पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा
प्रणीत समग्र ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय
(चतुरनुयोगों के क्रमानुसार)
प्रस्तुति-पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी प्रथमानुयोग (उपन्यास/बाल साहित्य)
१. मेरी स्मृतियाँ –राजधानी दिल्ली में वीर सं. २५०८ सन् १९८२ में इसे लिखना प्रारंभ किया। हस्तिनापुर मेें वीर सं. २५०९ सन् १९८३ में लिखकर पूर्ण किया। संघ के शिष्य-शिष्याओं तथा समाज के वरिष्ठ श्रेष्ठी, विद्वान् एवं कार्यकर्ताओं के विशेष आग्रह पर पूज्य माताजी ने अपने दीर्घ जीवन की आत्मकथा लिखी है। यह एक श्रमसाध्य कार्य था, भूली बिसरी स्मृतियों को याद कर उन्हें लिपिबद्ध करना और वह भी पाठकों की दृष्टि से। इसे लिखते समय माताजी के मस्तिष्क पर बहुत जोर पड़ा। इस ग्रंथ में अपने बाल्यकाल से (सन् १९४०) से सन् २००४ तक की घटनाओं को तो दर्शाया ही है। साथ ही देशकाल की परिस्थितियों पर भी दृष्टिपात किया है। यह केवल आत्मकथा का ग्रंथ ही नहीं है अपितु विगत ६०-६५ वर्षों का दिगम्बर जैन समाज का इतिहास है। इन विगत वर्षों में हुई विशेष घटनाओं को भी अपने अनुभवों के आधार पर अंकित किया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१६, अप्रैल १९९० में पुन: आगे की स्मृतियों सहित सन् २००४ में प्रकाशित हुआ है।
२. भगवान ऋषभदेव का समवसरण- वीर सं. २५२३, सन् १९९७ में इस पुस्तक को लिखा। इसमें पूज्य माताजी ने महापुराण, हरिवंशपुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों के आधार से भगवान ऋषभदेव के समवसरण का सुन्दर वर्णन किया है। माताजी ने समवसरण का वर्णन आगम से पढ़कर ही समवसरण का सुन्दर रथ बनवाकर उसका श्रीविहार भारतदेश में कराया। प्रथम संस्करण-वीर सं. २४२४, चैत्र शुक्ला तेरस, महावीर जयंती, ९ अपैल १९९८, पृष्ठ सं. ४४ है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद डॉ. एस. बाया ने किया है। इसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५२५ सन् १९९९ में छप चुका है।
३. तीर्थंकर ऋषभदेव के दश अवतार-वीर सं. २५२५ सन् १९९९ में पूज्य माताजी ने यह पुस्तक लिखी, इसमें भगवान ऋषभदेव कैसे बने? उनके पूर्व के दश भवों का वर्णन किया है। राजा महाबल की पर्याय से उनके जीवन का उत्थान प्रारंभ हुआ पुन: ललितांग देव, राजा वङ्काजंघ, भोगभूमि आर्य, श्रीधरदेव, सुविधि राजा, अच्युतेन्द्र, वज्रनाभि चक्रवर्ती, सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र आदि भवों का वर्णनकर भगवान ऋषभदेव के पंचकल्याणक का वर्णन किया है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२५, रक्षा बंधन पर्व २६ अगस्त १९९९, पृ. सं. ७२ है।
४. भगवान महावीर कैसे बने- भगवान महावीर स्वामी की जीवनी-पुरुरवा भील से महावीर बनने तक का विवरण संक्षेप में बहुत ही सुगम शैली में दिया गया है। भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर वीर सं. २५००, सितम्बर १९७४ में इस पुस्तक के प्रथम संस्कार का प्रकाशन किया गया। पृष्ठ संख्या ४० है।
५. चौबीस तीर्थंकर-दिल्ली लाल मंदिर में भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण उत्सव पर वीर सं. २५०० सन् १९७४ में यह पुस्तक लिखी। चौबीस तीर्थंकरों का अलग-अलग संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत पुस्तक में दिया गया है। प्रत्येक तीर्थंकरों की पूर्व पर्याय से आगमन, पाँच कल्याणकों के स्थान, तिथियाँ आदि दी गई हैं। तीर्थंकरों के जीवन की लगभग सभी प्रमुख घटनाएँ प्रत्येक परिचय में एक ही पुस्तक में माताजी ने संगृहीत कर दी है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०५, सन् १९७९ में, पृष्ठ संख्या ८८ है।
६. भगवान बाहुबली –भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोला के पावन प्रसंग पर भगवान बाहुबली की जीवन गाथा तथा ५७ फुट ऊँची अति मनोज्ञ प्रतिमा का प्रत्यक्ष या परोक्ष दर्शन का आनन्द प्राप्त कराने के लिए यह पुस्तक तैयार की गई। इसमें १११ पद्यों में बाहुबली लावणी तथा गद्य में जीवन चरित्र दिया गया है। दोनों रचनाएँ पूज्य माताजी कृत हैं। बाहुबली लावणी का सृजन वीर सं. २४९१, सन् १९६५ में श्रवणबेलगोला में साक्षात् बाहुबली की प्रतिमा के समक्ष बैठकर माताजी ने किया था। वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में इसी लावणी को संगीतबद्ध करके ७ सप्ताह तक आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित किया गया था, जिसका शीर्षक था ‘‘पाषाण बोलते हैं।’’ प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, मार्च १९८०, पृष्ठ संख्या ५६ है।
७. भगवान वृषभदेव- जैन संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर युग प्रवर्तक देवाधिदेव भगवान आदिनाथ का जीवन वृत्त-पाँचों कल्याणक तथा उनके पूर्व भव इस उपन्यास में दिये गये हैं। पुस्तक छोटी होते हुए भी सारगर्भित है। पूज्य माताजी की अपनी यह एक विशिष्ट शैली है कि पुस्तक छोटी हो या बड़ी, पूजाएं हों या स्वाध्याय के ग्रंथ, सभी में सुगमता से जैनधर्म के चारों अनुयोगों का समावेश कर देती हैं। माताजी द्वारा लिखी प्रत्येक पुस्तक को पढ़ने से जीवन जीने की कला प्राप्त होती है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ७० है।
८. भगवान नेमिनाथ-इसमें हरिवंशपुराण के आधार से पूज्य माताजी ने भगवान नेमिनाथ का जीवन चरित्र उपन्यास शैली में प्रस्तुत किया है। पूज्य माताजी ने ‘नेमि निर्माण काव्य’ के आधार से भी भगवान नेमिनाथ के पूर्वभवों का वर्णन किया है। इसमें तीर्थंकरों की एक विशेषता बताई है कि उन्होंने पूर्व भवों में अनेकों व्रत किए। इसमें पूज्य माताजी ने ३०-३५ व्रतों को लिखा है। जैसे-सर्वतोभद्र, वसन्त भद्र, सिंह निष्क्रीडित, मेरुपंक्तिव्रत आदि। इसमें उत्तरपुराण और निर्वाणकाण्ड का भी आधार लिया है।
९. अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर- वीर सं. २५२७ सन् २००१ में भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती वर्ष के अन्तर्गत यह पुस्तक लिखी। इसमें भगवान महावीर स्वामी का परिचय एवं उनके पंचकल्याणकों का वर्णन है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२६, आश्विन शु. ५, २१ अक्टूबर २००१, पृष्ठ संख्या १६ है।
१०. भगवान पार्श्वनाथ-भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में वीर सं. २५३० सन् २००४ में यह पुस्तक लिखकर तैयार की। इस पुस्तक में भगवान पार्श्वनाथ का परिचय एवं उनके दशभवों का वर्णन है। इसके साथ ही तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास की आवश्यकता, तीर्थंकर जन्मभूमि वंदना भी लिखी है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५३०, श्रावण शुक्ला सप्तमी सन् २००४, पृष्ठ संख्या ७२ है।
११. भगवान महावीर-भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में वीर सं. २००३ में यह पुस्तक तैयार की । इसमें भगवान महावीर स्वामी का परिचय, जन्मभूमि कुण्डलपुर, भगवान महावीर के पाँचों कल्याणक एवं भगवान महावीर के पूर्व के १० भवों का भी वर्णन है। इसके साथ ही भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर एक वास्तविक तथ्य आदि कई लेख एवं वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों के नाम हैं। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५३०, माघ शु. ११, १ फरवरी २००४, पृष्ठ संख्या १५४ है।
१२. श्री ऋषभदेव जन्मभूमि अयोध्या-ऋषभ जन्मभूमि अयोध्या में वीर सं. २५१९, सन् १९९३ में पूज्य माताजी ने यह पुस्तक लिखी। वर्तमान में युग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने जन्म लेकर यहीं से धर्म की परम्परा को प्रवर्तित किया है। अतएव उनका परिचय देते हुए अन्य तीर्थंकरों का, भरत आदि चक्रवर्तियों का तथा श्रीरामचन्द्र आदि महापुरुषों का भी संक्षिप्त परिचय इस पुस्तक में दिया गया है। वर्तमान में जैन-जैनेतर लोग तथा अपने भारतवर्ष के ही नहीं विदेशों के लोग भी ‘ऋषभ जन्मभूमि’ के नाम से भी इस अयोध्या का महत्व समझे, इसी भावना से पूज्य माताजी ने यह ‘श्री ऋषभ जन्मभूमि अयोध्या’ पुस्तक लिखी है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५१९, आश्विन शु. १५, शरदपूर्णिमा, ३० अक्टूबर १९९३, पृष्ठ संख्या ५६ है।
१३. जैनधर्म एवं भगवान ऋषभदेव-वीर सं. २४२४, सन् १९९८ में भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार के अवसर पर यह पुस्तक लिखी। इसमें तीर्थंकर ऋषभदेव के बारे में वर्णन है, जो करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास का स्मरण कराता है। जैनधर्म के कर्मसिद्धान्त, सृष्टि रचना, तीर्थंकरों के पंचकल्याणक, जैनधर्म की उदारता आदि का भी संक्षिप्त वर्णन है तथा भगवान ऋषभदेव के पुत्र सम्राट् चक्रवर्ती भरत के नाम पर हमारे इस देश का ‘भारत’ नाम विभिन्न वेदपुराणों के माध्यम से सिद्ध किया है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२५ वैशाख कृष्णा २, २ अप्रैल १९९९ पृष्ठ संख्या १६ है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद पूज्य आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है। जिसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५२६, ४ फरवरी २००० में छप चुका है।
१४. तीर्थंकर जीवन दर्शन –वीर सं. २५२७, सन् २००१ भगवान महावीर स्वामी के २६०वें जन्मजयंती महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत इस पुस्तक को लिखा। इस पुस्तक में चौबीस तीर्थंकरों के संक्षिप्त परिचय प्रदान किए हैं, जिसमें उनके पंचकल्याण तिथि, पंचकल्याणक स्थान के साथ-साथ तीर्थंकरों के माता-पिता, चिन्ह, वर्ण, देहवर्ण, आयु, अवगाहना आदि का वर्णन है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५२७, श्रावण शु. १५, रक्षाबंधन पर्व ४, अगस्त २००१, पृ. सं. ३२ है।
१५. तीर्थंकर महावीर और धर्मतीर्थ-भगवान महावीर के पच्चीस सौंवे निर्वाण महोत्सव के पावन प्रसंग पर भगवान महावीर के जीवन चरित्र एवं जैनधर्म का जन-जन को परिचय प्रदान कराने के लिए यह छोटी सी पुस्तक लिखी थी। बड़ी संख्या में इसका प्रकाशन हुआ। प्रथम संस्करण वीर सं. २५००, सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या १६ है। इसका अंग्रेजी में ब्र. कु. स्वाति जैन ने अनुवाद किया है, जो कि छप चुका है।
१६. प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज-बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के १३१वें संयम वर्ष (२००३-२००४) के अवसर पर इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इसमें महाराज के जीवन चरित्र का वर्णन है, जिन्होंने बीसवीं सदी में जन्म लेकर धरती पर लुप्त प्राय हो रही मुनि परम्परा को पुनरुज्जीवित किया था तथा जिन्होंने वास्तव में शान्ति के सागर बनकर समस्त प्राणियों को शान्ति का उपदेश प्रदान किया था। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५३०, आषाढ़ कृष्णा षष्ठी, ७ जून २००४, पृष्ठ संख्या ८० है।
१७. बाल विकास (भाग-१)-जैनधर्म का प्रारंभिक ज्ञान अर्जन करने के लिए इस सचित्र पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५००, सन् १९७४ में हुआ। पृ. संख्या २० है। इसका अंग्रेजी अनुवाद श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ‘ठेकेदार’-दिल्ली ने किया है, जो कि छप चुका है।
१८. बाल विकास (भाग-२)-इसके प्रथम भाग की शृँखला में और आगे का ज्ञान अर्जन कराने के लिए दूसरे भाग का प्रकाशन हुआ था। प्रथम संस्करण वीर सं. २५००, सन् १९७४ है। पृष्ठ संख्या ३६ है। इसका भी अंग्रेजी अनुवाद श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार ने किया है, जो कि शीघ्र प्रकाशनाधीन है।
१९. बाल विकास (भाग-३)-इसके दो भागों की शृँखला को आगे बढ़ाते हुए इसका तीसरा भाग प्रकाशित किया गया। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०१, सन् १९७५। पृष्ठ संख्या ६४ है।
२०. बाल विकास (भाग-४)-ज्ञानार्जन की श्रेणी को आगे बढ़ाते हुए इस चौथे भाग का प्रकाशन किया गया। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०२, सन् १९७६, पृष्ठ संख्या ८० है। नोट-इन चार भागों को पढ़कर कोई भी विद्यार्थी/पाठक जैनधर्म के अच्छे ज्ञाता बन सकते हैं। बाल विकास के चारों भाग कन्नड़, मराठी, गुजराती, तमिल भाषा में भी छप चुके हैं।
२१. जैन बाल भारती (भाग-१)-जैन परम्परा में सुप्रसिद्ध महापुरुषों की जीवनी से संबंधित १७ शिक्षास्पद कथानक इस पुस्तक में दिये गये हैं, जो कि रोचक व सुगम हैं। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५०८ जनवरी १९८२ में, पृष्ठ संख्या ५२ है।
२२. जैन बाल भारती (भाग-२)-इस भाग में १४ कथानक है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५०८, जनवरी १९८२ में पृष्ठ संख्या ५६ है।
२३. जैन बाल भारती (भाग-३)-इस भाग में १३ कथानक हैं। प्रथम संस्करण का प्रकाशन वीर सं. २५०८, जनवरी १९८२ में, पृष्ठ संख्या ७२ है।
२४. नारी आलोक (भाग-१)-इस पुस्तक में प्रश्नोत्तर के माध्यम से अनेक विषयों का एवं इतिहास प्रसिद्ध महिलाओं एवं महापुरुषों के जीवन वृत्त का बोध कराया गया है। २५ लेख हैं प्रत्येक लेख रोचक एवं प्रेरणास्पद हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०८, सन् १९८२ में, पृष्ठ संख्या ७५ है।
२५. नारी आलोक (भाग-२)-प्रथम भाग की तरह दूसरे भाग में भी २४ लेख हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों को सुगम भाषा में प्रश्नोत्तर के माध्यम से खोला गया है तथा कुछ में कथाएँ भी दी गई हैंं। लेख आबाल-गोपाल, स्त्री-पुरुष सभी के पढ़ने योग्य हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०८, सन् १९८२ में, पृष्ठ संख्या १०६ है।
२६. भरत बाहुबली (चित्र कथा)-बालक-बालिकाओं को भगवान भरत बाहुबली की जीवन का सुगमता से परिचय कराने के लिए चित्रों के माध्यम से कथा लिखी, जो कि अति आधुनिक शैली में है। इसका प्रकाशन नवभारत टाइम्स से प्रकाशित होने वाले इन्द्रजाल कामिक्स की शृँखला नं ३६८ में वीर सं. २५०७, फरवरी १९८१ में भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महोत्सव के पावन अवसर पर हिन्दी व अंग्रेजी में किया गया। इसका अंग्रेजी में अनुवाद शीना जैन ने किया है।
२७. ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर –हस्तिनापुर में वीर सं. २५०० भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव पर ज्येष्ठ शु. दशमी, गुरुवार को यह कृति पूर्ण किया। हस्तिनापुर की ऐतिहासिक घटनाओं का इस पुस्तक में शास्त्रों के आधार से संक्षेप में उल्लेख किया है। इस तीर्थक्षेत्र पर वर्तमान में उपलब्ध मंदिरों का भी दिग्दर्शन कराया है। प्रथम संस्करण, वीर सं. २५००, शरदपूर्णिमा सन् १९७४, पृष्ठ संख्या ६० है।
२८. जम्बूद्वीप गाइड-इस लघु पुस्तिका में माताजी ने जम्बूद्वीप को जानने के लिए सरल भाषा में जम्बूद्वीप के चैत्यालय, नदी, पर्वत, क्षेत्र आदि का दिग्दर्शन कराया है। साथ ही जिस पावन भूमि पर भव्य जम्बूद्वीप रचना का निर्माण हुआ है। उसकी प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं का भी अतिसंक्षेप में वर्णन किया है। अंत में जम्बूद्वीप रचना से संबंधित कुछ भजन भी दिये हैं। प्रथम संस्करण वीर सं.२५०७, जनवरी १९८१ में, पृष्ठ संख्या २४ है। इस पुस्तक का अंगे्रजी में अनुवाद श्रीमती राजरानी जैन, मोरीगेट-दिल्ली ने किया है, जिसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५०९, १४ नवम्बर १९८३ में छप चुका है।
२९. संस्कार-वीर सं. २५०१, सन् १९७५ में यह उपन्यास माताजी ने लिखा। इसमें भगवान पार्श्वनाथ का मरुभूति की पर्याय से लेकर पार्श्वनाथ तक १० भवों का कथानक के रूप में वर्णन है। प्रथम संस्करण-वीर सं. २५०७, सन् १९८१, पृष्ठ संंख्या ७२ है।
३०. आटे का मुर्गा-यशोधर चरित्र पर लिखा गया यह उपन्यास हिंसा के दुष्परिणाम को बताने वाला है। आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि करना भी कितने महान् पाप बंध का कारण बना? अति रोमांचक कथानक है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या १४८ है।
३१. जीवनदान-जीव दया पर लिखे गये इस उपन्यास में मृगसेन धीवर द्वारा ली गर्ई छोटी सी प्रतिज्ञा उसे अगले भव में पाँच बार जीवन रक्षा में सहकारी होती है। इस घटना को बहुत ही सरल भाषा में प्रदर्शित करता है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७ सन् १९८१ में, पृष्ठ ३६ है। इस पुस्तक पर श्रीमती राजरानी जैन, मोरीगेट-दिल्ली ने अंग्रेजी अनुवाद किया है, जिसका प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, १६ मार्च १९८४ में छप चुका है।
३२. उपकार- वीर सं. २५०३, सन् १९७७ में यह उपन्यास लिखा। जीवंधर कुमार के जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाने वाला यह उपन्यास सुकृत की महिमा को प्रकट करता है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१, पृष्ठ संख्या ६० है।
३३. परीक्षा-वीर सं. २५०४, सन् १९७९ में यह उपन्यास लिखा। पद्मपुराण के आधार से उपन्यास की शैली में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी एवं सीताजी का जीवनवृत्त इसमें है। पृष्ठ संख्या १६० है।
३४. प्रतिज्ञा-हस्तिनापुर में वीर सं. २५०३ सन् १९७७ में ‘‘मनोवती की दर्शन कथा’’ के आधार पर लिखा हुआ यह रोमांचक उपन्यास है। पृष्ठ संख्या १२८ है।
३५. भक्ति-वीर सं. २५०६, सन् १९८० में यह पुस्तक लिखी है। यह भी उपन्यास है, जिसमें सेठ सुदर्शन, महामुनि सुकुमाल, रक्षाबंधन एवं अंजन चोर की कथाएँ हैं। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ मेंं, पृष्ठ संख्या १०६ है।
३६. प्रभावना- इस उपन्यास में अकलंक-निकलंक का जीवन-वृत्त दिया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, सन् १९८० में, पृष्ठ संख्या ८० है।
३७. योगचक्रेश्वर बाहुबली- वीर सं. २५०५, सन् १९७९ में यह पुस्तक लिखी। भगवान बाहुबली की जीवनी एवं श्रवणबेलगोला की प्रतिमा निर्माण का रोचक प्रसंग उपन्यास की शैली में निरूपित है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०६, सितम्बर १९८० में, पृष्ठ संख्या ११५ है।
३८. कामदेव बाहुबली-वीर सं. २५०६, सन् १९८० में यह पुस्तक लिखी। भगवान बाहुबली जिन्होंने जीतकर भी अस्थिर राज्य संपदा का त्याग कर इस भारत भूमि पर एक महान् परम्परा का बीजारोपण किया, जिसका भारत के शासक आज भी अनुकरण कर रहे हैं, उनका प्रेरणास्पद कथानक इस छोटे से उपन्यास में अवतरित किया है। यह उपन्यास हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, कन्नड़ एवं मराठी भाषाओं में प्रकाशित किया गया। वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक महोत्सव श्रवणबेलगोला के अवसर पर। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में, पृष्ठ संख्या ३९ है।
३९. आदिब्रह्मा-वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में यह पुस्तक लिखी। जैन संस्कृति के वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का चरित्र संक्षेप में दिया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ में, पृष्ठ १६४ है।
४०. पतिव्रता-उपन्यासों की शृँखला में यह भी अपना विशेष महत्व रखता है। अपने कोढ़ी पति कोटिभट श्रीपाल का एवं उसके सैकड़ों योद्धा साथियों का कुष्ठ रोग दूर करने वाली शील शिरोमणि मैना सती को जैन समाज का ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो न जानता हो। जिसने सिद्धचक्र विधान रचाकर भगवत् भक्ति के प्रभाव के अभिषेक का गंधोदक लगाकर महारोग को दूर किया। अतिरोमांचक कथानक है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या ९२ है।
४१. एकांकी प्रथम भाग –इसमें तीन कथानक लघु नाटिकाओं के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। (१) दृढ़सूर्य चोर एवं णमोकार महामंत्र का प्रभाव (२) अहिंसा की पूजा (यमपाल चांडाल की दृढ़ प्रतिज्ञा) (३) सती चंदना। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०९, अक्टूबर १९८३ में, पृष्ठ ४८ है।
४२. एकांकी द्वितीय भाग- इसमें भी तीन कथानक लघु नाटिकाओं के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं-(१) तीर्थंकर ऋषभदेव (२) अकाल मृत्यु विजय (पोदनपुर नरेश विजय महाराज (३) प्रत्युपकार पूर्व भव में राजा मेघरथ के रूप में भगवान शांतिनाथ। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, अक्टूबर १९८४, पृष्ठ संख्या ६४ है।
४३. सती अंजना-जैन जगत में सती अंजना का नाम सुपरिचित है। इस उपन्यास में अंजना की जीवनी अति सुंंदर एवं आकर्षक शैली में लिखी की गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१४, सन् १९८८ में, पृष्ठ संख्या १२८ है।
४४. जैन महाभारत-विश्व विख्यात कौरव-पाण्डवों की जीवन कथा जैन पाण्डव पुराण में विस्तार से दी गई है, उसी को संक्षिप्त सरल एवं सुबोध शैली में इस उपन्यास में दिया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१५, २५ दिसम्बर १९८९ में, पृष्ठ संख्या ८० है।
४५. भरत का भारत-वीर सं. २५०९ सन् १९८३ में यह पुस्तक लिखी। भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) के ज्येष्ठ पुत्र भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, जो कि इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए एवं अंत में दैगम्बरी दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया, उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१८ अक्टूबर १९९२ में, पृष्ठ संख्या २६० है।
४६. रोहिणी नाटक-वीर सं. २५०२, सन् १९७६ में यह नाटक लिखा। महारानी रोहिणी जो कि महाराजा अशोक की पत्नी थी, जिसके पुण्य का इतना प्रबल उदय था कि उसे यह भी मालूम नहीं था कि रोना किसे कहते हैं? उसने ऐसे महान पुण्य का बंध रोहिणी व्रत करके किया था, उस व्रत की महिमा इस नाटक में दिखाई गई है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१, पृष्ठ ७२ है।
४७. बाहुबली नाटक-भगवान बाहुबली का जीवन चरित्र तथा उनकी प्रतिमाओं के निर्माण का इतिहास, विशेषकर कर्नाटक प्रदेश में श्रवणबेलगोला fिस्थत ५७ फुट उँâची प्रतिमा के निर्माण का इतिहास इस लघुकाय पुस्तक में नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रथम संस्करण वीर सं. २५०७, सन् १९८१ में पृष्ठ संख्या ७२ है।
४८. पुरुदेव नाटक-भगवान ऋषभदेव के परम पावन जीवनवृत्त को प्रदर्शित करने वाले इस नाटक का प्रकाशन भी महोत्सव के शुभ अवसर पर किया गया। प्रथम संस्करण वीर सं. २५१०, सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या १२२ है।
अप्रकाशित ग्रंथ ४९. ‘ऐतिहासिक आर्यिकाएँ-इसमें आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों के आधार से ब्राह्मी-सुन्दरी आदि लगभग २७ महान्-महान् आर्यिकाओं का सुंदर वर्णन है।
५०. रोहिणी कथा-‘बृहत्कथाकोश’ संस्कृत पुस्तक से इस कथा का हिन्दी अनुवाद है। यह अच्छी रोचक कथा है।
५१. बोध कथाएँ-इसमें संक्षेप में कतिपय पौराणिक लघु कथाएँ दी गई हैं। कुछ संस्कृत में रचित लघु कथाएँ भी हैं।
५२. समवसरण-तिलोयपण्णत्ति के आधार से तीर्थंकर भगवान के समवसरण का इसमेेंं संक्षिप्त वर्णन है। आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि ग्रंथों के आधार भी लिए गए हैं।