यह शोधलेख- अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जो लेखक का श्रमसाध्य खोजपूर्ण कार्य है। २४ तीर्थंकरों ने भिन्न भिन्न वृक्षों के नीचे तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया था अस्तु वे -कैवल्यवृक्ष’ कहलाते हैं। लेखक ने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा से विभिन्न पुराणों के आधार पर कैवल्यवृक्ष तालिका भी भेजी है जो यहाँ संदर्भित नहीं है।
संपादक
वर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। भोगभूमि की व्यवस्थाएं समाप्त हो रही थीं। कल्पवृक्षों की क्षमताएं घट रहीं थीं। जनमानस भयाक्रान्त था, ऐसे समय में ऋषभदेव (आदिनाथ) ने ८ विद्याओं के अन्तर्गत ‘‘कृषि’’ का ज्ञान कराया। उन्होंने आहार के लिए उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए उत्तम अन्न फल और बनौषधियों की जानकारी दी। तत्कालीन भारतीय समाज के लिए ‘शाकाहार’ की महत्ता प्रतिपादित की। निरामिष भोजन बल, वीर्य वद्र्धक और शुद्ध है क्योंकि अहिंसा की एकमात्र शुद्धि का आधार है। शाकाहार पर्यावरण संरक्षण का भी कार्य करता है। वनस्पति के बिना जैविक प्रक्रिया असंभव है।१ कुछ वनस्पतियाँ ऐसी हैं जो औषधि एवं आहार दोनों में कार्य आती हैं। इनका शाकाहार तथा चिकित्सा की दृष्टि से महत्व है। इन वानस्पतिक आयुर्वेद औषधियों का चूर्ण, क्वाथ, लेप, अवलेह, वटी, आसव, अरिष्ट आदि रूप में उपयोग होता है। शाकाहारी सामग्री का मूल स्रोत, वृक्ष, लता, गुल्म आदि हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् उनके शिष्यों ने तीर्थंकर की वाणी को बारह अंगों (द्वादशांग) के रूप में नाम दिया। इस द्वादशांग वाणी के अन्तिम अंग को ‘‘दृष्टिवाद’’ कहते हैं। दृष्टिवाद भी पांच भेदों में गर्भित है, जिनमें से एक भेद ‘प्राणावाय’ है। प्राणावाय में मनुष्यों के आध्यात्मिक, नैतिक और शारीरिक स्वस्थता के उपायों का वर्णन है। यह स्वस्थ्ता आंतरिक भी और बाह्य भी और इसे प्राप्त करने के लिए आहार-विहार, परहेज तथा चिकित्सा पद्धति को इस अंग में समाहित किया गया है। प्राणावाय नामक इस पूर्व के पदों की संख्या दिगम्बर परम्परा में तेरह करोड़ और श्वेताम्बर परम्परा में एक करोड़ छप्पन लाख कही गयी है।यह प्राणावाय प्रवाद पूर्व, इन्द्रिय, बल, आयु, उच्छवासों का, अपघात मरण अरु आयुबन्ध, आयु अपकर्षण आदि का। यह आयुर्वेद के अष्ट अंग, का विस्तृत वर्णन करता है। २ इसमें पद तेरह कोटि इसे पूजत ही स्वास्थ्य लाभ मिलता।।वर्तमान में दिगम्बर जैनाचार्य ‘उग्रादित्य’ विरचित ‘कल्याणकारकम्’ ग्रन्थ इस परम्परा के प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य के रूप में प्राप्त है। विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह कर आचार्य उग्रादित्य का समय ईस्वी नवीं शताब्दी निरूपित किया है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में आचार्य श्री ने आयुर्वेद शास्त्र की उत्पत्ति के विषय में एक सुन्दर इतिहास लिखा है। ग्रन्थ के मंगलाचरण में भगवान् आदिनाथ को प्रणाम करते हुए भरत चक्रवर्ती ने प्रार्थना की कि-देव त्वमेव श्रणं शरणागताना मस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ। शीतातितापहिम वृष्टि निपीडतानां, कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम् ।।५।।३ स्वामिन् इस कर्मभूमि की हालत में हम लोग ठंडी, गर्मी व बरसात आदि के पीड़ित होकर दुखी हुए हैं एवं कालक्रम से हम लोग मिथ्या, आहार-विहार का सेवन करने लगे हैं। इसीलिए देव, आप ही शरणागतों के रक्षक हैं। नानाविधामयभयादतिदुःखिताना, माहार भेषजनि रुक्तिमजानतां न। तत्स्वास्थ्य रक्षण-विधानमिहातुराणां, का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ।।६।।४त्रिलोकीनाथ! इस प्रकार आहार, औषधि आदि के क्रम को नहीं जानने वाले व अनेक प्रकार के रोगों के भय से पीड़ित हम लोगों के रोग को दूर करने और स्वास्थ्य रक्षण करने का उपाय क्या है? कृपया आप बतलावें। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि आयुर्वेद का कथन जैनधर्म व जैन साहित्य में विद्यमान है। आदि पुराणकार ने लिखा है कि- ‘‘आयुरस्मिनविद्यतेऽनेन वा आयुर्विन्दतीत्यायुर्वेदः’’ ५ समस्त लोकविधियों के स्वामी भरत मूर्तिमान आयुर्वेद ही हैं अर्थात् आयुर्वेद ने ही क्या भरत का शरीर धारण किया है। वनस्पतिकायिक जीवों की दस लाख जातियाँ होती हैं। आयुर्वेद के विशिष्ट जानकारों ने जिन जिन वनस्पतियों को अपने शोध का विषय बनाया, उनमें से कोई भी वनस्पति ऐसी नहीं थी, जिसमें औषधीय गुण न हो। निःसन्दिग्ध रूप से यह कहा जा सकता है कि, प्रत्येक वनस्पति के किसी न किसी अंश में रोगशमन की क्षमता होती है। आवश्यकता है, उसके गुण को पहचानने और नियंत्रित विधि से सेवन करने की। तीर्थंकरों ने जिन वृक्षों के नीचे ध्यानस्थ हो, कठोर तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मों को नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त किया, उन वृक्षों को कैवल्यवृक्ष के नाम से अभिहित किया गया है। अनेक जैन ग्रन्थों में हमें इन कैवल्यवृक्षों की जानकारी प्राप्त होती है। दिगम्बर परम्परा में ‘तिलोयपण्णत्ति’ सहित प्रथमानुयोग के अनेक ग्रन्थों में हम इनके बारे में जान सकते हैं।
आइये! हम इन वृक्षों के औषधीय गुणों को संक्षिप्त में जानने का प्रयास करेंगे।
१. न्यग्रोध (बरगद)- भ. आदिनाथ का कैवल्यवृक्ष संस्कृत-वट, रक्तफल, शृंगी, न्यग्रोध, स्कन्धज, क्षीरी, वास, वैश्रवण, बहुपाद। हिन्दी- बड़, बरगद लेटिन- Ficusbenghalensis Linn बरगद का वृक्ष प्राणवायु विसर्जित करने में वनस्पति जगत में दूसरे स्थान पर है। बड़ कषाय शीतवीर्य, गुरु, ग्राही स्तम्भन, रुक्षण, वण्र्य, मूत्र तथा तृष्णा, वमन, मूच्र्छा, रक्तपित्त, विसर्प, दाह और योनिदोष को दूर करने वाला है।६ श्री राकेश बेदी ने लिखा है कि यह गर्भ के लिए हितकर है। प्रदर, पेट के रोग, प्यास दाह, खांसी शोधन के उपद्रव, मूत्र और वीर्य रोग, गठिया, फोड़े-जख्म, विसर्प, कुष्ठ, खून बहने, सर्पविष और मूर्धा के रोग में भी उपयोगी है। ७
२. सप्तपर्ण- तीर्थंकर अजितनाथ का कैवल्यवृक्ष संस्कृत-सप्तपर्ण, विशालत्वक, शारद, विषमच्छद हिन्दी- सतौना, सतवन, हतिवन, सतिवन लैटिन- Alstonia scholaris R.Bs. सुन्दर विशाल, सीध, सदाहरित एवं छीरयुक्त सतिवन या सतौने का वृक्ष प्रायः समस्त आद्र्र प्रान्तों में पाया जाता है। इसके सत्व के गुण कुनैन के समान हैं। प्रसूतावस्था में पहले दिन से ही इसे सुगन्धित पदार्थों (वच, अदरक, कचूर) के साथ देते रहने से ज्वर नहीं आता, अन्न ठीक से पचता है और माता का दूध बढ़ता है। ८ आयुर्वेद के अनुसार सप्तवर्ण की छाल कफ, वात शमक, व्रणशोधक, रक्तशोधक, कृमिघ्न और विषम ज्वर नाशक होती है। इसकी एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके द्वारा बनाई गई औषधियाँ कुप्रभावहीन होती हैं। ९
३. शाल (शाल-वृक्ष) तीर्थंकर संभवनाथ का कैवल्य वृक्ष एवं भ. महावीर स्वामी संस्कृत –शाल, सर्ज, काश्र्य, अश्वकर्णक, शल्यशम्बर हिन्दी- शाल, साल, साख, सखुआ लैटिन- Shosea robusta Gaertrif शाल के बड़े और विशाल वृक्ष सतलुज नदी के प्रदेशों से लेकर आसाम तक, मध्य भारत के पूर्वी भाग, और छोटा नागपुर के जंगलों में बहुतायत से होते हैं। यह व्रणशोधन, रक्तविकार, अग्निदाह, कर्णरोग, विष, कुष्ठ, प्रमेह और पाण्डु रोग का नाश करने वाला तथा मेद को सुखाने वाला है। फोड़े-फुंसियों की पीड़ा शान्त करने में तथा घाव भरने में उपयोगी है। शाल के मंजन से दांतों की पीड़ा शान्त होती है। १०
४. सरल- भ. अभिनन्दन का कैवल्य वृक्ष संस्कृत- सरल, पीतवृक्ष, सुरभिदारूक हिन्दी- धूपसरल, चिर, चीढ़, चीड़ लैटिन- Pinus longifolia Foxl. चीड़ के विशाल वृक्ष सीधे (सरल) होते हैं। ये हिमालय में काश्मीर से लेकर पंजाब, उत्तरप्रदेश और आसाम तक पाये जाते हैं। चीड़ कटु, तिक्त उष्णवीर्य, कोष्ठ शुद्धिकर तथा कफ, वात, शोध, कण्डू और व्रण का नाश करने वाला है। इसके काण्ड में क्षत करने से एक प्रकार का निर्यास निकलता है जिसको गंध विरोजा कहते हैं। गंध विरोजा से जो तेल निकाला जाता है, उसको तारपीन का तेल कहते हैं। ११
५. प्रियंगु- भ. सुमतिनाथ एवं भ. पद्मप्रभ का कैवल्यवृक्ष संस्कृत- प्रियंगु, फलिन, कान्ता, लता, श्यामा, गुन्द्रा, गन्धफला, प्रिया, विधववसेनांगा, हिन्दी- प्रियंगु, पूâल-प्रियंगु, गन्धप्रियंगु, वुंडुड, बूढ़ी घासी, डइया, दहिया लैटिन- Callicarpa macrophylla Vahl. यह नेपाल, देहरादून, बंगाल, बिहार तथा उत्तरप्रदेश के कुछ भागों में (जलप्राय स्थानों में) पाया जाता है। गुल्म ४ से ८ फुट ऊँचा होता है। पुष्प गुलाबी होते हैं। डालियाँ पुष्प गुच्छों के बोझ से झुक जाती हैं। १२
६. शिरीष – भ. सुपार्श्वनाथ का कैवल्य वृक्ष संस्कृत- शिरीष, भण्डिल, भण्डी, भण्डीर, कपीतन, शुकपुष्प, शुकतरु, शुकप्रिय, मृदुपुष्प। हिन्दी- सिरस, सिरिस लैटिन- albizzia labbeck Benth. शिरिष कषाय, तिक्त, उष्णवीर्य, लघु त्रिदोष हर, वेदना, स्थापन, शिरोविरेचन, विषहर, कुष्ठ, कण्डु, श्वॉस और खाँसी रोग को दूर करने वाला है। शिरीष कषाय, तिक्त, उष्णवीर्य, लघु, त्रिदोष हर, वेदना, स्थापन, शिरोविरेचन, विषहर, कुष्ठ, कण्डु, श्वॉस और खांसी रोगा को दूर करने वाला है। छाल के क्वाथ का कुल्ला करने से दाँत मजबूत होते हैं। १३
७. नागवृक्ष- भ. चन्द्रप्रभ का कैवल्य वृक्ष संस्कृत-नाग, नागपुष्प, केशर, नागकेशर, नागकिञ्जल्क, काञ्चनाह्र, चाम्पेय हिन्दी- नागकेसर, नागेसर, नागचकया, पीलानागकेशर लैटिन- Mesua ferrea Linn. पूर्वी हिमालय, आसाम, पूर्व बंगाल और बर्मा से लेकर दक्षिण हिन्दुस्तान तक पहाड़ों में पाया जाता है। वृक्ष छोटा और सुन्दर होता है। नागकेसर कफ और पित्त के कारण उत्पन्न होने वाले रोगों के साथ ही विषजन्य रोगों में लाभकारी है। यह बवासीर, खूनी बवासीर, पेट के कीड़े, खुजली आदि रोगों को दूर करता है। इसका उपयोग कुष्ठरोगों में भी किया जाता है। नागकेसर की छाल, जड़ पूâल, कली, कच्चे-पक्के फल आदि सभी का उपयोग औषधि निर्माण में किया जाता है। १४
८. अक्ष (बहेड़ी)- भ. पुष्पदंत का कैवल्य वृक्ष संस्कृत-अक्ष, विभीतक, कर्षफल, कलिद्रुम, भूतवास, कलियुगालय हिन्दी- बहेड़ा, बहेरा, फिनास, भैरा लैटिन- Terminallia belerica Roxle. लगभग ६० से १०० फीट तक ऊँचाई को प्राप्त होने वाला बहेड़े का विशाल वृक्ष देश के प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है। बहेड़ा हलका, गरम, रूक्ष, तीक्ष्ण और कफ-पित्त नाशक है। आँखों के लिए हितकर और अन्य मुख रोगों में गुणकारी है। बहते हुए खून को बन्द करता है। बालों को पकने से रोकने और बालों की वृद्धि में सहायक होने के कारण बालों के लिए लाभदायक समझा जाता है। यह कृमिनाशक है। १५
९. धूलिपलाश- भ. शीतलनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- पलाश, किंशुक, पर्ण, यज्ञिय, रक्तपुष्पक, क्षारश्रेष्ठ, वातपोथ, ब्रह्मवृक्ष, समिद्वर, हिन्दी- ढाक, पलाश, परास, टेसू छोटे या मध्यम ऊँचाई के पलाश वृक्ष अत्यन्त शुष्क भागों को छोड़कर प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है। दूर से सुग्गे की चोंच की तरह दिखने के कारण इसे किंशुक भी कहा जाता है। इस वृक्ष की छाल से रक्तवर्ण का गोंद निकलता है। पलाश का पुष्प वातल तथा कफ, पित्त, रक्तविकार, वातरक्त और कुष्ठ का नाश करने वाला है। पलाश के बीजों का तेल कफ-पित्त प्रशमनकारक है। १६
१०. तेंदू- भ. श्रेयांशनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत– तिन्दुक, स्फूर्जक, कालस्कन्ध, असितकारक हिन्दी- तेंदू, गाब, गाम लैटिन- Disphyros melanoxylon Pers यह वृक्ष प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता है पर बंगाल में अधिक होता है। इसके बीजों में तेल होता है। विषम ज्वर में छाल देते हैं। मुख पाक में फल के फांट से कुल्ला कराते हैं।१७
११. पाटल- भ. वासुपूज्य का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- पाटला, पाटलि, अमोघा, मधुदूती, फलेरुहा, कृष्णवृन्ता, कुबेराक्षी, कालस्थली, अलिवल्लभा, हिन्दी- पाढल, पाडर, पारल लैटिन- Stereo spermumsuveo lens D.C. यह प्रायः समस्त भारत में शुष्क भागों में पाया जाता है। पाटल कषाय, तिक्त तथा त्रिदोषहर है। अरुचि, श्वास, शोध, अर्श, वमन, हिचकी, तृषा और रक्त विकार को मिटाने वाला है। फूजल में रखने से उनका सुवास उतरता है। १८
१२. जम्बू- भ. विमलनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- फलेन्द्रा, नंदी, राजजम्बू, महाफला, सुरभिपत्रा, महाजम्बू। हिन्दी- बड़ी जामुन, फरेन्द्र, फरेन, फडेना, फलेन्द्र, राजजामुन। लैटिन- Eugenia Jambo lana Lam अत्यन्त शुष्क भागों को छोड़कर जामुन सभी प्रान्तों में पाई जाती है। इसका वृक्ष बड़ा और सदा हराभरा रहता है। जामुन की कोमल पत्ती वमन वन्द वाली है। मधुमेह में जामुन की मगज से लाभ होता है। फलों का उत्तम आसव बनता है, वह मधुमेह, अतिसार, संग्रहणी और ऑब में दिया जाता है। १९
१३. अश्वत्थ (पीपल) भ. अनन्तनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – अश्वत्थ, पीपल, बोधिडु, चलपत्र, गजाशन, हिन्दी- पीपलवृक्ष लैटिन- Ficus religiosa Linn. पीपल का वृक्ष इस देश के प्रायः सभी प्रांतों में पाया जाता है। यह बहुत ऊँचा, घना और विस्तारयुक्त होता है। प्राणवायु उत्सर्जित करने में पीपल का स्थान सर्वप्रथम है। मूत्र संग्रहणीय दस औषधियों में चरक ने पीपल को गिनाया है। रोग निवारक वस्ति (एनीमा) में महर्षि चरक छाल का प्रयोग करते थे। पीपल का प्रयोग खांसी, दमा, बुखार, चेचक, खून रोकने, गुदा के रोग, गठिया, सूचन, विसर्प, फोड़े और कान के रोग में किया जाता है। २० पश्चिम बंगाल में पत्ता काला रंग तैयार करने के लिए पीपल की छाल का अन्य छालों के साथ प्रयोग किया जाता है। प्राचीनकाल में म्याँमानर (वर्मा) में पीपल की छाल से कागज तैयार किया जाता था। २१
१४. दधिपर्ण – भ. धर्मनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – कपित्थ, कपिप्रिय, पुष्पफल, दधित्थ, दन्तशठ, दधिफल हिन्दी- कैथ, कैथा, कैत, करंत लैटिन- Feronia elephantum Corsea ंयह इस देश के प्रायः सूखे प्रान्तों में अधिक उत्पन्न होता है। दक्षिण भारत में वन्य अवस्थाओं में पाया जाता है। परिपक्व वैंâथ मधुर, अम्ल-कषाय तथा सुगन्धि होने से रुचिकर, कफ, वायु, श्वास, खाँसी, अरुचि और तृष्णा को दूर करने वाला है। २२
१५. नन्दी- भ. शान्तिनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत –तूणी, तुन्नक, आपीन, तुणिक, कच्छक, कुठेरक, कान्तलक, नन्दक, हिन्दी- तुन, तून, तूनी, महानिम यह हिमालय के निचले प्रदेशों में आसाम, बंगाल, छोटा नागपुर, पश्चिमी घाट एवं दक्षिणी प्रायदीप में होता है। इसकी लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आती है। लैटिन- Cedrela Foona Roxl
१६. नन्दीवृक्ष- श्वेताम्बर परंपरा में- भ. शान्तिनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- नन्दीवृक्ष, अश्वत्थ भेद, प्ररोही, गजपादप, स्थालीवृक्ष, क्षय तरु, क्षीरी हिन्दी- बेलिया पीपल लैटिन- Ficus reteesa यह छोटा नागपुर, विहार, मध्यभारत, दक्षिण भारत तथा सुन्दरवन में होता है।
१७. तिलक- भ. कुन्थुनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – तिलक, क्षुरक, श्रीमान, पुरुष, छिन्नपुष्पक हिन्दी- तिलक, तिलिया, तिलका लैटिन – Wendlendia exerta D,C, हिमालय के उष्णप्रदेशीय शुष्क जंगलों में, उड़ीसा, मध्यभारत, कोंकण एवं उत्तरी डेक्कन में पाया जाता है। यह खुली हुई और छोटी-छोटी वनस्पतियों से रहित तथा चबाने से लालास्राव वर्धक होती है। २४
१८. आम्र- भ. अरनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – आम्र, चूत, रसाल, सहकार, कामांग, माकन्द, अतिसौर, मधुदूत, पिकवल्लम हिन्दी- आम लैटिन – Nagbniufera indica linn भारत में लगभग १२०० प्रकार के आम के वृक्ष पाये जाते हैं। व्यावसायिक आधार पर लगभग २५ प्रजातियों के नाम सफल हैं। इनमें दशहरी, लंगड़ा, तोतापरी, चौसा, सपेâदा, कलमी, अल्फान्सो, बम्बइया, नीलम, बंगलौरा, गुलाब खस, मुलगोवा, बंगलपल्ली, पैंरी, ओलूर, स्वर्ण रेखा आदि प्रमुख है। इसकी लकड़ी, छाल, पत्ते, फल, बीज, मज्जा, गोंद आदि सभी बड़े उपयोगी है। इसके तने और शाखाओं की छाल से अनेक प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियाँ तैयार की जाती हैं। वृक्ष की ताजी छाल का रस पेचिश में और छाल का काढ़ा पुराने से पुराने घाव को भरने में प्रयोग किया जाता है। आम की सूखी पत्तियाँ का चूर्ण मधुमेह की रामबाण औषधि है। आम की बौरों की सहायता से अतिसार, प्रमेह, रक्तदोष, कफ तथा पित्त से संबन्धित अनेक औषधियाँ तैयार की जाती हैं। आम का फल (पका हुआ) ह्रदय रोगी के लिए विशेष रूप से लाभदायक है तो कच्चा फल लू लगने पर पने के रूप में दिया जाता है। २५
१९. कंकेलि – भ. मल्लिनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – कंकेलि, अशोक, हेमपुष्प, वञ्जुल, नट, ताम्रपल्लव, पिण्डपुष्प, गन्धपुष्प हिन्दी- अशोक लैटिन- Saraca indica linn वर्ष भर हरित रहने वाला अशोक का वृक्ष बड़ा सीधा और लगभग झोपड़ाकार होता है। यह मध्य और पूर्वी हिमालय सहित, पूर्वी बंगाल और दक्षिण भारत में पाया जाता है। यह रक्तप्रदर, श्वेतप्रदर, आर्तवशूल आदि गर्भाशय के रोगों में गुणकारी है। २६
२०. चम्पक- भ. मुनिसुव्रतनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- चाम्पेय, चम्पक, हेतपुष्प, स्वर्णपुष्प, पीतपुष्प, काञ्चन, षट्पदातिथि। हिन्दी- चम्पा लैटिन- Michelia Champaca linn चम्पा का वृक्ष छोटा और सदाबहार होता है। यह प्रायः वाटिकाओं में प्राप्त होता है किन्तु पूर्वी हिमालय में ३००० फीट ऊॅचाई तक तथा आसाम पश्चिमी घाट तथा दक्षिण भारत में वन्य अवस्था में भी पाया जाता है। चंपा रस में कटु, तिक्त, कषाय, शीतवीर्य, रक्तपित्त, दाद, कुष्ठ, कंडु वृण, मूलकृच्छ, विष, कृमि, रक्तविकार, कफ और पित्त का नाश करने वाला है। २७
२१. बकुल – भ. नमिनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – बकुल, मधुगन्ध, सिंह केसरक हिन्दी- मौलसिरी लैटिन – Mimusops elengi Linn सघन और चिकने पत्तों से युक्त यह वृक्ष सर्वत्र बागों में लगा हुआ पाया जाता है। दक्षिण भारत तथा अंडमान में बहुतायत से होता है। मौलसिरी का पुष्प कफ, पित्त, विष, कृमि और दांत के रोगों का नाश करने वाला है। छाल का क्वाथ जीर्ण ज्वर में देते हैं। दांत हिलने और मुखपाक में भी छाल के क्वाथ के कुल्ले कराये जाते है। रक्त-युक्त जीर्ण ऑव में पके हुए फलों का उपयोगा किया जाता है।
२२. मेषशृंग – भ. नेमिनाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत- मेषश्रंगी, विषाणी, मेषवल्ली, अजश्रंगिका, मधुनाशिनी हिन्दी- मेढासिंगी, गुड़मार लैटिन- Gymnema sylvestre RBs यह कोंकण, श्रावणकार, गोवा तथा दक्षिण भारत में विशेष रूप से तथा बिहार एवं उत्तरप्रदेश में कहीं-कहीं मिलती है। इसकी पत्तियों को चबाने से १-२ घण्टे के लिए जीभ की स्वाद ग्रहण शक्ति नष्ट हो जाती है, इसी से इसे गुड़मार कहते हैं। मधुमेह के इलाज के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। २९
२३. धव- भ. पार्श्व नाथ का कैवल्य वृक्ष ”संस्कृत – धव, धट, नन्दितरु, स्थिर, धुरन्धर, गौर हिन्दी- धौरा, धौ, धव, धों, धववृक्ष लैटिन- Anogeissus lati folia wall पूर्व बंगाल तथा आसाम को छोड़कर धव का वृक्ष प्रायः भारत के सभी प्रांतों में पाया जाता है। वृक्ष बड़ा या मध्यम ऊँचाई का होता है। धव मधुर तथा कषाय रसयुक्त, शीतल एवं प्रमेह, अर्श, पाण्डु, पित्त तथा कफ का नाशक है। ३०
२४. देवदारु – (धव) – श्वे. परम्परा में देवदारु- भ. पाश्र्वनाथ का वैâवल्य वृक्ष=== ”संस्कृत- देवदारु, दारु, दारुभड, इन्द्रदारु, मस्तदारु, किलिम, द्रुकिलिम, सुरभूरुह हिन्दी- देवदार लैटिन- Cedrus deodaru (Roxl) Loud पश्चिमोत्तर हिमालय में कुमायूँ से पूर्व की ओर यह पाया जाता है। जौनसार ओर गढ़वाल में भी बीच का भाग देवदारु वृक्ष माला का प्रधान उत्पत्ति स्थान है। इसका वृक्ष बहुत विशाल, चिरायु और सुन्दरा होता है। देवदार की सुगन्ध युक्त लकड़ी तेल से भरी होती है जिसे के लोन का तेल कहते हैं।३० देवदारु का तेल कृमि, कुष्ठ और वात को मिटाने वाला है। देवदार- आम, तन्द्रा, हिक्का, ज्वर, रक्तविकार, प्रमेह, कफ, खांसी, कण्डू और वायु का नाश करने वाला है। ३१ देवदार मानवों के साथ ही पशुओं के अनेक रोगों को दूर करने में प्रयुक्त होता है। ३२ संपादकीय नोट : लेखक की प्रकाशित कृति – ‘जैन आगमों में वर्णित वृक्ष एवं पर्यावरणीय अनुचिंतन ‘पठनीय एवं संदर्भित है। इसे ०९४२५००५६२४ पर संपर्वâ कर प्राप्त कर सकते हैं।
संदर्भ : २
१.महाकवि आचार्य जिनसेन कृत आदि पुराण परिशीलन/आलेख – डॉ. सुषमा/ पृष्ठ २५१
२. श्रुत स्कंध विधान/गणिनी प्रमुख आर्यिका ज्ञानमती/ पृ. १०
३. कल्याणकारकम् / आचार्य उग्रादित्य/ पृ. २
४.वही, पृ. २
५.आदिपुराण पृ.
६. द्रव्य गुण विज्ञानम् (द्वितीय खंड) वैद्य यादव जी त्रिविक्रम जी आचार्य, पृ. ३३६
७. जंगल के उपयोगी वृक्ष/रामेश वेदी/ पृ.१७६-१८०
८. द्रव्यगुण विज्ञानम् / पृ. २६१-२६२
९. भारत का राष्ट्रीय वृख और राज्यों के राज्य वृक्ष/परशुराम शुक्ल, पृ. २२४
१०. द्रव्य गुण विज्ञानम, पृ. १०४-१०५
११. द्रव्य गुण विज्ञानम् , पृ.३४७
१२.वही, पृ. २२८-२५०
१३. द्रव्य गुण विज्ञानम् , पृ. १८९
१४.भारत का राष्ट्रीय वृक्ष और राज्यों के राज्य वृक्ष, पृ. २८५
१५. जंगल के उपयोगी वृक्ष, पृ. १८८-१८९
१६. द्रव्य गुण विज्ञानम् पृ. १६१
१७. भाव प्रकाश निपन्टु, पृ. ५६७-५६८
१८. वही, पृ. २९१-२९२
१९. द्रव्य गुण विज्ञानम् , पृ. २०६
२०. जंगल के उपयोगी वृख, ११६-११९
२१. भारत का राष्ट्रीय वृक्ष और राज्यों के राज्यवृक्ष, पृ. २५३
२२.द्रव्य गुण विज्ञानम् , पृ. १३२
२३.भाव प्रकाश निघन्टु, पृ. ५३२
२४.वही, पृ. ५०५
२५.भारत का राष्ट्रीय वृक्ष और राज्यों के राज्यवृक्ष, पृ. २७७-२७८
२६. द्रव्य गुण विज्ञानम् , पृ. १८०-१८१
२७. वही, पृ. ७१
२८. वही, पृ. २५२
२९.भाव प्रकाश निघन्टु, पृ. २२२
३०. वही, पृ. ५३९-५४० ३१. वही, पृ. १९६-१९७
३२.द्रव्य गुण विज्ञानम् पृ. ३४६
३३.भारत का राष्ट्रीय वृक्ष और राज्यों के राज्य वृक्ष, पृ. ३३५
नोटः- तीर्थंकरों के वैâवल्य- वृक्ष के चित्र कवर पृष्ठ २ एवं ३ पर देखें।