‘गन्धोदक’ शब्द का सामान्यत: अर्थ होता है ‘सुगन्धित जल’ ; किन्तु जैन-परमपरा में यह शब्द एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है, जिसके अनुसार इसके सामान्य अर्थ का अभिप्राय सुरक्षित रखते हुये भी उसमें विशेष अर्थगौरव किया गया है तथा ‘भगवान् के अभिषेक से वावन एवं सुगन्धित जल’ के रूप में इसे जाना जाता है। इसके भी दो अलग-अलग सन्दर्भ हैं, एक तो बाल तीर्थंकर के जन्माभिषेक के जन को भी ‘गन्धोदक’ कहा गया है; और दूसरे सन्दर्भ में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा की दैनिक ‘शुद्धि’ या ‘प्रक्षालन’ के लिए जो जल प्रयोग होता है, जिनेन्द्र प्रतिमा के संस्पर्श के पावन हुये एस जल को भी ‘गन्धोदक’ संज्ञा प्रयुक्त हुई है। यहाँ एक जिज्ञासा संभव है कि तीर्थंकर के समवशरण-निर्माण एवं विहार आदि के अवसरों पर देवगण जिस ‘गन्धोधक’ की वृष्टि करते हैं, तथा जिसे तीर्थंकरों के अतिशयों में परिगणित किया गया है; वह ‘गन्धोधक’ उपर्युक्त दोनों सन्दर्भों में से कौन-सा होता है ? इसका समाधान यह है कि वह इन दोनों से भिन्न सामान्य अर्थवाला ‘दिव्य सुगन्धित जल’ ही होता है; क्योंकि जिनेन्द्र परमातमा के अभिषेक के गन्धोदक को इतस्तत: विखरने के रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है। जबकि तीर्थंकर के अतिशयों में परिगणित ‘गन्धोदक’ की तो देवगण पर्यावरण-शुद्धि की दृष्टि से वृष्टि करते हैं। कहा गया है-
जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक या प्रक्षाबल से निर्मित ‘गन्धोदक’ की महिमा जैन-वाङ्मय में व्यापक रूप से गायी गयी है। कतिपय स्थल द्रष्टव्य हैं – (1.) भगवज्जिनसेनाचार्य ‘महापुराण’ में लिखते हैं –
‘‘माननीया मुनीन्द्राणां जगतामेकपावनी ।
साव्याद् गन्धाम्बुधारास्मान् या स्म व्योमापगायते ।।’’
महापुराण, १३/१९५
अर्थ –जो मुनीन्द्रों के लिए भी आदरणीय है तथा जो संसार को पवित्रता-प्रदान करने में अनुपम है’ – ऐसी आकाशगंगा के समान प्रतीत होने वाली गन्धाम्बुधारा (गन्धोदक) हमारी रक्षा करे। (2.) प्राकृत-साहित्य में भी ‘गन्धोदक’ का महिमागान करते हुये लिखा है –
‘‘जिणचरण-कमलगंधोएण तणु सिंचिवि कलि-मलु हणिउ जेण ।
संसार महावय-णासणाइं पविहियइं जेण सहु-भावणाइं ।।’’
अर्थ – जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलों के गन्धोदक से जिसने अपने शरीर (शरीर के उत्तमांगों) को संस्पर्शित किया है, उसने कलिमल का नाश दिया है और संसाररूपी महाव्याधी को नष्ट कर अपने हृदय में पवित्र भावनाओं को प्राप्त कर लिया है। (3.) ‘प्रतिष्ठातिलक’ में गन्धोदक की महिमा निम्नाुसार बतायी गयी है –
अर्थ –घातिकर्म-समूह को नष्ट करने से समुत्पन्न अनन्त चतुष्टय एवं केवलज्ञानरूपी ज्योतिवाले वितरागीजिनेन्द्रदेव के पवित्र शरीर के स्पर्श से पावन यह हितकारी एवं मंगलरूप ‘गन्धोदक’ का जल भव्य जीवों के संसाररूपी दु:खों की दावाग्नि को शान्त करें, मुझे (ग्रन्थ-लेखक अथवा गन्धोदक लगाने वाले को) मोक्षलक्ष्मीरूपी फल को प्रदान करे तथा सद्गंध से सुवासित यह जल धर्मरूपी लता की अभिवृद्धि करें। (4.) ‘शान्तिपाठ’ में भी गन्धोदक-वंदन का फल बताते हुये लिखा है –
अर्थ – हे जिनेन्द्र देव ! आपके अभिषेक का गन्धोदक भव्य जीवों को साक्षात् मोक्ष-लक्ष्मीरूपी स्त्री के हाथों से गृहीत जल प्रतीत होता है, पुण्यभावरूपी अंकुर को उत्पन्न करता है, नागेन्द्र-त्रिदिशेन्द्र-चक्रवर्ती आदि पदों पर राज्याभिषेक कराने वाला है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक रत्न्त्रयरूपी लता की संवृद्धि कराता है तथा कीर्ति-समृद्धि एवं विजय का साधक है। (5.) अन्यत्र भी इसकी महिमा लगभग पूर्वोक्त प्रकार से बतायी गयी है –
अर्थ –हे जिनेन्द्र भगवन् । आपके अभिषेक से निर्मित गन्धोदक वन्दन करने वाले भव्य जीव को कीर्ति एवं सकुशलता को करने वाला, उत्कृष्ट बल-प्रदाता, आरोग्य की वृद्धि-कत्र्ता दीर्घायु करने वाला, सदासुख देने वाला, चक्रवर्ती की सम्पत्ति-प्रदाता, विश्वभर की व्याधियों का निवारक, विषज्वर दूर करने वाला, मोक्षरूपी लक्ष्मी का समागम कराने वाला तथा समस्त कर्मों को नष्ट करने वाला उत्कृष्ट जल है। गन्धोदक-प्रदान करते समय निम्नलिखित पद्य बोला जाता है –
अर्थ –जिनकी कृपा से प्रसाद से चरित्ररूपी रत्न की प्राप्ति सरलता से हो जाती है, तथा जिन त्रिलोकगुरु (जिनेन्द्र परमात्मा) के चरणों के प्रमाण करके तीनों कालों में चारित्र पालन करने वाले साधना में प्रवृत्त हुये है, हैं और होंगे – उन्हीं भगवान् जिनेन्द्र का यह गन्धोदक है।
गन्धोदक कहाँ लगाना ?
यह एक अत्यन्त विवेकपूर्वक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि आजकल तो लोग गन्धेदक को सारे शरीर पर तेल-मालिश की तरह प्रयोग करने लगे हैं; जबकि यह इसकी स्पष्टत: अविनय है। आचार्यों ने गन्धोदक को लगाने के लिये शरीर के तीन ही स्थान निर्धारित किये हैं – १. मस्तक २. ललाट और ३. नेत्रयुगल । इसके बारे में स्पष्ट निर्देश करते हुये आचार्य वासुपूज्य लिखत हैं –
भाले नेत्रयुगे च मूध्र्नि तथा सर्वैर्जनैर्धार्यताम् ।।’’
दानशासन, ८४, पृ. ५४
अर्थ – भगवान् के चरणों चढ़ाया हुआ जल अरिहन्त भगवान् के पावन चरणों के स्पर्श से पवित्र हो जाता है; अतएव वह देवेन्द्रादि के द्वारा ललाट, मस्तक तथा नेत्रों में धारण करने योग्य है। इसके स्पर्शमात्र से ही पूर्व में अनेकों जन पवित्र हो चुके हैं; इसलिये इस गन्धोदक को भव्यजीव सदैव ललाट, नेत्रयुगल तथा मस्तक पर सदाकाल भक्तिपूर्वक धारण करें। वे इन स्थानों में गन्धोदक को लगाने का सुफल बताते हुये लिखते हैं –
अर्थ – मोक्षस्थानों को प्राप्त अरिहन्तों के चरणों में अर्पित जल (गन्धोदक) के ललाट में इसलिए लगाया जाता है, ताकि सिद्धालय में हमारा शीघ्रगमन हो। दोनों नेत्रयुगल (के ऊपरी भाग) में लगाने का प्रयोजन सम्यग्दर्शन की विशुद्धि की कामना है। तथा मस्तक पर लगाने का उद्देश्य निर्मल सम्यग्ज्ञान कीर प्राप्ति की इच्छा है। – इसप्रकार आत्मतत्त्व की सिद्धि एवं रत्नत्रय की प्राप्ति की भावना से उपर्युक्त तीनों स्थानों में गन्धोदक लगाना चाहिये।
गन्धोदक -वंदने की विधि
गन्धोदक को संस्पर्श करने से पूर्व अँगुलियों को शुद्ध प्रासुक जल से धो लेना चाहिये, तथा फिर ‘गन्धोदक’ को स्पर्श कर अपने शरीर के उपर्युक्त तीनों अंगों पर लगाना चाहिये। तदुपरान्त पुन: शुद्ध प्रासुक जल से अँगुलियाँ धो लेनी चाहिये।विशेष द्रष्टव्य, जैन सुदीप द्वारा लिखित ‘नमन और पूजन’ चतुर्थखण्ड : ‘परिशष्ट’। साथ ही यह पद्य भी बोला जा सकता है –
इमे नेत्रे जाते सुकृतजलसित्ते सफलिते, ममेदं मानुष्य कृतीजनगणादेयमभवत् ।
मदीयाद् भालाद् शुकर्माटनमभूत्, सदेदृक् पुण्यौघो मम भवतु ते पूतनविधौ ।।’’
अर्थ –मैंने जिनेन्द्रदेव के ‘गन्धोदक’ की अपने नेत्रों एवं ललाट पर वंदना की जिसके फलस्वरूप मेरे चिरसंचित पाप क्षणभर में दूर हो गये। हे जिनेन्द्र देव! आपके चरणकमल में संस्पर्श से पावन गंधोदक संसाररूपी ताप को हरण करने वाला जानकर मैंने आदर से धारण किया है। आपके सुकृतरूपी जल से सिक्त होकर मेरे ये दोनों नेत्र सफल हो गये एवं मेरा मनुष्य जन्म ज्ञानीजनों के लिये गिनती योग्य हो गया। मेरे द्वारा अपने मस्तक पर आपका चरणोदकधारण करने से शुभकर्मों का आगमन हुआ तथा सत्पुण्यरूपी पुञ्ज आपकी पूजनविधि से मुझे प्राप्त हुआ।