जैन प्रतिमा विज्ञान में विद्यादेवियों की कल्पना सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मौलिक है । ‘अभिधान चिन्तामणि’ में विद्यादेवियों में श्रुतदेवी तथा सरस्वती की सम्मानीय परम्परा है। दिगम्बर परम्परा में वह मयूरवाहिनी है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतदेवी को हंसवाहनी और पद्म, वीणा, पुस्तक व अक्षमाला धारिणी कहा गया है । ये दोनों वाहन हिन्दू सरस्वती के अनुरूप है। हिन्दू देवी सरस्वती के समान जैन परम्परा में श्रुतदेवी के पूजन की परम्परा बड़ी प्राचीन है। उनके ग्रन्थों में उसका स्तुतिपरक विवरण उपलब्ध है। मूर्ति विज्ञान की दृष्टि से भी श्रुतदेवी का वर्णन बड़ा रोचक है। मलयकीर्ति ने सरस्वती कल्प में उसे पुण्डरीकासना, कलापिगमना और त्रिनेता तथा चतुर्भुजी देवी कहा है। पादलिप्ताचार्य की निर्वाणकलिका के अनुसार यह देवी द्वादशांग आगम अथवा श्रुत की अधिष्ठात्री देवी हैं और दाहिनें हाथों में वरद मुद्रा व कमल एवं बाएं हाथों में पुस्तक तथा अक्षमाला धारण करती है। मालवा से प्राप्त जैन श्रुतदेवी एवं विद्यादेवियों की अधिकांश प्रतिमाएं अभी तक अप्रकाशित ही है । परमारों के समय इन देवी प्रतिमाओं को कलात्मक ढंग से पाषाण पर शिल्पांकित करने के साथ—साथ कास्य पर भी ढाल कर निर्मित किया जाता था। केन्द्रीय संग्रहालय इन्द्रौर में सुरक्षित धातु निर्मित श्रुतदेवी की मूर्ति इसका एक अद्वितीय उदाहरण है। यह प्रतिमा झाबुआ जिले के अलीराजपुर से प्राप्त हुई है।र्७ ७५ से.मी. आकार की कांसे पर बनी हुई देवी आसन सहित है। देवी के आसान पर चार पाए हैं, पीछे बायीं ओर का पाया टूटा हुआ है। कमलासन पर त्रिभंग मुद्रा में स्थानक मूर्ति के चारों हाथों में दाहिनी और नीचे के हाथ में पुस्तक तथा ऊपर के हाथ में अक्षमाला है। पैरों में पायल, गले में हार, जिसकी एक लड़ देवी के उन्नत उरोजों पर पड़ी हुई है। सिर पर सुन्दर केशराशि, कानों में कुंडल, गंभीर नाभि, सिर के पीछे प्रभावली तथा उस पर फूल पंक्तियों का आलेखन है। देवी के दोनों ओर परिचारिकायें, दाहिनी ओर की परिचायिका भी त्रिभंग मुद्रा में खड़ी है, दाहिने हाथ में चंवर तथा बायें हाथ में बिजौरा है। पीछे व्यालों से निर्मित वितान तत्कालीन मूर्तिकला का सुन्दर उदाहरण है। देवी के पीछे १२ वीं शती की लिपि में ‘‘श्री गोविंदा (न) वये गणाधीस (श) सुत वेलाया’’ वाक्य उत्कीर्ण है। इसमें प्राप्त गोविन्वय शब्द जैन पट्टावलियों आदि में उपलब्ध नहीं होता, लगभग ११ वीं १२ वीं शती ई. की परमार काल की यह कांस्य प्रतिमा दुर्लभ है। सन्दर्भ सूची १. विशेष विवरण के लिये देखिये जैन बालचन्द्र ‘जैन प्रतिमा विज्ञान’ जबलपुर, १९७४, पृ. ५३—५४ २. मालवा की मूर्तिकला, पांच, इन्दौर संग्रहालय में संरक्षित जैन तथा बौद्ध प्रतिमाएं एवं विविध कलाकृतियाँ, भोपाल, १९९१, पृ. ७१