क्या सम्राट चन्द्रगुप्त दक्षिण भारत में मुनि रूप में ब्राह्मीलिपि के आविष्कार में सहयोगी हुए ?
पाठकों ने प्रथम लेखक के लेख ‘हीनाक्षरी एवं धनाक्षरी का रहस्य’ अर्हत् वचन १ (२), दिसम्बर—८८ तथा ‘ब्राह्मी लिपि का आविष्कार एवं आचार्य भद्रबाहु मुनिसंघ’ २ (२) मार्च—९० भी पढ़े होंगें।विद्वान लेखकों ने लब्धिसार एवं क्षपणासार ग्रंथों के अर्थसंदृष्टि अधिकारों के सूक्ष्म अध्ययन के क्रम में इस अछूते विषय को एक नई दृष्टि दी है। प्रबुद्ध पाठकों की प्रतिक्रियायें सादर आमंत्रित हैं। प्रस्तुत लेख में हम यह बतलाने का प्रयास करेंगे कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कोई व्यापार वाणिज्यादि की दृष्टि में रखकर नहीं किया गया था वरन् कोई पारर्मािथक एवं लोकोत्तर ऐसे विषय या सिद्धान्त को लेकर किया गया था जो स्मरण शक्ति पर आधारित श्रुत रूप था। विलुप्त होने की आशंका से व्याप्त था, स्मरण शक्ति की क्षमता घटते जाने के अवलोकन में था, व्याकरण एवं गणितमय था, जिसके लिए धनाक्षरों की और हीनाक्षरों की संकेत लिपि की नितान्त आवश्यकता आ पड़ी थी, जो जीव और पुद्गल के भावों के पारस्परिक विनिमय से संबंधित था और जिसमें संख्यात्मक, असंख्यात्मक, अनन्तात्मक राशियों, जीवादि राशियों, उनकी भावादि राशियों, उनकी करणादि राशियों, इत्यादि राशियों के समीकरणों, असमीकरणों आदि का गणित, धाराओं, श्रेणियों आदि का गणित ठोस रूप में कूट—कूट कर भरा हुआ था। उस मुनिसंघ को मात्र भाषा की, लिपि की ही आवश्यकता नहीं थी, किन्तु गणित की लिपि की भी नितान्त आवश्यकता आ पड़ी थी जो संक्षेप में सम्पूर्ण सार तत्वों की समझ को बड़ी गहराई तक ले जा सके। उन्हें अंकगणित की लिपि मात्र की आवश्यकता ही नहीं थी, वरन् उन्हें बीजगणित की लिपि एवं आकार रूप गणित की लिपि की भी आवश्यकता आ पड़ी थी। उन्हें मात्र न्याय की भाषा के लिए लिपि ही नहीं चाहिए थी वरन् उन्हें गणितीय न्याय एवं गणितीय दर्शन की भाषा के लिए भी लिपि चाहिए थी। संभवत: उसी समय यूनानी दार्शनिक भी गणितीय दर्शन की ओर बढ़ते नजर आ रहे थे। Jain, L.C. The Jaina Ulterior Motive of Mathematical Philosophy, Astha aura Cintana, Section on Jaina Pracya Vidyayaein (Acarya Desa bhusan Falicitation volume), Delhi, 1987] p. 49-59.यहाँ जैनाचार्यों को शब्द से अर्थ की ओर (प्रमाण की ओर) और अर्थ को अर्थ संदृष्टि की ओर ले जाना था, तथा पुन: अर्थसंदृष्टि को अर्थ की ओर तथा अर्थ को शब्द में अभिव्यक्त करना था। जिसने भी कर्म सिद्धान्त के संदृष्टिमय गणित को देखा है Jain, L.C., The labdhisara of Nemicandra Siddhantacakra varti, I NSA Project, 1984-1987, Vol. 1-4, unpub lished.,वह चाहे शताब्दियों के पश्चात् रूपान्तरण को प्राप्त हो चुका हो, किन्तु ऐसे प्रमाणों को समाहित किये है जो सिद्ध कर सकते हैं कि तत्कालीन मुनि चन्द्रगुप्त के सहयोगियों को न केवल धनाक्षरी, वरन् गणितीय अभिव्यंजना हेतु हीनाक्षरी की भी आवश्यकता थी। यह आधुनिक गणित के लिए भी चरितार्थ होता रहा है, जहाँ आधुनिक अगम्य भौतिकी के लिए भी ऐसी ही दो लिपियों की आवश्यकता होती रही है और नये—नये प्रतीक विगत वर्षों में प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के साथ—साथ विशेष मात्रा में बढ़ते चले जा रहे हैं, और जिनमें रचे पचे बिना भौतिकशास्त्री असहाय हो जाता है। निम्नलिखित में हम उदाहरण के लिए कुछ ही प्रतीकों को ले रहे हैं जहाँ गणितीय रूप देने हेतु व्यंजन में ही डाट और डेश, स्ट्रोक्स लगाकर हीनाक्षरी का निर्माण किया गया होगा। अर्थात् बिन्दु और विभिन्न सरल एवं वक्र आड़ी, तिरछी आदि रेखाओं का उपयोग किया गया होगा। जिन राशियों के अर्थसंदृष्टि रूप हमें अध्ययन करना हैं वे इस प्रकार हो सकते हैं। स समयप्रबद्ध अ अतीत काल सा सागर आ आबाधा काल क कल्प काल के केवलज्ञान को कोटि अन्य व्यंजन ल – लक्ष सं – संख्यात (इसके लिए चिन्ह है) असं – असंख्यात (इसके लिए और ७ चिन्ह हैं) ख – अनन्त (इसके लिए ख चिन्ह हैं) ख्यात का अर्थ ज्ञात होता है। असंख्यात के रूप में खं- इसके आगे ख्यात आने से संभवत: ख चिन्ह लिया हो। ज – जगश्रेणि (लोक श्रेणि), जग श्रेणि जगप्रतर, धनलोक आदि के लिए क्रमश:— चिन्ह लिए गये हैं। ज – जघन्य (जघन्य के लिए जभी लिखा जाता है।) जु – युक्त या जुक्त छे – अर्धच्छेद राशि व – वर्गशलाका राशि वर्ग (अनुभाग) प – पल्य उ – उर्वज्र् (अनन्तवाँ भाग) मू – मूल घमू – घनमूल रि – रिण (ऋण) (घटाना या व्यवकलन किया में चिन्ह क्रमश: या या या है। वीरसेनाचार्य ने काल पद का भी उल्लेख किया है।) न्यून के लिए का उपयोग है।) जो – योग, जोग या धन (इनके लिए—(आड़ी लकीर का उपयोग) किया गया है।) साधिक के लिए। (खड़ी लकीर) का उपयोग ऊपर शीर्ष पर करते हैं। गुणा के लिए अधिकतर पद के पश्चात् या दो राशियों के बीच (।) खड़ी लकीर का उपयोग किया गया है।) म – मध्य (बीच का रिक्त स्थान भरने हेतु बिन्दुओं या छोटे वृत्तों का उपयोग किया गया है। अं – अंत ज्ञा – ज्ञान संख्यांक प्रतीकों की चर्चा हम बाद में करेंगे। उपर्युक्त का विश्लेषण करने से पूर्व हम बूलरबूलर, जार्ज ‘‘भारतीय पुरालिपि शास्त्र,’’ अनु. मंगलनाथ िंसह, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९६६ झ् १९. के सिद्धांतों का विवेचन प्रस्तुत करेंगे।
संतोषजनक परिणामों तक पहुँचने हेतु बूलर के अनुसार तीन मौलिक सूत्रों का ध्यान रखना आवश्यक है—वही, पृ. २१ १. जिन अक्षरों की उत्पत्ति ढूंढनी है उनके प्राचीनतम और पूर्णतम रूपों का प्रयोग करना चाहिए और जिन मूल अक्षरों से उनकी उत्पत्ति बतलाई जाती है, वे भी उसी काल के प्रचलित रूपों में से होने चाहिए। २. तुलना में केवल वे ही विषयम समीकरण शामिल हो सकते हैं जिन्हें ऐसे दूसरे उदाहरणों के सादृश्य से सिद्ध किया जा सके जहाँ किसी राष्ट्र ने दूसरों से लिपि उधार ली हो। ३. जहाँ संजात रूप कल्पित मूल रूप से काफी भिन्न दिखते हैं वहाँ यह दिखाना जरूरी है कि इसके निश्चित सिद्धांत हैं जिनके आधार पर ये परिवर्तन हुए हैं। बूलर ने ब्राह्मी की उत्पत्ति सीधे उत्री सेमेटिक लिपि से दिखाने का प्रयास किया जो फोनिशिया से मेसापोटामिया तक एक ही रूप लिये हुए है। प्राचीन भारतीयों की पसन्दगी, नापसन्दगी, नियमनिष्ठा की सभ्यता ऐसे कारण हैं जिनसे भारतीय वर्णमात्र में निम्नलिखित विशेषताएँ आ गयीं—वही, पृ. २७ १. जितना भी संभव था अक्षर खड़े लिखे गये है। ट, ठ और ब को छोड़कर अन्य अक्षरों की ऊँचाई भी समान है। २. अधिकांश अक्षर खड़ी रेखाओं से बने हैं जिनमें ज्यादातर पैरों में जोड़ लगे हैं। ये जोड़ कभी—कभी पैर और सिर दोनों में, पर बिरले की कमर में लगते हैं। लेकिन ये जोड़ केवल सिरे पर नहीं लगते। ३. अक्षरों के सिरों पर ज्यादातर खड़ी रेखाओं के अंत, उससे कम नन्हीं पड़ी लकीरें, उससे भी कम नीचे की ओर खुलने वाले कोणों के सिरों पर भंग होता है। और नितांत अपवाद स्वरूप म में और झ के एक रूप में दो रेखाएँ ऊपरकी ओर उठती हैं। सिरों पर कई कोण, अगल—बगल में जिसमें खड़ी या तिरछी रेखा नीचे की ओर लटकती हो, नहीं मिलते। इसी प्रकार सिरों पर त्रिभुज या वृत्त भी जिसमें लटकन रेखा लगी हो, नहीं मिलते। सेमेटिकवही, पृ. २२ चिन्हों को इस प्रकार बदला गया है—उनके अक्षरों के भारी सिरों को छोड़ दिया गया है, सिर के बल चिन्हों को उलट दिया गया है। या उन्हें बगल में डाल दिया गया है। कोण खोल दिये गये हैं। लिखने की दिशा में परिवर्तन करने से ग्रीक की भाँति इसमें भी चिन्ह दाँयें से बाँये घुमा दिये गये हैं। बूलर ने विस्तार से ग्रहीत चिन्ह, संजात व्यञ्जन और आद्य स्वर, स्वरमात्राएँ और संयुक्ताक्षरों में स्वराभाव, आदि पर चर्चा की है और सेमिटिक वर्णमाला के ग्रहण का समय और उसकी विधि पर अपने विचार प्रकट करते हुए मुख्यत: वणिकों को अहम् भूमिका अदा करने वाला बतलाया है।वही, पृ. २३ किन्तु व्यापारिक दृष्टि वस्तुत: भ्रमपूर्ण है। ईस्वी पूर्व ५०० तक भी ब्राह्मी को ले जाना भी भ्रमपूर्ण है। डा. पाण्डेय का यह मत, कि ब्राह्मी नामकरण ही यह सुझाता है कि इस लिपि का आविष्कार ब्रह्म (वेद) की रक्षा के लिए भारतीय आर्यों द्वारा किया गया था, भ्रामक है। उनका यह कहना भी भ्रमोत्पादक है कि ‘इसका उपयोग मुख्यत: ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था जिनका कर्तव्य वैदिक साहित्य की रक्षा करना एवं आने वाली पीढ़ियों को लिखकर एवं प्रतिलिपि करके देते रहना थानारायण, अवध किशोर एवं वर्मा, ठाकुर प्रसाद, प्राचीन भारतीय लिपि शास्त्र और अभिलेखकी, वाराणसी, १९७०। वस्तुत: नारायण एवं वर्मा के तथ्य इस प्रकार हैं।वही, पृ. १९
पारिस्थितिक कारण
‘‘इस बात के अनेक पारिस्थितिक कारण हैं कि अशोक द्वारा प्रयुक्त लिपि बौद्ध भिक्षुओं द्वारा प्राकृत भाषाओं को लिखने के लिये निर्मित की गयी थी तथा अनेक शताब्दियों तक इसका उपयोग बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों द्वारा प्राकृत भाषाओं के लिए ही किया गया। पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर यह परिणाम भी निकाला जा सकता है कि ब्राह्मणों ने काफी दिनों तक इस लिपि का बहिष्कार किया और ई. पू. की प्रथम शताब्दी के बाद ही भागवत धर्म एवं संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा इस लिपि में अभिव्यक्ति पा सकी। अन्यथा हमारे पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि बौद्ध प्रतिक्रिया में ब्राह्मण साम्राज्य को पुन: स्थापित करने वाले शुंगों की मुख्य शाखा ने क्यों अपना एक भी अभिलेख नहीं छोड़ा जबकि पुष्यमित्र ने स्वयं दो बार अश्वमेघ यज्ञ किये थे। अवशिष्ट अभिलेखीय प्रमाण इसी ओर संकेत करते हैं कि प्रारम्भिक दिनों में लिपि का प्रचार, प्रसार एवं उपयोग या तो बौद्ध जैन धर्मावलम्बियों ने किया या विदेशियों ने। पारम्परिक भारतीय समाज ने संभवत: विदेशी समाज से सांस्कृतिक सम्पर्क की तीव्रता के धक्के में ही इसको शनै:—शनै: अपनाया।’’ इस प्रकार ब्राह्मी लिपि की प्राचीनता अशोक के काल से एक या दो शताब्दियों से अधिक पीछे किसी प्रकार नहीं ले जाई जा सकती है। एडबर्ड थामस प्रभृति विद्वानों ने ब्राह्मी लिपि को द्रविड़ों द्वारा र्नििमत लिपि बतलाया था जहाँ तमिल अक्षर ब्राह्मी की देन हैं। जेम्स प्रिंसेप, एमिले, सेना, विल्सन आदि ने ब्राह्मी लिपि को ग्रीक (यूनानी) लिपि से उद्भूत होने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। ब्राह्मी लिपि का स्वरूप आकारत्मक एवं मूल्य ध्वन्यात्मक है। यूनानियों ने ईसा पूर्व ५०० से बांएँ से दार्इं ओर तथा ऊपर से नीचे की ओर लिखना प्रारम्भ किया था। Diringer, The Alphabet, Cambridge, 1948, p. 453 उन्होंने कुछ परिवर्तनों के साथ सेमिटिक वर्णमाला को अपना लिया था। जैसा जैन प्राकृत में ह्रस्व दीर्घ एवं प्लुत वर्णाक्षरों के भेद बनते हैं, उसी प्रकार यूनानियों ने इस विधि को अपनायावही, पृ. ४५८। `Generally speaking, by the middle of the fourth century B.C. all the local alphabets had disappeared in favour of the lonic, which thus became the common, classical Greek alphabet of twenty-four letters (Fig. 201, col. I)………… However ! by adopting this system of rough and smooth breathing (spiritus asper and spiritus lenis) for the vowel sounds or other words, by aspiring them or leaving them unaspirated, the Greek alphabet helped to preserve flexibility in the Greek speech. The three accents, acule, grove and aircumflex, which were rorely employed in ancient times, were apparently invented about the middle of the third century B.C. by Aristohponces of by zantine in order to assist students, especially foreigners, in the correct pronunciation of Greek. These accents marked, it is important to remember, musical tone or pitch not stress.” उपर्युक्त अम्युक्ति असाधारण महत्व की है। ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत में द्वादशवर्षीय अकाल के पश्चात् मुनिसंघ विश्व विख्यात सम्राट चंद्रगुप्त के मुनि पद के मातहत क्या कर्म सिद्धान्त के जटिल गणितीय रूप से विदेशी छात्रों को शिक्षित करने हेतु उक्त विधि को पहले ही अपना चुका था। कुन्दकुन्दाचार्य का एक महत्वपूर्ण श्लोक दृष्टव्य है— ‘जह णवि सक्कमणज्जो अणज्ज भासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवेसणम सक्कं।।वर्णी सहजानन्द, समयसार—८, मेरठ, १९७७, पृ. २२; नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, गोम्मटसार, जीवकाण्ड, भाग २; उपाध्ये एवं शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७९ पृ. ८२ अर्थात् जिस प्रकार म्लेच्छजन म्लेच्छ भाषा के बिना वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिये शक्य नहीं है। उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश शक्य नहीं है। (म्लेच्छ अथवा अनार्य खण्ड के लिए प्रयोजित है।) हम पहले ही बता चुके हैं कि जैन श्रुत अंग बाह्य के प्रसंग में अनादिनिधन परमागम में प्रसिद्ध मूल चौंसठ अक्षरों का उल्लेख है। ऌ वर्ण संस्कृत भाषा में दीर्घ नहीं है, तथापि देशी भाषा में है। ए ऐ ओ औ ये चारों संस्कृत में ह्रस्व नहीं है तथापि प्राकृत और देशीभाषा में हैं। इन चौंसठ मूल अक्षर पदों को एक एक रूप विरलन करके; एक एक रूप पर दो का अंक देकर परस्पर गुणित करने पर दो की घात चौंसठ, (२)६४, प्राप्त होता जिसमें से एक कम करने पर द्वादशांग और प्रकीर्णक श्रुत स्कन्ध रूप द्रव्य श्रुत के अपूर्ण अक्षर १८४४६७४४०४३७०९५५१६१५, एकट्ठी प्रमाण, द्विरूपवर्ग धारा में छठवें स्थान पर प्राप्त होने वाली संख्या से एकहीन हैं।
यथा— ६ २ २ — १ यूनानी वर्णमाला की एशियाई शाखायें उपशाखायें निम्नलिखित हैं। यद्यपि उनका मूल या उद्गम अभी भी अनिश्चित जैसा है। लायशियन वर्णमाला, प्रयजियन वर्णमाला, पेम्फिलियन वर्णमाला, लीडियन वर्णमाला, वैरियन लिपि और इनके सिवाय संभवत: अन्य भी रही हों जो अज्ञात हैं। कुछ मायशियन , सिलिशियन और सेप्पाडोशियन वर्णमालाओं का भी उल्लेख मिलता है। ये लगभग ईसा के पांच—सात शताब्दियों पूर्व अभिलेख बद्ध हैं। इसी प्रकार यूनानी वर्णमाला का एक अन्य अयूरोपीय अवरोहण अप्रका में काप्टिक लिपि के रूप में मिस्र में ६४१ ईस्वी में देखने में आया है जो ईसा की द्वितीय तृतीय शताब्दी हो सकता है। इसकी पांच उपशाखाएं थीं। यूरोप की यूनानी वर्णमाला की उपशाखा मेसापियन कहलाती है जो ईसा पूर्व तृतीय सदी में प्रकट हुई है। कुछ और पुरालेख ईसा की चौथी शताब्दी और पूर्व में आंके गये हैं। यूरोपीय इतिहास में गोथिक लिपि से भिन्न गोथीय वर्णमाला भी यूनानी वर्णमाला से मिलती जुलती ईसा की चौथी शताब्दी में उपर्युक्त के सिवाय दो वर्णमालाएं, सिरीलिक और ग्लेगोलिटिक , जो सम्भवत: यूनानी वर्णमाला के प्रभाव से अवरोहित हुई। अलबानिया वर्णमाला भी यूनानी और लैटिन के मिश्रण से लेखन में आयी प्रतीत होती है। यूनानी वर्णमाला की प्रमुख शाखा एट्रुस्कन वर्णमाला है जिसका अवरोहण लैटिन लिपि रूप में हुआ है। यह आज पश्चिमी यूरोप की समस्त आधुनिक वर्णमालाओं का आदि रूप है।
विशाल यूनानी वर्णमाला
उपरोक्त विशाल यूनानी वर्णमालाओं का विश्व में प्रसार देखते हुए जेम्स प्रिंसेस प्रभृति विद्वानों ने यदि यूनानी वर्णमाला से ब्राह्मी लिपि का उद्भव या व्युत्पत्ति या हेलेनीय प्रभाव से ब्राह्मी लिपि के आविष्कार पर विश्वास किया हो तो आश्चर्य की बात नहीं है। यदि उस समय उनके समीप दक्षिण भारत का मुनि रूप में सम्राट चन्द्रगुप्त का प्रसंग होता तथा वह गणितीय कर्म सिद्धान्त विषयक सामग्री होती तो वे अपने विश्वास के पुष्ट प्रमाण दे सके होते। एक तो आवश्यकता केवल उस समय प्रतीत हुई जब आचार्य भद्रबाहु मुनिसंघ, सम्राट चन्द्रगुप्त को मुनिरूप में लेकर दक्षिण में पहुँच चुका था। जो सिकन्दर के आक्रमण से प्राय: ५० वर्ष बाद की घटना रही होगी। जब ब्राह्मीलिपि रूप ले चुकी तब सम्राट चन्द्रगुप्त के पौत्र सम्राट अशोक को उसका लाभ मिलने लगा होगा और उसे शिलालेखों में धर्मोपदेश रूप में प्रकट होने का अवसर प्राप्त हुआ होगा। इस प्रकार यूनानी सभ्यता के भारतीयों के सम्पर्क में आने के एक शताब्दी पश्चात् ब्राह्मी लिपि इस रूप में प्रकाश में आई होगी जैसा कि डििंरजर का मत है Diringer, he. 335। डिरजर ने भी निम्नलिखित दो निष्कर्ष, जो आर. एन. कस्ट ने अपने लेख में प्रकाशित किये थे, से अपनी सहमति प्रकट की हैवही, पृ. ३३७ `I. The Indian Alphabet is in no respect an independent invention of the People of India, who, however, elaborated to a marvellous extent a loan, which they had received from others. “II. The idea of representing Vowel and Consonant Sounds by symbols of a pure alphabetic character was derived from Western Asia beyond reasonable doubt’ (The Indian characters, however, are semi-alphabetic and not pure alphabetic). जिन्होंने ब्राह्मी लिपि निकाली, उनके विषय में डििंरजर का निम्नांकित मत महत्वपूर्ण हैवही, पृ. ३३६ `Some scholars hold that, as the Indian writing is in appearance a syllabary, it could not have been derived from an alphabet, alphabet script being obviously more advance than syllabic. These scholars seem to have forgotten that the Semitic alphabet did not contain vowels, and whilest the semits would, if necessary, dispense with vowel-signs, the Indo-European languags could not do so. The Greeks solved this problem satisfactority; but the indians were less successful. it may be that the inventor of the Brahmi did not grasp the essence of the alphabetic system of writing. It is quite possible that the semitic script appeared to him as semi-syllabic, as it could seem to any speaker of an Indo-Aryan language.’
इस प्रकार उपर्युक्त अनेकानेक
इस प्रकार उपर्युक्त अनेकानेक वक्तव्यों एवं अनेक शोध पत्रों के परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि दक्षिण भारत की कर्म सिद्धान्त विषयक गहन गणितमय सामग्री के लिपिबद्ध करने विषयक आवश्यकता की पृष्ठभूमि को नजर अंदाज करना उचित न होगा। हीनाक्षरी और घनाक्षरी तथा ब्राह्मी और सुन्दरी के भाषा एवं गणित विषयक पौराणिक किंवदंतियों या कथनों को वैज्ञानिक दृष्टि कोण से विचार करना उचित होगा। ब्राह्मी और सुन्दरी शब्दों का गहरा अर्थ लगाना होगा, ब्राह्मी यदि भाषा व्याकरण रूप रही होगी तो सुन्दरी गणित कारण रूप रही होगी क्योंकि तीनों लोकों में सर्व अर्थों में सुन्दर कही जाने वाली आत्मा करणत्रय (अध: प्रवृत्त, अपूर्ण और अतिवृति) के गणित को न केवल मिथ्यात्व को तोड़ने का वरन् आगे गुणस्थानों में पहुँचने के साधन रूप लेती है। अब हम प्रेमसागर जैनब्राह्मी, विश्व की मूल लिपि, श्री वीर निर्वाण ग्रंथ प्रकाशन समिति, इन्दौर, १९७५ एवं श्रीराम गोयलचन्द्रगुप्त मौर्य (एक नवीन राजनीतिक—सांस्कृतिक अध्ययन), कुसुमाञ्जालि प्रकाशन, मेरठ, १९८७ की कृतियों को अपने गन्तव्य का आधार बनाना चाहेंगे। पंडित टोडरमल के पश्चात् ब्राह्मी की अक्षर विद्या पर अथक जोर दिया जाने लगा और सुन्दरी की अंक विद्या की उपेक्षा प्राय: पूर्णरूप में होती गयी। आर्यिका श्री विशुद्धमतीजी एवं पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी ने इस ओर करणानुयोग विषयक ग्रंथों की टीकाओं द्वारा इस ओर ध्यान आर्किषत करना प्रारम्भ किया। फिर भी कर्म सिद्धान्त के गणित की ओर अभिरूचि के लिये कुछ देर हुई। सागर के ब्राह्मी आश्रम की ब्रह्मचारिणी बहिनें एवं जयपुर की पं. टोडरमल स्मारक भवन की बहिन ब्र. विमला जी ने १९८७ में इस ओर रुचि व्यक्त की, पूर्णता ज्ञान की, और फिर केवल ज्ञान की प्राप्ति श्रुत रूप में मात्र अक्षर ज्ञान से नहीं हो सकती है। यह निर्विवाद तथ्य है जिसे आज प्रत्येक संघ को स्वीकार करना होगा। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासन काल में मात्र इस तथ्य को ही अनुभूत न किया होगा कि लिपि भारत को चाहिए, वरन् इस तथ्य को भी अनुभूत किया होगा कि अक्षर लिपि और अंक लिपि दोनों को एक—सूत्री होना चाहिए, तभी लिपि में परिपूर्णता होगी जो कर्म सिद्धान्त को पूर्ण रूप में केवल ज्ञानांश शुद्ध, परिशुद्ध स्वरूप की ओर ले जा सकेगी। उसे ज्ञान सागर की ऊपरी लहरें मात्र ही नहीं गिनना होंगी वरन् उस समुद्री अन्तस्तल की धाराओं से बनने वाली भंवरों के आकर्षक तत्वों की गणनाएं भी करना होंगी।
चन्द्रगुप्त मौर्य की दीक्षा
जब चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य भद्रबाहु से दीक्षा लेकर उनके श्रुतकेवली रूप ज्ञान सागर को अनुभूत किया होगा तो क्या उनका पाश्चात्य सम्बन्धों से उद्भूत लिपि ज्ञान, स्मरण शक्ति को दिन प्रति दिन क्षीण होते हुए देखकर एक नवीनतम लिपि को साकार करने हेतु प्रतिबद्ध न हुआ होगा ? यहीं उन्हें परम्परागत पौराणिक श्रुत में भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त ब्राह्मी की अक्षर विद्या और सुन्दरी की अंक विद्या की अनुश्रुति का ख्याल आया होगा। निश्चित ही उन्होंने लिपि को ब्राह्मी नाम दिया होगा और अर्थसंदृष्टि गुप्त रूप होने से सुन्दरी नाम गोपनीय रह गया होगा। अथवा सुन्दरता संदिष्ट (संदृष्ट) होती ही है अत: दृष्टि, संकेत में आने वाली लिपि को संदृष्टि से सुन्दरी नाम का बोध अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता है। चंद्रगुप्त ने यह भी लक्ष्य किया होगा कि अब श्रुतमात्र से केवलज्ञान की परछाईयों तक पहुँच होना असंभव होता जायेगा, अत: उसे लिपिबद्ध करना श्रेयस्कर होगा, और वह लिपि भी परम्परा या मात्र अक्षर रूप ही न होगी, वरन् गहन अंधेरे की गहराईयों की नाम में अंक प्रमाणादि रूप भी होगी। जहाँ अंकों के आगे, परे जाना होगा वहाँ बीजाक्षरों की भी शरण लेनी होगी। क से कल्प काल तो के से केवल ज्ञान रूप संदृष्टि समीकरणों में लेना होगी। अ से अतीतकाल तो आ से आबाधाकाल लेना होगा। स से समय प्रबद्ध तो सा से सागर काल भी लेना होगा। और इनमें व्याकरण का प्रयोग गणित के साथ सूत्रबद्ध रूप में करना होगा। ऐसी लिपि, जिसमें प्रमाण व्याकरण और गणित की संधि के लेकर चले, कैसी होगी ? विश्व की कोई भी लिपि उस समय इस संधि को धारण न कर सकी थी। इसे आविष्कृत करने हेतु आचार्य भद्रबाहु और मुनि प्रभाचंद्र या विशाखाचार्य या चंद्रगुप्त या चंद्रश्री अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा का उपयोग करने बारह वर्ष के लिए गुप्त स्थली समाधि में चले गये होंगे तो क्या आश्चर्य है और रइधू की ग्रंथावली में प्राप्य विवरण के अनुसार इस युग तक उन्हें अज्ञात देवता रूप मानव आहार देते रहे हों (किसी अज्ञात अदृष्ट नगर को बनाकर) तो क्या आश्चर्य है ?जैन, एल सी. एवं बाल ब्र० प्रभा, ‘‘क्या सम्राट् चन्द्रगुप्त…….’’, महावीर जयन्ती स्मारिका, जयपुर, अप्रैल १९८२ एक महत्वपूर्ण तथ्य जो कहीं उपलब्ध नहीं है, वह है संदृष्टि (एब्स्ंदत्) शब्द का दिगम्बर जैन परम्परा में उपयोग। सं का अर्थ शम् सूचक होने पर सुख, शर्म, सुर होता है। ७ सं का अर्थ सम् सूचक अव्यय रूप में प्रकर्ष, अतिशय, संगति, सुन्दरता, शोभनता, समुच्चय और योग्यता रूप में होता है। दिट्ठि या दृष्टि के अर्थ, नेत्र, आँख, नजर आंसु, दर्शन, मत, दर्शन (अवलोकन), निरीक्षण, बुद्धि, मति, विवेक, विचार होते हैं। इस प्रकार संदृष्टि का अर्थ सुन्दर दर्शनादि लेते हुए सुन्दरी लिया जा सकता है। भाषा लिपि के रूप में ब्राह्मी और गणितलिपि रूप में सुन्दरी शब्दों के उपयोग केवल जैन ग्रंथों में उपलब्ध हैं यदि ब्राह्मी लिपि के १८ प्रकारों का वर्णन मिलता है तो दिगम्बर जैन परम्परा में सुन्दरी लिपि के तीन रूप, क्रमश: अर्थ संदृष्टि, अंक संदृष्ट और आकार रूप संदृष्टि उपलब्ध हैं। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्राट् चक्रवर्तित्व रूप में भारत को एकसूत्र प्रशासन पद्धति दी तो क्या आश्चर्य कि उन्होंने बारह वर्ष श्रुतकेवली भद्रबाहु गुरू की सेवा में रहते हुए न केवल कर्म सिद्धान्त साहित्य को वरन् अखिल भारतीय साहित्य को ब्राह्मी और सुन्दरी लिपि विद्याओं का आविष्कार सौप दिया हो ? इस युगल लिपि का बोध कराने वाले विभिन्न श्लोक पुरातन काल से चले आए इस प्रकार हैं—
दोिंह कि णिम्मल कंचन वण्णहं अक्खर गणियंइं कण्णहं।।
पुष्पदन्त, महापुराण, ५/१८,
प्रथम दो पंक्तियाँ अष्टादश लिपि ब्राह्म या अपसव्येन पाणिना।
दर्शयामास सद्येन सुन्दर्या गणितं पुन:।।
हेमचन्द्रचार्य, त्रेसठशलाका पुरुष चरित्र, १/२/९६३
पुत्राणां शतमेकोनं सुतां चैकां यशस्वतमि।
सुषुवे बाहुबलिनं सुनन्दा सुन्दरीमपि।।
अक्षराणि बिभु ब्राह्म्या अकारादीन्यवोचत्।
वामहस्तेन सुन्दर्या गणितं चाऽप्यदर्शयत्।।
आदिनाथ चरित, तीसरा सर्ग, १३, १४, पुराणसार संग्रह, पृ. ३६
अध्यजीगपदीशोपि, भरतं ज्येष्ठनन्दनम्।
द्वासप्ततिकलाखण्डं, सोपि बन्धून्निजान् परान्।।
लक्षणानि गजाश्वास्त्री पुंसामीशस्त्वपाठयत्।
सुतंच बाहुबलिनं सुन्दरीं गणितं तथा।।
अष्टादश लिपीर्नाथो दर्शयामास पाणिना।
अपसव्येन स ब्राह्यया ज्योति रूपा जगद्धिता।।
पुराणसार संग्रह, डॉ. चौधरी गुलाब चन्द्र,
आदिनाथ चरित; ब्राह्म स सुन्दरी तुष्टा प्रपद्य शरणं पुरुम्।
अभिषेकमवाप्याभूर्दाियकाणां पुरस्सरी।।
खरोष्ठी लिपि भी, बूलर के अनुसार ब्राह्मी से प्रभावित थी। खरोष्ठ की व्युत्पत्ति डा. प्रेमसागर ने वृषभोष्ठ—उसभा रिसभ, रिखबोष्ठी वर्ण विपर्यय से खरोष्ठी सिद्ध किया है।वही, पृ. ११५; एवं ब्राह्मी विश्व की मूल लिपि, ३१८४, पृ. ४८; इधर श्रीराम गोयल ने ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ ग्रंथ में नवीनतम शोधों को समाविष्ठ किया है। उनकी प्रमुख मान्यताएँ निम्न प्रकार हैंप्राक्कथन, पृ.III १. जैन ग्रंथों में र्चिचत चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य का मंत्री था, परन्तु बह ‘अर्थशास्त्र’ के लेखक कौटिल्य से, जिसे प्रोफैसर गोयल तीसरी शती ई. में रखते हैं, भिन्न था। २. चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में ब्राह्मी लिपि का अस्तित्व नहीं था। ३. चन्द्रगुप्त के शासन काल की घटना का अध्ययन तात्कालिक सामाजिक, र्धािमक, र्आिथक और राजनैतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में किया गया है जो उसी युग में सक्रिय और प्रभावी थी। इस पुनर्मूल्यांकन के प्रकाश में हम चन्द्रगुप्त मौर्य की क्षमता, व्यक्तित्व, प्रतिभा, र्धािमक रूझान, वीरता, प्रत्युत्पन्न बुद्धि आदि गुणों का अवलोकन करेंगे और यह निर्धारण करने का प्रयास करेंगे कि वस्तुत: गणितीय परिप्रेक्ष्य में चन्द्रगुप्त का कलन क्या ब्राह्मी और सुन्दरी लिपियों के अवतरण लिए उत्तरदायी था ? डा. गोयल के अनुसारचन्द्रगुप्त मौर्य, र्पृ. सम्राट चन्द्रगुप्त ने नन्द नरेशों की भाँति साम्राज्य को अखिल भारतीय रूप देने का प्रयास किया, जिसमें चाणक्य की भूमिका भी श्रेष्ठ रही थी। उसने इतिहास में प्रथम बार चक्रवर्ती आदर्श को पूर्णत: चरितार्थ किया था। वस्तुत: भारत में राजनैतिक एकता की भावना बहुत कुछ चन्द्रगुप्त मौर्य की सफलताओं का परोक्ष परिणाम मानी जानी चाहिए। उसके द्वारा रजत आहत सिक्के Punch-Markedcions ऐसे सिक्के जिन पर मेरु और चन्द्र तथा ‘मयूर’ चिन्ह अंकित हैं, प्राय: मौर्यवंश राज्यकाल में प्रचलित हुए माने जाते हैं चलाये गये जो राष्ट्रीय एकता को बलशाली बना गये होंगे। उसे नये युग का निर्माता कहा जा सकता है। डा. गोयल ने इतिहास के स्रोतों के रूप में ब्राह्मणग्रंथ, बौद्धग्रंथ, जैन साहित्य, ‘क्लासिल स्रोतों’ (यूनानी—रोमन लेखकों के ग्रंथ), ईरानी स्रोत, तथा अभिलेखिक एवं पुरातात्विक सामग्री का आधार दिया है। उनके द्वारा मुख्यत: निम्नलिखित अभिनत एवं निष्कर्ष निकाले गये हैंचन्द्रगुप्त मौर्य, पृ. १७। मेगास्थेनिज के साक्ष्य में उतनी शंका करने की आवश्यकता नहीं है जितनी मजूमदार ने दिखाई है। यह मैगास्थेनिज द्वारा रचित ग्रंथ इंडिया के संबंध में है जो केवल उद्धरणों के रूप में उपलब्ध था। स्ट्रेबों ने मेगास्थेनिज का नाम देकर कहा है कि मेगास्थानिज के अनुसार तत्कालीन भारतवासी (यहाँ उसका आशय मध्यदेश वासियों से हैं) लेखन—कला से परिचित नहीं थे। यह कथन अशोक के पूर्व व्यतीत होने वाली पन्द्रह शतियों का कोई अभिलेख उपलब्ध न होने से एवं बौद्धसाक्ष्य द्वारा सत्य प्रमाणित होने से सन्देह रहित है। २. ‘अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य का समय तीसरी शती ई. का अन्तिम भाग प्रतीत होता है। यह निष्कर्ष अश्वघोष, भास व वात्स्यायन से उसके परर्वितत्व, उसके द्वारा लिच्छवियों, मुद्रकों व प्राज्जूणों के उल्लेख, दण्डी द्वारा ‘अर्थशास्त्र’ की ‘हाल ही में’ रचना होने की चर्चा एवं पीछे प्रदत्त अनेक तर्कों से स्पष्ट है। गोयल के अनुसार, चाणक्य नंदवंश का उन्मूलन करने वाला, चंद्रगुप्त मौर्य को राजसत्ता दिलाने वाला जैन धर्मावलम्बी कूटनीतिज्ञ था, तथा कौटिल्य तीसरी शती ई. के अन्तिम वर्षों में ‘अर्थशास्त्र’ की रचना करने वाला ब्राह्मण आचार्य मानना उपयुक्त है।वही, पृ. ३३; ३. नंदवंश द्वारा स्थापित साम्राज्य, एक सबल और साधन सम्पन्न ‘एक राष्ट्र’ द्वारा शासित केन्द्रीभूत शक्ति वाला था जिसकी स्थापना सब वैदिक क्षत्रिय नरेशों का उन्मूलन कर की गयी थी। पुराणों में नन्दों को अर्धािमक कहे जाने का कारण नंदों का जैन तथा आजीविक आदि धर्मों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो सकता है। वही, पृ. ४९; ४.
सिकन्दर का उद्देश्य यूनान के प्रभुत्व में समस्त सभ्य विश्व को एक ऐसे साम्राज्य के रूप में परिणत करना था जिसमें यूनानी संस्कृति प्रधान हो परन्तु जिसमें मिस्री और एशियाई संस्कृतियों के अच्छे तत्व यूनानी संस्कृति के साथ घुल मिल जाएं। उसके आक्रमण से भावी विजेताओं को प्रेरणा भी मिली।वही, पृ. ८२; ५. हमारे प्राचीनतम ग्रंथ चंद्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय बताते हैं। लेकिन परावर्ती युगों में ब्राह्मण लेखकों ने या तो भ्रमवशात् अथवा जान—बूझकर उसका संबंध नंदों से सिद्ध करने का प्रयास किया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्धों ने मौर्यो का संबंध स्वयं भगवान् बुद्ध की जाति शाक्य से जोड़ने का प्रयत्न किया, परन्तु परवर्ती ब्राह्मण और बौद्ध लेखकों के प्रयास प्राचीन साक्ष्य के विरूद्ध होने के कारण त्याज्य है।वही, पृ. ९४; ६. वस्तुत: मौर्यों का सम्बन्ध पूर्वी भारत के साथ था। हमारे सभी साक्ष्य जैन, बौद्ध और ब्राह्मण इस विषय में एक मत हैंवही, पृ. ९६;। ७. चंद्रगुप्त मौर्य के अन्य नाम क्रमश: सेण्ड्रोकोट्टोस एण्ड्रोकोट्रोस सेण्ड्रोकोप्टोस , चंद्र श्री, वृषल, वृषभ, पिअदंसण हैं। एक उपाधि पालिबोथ्रोस भी है, सम्भवत: पिअदंसण भी उपाधि हो सकती है। चंद्रगुप्त का जन्म एक ‘मामूली’ परिवार में हुआ था। उसने अपने उद्दण्ड व्यवहार से नंद को अप्रसन्न कर दिया था और राजा ने उसको प्राण दण्ड दिये जाने की आज्ञा दे दी थी। इसी कारण उसे भागकर अपनी जान बचानी पड़ी थी। चंद्रगुप्त सिकन्द द्वारा आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर प्रदेश में था और स्वयं सिकन्दर से भिन्न था। वह सबसे अधिक विलक्षण बुद्धि का परिचय दरबार में दे चुका था। उसने सिकन्दर को आश्वस्त किया था कि वह बड़ी सरलता से पूरे देश पर अधिकार कर सकता था क्योंकि वहाँ (गेंगेरीडाई और प्रासाई) का राजी नंद दुष्ट था, नीच कुल का था और प्रजा उससे घुणा करती थी। वह सिकन्दर की सहायता से नंदों का उन्मूलन करना चाहता था पर यूनानी सैनिकों के यूनान लौटने की हठ के कारण वह इसमें सफल न हो सकावही, पृ. ९८-१०६;। ८.
नंद की पुत्री दुर्धरा (या सुप्रभा) चंद्रगुप्त से प्रेम करने लगी और उसके पिता की सहमति से चंद्रगुप्त से उसे ग्रहण किया। साथी चंद्रगुप्त और सेल्युकस के मध्य हुए युद्ध में ३०५ ई. पू. के लगभग हुई संधि के परिणाम स्वरूप मौर्य साम्राज्य का पश्चिमी एशिया के सर्वाधिक शक्तिशाली यूनानी राजवंश से घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध हो गया। सेल्युकस ने न केवल मेगास्थनिज को चंद्रगुप्त के दरबार में राजदूत बनाकर भेजा, वरन, चार प्रांत—एरिया, एरेकोशिया, पेरोपेशिसदाई तथा गेड्रोशिया भेंट स्वरूप दिये थे जिसके एवज में चंद्रगुप्त ने मात्र ५०० हाथी भेंट किये थे। साथ ही विवाह संधि (एव्दे) अथवा अन्र्तिववाह संभवत: सेल्युकस की पुत्री या सम्बन्धी से संधि स्वरूप चंद्रगुप्त का विवाह हुआ थावही, पृ. ११८-१२५;। हो सकता कि चंद्रगुप्त के साथ न होकर किसी राजकुमार परिवार के साथ हुआ हो। ९. यह सही है कि चंद्रगुप्त का दक्षिण पर शासन बतलाने वाले सभी प्रमाण अपेक्षया अस्पष्ट और परवर्ती हैं, परन्तु तमिल साहित्य, जैन ग्रंथ, मध्यकालीन अभिलेख, प्लुटार्क, जस्टिन और मुद्राराक्षस—इन सबका समन्वित अध्ययन उसके काल में दक्षिण विजय की सम्भावना को पर्याप्त बल देता प्रतीत होता है।वही, पृ. १२७-१३१; १०. मौर्य वंश का प्रारंभिक तिथि क्रम डा. गोयल द्वारा निम्न रूप में निर्धारित किया गया हैवही, पृ. १५१;। ३२१ ई. पू. चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण २९७ ई. पू. बिन्दुसार का राज्यारोहण २६९ ई. पू. अशोक का राज्यारोहण ११. सम्राट चंद्रगुप्त राजसी महत्ता की सभी कसौटियों पर खरे उतरते हैं। प्रथम कसौटी साम्राज्य प्रसार की है। दूसरी कसौटी साम्राज्य स्थायित्व की है। तीसरी कसौटी जन कल्याण की है। चौथी कसौटी साम्राज्य में सांस्कृतिक उन्नति के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है। वही, पृ. १५८-१६६; १२.
डॉ.गोयल के निष्कर्षों के अनुसार चंद्रगुप्त व्यक्तिगत रूप से जैन थे किन्तु उनके शासन काल में सभी धर्मों को समान सुविधाएँ प्राप्त थी। उनकी रुचि राजनीति, युद्ध विदेश नीति, जैन धर्म, प्रशासन आदि विषयों में थी। चाणक्य को दिये गये सम्मान से लगता है कि वह योग्य व्यक्तियों का चुनाव करना जानता था।वही, पृ. १६६; र्किटयस के अनुसार, ‘‘राज प्रासाद में कोई भी व्यक्ति आ जा सकता है, चाहे राजा उस समय बाल संवारनें और वस्त्र पहनने में ही व्यस्त क्यों न हो। उसी समय वह राजदूतों से साक्षात्कार करता है तथा अपनी प्रजा का न्याय करता है। ‘मेगास्थनीज के अनुसार, ’ चंद्रगुप्त दिन भर राज कार्य में व्यस्त रहता था। राजा दिन में नहीं सोता। युद्ध के अलावा जब वह बाहर निकलता है, उनमें एक अवसर वह होता है जब वह अपनी सभा में मुकदमें सुनता है। ऐसे अवसरों पर वह दिन भर सभा में रहता है और इस काम में बाधा नहीं आने देता, चाहे इस बीच में उसकी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता की तरफ ध्यान देने का समय ही क्यों नहीं आ जाये।वही, पृ. १६६; डा. गोयल की उपर्युक्त विद्वत्तापूर्ण खोज परिणामों में हम कुछ परवर्ती तथ्य भी जोड़ना चाहेंगे जो हमें इंडियन नेशनल साइंस ऐकेडमी, नई दिल्ली के (१९८४-१९८७) लब्धिसार प्रोजेक्ट में देखने में आए हैं। जैसा साम्राज्य विस्तार का अद्भूत पराक्रम चंद्रगुप्त द्वारा उनके शासनकाल में हुआ था, वैसा ही जैन साहित्य में कर्म सिद्धांत का विशाल गणितीय अभ्युदय और विकास दक्षिण की दिगम्बर जैन परम्परा के मुनियों द्वारा आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् १८०० से २१०० वर्षों तक दक्षिण भारत और राजस्थान में मुख्यत: दिखाई दिया है। भाषा के प्रतीकों और गणित के प्रतीकों में जो सामंजस्य बिठाया गया है वह अद्भुत है। यह सत्य है कि ऐसे प्रतीक मय गणित का पूर्ण विकसित रूप ११वीं सदी से लेकर १६वीं सदी तक या १८वीं सदी तक उपलब्ध है किन्तु यह निश्चित है कि जैसे—जैसे ब्राह्मी लिपि में परिवर्तन होते गये होंगे वैसे वैसे इन ग्रंथों में विकसित रूप समय समय पर लिये जाते रहे होंगे ताकि देशकाल मान के अनुसार ही साहित्य संरक्षित किया जाता रहे। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के ज्ञान को उनके शिष्य मुनि रूप सम्राट चंद्रगुप्त ने किस प्रकार सुरक्षित, संरक्षित, लिपिबद्ध किया होगा इसके संबंध में हमारे पास कोई सीधा और प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। किन्तु कर्म सिद्धांत ग्रंथों और उनकी टीकाओं की गहराईयाँ साक्षी हैं कि उन्हें बिना लिपि बद्ध किये विलुप्ति से नहीं बचाया जा सकता था। अनेक ग्रंथ विलुप्त हो गये जिनमें तिल्लोयपण्णत्ति का ग्रहगमन विवरण, त्रिलोकसार से संबधित वृहद्धारा परिकर्म, कुन्दकुन्दचार्य कृत परिकर्म नामक गणितीय टीका (जो षटखंडागम ग्रंथ से संबन्धित थी ?)। इसी प्रकार तुम्बलूर और समन्तभद्रादि आचार्यों की कर्म सिद्धांत विषयक टीकायें। अब हम चंद्रगुप्त काल में प्रचलित यूनानी लिपि तथा अन्य लिपियों पर ध्यान देते हुए ब्राह्मी लिपि से तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेंगे।
अभिमत
उपरोक्त सभी प्रकार के अभिमतों के उहा—पोह में न जाकर हम पाठकों का ध्यान एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिकाओझा, गौरीशंकर हीराचन्द, ‘भारतीय प्राचीनलिपि माला’ अजमेर, १९१८; बूलर, जार्ज, ‘भारतीय पुरालिपि शास्त्र’, अनु. मंगलनाथ िंसह, दिल्ल १९६६; उपासक चन्द्रिकािंसह, ‘द हिस्ट्री एण्ड पेलियोग्राफी ऑफ मौर्यन ब्राह्मी स्क्रिप्ट, नालन्दा, १९६०; में दिये गये अभिमत की ओर दिलाते हैं, बूलर का कथन यद्यपि पाण्डित्य और चतुराई से भरा हुआ है तो भी यह मानना पड़ता है कि वह अधिक निश्चय नहीं दिलाता। इस लिपि का उद्भव कहाँ से हुआ इसका निर्णय निश्चित रूप से करने के पहले इसके प्राचीन इतिहास के और भी प्रमाणों का ढूंढना आवश्यक है, और ऐसे प्रमाण मिल सकेगे इसमें कोई संदेह नहीं।’ वस्तुत: अब ऐसे प्रमाण लब्धिसार की प्रोजेक्ट (१९८४-८७) से सामने आ चुके हैं। और उसे दृष्टिगत रखते हुए हमें डॉ. श्रीराम गोयल के बुद्धिमत्तापूर्ण विवेचन में सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा हुए भागीरथी प्रयत्नों को और भी अनेक पुरालेखों, शिलालेखों के तुलनात्मक अध्ययन में सामने रखना है। जो लिपियों की मिली हुई धाराएँ, तथा बिखरी फैली हुई धाराएँ यायावरों, सैनिकों की भाषाओं सहित यूनानी उद्गम लिये हुए भारत की ओर अग्रसर हुई थी, वे सम्राट चंद्रगुप्त के मस्तिष्क में स्थान जमा चुकी होंगी। आचार्य भद्रबाहु मुनिसंघ में कर्म सिद्धांत विषयक गणितीय गहरा ज्ञान प्राकृत भाषा में उन्हें उपलब्ध हो गया था जिसे उन्हें ज्ञान विभिन्न यूनानी उद्गम लिये भाषिका लिपियों द्वारा किसी एक निर्णय पर पहुँचाना था। निश्चित ही उन्हें गणितीय स्वरूप प्रकट करने हेतु संयुक्त अक्षरों के लेखन में नवीनता एवं क्रांति लाना थी। यह बात अलग है कि तत्कालीन लिपियों के ज्ञान को उन्होंने कहाँ तक, किस रूप में प्रयुक्त किया, अथवा आलम्बन किया। किन्तु इतना अवश्य है कि गणितीय समीकरणों को लिखने के लिए इससे अधिक समृद्ध लिपि विश्व में अभी भी कोई नहीं है। कारण यह है कि इसमें अक्षर मात्राओं के साथ होने से अधिक से अधिक संदृष्टि शब्दों के प्रारम्भिक अक्षरों को लेकर बनाई जा सकती हैं। संदृष्टियाँ ही ऐसे बीजाक्षर, आकारक्षर या अंकाक्षर हो सकते हैं जो वैज्ञानिक विचारों का वहन उस गहराई तक कर सकते हैं। जहाँ तक लिये गये, उठाये गये विचारों की क्रमबद्ध निरूपणता सहज में स्मरण नहीं रखे जा सकते हैं। बिना श्रुतसंदृष्टियों के आलम्बन से।लब्धिसार प्रोजेक्ट भा. रा. वि. अकादमी, दिल्ली (१९८४-१९८७) फिर लौकिक छोड़, पारर्मािथक आत्म क्षेत्र में जटिलतम योगों और कषायों की निवृत्ति में जो गणनाएँ प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग, स्थिति में आती हैं वे बिना संदृष्टियों के आलम्बन से इस काल में विशुद्धि के उच्चतम मंच तक ले जाने में कैसे समर्थ हो सकती हैं ?
परमाणुओं के विज्ञान
जैसे परमाणुओं के विज्ञान के जटिलतम समीकरण संदृष्टियों के सहारे परिणाम निकालकर प्रयोगों द्वारा सिद्ध या असिद्ध किये जाते हैं। ठीक उसी प्रकार आत्मविज्ञान के जटिलतम कर्म सिद्धांत के समीकरणों संदृष्टियों के सहारे परिणाम निकालते हैं और जिन्हें आत्मा ही स्वप्रयोग द्वारा उन्हें सिद्ध या असिद्ध कर लेती है, कर सकती है। श्रुतावलम्बन में लिपि रूप संदृष्टि आलम्बन की इस संदर्भ में उपेक्षा नहीं की जा सकती है। अत: यह निश्चित है कि सम्राट चन्द्रगुप्त को मुनिरूप में आपनी अद्भुत प्रतिभाओं का उपयोग करने का पुन: एक अवसर मिला। पूर्व में जहाँ चाणक्य की गुरुता ने उन्हें राजनीति में क्रांति लाने का अवसर प्रदान किया जो दिगम्बर जैन कर्म सिद्धांत के गणितीय संदृष्टिमय प्ररूपण रूप साक्ष्य से परिपुष्ट हो जाता है। यह साक्ष्य खंडित नहीं किया जा सकता है। एक गणितीय समीकरणों का जानकार ही ऐसी लिपि की रचना कर सकता है, जो भाषा की ध्वनियों और गणित की अभियोजनाओं के साथ लेकर चल सके। जो अगम्य को दुरूह को ऋजु, अक्रम को पूर्ण, विकृत को सुकृत, असिम्मितीय को सम्मितीय, कुध्वनि को सुध्वनि रूप में लाने में एक ध्वनि को प्ररूपित कर सके। यह सर्वोत्कृष्ट विद्या गणित ही है जो संदृष्टियों की वैसाखियों के बिना दूर तक नहीं जा सकता है। विगत दो सौ वर्षों में गणित के विकास ने विज्ञान, कला, व्यापार, यांत्रिकी आदि को जिस उच्च स्तर तक पहुँचाया है वह अभूतपूर्व प्रतीत होता है। अब हम चिरसम्मत यूनानी एवं सेमेटिक लिपियों से ब्राह्मी लिपि की तुलना करेंगे जिससे स्पष्ट होगा कि जिन लिपियों की बिखरती, मिली जुली, यायावार शाखाओं का ज्ञान सम्राट चंद्रगुप्त को किसी अंश तक रहा होगा, उसी का अवलम्बन मात्र, किन्तु निजी प्रतिभा से आविष्कृत ब्राह्मी एक ऐतिहासिक घटना का रूप ले ली गयी। ब्राह्मी लिपि का ग्रीक लिपि से उद्गम ओट्प्रइड मुएलर, जेम्स प्रिंसेप, सेनार्ट तथा विल्सन ने माना था। सेमिटिक लिपि से ब्राह्मी की उत्पत्ति का अनुमान सर विलियम जोन्स, डीर्क, टेलर, आदि लगाते हैं। इसके द्राविड़ उद्गम का अनुभाव लासेन के सुझाव के आधार पर एडवर्ड टामस ने लगाया था। किन्तु अब हमें लब्धिसार प्रोजेक्ट में एक ऐसा विशाल आधार मिला है कि हम ठीक निर्णय लेने में सक्षम हो गये हैं। अगले पृष्ठों में हम ब्राह्मी लिपि के अक्षरों को क्लासिक ग्रीक, पूर्वीशाखा, पश्चिमीशाखा, तथा उत्तरी सेमिटिक लिपियों के अक्षरों के समक्ष रख रहे हैं। Dringer, The Alphabet, 1948, P. 330, 450, 454;इनसे उन्हें सहज ही अनुमान हो जायेगा कि प्राय: उसी काल, युग में प्रचलित लिपियों के बोध से सम्राट चंद्रगुप्त ने किस प्रकार, मुनिरूप में, ब्राह्मी को स्वतंत्र रूप से अथवा परतंत्र रूप से विकसित करने में अपने तत्कालीन कर्म सिद्धान्त के ज्ञान का अवलम्बन किया होगा। नोट—
१ डिरंजर के अनुसार शास्त्रीय ग्रीक वर्णमाला का उद्गम लगभग ईस्वी पूर्व ८वीं सदी में हुआ जो फिनीशियन अथवा उत्तरी सेमिटिक वर्णमाला से विकसित हुई मानी जाती है। पहले यह दाएँ से बाएं और बाद में बाएं से दाएं लिखी जाने लगी। कभी नीचे से ऊपर भी लिखावट में देखी गयी। ईस्वी पूर्व ५०० के पश्चात् वह बाएं से दाएं तथा ऊपर से नीचे की ओर भी लिखी जाने लगी।
२.उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि मौर्य लिपि और शास्त्रीय ग्रीक लिपि में अपनी अपनी मौलिकताएँ हैं, कुछ समानताएँ हैं, कुछ असमानताएँ भी है। मौलिकता संधियों में ब्राह्मी भी अपने आप में एक अप्रतिम उपलब्धि है। वह गणितीय समीकरण लिखने वाले का ही आविष्कार हो सकता है, अथवा जिसे आवश्यकता थी कि गणितीय समीकरण कैसे लिखा जाये। संधियों के ज्ञाता वैयाकरण या व्याकरणकार को भी गणितीय समीकरण नहीं बनाना होते हैं। उसे केवल जहाँ एक चरण ही जाना होता है वहीं गणित को कई—चरण आगे ले जाना होते हैं अत: उसकी आवश्यकता ही सर्वोपरि रही होगी।
प्रस्तुत लेख की २ किश्तें अर्हत् वचन ४ (१), जनवरी—९२ एवं ४(४), अक्टूबर—९२ में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह इस लेखमाला की तीसरी एवं अन्तिम किश्त है।
लक्ष्मी चन्द्र जैन एवं (ब्र.) प्रभा जैन
मानद् निदेशक, आ. श्री विद्यासागर शोध संस्थान, पिसनहारी की मड़िया, जबलपुर।
शोधछात्रा, संस्कृत एवं प्राकृत विभाग, रानी दुर्गावती वि.वि., जबलपुर।