सुधा-माँ! मुझे आज एक बहन ने बताया है कि मुनिराज कारण पड़ने पर रात्रि में भी शिक्षा और उपदेश देते थे। माता-हाँ बेटी, मैं तुझे इस पर एक ऐतिहासिक कथा सुनाती हूँ। सुनो! कौंचपुर के राजा यक्ष सुखपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनके राजिला नाम की रानी थी। उन दोनों के यक्षदत्त नाम का एक पुत्र था। एक दिन बाहर भ्रमण करते हुये यक्षदत्त ने दरिद्रों की बस्ती में एक सुन्दर स्त्री को देखा। देखते ही वह काम-बाणों से आहत हो गया और रात्रि में उसी के उद्देश्य से वहाँ जा रहा था कि मार्ग में एक तरफ विराजमान, अवधिज्ञानी मुनिराज ने ‘‘मा’’ अर्थात् मत जाओ इस प्रकार शब्द का उच्चारण किया। उसी समय बिजली चमकी और उसी समय हाथ में तलवार धारण करने वाले यक्षदत्त ने एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए ‘‘अयन’’ नाम मुनिराज को देखा। उसने बड़ी विनय से उनके पास जाकर तथा नमस्कार कर उनसे पूछा कि हे भगवन्! आपने ‘‘मा’’ शब्द का उच्चारण कर निषेध किसलिए किया? मुनिराज ने कहा कि आप कामी होकर उसके उद्देश्य से जा रहे हैं वह आपकी माता है इसलिये ‘‘मत जाओ’’ कहकर मैंने रोका है। यक्षदत्त ने फिर पूछा-‘‘वह मेरी माता कैसे है? इसके उत्तर में अनुकम्पा से युक्त मुनिराज ने उसे कथा सुनाई जो इस प्रकार है- मृतिकावती नगरी में बन्धुदत्त वणिक रहता था। उसकी मित्रवती नाम की भार्या थी। एक बार बन्धुदत्त अज्ञातरूप से मित्रवती को गर्भधारण कराकर जहाज से अन्यत्र चला गया। तदनन्तर सास-श्वसुर ने गर्भ ज्ञात होने पर दुश्चरित्रा समझकर उसे नगर से निकाल दिया। उस समय गर्भवती मित्रवती उत्पलिका नाम की दासी को साथ लेकर पिता के घर जाने लगी। मार्ग में जंगल में साँप ने उत्पलिका को डस लिया, जिससे वह मर गई। तब वह स्त्री सखी से रहित, एक शीलरूपी सहायिका ये युक्त हो महाशोक से व्याकुल इस क्रौंचपुर नगरी में आई। यहाँ के उपवन में उसने पुत्र को जन्म दिया। अनन्तर वह पुत्र को रत्नकम्बल में लपेटकर एक समीपवर्ती सरोवर में वस्त्र धोने के लिये गई, तब एक कुत्ता उसके पुत्र को उठाकर ले गया।
वह कुत्ता वहाँ के राजा
वह कुत्ता वहाँ के राजा का पालतू प्यारा कुत्ता था। इसलिये उसने रत्नकम्बल में लिपटे हुए उस पुत्र को अच्छी तरह से ले जाकर राजा यक्ष को दे दिया। राजा ने भी वह पुत्र अपनी पुत्रहीन राजिला रानी को दे दिया और उसका यक्षदत्त नाम रख दिया। जब मित्रवती लौटकर वहाँ आई और अपना पुत्र नहीं देखा, तब वह दु:ख से चिरकाल तक विलाप करती रही। तदनन्तर उपवन के स्वामी देवार्चक ने उसे देखकर दयापूर्वक सांत्वना दी और यह कहकर कि तू हमारी बहन है, अपनी कुटी में रखी। कोई सहायक न होने से लज्जा से अथवा अपकीर्ति के भय से वह फिर पिता के घर नहीं गई और वहीं रहने लगी। वह अत्यन्त शीलवती तथा जिनधर्म को धारण करने में तत्पर रहती हुई दरिद्र देवार्चक की कुटी में बैठी थी, तब घूमते हुए तुमने उसे देखा था। उसके पति बन्धुदत्त ने परदेश जाते समय उसे जो रत्नकम्बल दिया था वह आज भी राजा यक्ष के घर में सुरक्षित रखा है। इस घटना को सुनकर उस यक्षदत्त ने उन परमोपकारी महामुनिराज को बार-बार नमस्कार किया और बहुत प्रकार से स्तुति की और वह वैसे ही तलवार लिए सीधा राजा यक्ष के पास आया और बोला कि आप मेरे जन्म की सच्ची-सच्ची घटना बता दीजिये। राजा यक्ष ने भी उसी समय उसे बतलाया कि मुझे मेरे पालतू कुत्ते ने रत्नकम्बल में लिपटे हुए तुझे लाकर दिया था, सो मैं और कुछ नहीं जानता हूँ। इतना कहकर उस राजा ने वह रत्नकम्बल, जो कि जरायु से लिप्त था, निकालकर उसको दे दिया। इस घटना के स्पष्ट होने के अनन्तर यक्षदत्त ने अपने पूर्व की माता और पिता से मिलकर बहुत ही सुख का अनुभव किया और महावैभव से आश्चर्य में डालने वाला बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। सुधा-सचमुच में मुनिराज एक अकारण बन्धु हैं, जो कि बिना पूछे ही भव्यों का हित करने वाले होते हैं। माता-हाँ बेटी! इसलिये मुनिराज की वन्दना प्रतिदिन करना चाहिये और आज भी मुनियों का विहार इस भारतवर्ष में सर्वत्र हो रहा है। यदि कदाचित् किसी दिन उनका दर्शन ना मिले, तो परोक्ष में बड़ी विनय से उनकी वन्दना करके जब तक धर्म जीवित है, तब तक मुनियों की परम्परा और श्रावकों की परम्परा जीवित है अथवा यों समझ लीजिये कि जब मुनि, र्आियका, श्रावक, श्राविका ये चतुर्विध संघ है, तभी तक जैनधर्म है, क्योंकि जैनधर्म इन्हीं के आश्रित रहता है।