बंगाल में किसी समय एक पंडित रत्न थे। नाम था— पं. विश्वनाथ शास्त्री। बहुत बड़े विद्वान थे। सकल शास्त्र कंठाग्र थे। उन दिनों शास्त्रार्थ बहुत होते थे। किन्तु पं. विश्वनाथ से शास्त्रार्थ करने में सब झिझकते थे। एक पंडितजी उनसे शास्त्रार्थ करने लगे, किन्तु वे किसी प्रकार से पार नहीं पा रहे थे। आखिर में उन्होंने सोचा कि यदि शास्त्रीजी को किसी प्रकार से गुस्सा करवा दिया जाय तो वे असंबद्ध तर्क देने लगेंगे और पराजित हो जायेंगे।
यह सोचकर उन्हें और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने शास्त्रीजी के मुंह पर थूक दिया। किन्तु इस पर भी शास्त्री जी कुछ नहीं बोले। शान्ति से अपने दुपट्टे से मुंह पोंछकर कहा— यह तो विषयान्तर, हुआ, अब पुन: अपने मूल विषय पर आवें। उनकी यह क्षमा देखकर आगन्तुक पंडित पानी पानी हो गया और क्षमा मांगने लगा। शास्त्रीजी के मुख पर मंद हास्य था।