता है। देखिये, जैन बालचन्द्र जैन, प्रतिमा विज्ञान, जबलपुर, १९७४, पृष्ठ ६४यह प्रतिमा निश्चित रूपेण श्वेताम्बर सम्प्रदाय की विद्या है, क्योंकि इसके स्थापना लेख में इसे स्पष्ट रूप से ‘अच्छुप्त देव्या’ लिखा गया है। विद्या देवी अच्छुप्ता का सिर हाथ तथा आयुध भग्न है, किन्तु अवशिष्ट आलेखन से स्पष्ट है, कि वह चतुर्भुजी रही होगी। पादलिप्ताचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ निर्वाणकलिका में इस विद्या देवी के आयुध क्रम था, इसे स्पष्ट नहीं बतलाया जा सकता है। देवी के आसन पर दोनों ओर दो चामरधारिणी परिचारिकाएं तथा सामने पूजक पुरुष व स्त्री प्रतिमाएं बनी हुई है। यह प्रतिमा जैन कला का बहुत की सुन्दर तथा महत्वपूर्ण उदाहरण है। उन्नत उरोज और उनपर पड़ी हुई हारावली, स्तन सूत्र, कटिबंध, उरूद्दाम तथा अधोवस्त्र का आलेखन मनोहारी है, देवी का वाहन अश्व भी बना हुआ है। बलुआ पत्थर पर र्नििमत प्रतिमा ७र्५े ५र्६ ३२ से. मी. आकार की है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १०७५ (ईस्वी सन् १०१८) का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत. इन्दौर संग्रहालय में संरक्षित जैन तथा बौद्ध प्रतिमाएं एवं विधि कला कृतियाँ,
मालवा की मुर्तिकला — पाँच पृष्ठ ७३ लेख का पाठ इस प्रकार है— श्री अच्छुप्त देव्या : अर्जुन पत्न्या जस देव्या या सं. १०७५ चेत्र वदि