सेठ बांकेलाल किसी मृत्यु भोज में जीमने गए। जिनके यहाँ मौसर था वे पापड़ परोसते हुए आए। सबको पूरा पूरा पापड़ परोस रहे थे, बाँके के भाणे में जो पापड़ आया वह खंडित था। बांके ने अपनी गरीबी को इसके साथ जोड़ा और सोचा कि इन्होंने मुझे गरीब समझ कर खांडा पापड़ परोसा है पर मैं भी इन्हें सबक सिखाऊँगा। घर आकर बांके ने अपना घर गिरवी रखा। कभी के गुजर चुके पूर्वजों का मृत्युभोज रखा, सबके चिट्ठियाँ भेजी। सेठ सरलसुन्दरजी भी आए जिन्होंने बांके को खाण्डा पापड़ परोसा था। बांके ने कहा- पापड़ की परोसगारी का एकाधिकार मेरा रहेगा। वह सरलजी के भाणे तक गया। खंखारा किया। पापड़ को खांडा किया और परोसा। पूरी पंगत विचार में पड़ गई- बांके ने पापड़ को क्यों तोड़ा ? सरल जी भी बात समझ नहीं सके। उन्होंने भी पूछा- ‘बांके भैया ! बात क्या है ?’ अब बांके बोले- ‘अमीर आदमियों को गरीबों की आबरु का कोई ख्याल ही नहीं रहता है। जब मैं आपके यहाँ मौसर में आया था तो आपने मुझे गरीब समझ कर खांडा पापड़ परोसा था। सबको पूरा पूरा पापड़ परोसा था, मेरे साथ पक्षपात किया। उसका प्रतिशोध लेने के लिए मुझे अपना घर गिरवी रखना पड़ा है। अब मेरे जीव में जीव आया है।’ सरल सुन्दर बोले- बाँकेलाल जी! पापड़ तो चीज ही ऐसी है कि टूट फूट जाते हैं। मेरी मनोभावना आपको पापड़ में कंजूसी करने की नहीं थी। आप दो चार चाहें जितने पापड़ ले सकते थे और यदि आप मेरे पर इस कारण नाराज थे तो घर बुलाकर पापड़ का चूरा करके खिला देते। घर होम कर होली जला कर आपने अच्छा नहीं किया। बांके को बात समझ में आई। उसने उन सेठ के यहाँ भागीदारी में धंधा कर वापस मकान छुड़वाया और सरल सुन्दर सेठ जैसा सरल बन गया। हमारी वक्र वृत्तियों को भी हमें ही सरल बनाना है, बांके नहीं रहना है। यही इन कथाओं के कथ्य होते हैं, तथ्य होते हैं।