क्षमावणी का पर्व सौहार्द, सौजन्यता और सद्भावना का पर्व है। आज के दिन एक दूसरे से क्षमा मांगकर मन की कलुषता को दूर किया जाता है। मानवता जिन गुणों से समृद्ध होती है उनमें क्षमा प्रमुख और महत्वपूर्ण है। क्षमा न हो, तो आदमी को पशुता की खाई में गिरते देर न लगेगी। पश्चिमी विचारक ज्यां पाल सात्र्र का कहना था कि मनुष्य पशु ही पैदा होता है क्षमा उसे आदमी बनाती है, इसमें शक की गुंजाइश नहीं। क्षमा के अभाव में जीवन रक्त—रंजित और धरती वध मंच हो जाएगी। सर्वत्र जंगल का राज कायम हो जायेगा। हर कोई अपने से कम शक्तिमान के खात्मे का कारण बन जाएगा। जंगल के राज में जाहिर है कि आदमीयत की तलाश नहीं की जा सकती। क्षमा इसी जंगली राज के हर असर को मिटाती है और आदमी को उसके आदमी होने की गरिमा से भरती है। इसलिए आदमी से जुड़े जितने भी धर्म धरती पर विकसित हुए हैं, सबमें क्षमा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। अन्य मुद्दों पर परस्पर खंडन—मंडन और प्रतिवाद में रत रहने—वाले विभिन्न धर्म संस्थाओं में जिन मुट्ठी भर मुद्दों पर मतैक्य है, उनमें क्षमा की एक है। सभी धर्म—परम्पराओं ने क्षमा के महत्व को न केवल स्वीकार किया है, बल्कि उसे मानव समाज में आम और वृहत् करने के लिए भी तमाम उपाय किये हैं। क्षमावणी पर्व हमारी वैमनसता, कलुषता बैर—दुश्मनी एवं आपस की तमाम प्रकार की टकराहटों को समाप्त कर जीवन में प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, प्यार, आत्मीयता की धारा को बहाने का नाम हैं हम अपनी कषायों को छोड़ें, अपने बैरों की गांठों को खोलें, बुराइयों को समाप्त करें, बदले, प्रतिशोध की भावना को नष्ट करें, नफरत—घृणा, द्वेष बंद करें, आपसी झगड़ों, कलह को छोड़ें। भारत की प्राचीन श्रमण संस्कृति की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जिन परम्परा ने तो क्षमा को पर्व के रूप में ही प्रचलित किया है। जैनों के प्रमुखतम पर्व में ‘क्षमापर्व’ है। इसे क्षमावाणी भी कहते हैं।
पर्यूषण पर्व के तुरन्त बाद यह पर्व मनाया जाता है। पर्यूषण दरअसल एक पर्व—अवधि है, दस दिनों तक चलने वाले पर्व की एक श्रृंखला है, जिसके दौरान क्षमा को आचरण की सभ्यता के रूप में ढाला जाता है। जैनों के सभी संप्रदायों में इसकी समान मान्यता है। सिर्फ इस पर्व–अवधि के दौरान ही नहीं, बल्कि जिन परम्परा में वर्ष भर क्षमा का जीवन जिया जाता है। अन्तिम तीर्थंकर हैं महावीर स्वामी। उनके‘अनेकांत’ यानी सत्य को अनेक रूपों और अन्तों में मानने की विचारणा से टकराव की प्रवृत्ति का निराकरण हुआ तथा अहिंसा को व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित किया जा सकना मुमकिन हो पाया। इस स्थिति ने ‘जियो और जीने दो’ की भावना का आधार है। क्षमी इसी भावना का आधार है। वह अहिंसा को व्यावहारिक रूप से सक्षम बनाती है और टकराव की हर आशंका का सिर उठाने से पहले ही समाधान कर देती है। क्षमावणी पर्व तो हम सभी के हृदय में मैत्री पुष्प खिलाने आता है, मनोमालिन्य को मिटाने आता है, बैरभाव की ग्रंथियाँ तोड़ने आता है। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की उक्ति वास्तव में क्षमा पर्व जैसे आयोजनों में ही चरितार्थ होते दिखती है। क्षमावाणी पर्व हमें ‘‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’’ की शिक्षा प्रदान करता है। क्षमावणी के पावन पर्व पर ‘‘सत्वेषुमैत्री’’ और मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे’ जैसी पंक्तियों को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। हमें यह पर्व सद्भावना का संदेश देता है। यह पर्व ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु: निरामया:’ की भावना भाने की प्रेरणा प्रदान करता है। इस समय विश्व में अति—प्रभावी और अल्प प्रभावी कुल करीब तीन सौ धर्म—संगठन हैं, जिनमें से सिर्फ जिनमत ने ही न केवल क्षमा को पर्व के रूप में आंका, बल्कि इस बारे में वैज्ञानिक रीति से अध्ययन अनुशीलन भी किया है। जैन परम्परा ने क्षमा को क्रोध का विधायक रूपांतरण माना है। निश्चित ही क्रोध एक ऊर्जा है, जो अन्य तमाम ऊर्जा—रूपों की तरह हर प्राणी में अन्तर्निहित होती है। किसी न किसी बहाने से इस ऊर्जा का जब आक्रोश या हिंसक भावना की शक्ल में निस्सरण होता है, तब वह क्रोध है । क्रोध की यह ऊर्जा नकारात्मक होती है, पर जब यही विधायक दिशा में मुड़ जाती है, तब उसका रूपान्तरण हो जाता है और यही क्षमा के रूप में जीव—जगत पर बरस पड़ती है। इसीलिए जैनों में क्षमा अर्जित नहीं की जा सकती, बल्कि आचरण की सभ्यता और सम्यक्दर्शन व सम्यक् चारित्र से अपने भीतर रूपान्तरित की जाती है। क्षमा और क्रोध में ऊर्जा एक ही है, सिर्फ उनकी दिशाओं का फर्क है।
क्षमा हमारे खुद के लिए है, भले ही दूसरा व्यक्ति उसे मांगे या नहीं, वह अपनी भूल स्वीकारे या नहीं। परन्तु हममें से हर एक के लिए क्षमा स्वयं के लिए है। क्षमा हमें कमजोर बनाती है यह भ्रम है। क्षमा तो वीरों का आभूषण है, इसमें हमें स्वयं की निजी शक्ति—साहस का ज्ञान होता है। असल में यह क्षमा हमें और भी ज्यादा शक्तिशाली और बेहतर व्यक्ति बनाती है। क्षमा के मामले में ‘क्षमादान’ को ‘क्षमायाचना’ से अधिक महत्व दिया गया है। मांगी हुई क्षमा व्यक्ति में पश्चाताप का भाव जगाती है हालांकि गलतियों में घुलने की बजाय पश्चाताप कहीं बेहतर है, क्योंकि इससे गलतियों के निराकरण की संभावनाएं उदित होती हैं लेकिन फिर भी मांगी हुई क्षमा से दी जाने वाली क्षमा ज्यादा कीमती है क्योंकि मांगी हुई सिर्फ अपना ही मन साफ करती है, जबकि दी जाने वाली क्षमा का प्रभाव दोहरा होता है। वह क्षमा देने वाले को तो ऊर्जस्वी बनाती ही है, साथ ही जिसे क्षमा किया जाता है उसके भी मनोमालिन्य धोती है। भगवान महावीर इसलिए वीर कहलाए क्योंकि उन्होंने क्षमा को जीवन का अनिवार्य तत्व स्वीकार कर अपनाया। उनके बतलाए हुए मार्ग को धर्म कहा गया, क्योंकि इसमें क्षमा की प्रधानता थी। सम्राट अशोक इसलिए महान नहीं कहलाए कि उन्होंने कलिंग युद्ध में विजय प्राप्त की, अपितु ऐसे धर्म की शरण में चले गए जिसमें क्षमा की प्रधानता थी। ईसा मसीह ने उन लोगों को भी क्षमा कर दिया, जिन्होंने ईसा मसीह को सूली पर टांग दिया और ईसा मसीह प्रभु बन गए। उनका दिखलाया गया मार्ग एक नया धर्म बन गया।
क्षमा के अभाव में न कोई व्यक्ति वीर है और न कोई धर्म पूर्ण है। शत्रु और मित्र शब्दों का अस्तित्व वास्तव में ‘क्षमा’ के अभाव में ही है। जहाँ क्षमा है, वहां शत्रुता अथवा द्वेष का क्या काम ? क्षमा दुश्मनी का विनाश कर दोस्ती का विस्तार करती है, इसलिए जैनधर्म में तो इसे एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। क्षमा कब करें ? मांगने पर या बिना मांगे ? यदि कोई व्यक्ति क्षमा मांगता है, तो क्षमा न करना अपराध जैसी स्थिति हो जाती है।क्षमा मांगने वाला अपनी गलती को स्वीकार कर अपराधबोध से मुक्त हो जाता है लेकिन क्षमा न करने वाला उसकी पीड़ा से सुलगता रहता है अत: किसी के क्षमा मांगने पर क्षमा कर देना उसके स्वयं के लिए एक उपयोगी क्षण है। यदि कोई अपनी गलती के लिए क्षमा न मांगे तो भी क्या उसे क्षमा किया जा सकता है ? यह क्षमा मांगने वाले पर निर्भर है, पर क्षमा न करने पर क्षमा न करने वाला भी तो भुगतेगा। क्षमादान तो हर हालत में संभव है। क्षमा मांगने पर भी और क्षमा न मांगने पर भी। बस थोड़ी सूझबूझ की जरूरत है। दूसरा क्षमा मांगे या न मांगे आप तो किसी भी तरह उसे क्षमा कर घातक मनोभावों से मुक्त हो जाइए। आप क्यों दूसरे की गलती का बोझ अपने मन में ढो रहे हैं ? क्षमा न मांगने पर भी किसी को सही तरीके से उसकी गलती का एहसास कराकर क्षमा कर देने से गलती के शीघ्र परिष्कार की अपेक्षा की जा सकती है। क्षमा करना दूसरे को सुधरने का अवसर प्रदान करना ही है, अत: यह अनिवार्य भी है। अधूरी या आंशिक क्षमा का भी कोई अर्थ नहीं। बिना शर्त पूर्णरूप से क्षमायाचना करें और क्षमा भी करें। लाभ—हानि या किसी निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर क्षमा मांगने और क्षमा देने से क्षमा निष्काम कर्म की कोटि में आ जाती है और निष्काम कर्म सबसे उत्तम माना गया है। जो लोग न क्षमा मांगना जानते हैं और न क्षमा करना ही वे अपने लिए इस धरती पर ही नरक की सृष्टि कर लेते हैं और उसमें पड़े रहते हैं। क्षमाशील व्यक्ति ही इस धरती पर स्वर्ग की सृष्टि कर जीते जी स्वर्ग भोगते हैं।
‘क्षमादान के बाद यदि भावना जगे कि ‘मैंने क्षमा किया’ तो ऐसा क्षमादान भी व्यर्थ है। वह क्षमा नहीं मानवीय गुणों का विकास नहीं, विनाश है। वह विराटता नहीं क्षुद्रता है, क्योंकि मैं के जगते ही क्षमादान की दिव्यता तिरोहित हो जाती है और क्षुद्र मानवीय अहंकार का अंधेरा उग आता है।अहंकार या अभिमान क्षमा की राह के सबसे बड़े रोड़े हैं। क्षमा तो अहंकार से मुक्ति का विज्ञान है। उससे ही यदि अहंकार पनपे तो वह दया, तरस, रहम कुछ भी हो सकता है, मगर क्षमा नहीं हो सकता। जो अहंकार क्षमा—याचक के लिए बाधक हो, वह क्षमा दाता के लिए आखिर साधक कैसे हो सकता है। क्षमायाचक वास्तव में क्षमा का पात्र है या नहीं, क्षमादाता को इसका भी निर्धारण करना होता है, क्योंकि क्षमा वस्तुत: सक्षम का दिव्यास्त्र है। क्षमा के बारे में आमतौर पर यह भ्रांति रही है कि यह कमजोर व्यक्ति का हथियार है। नहीं, क्षमा अक्षम व्यक्ति का हथियार नहीं है क्योंकि क्षमा करने के लिए भी क्षमता होनी चाहिए। क्षमता के अभाव में व्यक्ति क्षमा का ढोंग जरूर कर सकता है, मगर क्षमा नहीं कर सकता। कमजोर और कायर का नहीं, बल्कि क्षमतावान और सामर्थ्यवान का हथियार है क्षमा। वही व्यक्ति क्षमा कर सकने का अधिकारी है जिसमें बड़प्पन किसी भी विधायक चीज को हो सकता है, क्षमता का, सामर्थ्य का, गुणों का, भावनाओं का, हार्दिकता का। बड़प्पन जितना गहरा और आत्यांतिक होगा, क्षमा की क्षमता उतनी ही विराट समर्थ होगी।