दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ भी क्षमाधर्म से होता है और समापन भी क्षमावाणी पर्व से किया जाता है। दश दिन धर्मों की पूजा करके, जाप्य करके जो परिणाम निर्मल किये जाते हैं और दश धर्मों का उपदेश श्रवण कर जो आत्म शोधन होता है उसी के फलस्वरूप सभी श्रावक—श्राविकायें किसी भी निमित्त परस्पर में होने वाली मनो मलिनता को दूर कर आपस में क्षमा कराते हैं। क्योंकि यह क्रोध कषाय प्रत्यक्ष में ही अग्नि के समान भयंकर है। क्रोध आते ही मनुष्य का चेहरा लाल हो जाता है। ओंठ काँपने लगते हैं, मुखमुद्रा विकृत और भयंकर हो जाती है। किन्तु प्रसन्नता में मुख मुद्रा सौम्य, सुन्दर दिखती है। चेहरे पर शांति दिखती है। वास्तव में शांत भाव का आश्रय लेने वाले महामुनियों को देखकर जन्मजात बैरी ऐसे क्रूर पशुगण भी क्रूरता छोड़ देते हैं। यथा—
हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बच्चे को दूध पिलाती है, बिल्ली हंसों के बच्चों को प्रीति से लालन करती है एवं मयूरी सर्पों को प्यार करने लगती है। इस प्रकार से जन्मजात भी बैर को क्रूर जंतुगण छोड़ देते हैं। कब ? जबकि वे पापों को शान्त करने वाले मोहरहित और समताभाव में परिणत ऐसे योगियों का आश्रय पा लेते हैं अर्थात् ऐसे महामुनियों के प्रभाव से हिंसक पशु अपनी द्वेष भावना छोड़कर आपस में प्रीति करने लगते हैं। ऐसी शांत भावना का अभ्यास इस क्षमा के अवलंबन से ही होता है। क्रोध कषाय को दूर कर इस क्षमाभाव को हृदय में धारण करने के लिये भगवान् पाश्र्वनाथ का चरित्र, श्री संजयंत मुनि का चरित्र और तुंकारी की कथायें पढ़नी चाहिये तथा क्षमाशील साधु पुरुषों का आदर्श जीवन देखना चाहिये। आचार्य शांतिसागर जी आदि साधुओं ने इस युग में भी उपसर्ग करने वालों पर क्षमाभाव धारण करके सदैव प्राचीन आदर्श प्रस्तुत किया है। बहुत से श्रावक भी क्षमा करके—कराके अपने में अपूर्व आनंद का अनुभव करते हैं। अत: हृदय से क्षमा करना तथा दूसरों से क्षमा कराना ही क्षमावाणी पर्व है।
उत्तम क्षमादि दश-धर्म
यह भादों मास सभी महीनों, में राजा है उत्तम जग में। यह धर्म हेतु है और अनेक, व्रत रत्नों का सागर सच में। यह महापर्व है दशलक्षण, दशधर्म मय मंगलकारी। रत्नत्रय निधि को देता है, सोलहकारणमय सुखकारी।।