दोहा
अतिअद्भुत लक्ष्मी धरें, समवसरण प्रभु आप।
तुम धुनि सुन भविवृन्द नित, हरें सकल संताप।।१।।
शंभु छंद
जय जय त्रिभुवन पति का वैभव, अन्तर का अनुपम गुणमय है।
जो दर्श ज्ञान सुख वीर्य रूप, आनन्त्य चतुष्टय निधिमय है।।
बाहर का वैभव समवसरण, जिसमें असंख्य रचना मानी।
जब गणधर भी वर्णन करते, थक जाते मनपर्यय ज्ञानी।।२।।
यह समवसरण की दिव्य भूमि, इक हाथ उपरि पृथ्वी तल से।
द्वादश योजन उत्कृष्ट कही, इक योजन हो घटते क्रम से।।
यह भूमि कमल आकार कही, जो इंद्रनीलमणि र्नििमत है।
है गंधकुटी इस मध्य सही, जो कमल र्किणका सदृश है।।३।।
पंकज के दल सम बाह्य भूमि, जो अनुपम शोभा धारे है।
इस समवसरण का बाह्य भाग, दर्पण तल सम रुचि धारे है।।
सब बीस हजार हाथ ऊँचा, यह समवसरण अति शोभे है।
एकेक हाथ ऊँची सीढ़ी, सब बीस हजार प्रमित शोहै।।४।।
पंगू अंधे रोगी बालक, औ वृद्ध सभी जन चढ़ जाते।
अंतर्मुहूर्त के भीतर ही, यह अतिशय जिन आगम गाते।।
इसमें शुभ चार दिशाओं में, अति विस्तृत महावीथियाँ हैं।
वीथी में मानस्तम्भ कहे, जिनकी कलधौत पीठिका हैं।।५।।
इक योजन से कुछ अधिक तुंग, बारह योजन से दिखते है।।
इनमें है दो हजार पहलू, स्फटिक मणि के चमके हैं।।
उनमें चारों दिश में ऊपर, सिद्धों की प्रतिमायें राजें।
मानस्तंभों की सीढ़ी पर लक्ष्मी की मूर्ति अतुल राजें।।६।।
ये अस्सी कोशों तक सचमुच, अपना प्रकाश फैलाते हैं।
जो इनका दर्शन करते हैं, वे निज अभिमान गलाते हैं।।
मानस्तंभों के चारों दिश, जल पूरित स्वच्छ सरोवर हैं।
जिनमें अति सुन्दर कमल खिले, हंसादि रवों से मनहर हैं।।७।।
ये प्रभु का सन्निध पा करके, ही मान गलित कर पाते हैं।
अतएव सभी अतिशय भगवन् ! तेरा ही गुरुजन गाते हैं।।
मैं भी प्रभु तुम सन्निध पाकर, संपूर्ण कषायों को नाशूं।
प्रभु ऐसा वह दिन कब आवे, जब निज में निज को परकाशूँ।।८।।
जिननाथ ! कामना पूर्ण करो, निज चरणों में आश्रय देवो।
जब तक निंह मुक्ति मिले मुझको, तब तक ही शरण मुझे लेवो।
तब तक तुम चरण कमल मेरे, मन में नित स्थिर हो जावें।
जब तक निंह केवल ‘ज्ञानमती’ तब तक मम मन तुम पद ध्यावे।।९।।
तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूं अनंतों बार।।१०।।