मानवीय गुणों के अभाव में मानव जीवन निरर्थक— मानवीय गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में विशेष अंतर नहीं होता। दया, करूणा, मैत्री, सेवा, परोपकार, अनुकंपा नैतिकता, सहानुभूति, कर्तव्य पालन का विवेक मानवता का प्रतीक है। इन गुणों से शून्य मनुष्य तो मानवता के अभाव में स्वार्थी एवं अनैतिक जीवन जीता है। जिस व्यक्ति के दिल में प्राणीयों के प्रति दया, प्रेम नहीं होता वह परमात्मा प्रेम नहीं पा सकता। भले ही वह व्यक्ति स्थानकों अथवा उपासरों में जाकर सामायिक साधना, मंदिरों में पूजा पाठ, गुरूद्वारों में गुरूग्रंथ साहब के गुणगान, मस्जिद में नमाज और गिरजाघरों में जाकर कितनी ही प्रार्थना क्यों न करता हो? इसलिये तो कहा है—मक्का, मदीना, द्वारका,बद्री और केदार। बिना दया सब झूठ है, कहे मलूक विचार।।
मनुष्य का आचरण कैसा हो, उसके संबंध में कवि ने कितना सुन्दर विवेचन किया है—सत्त्वेषु मैत्रीं, गुणिसु प्रमोदं,क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ भावं, विपरीत वृत्तौ,सदा ममात्मा विद्धातु देव।।अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों के साथ नि:स्वार्थ भाव रखना, अपनी आत्मा के समान ही सभी जीवों में सुख—दु:ख की अनुभूति का अनुभव करना। गुणीजनों को देखकर प्रसन्न होना, दीन, दु:खी का कष्ट मिटाने हेतु यथा शक्ति प्रयत्न करना तथा जो अपने से विपरीत स्वभाव वाले हैं उनके प्रति द्वेष न रख तटस्थ भाव रखना। ऐसा जीवन जीने वाले ही मानव जीवन को सफल बना पाते हैं।
भोजन जीवन का आधार है। आधार हमेशा मजबूत होना चाहिए न कि मजबूरी, लापरवाही, अज्ञान अथवा अविवेकपूर्ण आचरण का। यह आवश्यक भी है।और हमारे लिए चेतावनी भी है। हमें ऐसा आहार करना चाहिए जो पूर्णत: अहिंसक हो, अर्थात् किसी भी चेतनाशील जीव की हिंसा करके अथवा कष्ट देकर यथा संभव उपलब्ध न किया गया है। प्रकृति का यह सनातन सिद्धांत है कि किसी जीव को प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष रूप से दु:ख, पीड़ा, कष्ट पहुँचाने वाले को उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।नर्दोषों का रक्त बहाना, मानवता का मान नहीं। हिन्दू मुस्लिम याद तुम्हें, क्या गीता और कुरान नहीं ?
लाखों रूपये में भी अपने शरीर के किसी अंग को न बेचने वाला अपने स्वाद पूर्ति के लिये बेचारे बेजुबा, बेबश, बेसहारा प्राणी जिनका रोम—रोम मनुष्य जाति के लिए समर्पित होता है, जिसे खिलाना चाहिये, उसे ही खाया जा रहा है। ऐसा मानव आकृति से भले ही मनुष्य हो, परन्तु प्रकृति से तो वह राक्षसों को भी लजाने वाला बनता जा रहा है। इसीलिए किसी कवि ने चुनौती के स्वरों में कहा है—मत सता जालम किसी को, मत किसी की हाय ले। दिल के दु:ख जाने से जालिम, खाक में मिल जाएगा।
आज जब भोजन के अनेकों विकल्प उपलब्ध है तब मांसाहार के लिए पशुओं का वध कदापि उचित नहीं हो सकता ? सभी प्राणी चाहे वे मनुष्य अथवा पशु पक्षी हों प्रकृति के परिवार के सदस्य होने से आन्तरिक रूप में जुड़े हुए हैं । जैसे कोई व्यक्ति अपने संबंधी का मांस नहीं खाता, उसी प्रकार मांसाहार से भी परहेज किया जाना चाहिए। मनुष्य के लिए मांसाहार मजबूरी नहीं है। अत: स्पष्ट मांसाहार मनुष्य के दिमाग की विकृति का परिणाम है। इसलिए महापुरूषों ने स्पष्ट कहा है—अगर आराम चाहते हो तो नसीहत ये हमारी है। किसी का मत दु:खाओ दिल, सभी को जान प्यारी है।।
क्या जिन जानवरों को मांसाहार के लिये मारा जाता है उन पशुओं के स्वास्थ्य का परीक्षण होता है ?वे असाध्य, संक्रामक रोगों से पीड़ित तो नहीं होते ? कहीं मांस के साथ जानवरों के रोग एवं मवाद तो खाने वालों के शरीर में प्रवेश नहीं करते ? क्या जहर उबालने से अमृत बन जाता है ? इसीलिए तो कहा है— जब पेट भर सकती है, तेरा दो रोटियाँ। क्यों खाता है, बेजुबां की बोटियाँ। क्या पशुओं का वध करते ही उनके मांस का भक्षण कर लिया जाता है ? अगर नहीं तो उसमें रोग कीटाणु उत्पन्न हो, आसपास के वातावरण को तो दूषित नहीं करते ? मानव का पेट क्या कचरा पेटी है कि उसमें जब चाहो, जो चाहो, जितना चाहो, कुछ भी डाल दें ? क्या मांसाहारियों का पेट मृत जानवरों का कब्रिस्तान तो नहीं हैं ?मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है, मांसाहार उसके अनुकूल नहीं। पशु भी मानव जैसे प्राणी हैं, वे मेवा, फल—फूल नहीं।।
अगर कोई मनुष्य को खा जाता है उसको नर भक्षी कहा जाता है। ऐसे जानवरों को लोग जिंदा नहीं रहने देते। परन्तु मांसाहारी जीवन पर्यन्त कितने प्राणियों की हत्या कर खाता है, फिर भी ऐसे मानव को सभ्य, बुद्धिमान मनुष्य मानना कदापि न्याय संगत नहीं। ‘‘जैसा करोगे वैसा फल मिलेगा’’,‘‘ जिसको मारने में सहयोगी बनेंगे, उसके हाथों मारे जायेंगे।’’ प्रकृति के न्याय में देर हो सकती है, अंधेर नहीं हो सकती। जो प्रकृति के इस अटूट सिद्धांत को नकारता है, उसको भविष्य में पछताना पड़ेगा।गला जो काटे औरों का, अपना रहे कटाय। सांई के दरबार में, बदला कहीं नहीं जाये।।
दुनियाँ का कोई धर्म विश्वासघात की सीख नहीं देता। पहले तो पशुओं को पालना, अच्छा खिलाना— पिलाना तथा बाद में मांसाहार हेतु उनका वध करना अधर्म नहीं तो क्या ? इसलिए सभी धर्म प्रवर्तकों ने मांसाहार का निषेध किया ।परन्तु उन्हीं के अनुयायी अपनी स्वाद लोलुप प्रवृत्ति के कारण, धर्म के नाम पर पशुबली की कुर्बानी करें, कितना विसंगत है ? प्राय: किसी भी धार्मिक कार्य को धार्मिक स्थानों में करने की मनाई नहीं होती। यदि कुर्बानी में धर्म होता तो मस्जिदों में कुर्बानी का निषेध नहीं होता। कोई भी धर्म हिंसा,क्रूूरता की बात नहीं करता, फिर भी उनके अनुयायी मांसाहार करें। उनके आचारण में क्या विरोधाभास नहीं हैं ? इसीलिए तुलसी दास जी को कहना पड़ा—दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण।। क्या पशुव्रूरता कानून न्याय संगत हैं ?पशु कल्याण विभाग पशुओं पर ज्यादा बोझ न ढोना, उनको कष्ट पहुँचाने पर दण्ड की बात करता है परन्तु पशुओं को जान से मारने वाले पर कोई दण्ड का कानून नहीं बनवाता। यह कैसा कानून ? पशु कल्याण विभाग को कानून को न्याय संगत बनाने में अपनी अहम् भूमिका निभानी चाहिये। पहले मांसाहार उद्योग को सरकारी संरक्षण नहीं था अत: सामूहिक रूप से पशुओं का वध नहीं होता था । जब तक राजनीति के साथ मानवता की अनदेखी होगी, विकास के स्थान पर राष्ट्र का पतन ही होगा। राष्ट्र की स्थिति का चित्रण करते हुए कवि की व्यथा बोल रही हैं :—देश मे हिंसा का, दावानल जल रहा है, पुण्य के नाम पर, पाप चल रहा है। हिंसा, भ्रष्टाचार और अनीति में भी, भगवान जाने, यह देश कैसे चल रहा है।।बुद्धिमान व्यक्ति मांसाहारी नहीं हो सकता है— बुद्धिमान कौन ? अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने वाला या उपेक्षा करने वाला? अपनी क्षमताओं का सदुपयोग करने वाला अथवा दुरूपयोग करने वाला या अपव्यय करने वाला ? दयालु या क्रूूर, स्वार्थी अथवा परमार्थी? अहिंसक अथवा हिंसक ? अन्य प्राणियों के प्रति मैत्री और प्रेम का आचरण करने वाला या द्वेष और घृणा फैलाने वाला ? जीओ और जीने दो के सिद्धांतों को मानने वाला व दूसरों को स्वार्थ हेतु कष्ट देने वाला, सताने वाला या नष्ट करने वाला ? उपरोक्त मापदण्डों के आधार पर ही मनुष्य को सभ्य, सजग, सदाचारी और बुद्धिमान अथवा असभ्य, असजग, दुराचारी और मूर्ख समझा जाता है। अपने—अपने खाने की आदतों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि हमारा खान—पान कितना बुद्धिमता पूर्ण है।
जन्म और मृत्यु के बीच की अवस्था का नाम जीवन है। जीवन को समझने से पूर्व जन्म और मृत्यु के कारणों को समझना आवश्यक होता है। जिसके कारण हमारा जीव विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है। जन्म और मृत्यु क्यों? कब? कैसे और कहाँ होती है। उसका संचालन और नियंत्रण कौन और कैसे करता है ? सभी की जीवन शैली, प्रज्ञा, सोच, विवेक, भावना, संस्कार, प्राथमिकताएँ, उद्देश्य, आवश्यकताएँ आयुष्य और मृत्यु का कारण और ढंग एक सा क्यों नहीं होता? मृत्यु के पश्चात् अच्छे से अच्छे चिकित्सक का प्रयास और जीवन दायिनी समझी जाने वाली दवाईयाँ क्यों प्रभावहीन हो जाती हैं ? मृत्यु के पश्चात् शरीर के कलेवर को क्यों जलाया, दफनाया अथवा अन्य किसी विधि द्वारा समाप्त किया जाता है। पशु भले ही बेजुबान हो,बेजान नहीं होते। अत: जो प्राण हम दे नहीं सकते , उनको लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है।सुख, शांति, प्रसन्नता एवं आनंद चाहने वालों को अहिंसक जीवन शैली अपनाना मानवता एवं स्वास्थ्य की प्राथमिक आवश्यकता है।