गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय द्रव्यानुयोग
१९४. अष्टसहस्री प्रथम भाग- जैन न्यायदर्शन का अतिप्राचीन ग्रंथ है। सर्वप्रथम उमास्वामी के मंगलाचरण पर टीका रूप में आचार्य समंतभद्र स्वामी ने ११४ कारिकाएं लिखकर ‘‘आप्त मीमांसा’’ नाम से रचना की। इन्हीं कारिकाओं पर आचार्य अकलंकदेव ने अष्टशती नाम से टीका लिखी। पुन: कारिकाओं एवं अष्टशती को लेकर अब से १२०० वर्ष पूर्व आचार्य विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री नाम से आठ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका का निर्माण किया तथा स्वयं आचार्य महोदय ने उसे कष्टसहस्री नाम दिया। इसमें विभिन्न एकांत मतों के पक्ष को अनेकांत शैली में खण्डन करके स्याद्वादमत की पुष्टि की गई है। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ की हिन्दी टीका करके जन-जन के लिए सुगम सहस्री बना दिया। इस प्रथम भाग में ६ कारिकाओं की टीका हुई है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५०० सन् १९७४ में। पृष्ठ संख्या ४५६, प्रथम संस्करण में अंत में १२० पृष्ठीय न्यायसार ग्रंथ को भी जोड़ दिया गया है। द्वितीय संस्करण का प्रकाशन मार्च १९८९ में/पृष्ठ संख्या ४४४ है।
१९५. अष्टसहस्री द्वितीय भाग- पूर्ण अष्टसहस्री की टीका तो जनवरी सन् १९७१ में ही माताजी ने लिखकर तैयार कर ली थी, किन्तु इस दूसरे भाग के प्रकाशन में अप्रत्याशित विलम्ब हो गया। इस द्वितीय भाग में कारिका ७ से २३ तक की टीका है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, मार्च १९८९ में, पृष्ठ संख्या ४२४ है।
१९६. अष्टसहस्री तृतीय भाग- इसमें कारिका २४ से ११४ की टीका हुई है। तीनों भागों में पूज्य माताजी ने जगह-जगह विशेषार्थ व भावार्थ तो दिये ही हैं, सारांंशों के दे देने से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को अतीव सुगमता हो गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१६, मार्च १९९० में, पृष्ठ संख्या ६०८ है। तीन भागों में प्रकाशित इस अष्टसहस्री की हिन्दी टीका का नाम स्याद्वाद चिन्तामणि टीका है। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला के प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित इस गं्रथ के हिन्दी अनुवाद सहित प्रथम भाग के विमोचन में राजधानी दिल्ली के अन्दर आचार्य श्री धर्मसागर महाराज, आचार्य श्री देशभूषण महाराज, उपाध्याय श्री विद्यानंद महाराज एवं चारों सम्प्रदाय के अनेक वरिष्ठ साधु-साध्वियों का सानिध्य रहा।
१९७. नियमसार प्राभृत- हस्तिनापुर में वीर सं. २५०४, सन् १९७८ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द की नियमसार ग्रंथ की गाथाओं पर संस्कृत टीका लिखने का भाव बनाया और लगभग ६२ ग्रंथों के उद्धरण आदि के साथ नय व्यवस्था द्वारा गुणस्थान आदि के प्रकरण को स्पष्ट करते हुए वीर सं. २५११, मगसिर वदी सप्तमी सन् १९८५ में इस ग्रंथ पर ‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ संस्कृत टीका लिखकर पूर्ण की। नियमसार की आ. पद्मप्रभमलधारीदेव कृत टीका का हिन्दी करने के बाद माताजी के भाव नियमसार पर ही पुन: संस्कृत टीका लिखने के हुए। तदनुसार संस्कृत टीका लिखकर स्वयं ही माताजी ने उसकी हिन्दी टीका भी कर दी। हिन्दी टीका के साथ-साथ आवश्यकतानुसार भावार्र्थ-विशेषार्थ देकर विषय को अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है। अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए यह नियमसार प्राभृत टीका अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५११, वैशाख शु. ८, २८ अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या ५७८ है।
१९८. नियमसार – हस्तिनापुर में वीर सं. २५०२, चैत्र कृष्णा नवमी को इस ग्रंथ का अनुवाद पूर्ण किया। आचार्य कुन्दकुन्द के इस ग्रंथ की आ. पद्मप्रभमलधारीकृत प्रथम संस्कृत टीका की हिन्दी टीका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अतीव सुगम शैली में अथक परिश्रम करके की है। इसमें भावार्थ-विशेषार्थ भी दिये हैं। अनेक स्थलों पर गुणस्थानों का स्पष्टीकरण किया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५११, माघ शु. १३, फरवरी, १९८५ में, पृष्ठ संख्या ५८२ है।
१९९. न्यायसार- दिल्ली, नजफगढ़, वीर सं. २४९९ (सन् १९७३) में मौलिक ग्रंथ ‘न्यायसार’ लिखा। जैन न्यायदर्शन में प्रवेश करने के लिए यह वुंâजी के समान है। इसमें जैन न्यायदर्शन में प्रयुक्त होने वाले अनेक शब्दों की परिभाषाएँ दी गई हैं। अनंतर अन्य दर्शनों की मान्यता को दर्शाते हुए वे असमीचीन क्यों हैं, उसे दिया गया है। न्याय की शैली में उनका खण्डन किया गया है। इस ग्रंथ के निर्माण में माताजी ने बहुत परिश्रम किया है। प्रथम संस्करण वीर सं.२५००, सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या १२० है।
२००. कातंत्ररूपमाला- वीर सं. २४९९, आश्विन शरद पूर्णिमा, सन् १९७३, दिल्ली-नजफगढ़ में यह जैन व्याकरण पूर्ण की।श्री सर्ववर्म आचार्य प्रणीत यह कातंत्ररूपमाला नाम की व्याकरण दि. जैन परम्परा में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे सरल व्याकरण है। इसमें कुल १३८३ सूत्र हैं। आचार्य भावसेन त्रैविद्य ने इसकी टीका लिखी है। वीर सं. २४८०, सन् १९५४ मेंं जयपुर में माताजी ने इस व्याकरण को मात्र २ माह में कण्ठस्थ कर लिया था, यही व्याकरण माताजी के ज्ञानरूपी महल की नींव का प्रथम पत्थर है। अनेक विद्यार्थियों की इस व्याकरण को पढ़ने की रुचि एवं आग्रह से माताजी ने वीर सं. २४९९, सन् १९७३ में इसके सूत्रों व टीका का हिन्दी अनुवाद किया। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५१३, मार्च १९८७ में हुआ, पृष्ठ संख्या ४५२ है। ।
२०१. समयसार पूर्वाद्र्ध-हस्तिनापुर में फाल्गुन सुदी ग्यारस वीर सं. २५१५, सन् १९८९ में इसका अनुवाद पूर्ण किया। आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार पर आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन ने संस्कृत में विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं। वर्तमान में जयपुर के विद्वान पं. जयचंद जी छाबड़ा ने आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका का ढुंढारी भाषा में अनुवाद किया। आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीका का नाम ‘‘आत्मख्याति’’ है। इसकी कई हिन्दी टीकाएँ प्रकाशित हुई हैं, किन्तु आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका की हिन्दी स्व. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने की है। अब तक दोनों आचार्यों की अलग-अलग टीकाएँ छपती रहीं। कुछ विद्वानों की यह धारणा बनी हुई है कि दोनों आचार्यों की टीका में मतभेद हैं किन्तु इस धारणा को दूर करने के लिए पूज्य माताजी ने दोनों आचार्यों की संस्कृत टीका व उन पर लिखी गई अपनी ज्ञान ज्योति नाम से हिन्दी टीकाएँ एक साथ इस कृति में प्रकाशित की है। समयसार पूर्वार्ध में पाँच अधिकार है-१. जीवाजीवाधिकार २. कर्तृकर्म अधिकार ३. पुण्य पाप अधिकार ४. आश्रव अधिकार ५. संवर अधिकार। आवश्यकतानुसार स्पष्टीकरण के लिए जगह-जगह भावार्थ-विशेषार्थ भी दिये गये हैं तथा प्रत्येक अधिकार के अंत में सारांश भी दिये हैं, जिनके कारण यह कृति अतिविशिष्ट बन गई है। समयसार पूर्वार्ध में आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार १९२ गाथाओं की तथा आचार्य जयसेन के अनुसार २०१ गाथाओं की टीका छपी है। शेष उत्तरार्ध में प्रकाशित है। दोनों आचार्यों की टीका का हिन्दी अनुवाद एक साथ पहली बार प्रकाशित हुआ है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५१६, माघ शु. ५, ३१ जनवरी १९९० में, पृष्ठ संख्या ६६० है।
२०२. समयसार उत्तराद्र्ध- समयसार उत्तरार्ध में ४ अधिकार हैं-१. निर्जरा अधिकार २. बंध अधिकार ३. मोक्षाधिकार ४. सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार। उत्तरार्ध में आचार्य श्री अमृतचंद्र के अनुसार १९३ गाथा से ४१५ गाथाओं की तथा आचार्य जयसेन के अनुसार २०२ गाथा से ४३६ गाथाओं की टीका की है एवं एक साथ हिन्दी अनुवाद किया है। आत्मख्याति टीका में कलश काव्य का पद्यानुवाद एवं मूल गाथाओं का पद्यानुवाद आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५२१ ,८ अक्टूबर १९९५, शरदपूर्णिमा, हस्तिनापुर, पृष्ठ संख्या ६५६ है।
२०३. प्रवचन निर्देशिका-हस्तिनापुर में वीर सं. २५०४, भादों शुक्ला चतुर्दशी सन् १९७८ में यह पुस्तक तैयार की। पूज्य माताजी के सानिध्य में हस्तिनापुर में वीर सं. २५०४, सन् १९७८ के अक्टूबर माह में शांतिवीर सिद्धांत संरक्षिणी सभा व दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में एक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था। शिविरार्थियों को प्रवचनकला का शिक्षण देने के लिए माताजी ने शिविर से पूर्व यह पुस्तक मात्र दो माह में लिखकर तैयार कर दी। इसमें ६५ ग्रंथों से संकलन है। प्रवचनकत्र्ताओं के अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०४, अक्टूबर १९७८ में, पृष्ठ संख्या २२८ है।
२०४. जैन भारती- हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर नि. सं. २५०१, माघ सुदी पंचमी, रविवार सन् १९७५ में जैन भारती ग्रंथ पूर्ण किया। पूज्य माताजी ने अपने दीक्षित जीवन में सैकड़ों ग्रंथों का अध्ययन, स्वाध्याय किया है, उनमें से साररूप यह ग्रंथ माताजी ने लिखा है। इसमें एक-एक अनुयोग के विषय प्रारंभ से अंत तक संक्षेप में दिये हैं। चार खण्डों में चार अनुयोगों को बहुत ही सुगम शैली में प्रतिपादित किया है। जैनधर्म का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन एवं जैनेतर सभी के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या २४४ है।
२०५. नियमसार पद्यावली- हस्तिनापुर में वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में, आचार्य कुन्दकुन्दकृत आध्यात्मिक ग्रंथ नियमसार की १८७ गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद माताजी ने किया है। इसमें मूल गाथाएँ, पद्यानुवाद तथा गाथाओं के नीचे संक्षेप में अर्थ भी दिया है। अध्यात्म रस का आनन्द लेने के लिए पद्यानुवाद सुरुचिकर है। प्रत्येक अधिकार के अंत में सारांश भी दिये हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, अक्टूबर १९८० में, पृष्ठ संख्या ११२ है।
२०६. ज्ञानामृत-हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप स्थल पर आश्विन शुक्ला पूर्णिमा वीर सं. २५१४, सन् १९८८ में इस ग्रंथ को लिखकर पूर्ण किया। अनेकों ग्रंथों का सार सरलता से इस ग्रंथ में दिया गया है। ग्रंथ का सम्पूर्ण विषय आचार्य प्रणीत शास्त्रों के आधार से लिया गया है। गूढ़ तत्वों को सरलता से समझने के लिए यह ग्रंथ अति उपयोगी है। नित्य स्वाध्याय के लिए अच्छा गं्रथ है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, मई १९८९ में, पृष्ठ संख्या ३६८ है।
२०७. आलाप पद्धति-(इंदौर से प्रकाशित)-सनावद (म.प्र.) वीर सं. २४९३, सन् १९६७ के चातुर्मास में आचार्य श्री देवसेन विरचित ‘आलाप पद्धति’ का माताजी ने हिन्दी अनुवाद किया है। इसमें नयों का बहुत सुन्दर एवं सरल ढंग से विवेचन किया है। प्रकाशन-वीर सं. २४९४, १० जनवरी १९६८, पृष्ठ संख्या ४८ है।
२०८. महावीर देशना- भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती वर्ष के अन्तर्गत पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने दिल्ली में वीर नि. संवत् २५२७, नवम्बर २००१ में इस ग्रंथ को लिखा है। वीर सं. २५२९, सन् २००३ में कुण्डलपुर के प्रथम पंचकल्याणक महोत्सव में ग्रंथ का विमोचन हुआ। इस ग्रंथ में ९ अधिकारों में भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान कल्याणक, भगवान महावीर का समवसरण, प्रथम दिव्यध्वनि, द्वादशांग, गौतम स्वामी परिचय, चौबीस तीर्थंकर, दिगम्बर जैन मुनिचर्या, मुनियों के भेद-प्रभेद वर्षायोग, आर्यिका चर्या, श्रावकचर्या, सोलहकारण भावना, दशलक्षण धर्म आदि का वर्णन है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२९, माघ शुक्ला ७, ८ फरवरी २००३, पृष्ठ संख्या ५६८ है।
२०९. द्रव्य संग्रह-वीर सं. २५०२, मास शुक्ल वैशाख अक्षय तृतीया, सन् १९७६ में इस ग्रंथ का गद्य, पद्य में अनुवाद किया। इसके मूलकत्र्ता आचार्यश्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती हैं। इसमें प्राकृत भाषा में रचित ५८ श्लोक है। पूज्य माताजी ने प्राकृत श्लोकों का सरल हिन्दी में पद्यानुवाद तथ संक्षेप में प्रत्येक श्लोक का अर्थ व भावार्थ भी दिया है। परीक्षालयों के पाठ्यक्रमों में इसे रखा गया है। विद्यार्थियों के लिए सहज पठनीय व स्मरणीय है। प्रथम संस्करण वीर सं.२५०२, सन् १९७६, पृष्ठ संख्या ४४ है।
२१०. समाधितंत्र- इष्टोपदेश-वीर सं. २५०२, ज्येष्ठ वदी सप्तमी, सन् १९७६ में इस ग्रंथ का पद्यानुवाद किया। आचार्य पूज्यपादकृत इन दोनों ग्रंथों का इसमें मूल श्लोकों सहित पद्यानुवाद दिया गया है। समाधितंत्र में १०५ श्लोक तथा इष्टोपदेश में ५१ श्लोक हैं। प्रारंभ में अध्यात्म प्रवेश के लिए ये ग्रंथ अति सुगम हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०२ सन् १९७६ में, पृष्ठ संख्या ४० है।
२११. कुन्दकुन्द मणिमाला- वीर सं. २५१४, सन् १९८८ में यह पुस्तक लिखी। आचार्य श्री कुन्दकुन्द कृत समयसार आदि ९ ग्रंथों में से भक्तिपरक एवं निश्चय व्यवहार समन्वयपरक १०८ गाथाओं को लेकर उनका अर्थ एवं विशेषार्थ दिया गया है। पुस्तक के अंत में श्लोकों हिन्दी का पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५१६, जनवरी १९९० में किया गया। पृष्ठ संख्या १५० है।
२१२. कुन्दकुन्द के भक्तिप्रसून-भक्तिमार्ग सुगम है। भक्तिपाठ में तन्मयता आती है। भक्तियों का पाठ सभी वर्ग के लिए लाभप्रद है। आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि महोत्सव के पावन प्रसंग पर उन्हीं की रचित भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद सहित प्रकाशन करवाकर माताजी ने उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, अप्रैल १९८९ में, पृष्ठ संख्या ४८ है।
२१३. अनादि जैनधर्म- भगवान जिनेन्द्र के द्वारा प्रतिपादित धर्म को जैनधर्म कहते है। जैनधर्म प्राणीमात्र का धर्म है। इसे तो पशु-पक्षियों तक ने धारण किया है। संसार का प्रत्येक मनुष्य इसे धारण कर सकता है। इसलिए माताजी ने यह छोटी सी पुस्तक लिखी है। जैनधर्म का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत अच्छी पुस्तक है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, जुलाई १९८४ में, पृष्ठ संख्या ४४ है। इसका अंग्रेजी में अनुवाद श्री रजनीश जैन, मॉडल बस्ती-दिल्ली ने किया है। इसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५२५ सन् १९९९ में छप चुका है।
२१४. अप्रकाशित ग्रंथ – लघीयस्त्रयादि संग्रह- श्री अकलंकदेव ने इसमें प्रमाण, नय और प्रवचन इन तीन विषयों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। इसमें इन्हीं आचार्य देव की स्वोपज्ञविवृत्ति नाम से टीका का भी हिन्दी अनुवाद किया है। श्री अभयनंदिसूरि ने इस पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इन दोनों टीकाओं का उसमें अनुवाद है।
२१५. अष्टसहस्रीसार- अष्टसहस्री ग्रंथ के जो मुख्य-मुख्य विषय आये हैं, उनको सार रूप में इसमें दिया गया है, ऐसे ये त्रेसठ सारांश है। जैसे-नैयायिक ने शब्द को आकाश का गुण अमूर्तिक माना है, जैनाचार्य ने इसका खंडन करके शब्द को पुद्गल की पर्याय होने से मूर्तिक सिद्ध किया है।
२१६. आप्तमीमांसा- इसमें श्रीसमंतभद्र स्वामी ने आप्त को न्याय की कसौटी पर कसकर सच्चे देव सिद्ध किया है। इसमें ११४ कारिकाओं का अन्वयार्थ, पद्यानुवाद, अर्थ और भावार्थ भी दिया गया है।
२१७. भावसंग्रह- श्री वामदेव पंडित ने संस्कृत में इस ग्रंथ को रचा है। इसमें औपशमिक आदि पाँच प्रकार के भावों का चौदह गुणस्थानों में विवेचन है। विशेषकर पाँचवें गुणस्थान के वर्णन में श्रावकों की पूजा, दान आदि क्रियाओं का अच्छा विवेचन है। विधिपूर्वक देवपूजा को ही श्रावक की सामायिक क्रिया कहा है। इसका अनुवाद माताजी ने सन् १९७३ में किया था। एक प्रकार से यह बहुत ही सुन्दर श्रावकाचार है।
२१८. नियमसार कलश-नियमसार श्री कुन्दकुन्ददेवकृत है। इसकी टीका श्रीपद्मप्रभमलधारी देव नाम के आचार्य ने की है। इस टीका में बहुत ही सुंदर पद्य आये हैं। उन्हें लेकर ‘नियमसार कलश’ नाम देकर माताजी ने हिन्दी अर्थ किया है। सन् १९७६ में यह अनुवाद हुआ है।
२१९. जैनेन्द्र प्रक्रिया पूर्वाद्र्ध-श्री पूज्यपाद स्वामीकृत ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ के सूत्रों पर श्री गुणनंदि आचार्य ने ‘जैनेन्द्र प्रक्रिया’ नाम से टीका रची है। इसको संघ में माताजी ने मुनियों-आर्यिकाओं आदि को पढ़ाया था। सन् १९७५ में हस्तिनापुर में माताजी ने इसका अनुवाद किया है।
२२०. द्रव्यसंग्रहसार-श्री नेमिचन्द्राचार्य रचित द्रव्यसंग्रह का माताजी ने पद्यानुवाद किया था, उनके साथ ही कुछ विशेष विस्तार करके यह ‘द्रव्यसंग्रहसार’ पुस्तक लिखी है।
२२१. तत्त्वार्थसूत्र एक अध्ययन- श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर यह विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ के आधार से है।
२२२. समयसार का सार- श्री कुन्दकुन्ददेव विरचित समयसार का सार रूप यह नवनीत माताजी द्वारा लिखा गया है। इसको पढ़कर यदि समयसार का स्वाध्याय करेंगे, तो बहुत ही सुगमता रहेगी। अत: यह समयसार की कुंजी ही है।
२२३. ध्यान साधना-इसमें ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों के आधार से पिण्डस्थ ध्यान का वर्णन है। पिण्डस्थ ध्यान की पार्थिवी आदि धारणाओं के एवं ह्री ँ के ध्यान हेतु चित्र भी दिये गये हैं।
२२४. अध्यात्मसार-परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथों के आधार से इसमें आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अच्छा विवेचन है, अत: इसका अध्यात्मसार यह नाम सार्थक है।
२२५. षट्खण्डागम सिद्धान्तचिंतामणिटीका समन्वित-पुस्तक ३
२२६. ’’ ’’ ’’ -पुस्तक ४
२२७. ’’ ’’ ’’ -पुस्तक ५
२२८. ’’ ’’ ’’ -पुस्तक ६
२२९. ’’ ’’ ’’ -पुस्तक ७
२३०. ’’ ’’ ’’ -पुस्तक ८
२३१. षट्खण्डागम सिद्धान्तचिंतामणिटीका समन्वित-पुस्तक ९