युग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या नगरी में जन्म लिया था। माता मरुदेवी एवं पिता नाभिराज ने यौवन अवस्था में भगवान ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनन्दा नामक दो कन्याओं के साथ सम्पन्न किया, जिसमें से महारानी यशस्वती ने क्रम-क्रम से भरत आदि सौ पुत्र एवं ब्राह्मी नामक एक कन्या को तथा महारानी सुनन्दा ने बाहुबली नामक एक पुत्र एवं सुन्दरी कन्या को जन्म दिया। अनेक पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए भगवान ऋषभदेव असंख्य ताराओं के मध्य चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। महाराजा नाभिराज आदि अनेकों बड़े-बड़े राजाओं के द्वारा राजा बनाए जाने के बाद भगवान ऋषभदेव ने कर्मभूमि की रचना करके अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ बनाकर प्रजा का पालन करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने प्रजा को वर्णों की व्यवस्था के साथ-साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई। भगवान ने चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को महामण्डलीक राजा बनाया, इस विषय में महापुराण ग्रंथ, भाग-१ के पर्व १६ में स्पष्ट वर्णन है
समाहूय महाभागान् हर्यकम्पनकाश्यपान्।
सोमप्रभं च संमान्य सत्कृत्य च यथोचितम्।।२५६।।
कृताभिषेचनानेतान् महामण्डलिकान् नृपान्।
चतु:सहस्रभूनाथपरिवारान् व्यधाद् विभु:।।२५७।।
सोमप्रभ: प्रभोराप्तकुरुराजसमाह्वय:।
कुरूणामधिराजोऽभूत कुरुवंशशिखामणि:।।२५८।।
हरिश्च हरिकान्ताख्यां दधानस्तदनुज्ञया।
हरिवंशमलंचव्रे श्रीमान् हरिपराक्रम:।।२५९।।
अकम्पनोऽपि सृष्टीशात् प्राप्तश्रीधरनामक:।
नाथवंशस्य नेताभूत् प्रसन्ने भुवनेशिनि।।२६०।।
काश्यपोऽपिगुरो: प्राप्तमाधवाख्य: पतिर्विशाम्।
उग्रवंशस्य वंश्योऽभूत् किन्नाप्यं स्वामिसंपदा।।२६१।।
भगवान ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया। तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हे महामण्डलीक राजा बनाया। ये राजा चार हजार अन्य छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति थे।।।२५६-२५७।।
सोमप्रभ, भगवान से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और कुरुवंश का शिखामणि कहलाया।।२५८।।
हरि, भगवान की आज्ञा से हरिकान्त नाम को धारण करता हुआ हरिवंश को अलंकृत करने लगा क्योंकि वह श्रीमान् हरिपराक्रम अर्थात् इन्द्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी था।।२५९।।
अकम्पन भी भगवान से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नता से नाथवंश का नायक हुआ।।२६०।।
और काश्यप भी जगद्गुरु भगवान से मघवा नाम प्राप्तकर उग्रवंश का मुख्य राजा हुआ, सो ठीक ही है, स्वामी की सम्पदा से क्या नहीं मिलता है? अर्थात् सब कुछ मिलता है।।२६१।।
पुन: आगे इसी महापुराण ग्रंथ, भाग-१ के पर्व १७ में वर्णन है कि-
ततोऽभिषिच्य साम्राज्ये भरतं सूनुमग्रिमम्।
भगवान् भारतं वर्ष तत्सनाथं व्यधादिदम्।।७६।।
यौवराज्ये च तं बाहुबलिनं समतिष्ठिपत्।
तदा राजन्वतीत्यासीत् पृथ्वी ताभ्यामधिष्ठिता।।७७।।
तदनन्तर भगवान ऋषभदेव ने साम्राज्य पद पर अपने बड़े पुत्र भरत का अभिषेक कर इस भारत वर्ष को उनसे सनाथ किया।।७६।।
और युवराज पद पर बाहुबली को स्थापित किया। इस प्रकार उस समय यह पृथिवी उक्त दोनों भाइयों से अधिष्ठित होने के कारण राजन्वती अर्थात् सुयोग्य राजा से सहित हुई थी।।७७।।
इसी संदर्भ में महाकवि पुष्पदंत द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित आदिपुराण (सचित्र) में पृ. १२२ पर स्पष्ट उल्लेख है कि-
‘‘सुनन्दा के पुत्र बाहुबलि को धरती विभक्त शुभ पोदन दिया गया।’’
इन प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि भगवान बाहुबली का जन्म अयोध्या में हुआ, उन्हे युवावस्था में पोदनपुर का राजा घोषित किया गया तथा राजा सोमप्रभ को भगवान ऋषभदेव ने राज्यावस्था में ही महामण्डलेश्वर राजा बना दिया था। तो इन्हें भगवान बाहुबलि के पुत्र कहना कहाँ तक उचित है? प्रबुद्धजनों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए तथा महापुराण ग्रंथ का सूक्ष्मता से अध्ययन करके राजा सोमप्रभ एवं श्रेयांस को भगवान बाहुबली का पुत्र नहीं मानना चाहिए।