पर्व का अर्थ है जो हमारी आत्मा को पवित्र कर दें, शुद्ध कर दें, निर्मलता का प्रवेश करा दे, जो हमारी आत्मा को पापों से बचायें, जो हमारी आत्मा को पुण्य का संचय करा दे। ऐसे आत्मिक क्षण ही पर्व कहलाते हैं। आचार्यश्री ने कहा कि पर्यूषण पर्व में भी अगर धर्म के प्रति कुछ नहीं कर पाये तो सारा समय व्यर्थ ही कहलायेगा। कषाय जब आती है तो आपस में वैर भाव, कलह उत्पन्न हो जाते हैं। जहाँ कषायों का गमन होता है या अभाव होता है वही उत्तम क्षमा धर्म की उत्पत्ति होती है। जीवन में एक बार बैर बंध जावे तो अनन्ता अनन्त भव तक वैर नहीं छूटता। समुद्र के बीच अगर कचरा डाल देवें तो लहरें उस कचरे को उठाकर किनारे पर ले जाती है। समुद्र के बीच में ही मोती पाया जाता है। उसी तरह आत्मिक धर्म उत्पत्ति से जुड़े हुए महापुरुष के हृदय में क्षमा का निवास होता है। बाकी अगर कुछ कचरा आ जाये तो उसे अनी धार्मिक प्रवृत्ति रूपी लहरों से बाहर निकाल देता है। क्षमा अमृत है, क्रोध जहर है, क्षमा जल है, क्रोध अग्नि है। क्षमा फूल है तो क्रोध कांटा है, क्रोध को हमें दबाना होगा, उसका दमन करना होगा। क्रोध नहीं होगा तो ही जीवन में उत्तम क्षमा धर्म की प्राप्ति होगी।