जय जय श्री जिनराज, पृथ्वी तल पर आवते।
बरसें रत्न अपार, सुरपति मिल उत्सव करें।।१।।
प्रभु तुम जब गर्भ बसे आके, उसके छह महिने पहले ही।
सौधर्म इंद्र की आज्ञा से, बहुरतनवृष्टि धनपति ने की।।
मरकतमणि इंद्र नीलमणि औ, वरपद्मरागमणियाँ सोहें।
माता के आँगन में बरसे, मोटी धारा जनमन मोहें।।२।।
प्रतिदिन साढ़े बारह करोड़, रत्नों की वर्षा होती है।
पंद्रह महीने तक यह वर्षा, सब जन का दारिद खोती है।।
जिनमाता पिछली रात्री में, सोलह स्वप्नों को देखे है।
प्रात: पतिदेव निकट जाकर, उन सबका शुभ फल पूछे हैं।।३।।
पतिदेव कहें हे देवि ! सुनो, तुम तीर्थंकर जननी होंगी।
त्रिभुवनपति शत इंद्रों वंदित, सुत को जनि भव हरणी होंगी।।
ऐरावत हाथी दिखने से, तुमको उत्तम सुत होवेगा।
उत्तुंग बैल के दिखने से, त्रिभुवन में ज्येष्ठ सु होवेगा।।४।।
औ सिंह देखने से अनंत, बल युक्त मान्य कहलायेगा।
मालाद्वय दिखने से सुधर्ममय, उत्तम तीर्थ चलायेगा।।
लक्ष्मी के दिखने से सुमेरु, गिरि पर उसका अभिषव होगा।
पूरण शशि से जन आनंदे, भास्कर से प्रभामयी होगा।।५।।
द्वयकलशों से निधि का स्वामी, मछली युग दिखीं—सुखी होगा।
सरवर से नाना लक्षण युत, सागर से वह केवलि होगा।।
सिंहासन को देखा तुमने उससे वह जगद्गुरू होगा।
सुर के विमान के दिखने से, अवतीर्ण स्वर्ग से वह होगा।।६।।
नागेन्द्र भवन से अवधिज्ञान, रत्नों से गुण आकर होगा।
निर्धूम अग्नि से कर्मेंधन, को भस्म करे ऐसा होगा।।
फल सुन रोमांच हुई माता, र्हिषत मन निज घर आती हैं।
श्री ह्री धृति आदिक देवी मिल, सेवा करके सुख पाती है।।७।।
पति की आज्ञा से शची स्वयं, नित गुप्त वेश में आती है।
माता की अनुपम सेवा कर, बहु अतिशय पुण्य कमाती है।।
जब गूढ़ प्रश्न करती देवी, माता प्रत्युत्तर देती हैं।
त्रयज्ञानी सुत का ही प्रभाव, जो अनुपम उत्तर देती हैं।।८।।
इसविध से माता का माहात्म्य, प्रभु तुम प्रसाद से होता है।
तुम नाम मंत्र भी अद्भुत है, भविजन का अघ मल धोता है।।
मैं इसीलिये तुम शरण लिया, भगवन् ! अब मेरी आश भरो।
नित ‘‘ज्ञानमती’’ संपति देकर, स्वामिन् अब मुझे कृतार्थ करो।।९।।