प्रस्तुत आलेख में सिद्धक्षेत्र गिरनार एवं भगवान नेमिनाथ के जैन आगम ग्रंथों एवं पुरातत्व में सन्दर्भों को संकलित करने के साथ ही गिरनार विषयक वर्तमान विवाद की पृष्ठभूमि, वैधानिक स्थिति एवं वर्तमान परिस्थिति का विस्तृत विवरण दिया गया है।
—सम्पादक
दिगम्बर जैन समाज का सुप्रसिद्ध प्राचीन सिद्धक्षेत्र गिरनारजी जैन संस्कृति की समृद्ध परम्परा की आत्मा व प्राण है। इसके बिना जीवन मृत समान है। यह समाज की आस्था और अस्तित्व से जुड़ा परम—पावन ऐतिहासिक तीर्थ और हमारी धरोहर है।
तीर्थक्षेत्र
तीर्थ के आश्रय से भव्य जीव संसार—सागर से पार उतर जाते हैं। ऐसे तीर्थ का निर्माण करने वाला या सिद्धिपथ का उपदेशक तीर्थंकर कहलाता है। जैन परम्परा के सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्र इसी पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, तप, ज्ञान और निर्वाण से जुड़े क्षेत्र तीर्थक्षेत्र बन गये और उन्हें पवित्र स्थान मानकर उनकी पूजा की जाने लगी। पूजा करने के लिये वहाँ मूर्तियों की स्थापना की गयी। जैन तपस्वियों ने अपनी साधना के लिये गुफाओं और पर्वतों को विशेष उपयोगी माना। इसलिये ऐसे ही पर्वतीय स्थल तीर्थक्षेत्र बन गये। ये स्थल पर्यावरण की दृष्टि से विशुद्ध और योग साधना की दृष्टि से सर्वाधिक अनुकूल सिद्ध हुए हैं।
मंगल क्षेत्र
षट्खण्डागम सिद्धान्त शास्त्र की आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका में इसे मंगल क्षेत्र माना है। क्षेत्र मंगल की परिभाषा करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं—
अर्थात् गुणपरिणत आसन क्षेत्र अर्थात् जहाँ पर योगासन, वीरासन इत्यादि अनेक आसनों से तदनुकूल अनेक प्रकार के योगाभ्यास, जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों, ऐसा क्षेत्र, परिनिष्क्रमण क्षेत्र (जहाँ किसी तीर्थंकर ने दीक्षा ली हो) और निर्वाण क्षेत्र आदि को क्षेत्र—मंगल कहते हैं। जैसे उर्जयन्त (गिरनार), चम्पापुर, पावापुर आदि नगर क्षेत्र—मंगल हैं। ऐसे क्षेत्र मंगलकारी होते हैं, इसलिये इन्हें क्षेत्र—मंगल कहा जाता है। आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोयपण्णत्ती२ में इसी आशय की पुष्टि करते हुए उर्जयन्त (गिरनार) को क्षेत्र—मंगल स्वीकार किया है।
नेमिनाथ की ऐतिहासिकता
उर्जयन्त (गिरनार) क्षेत्र पर शौर्यपुर के राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी के पुत्र जैन धर्म के २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथजी) के दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याण हुए थे। समुद्रविजय के अनुज का नाम वसुदेव था जिनकी दो रानियाँ थीं—रोहिणी और देवकी। रोहिणी के पुत्र का नाम बलराम बलभद्र था और देवकी का पुत्र श्रीकृष्ण। इस तरह नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। जिस क्षेत्र पर किसी तीर्थंकर का एक ही कल्याणक हो, वह कल्याणक क्षेत्र या तीर्थक्षेत्र कहलाता है। जहाँ किसी तीर्थंकर के तीन कल्याणक हुए हों, वह क्षेत्र तो वस्तुत: अत्यन्त पवित्र बन जाता है। अत: गिरनार (उर्जयन्त) क्षेत्र जैनियों के लिये अत्यन्त पावन तीर्थभूमि है। भगवान नेमिनाथ का निर्वाण क्षेत्र होने से यह सिद्धक्षेत्र है। सिद्धक्षेत्र होने से इसे तीर्थराज भी कहा जाता है। इसे सहकार वन या सहस्राभवन भी कहते हैं। गिरनार का ग्रंथकारों ने उर्जयन्त, रेवतक नाम से भी उल्लेख किया है। इस क्षेत्र का अशोक के शिलालेखों से कम से कम २२०० वर्ष पहले का तो ऐतिहासिक सबूत मिलता ही है। यहाँ भगवान ने दीक्षा लेकर तपश्चरण किया और केवल छप्पन दिन पश्चात् ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवताओं और मनुष्यों ने भगवान का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया था। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने यहाँ समवसरण की रचना की। भगवान ने गन्धकुटी में िंसहासन पर विराजमान होकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया। भगवान का अन्तिम उपदेश इसी पर्वत पर हुआ। जब आयु का एक मास शेष रह गया, तो भगवान योग निरोध कर आत्मध्यान में लीन हो गये। अन्त में अवशिष्ट चारों अघातिया कर्मों को निर्मूल करके उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
इन्द्र द्वारा गिरनारजी की ५वीं टोंक पर सिद्धशिला चिन्हित
भगवान जिस स्थान से मुक्त हुए, वह स्थान अत्यन्त पवित्र लोकपूज्य था। उस स्थान के गौरव को सदाकाल के लिये अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये इन्द्र ने वङ्का से सिद्धशिला का निर्माण किया और उस पर भगवान का चिन्ह उत्कीर्ण किया। इस आशय की सूचना आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में दी है। आपने लिखा है।
उर्जयन्त गिरौ वङ्काी वङ्कोणालिख्य पाविनीम्।
लोके सिद्धिशिलां चव्रे जिनलक्षण पङ्क्तिभि:।।
इससे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर के मोक्षागमन के पश्चात् उस स्थान को चिन्हित करने के लिये इन्द्र स्वयं को अपने वङ्का से सिद्धिशिला का निर्माण कर उस पर भगवान का चिन्ह अंकित करता है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह स्थान मनुष्य र्नििमत नहीं, देव र्नििमत होता है। अर्थात गिरनार पर्वत पर यदुवंशभूषण श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की आयुध, वस्त्र और आवरण रहित भव्य, शान्त और मोक्षमार्ग का मूक उपदेश करने वाली जो मूर्ति है, वह संसार के चित्त की भ्रान्ति को दूर करे और दिगम्बर शासन को लोक में प्रसार करे।
गिरनार की अम्बिका देवी
गिरनार के दूसरे शिखर पर अम्बा या अम्बिका देवी का मन्दिर है। इस मन्दिर की मान्यता जैनों और हिन्दुओं दोनों में है। मन्दिर पर आजकल हिन्दुओं का अधिकार है। मि. वर्गीस४ ने दिगम्बर जैन शास्त्रों में तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी अम्बिका का स्वरूप इस प्रकार का बताया है—
अर्थात् दस धनुष शरीर वाले नेमिनाथ भगवान की शासन देवी आम्रा है। वह नीले वर्ण वाली, सिंह की सवारी करने वाली, आम्रछाया में रहने वाली दो भुजा वाली है। बायें हाथ में प्रियंकर नामक पुत्र के प्रेम के कारण आम की डाली को और दायें हाथ में अपने द्वितीय पुत्र शुभंकर को धारण करने वाली है। आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में लिखा है कि भगवान नेमिनाथ के अतिरिक्त इस क्षेत्र पर करोड़ों मुनियों को निर्वाण प्राप्त हुआ है। प्राकृत निर्वाण काण्ड जो आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित है, में उर्जयन्त पर्वत से बहत्तर कोटि सात सौ मुनियों जैसे प्रद्युम्न, शम्बुकुमार, अनिरूद्धकुमार, समुद्रविजय आदि नौ भाई, देवकी के युगलिया छह पुत्र आदि के मोक्ष गमन का उल्लेख है। कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी के आचार्य है। आचार्य पूज्यपाद का काल पाँचवीं शताब्दी है, उन्होंने भी ‘निर्वाण—भक्ति’ में भगवान नेमिनाथ का निर्वाण उर्जयन्त गिरि से माना है। आचार्य जिनसेन के अनुसार भगवान नेमिनाथ और अनेक मुनियों के निर्वाण आदि के कारण ही उर्जयन्त (गिरनार) पर अनेक भव्यजन तीर्थयात्रा के लिये आने लगे। आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण६ में कहा गया है कि द्वीपायन मुनि द्वारका दाह का निदान करने पर जाम्बवती के पुत्र शम्बु और प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध ने संयम धारण कर लिया, वे दोनों प्रद्युम्न मुनि के साथ उर्जयन्तगिरि के ऊँचे तीन शिखरों पर आरूढ़ होकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। आज भी द्वितीय कूट पर अनिरूद्धकुमार के, तृतीय कूट पर शम्बुकुमार के तथा चतुर्थ कूट पर प्रद्युम्नकुमार के चरण चिन्ह उत्कीर्ण हैं। उदयर्कीित कृत अपभ्रंश निर्वाण—भक्ति में प्राकृत निर्वाण—काण्ड के अनुरूप ही उर्जयन्त को भगवान नेमिनाथ, प्रद्युम्न, अनिरूद्ध और ७२ कोटि ७०० मुनियों का निर्वाण स्थल माना है। भट्टारक श्रुतसागर ने संस्कृत में, भट्टारक गुणर्कीित ने मराठी में, भट्टारक ज्ञानसागर ने हिन्दी में और चिमणा पण्डित ने मराठी में अपनी तीर्थ वन्दना में उर्जयन्त को सिद्धक्षेत्र माना है। ब्र. नेमिदत्त रचित नेमिपुराण (अध्याय १६) और आचार्य दामनन्दी विरचित पुराणसार संग्रह में भी यथोक्त वर्णन है। भगवान नेमिनाथ को केवलज्ञान प्राप्ति के तथ्यों पर ‘तिलोयपण्णत्ती’ में विवरण दिया है—
अस्सउज सुक्क पडिवदपुव्वण्णे,
उज्जयंत गिरिसिहरे।
चित्ते रिक्खे जादं,
णेमिस्य केवलं णाणं।।
अर्थात् नेमिनाथ भगवान को आसौज शुक्ल प्रतिपदा के पूर्वान्ह समय में चित्रा नक्षत्र के रहते उर्जयन्तगिरि के शिखर पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। केवली अवस्था में कुल ६९९ वर्ष १० मास ४ दिन रहे। उनकी उपदेश सभा में (समवसरण) में ग्यारह गणधर थे। जब निर्वाण काल समीप आ गया तो भगवान पुन: गिरनार पर्वत पर लौट आये। उनके आने पर पुन: यहाँ समवसरण की रचना हो गई। भगवान का अन्तिम उपदेश इसी पर्वत पर हुआ।
तिलोयपण्णत्ती शास्त्र में भगवान के निर्वाण की तिथि आदि का उल्लेख है—
बहूलहमीपदो से आसाढ़े जन्मभम्मि उज्जंते।
छत्तीसाधियपणसयसहिदो णेमिसरो सिद्धो।।
अर्थात् भगवान नेमीश्वर आषाढ़ कृष्ण अष्टमी के दिन प्रदोष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते ५३६ मुनियों के साथ उर्जयन्तगिरि से सिद्ध हुए। चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य गिरनार की यात्रा के लिये गये थे। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने भी यहाँ की यात्रा की थी। धरसेनाचार्य कृत षट्खण्डागम१० में कहा गया है कि वे गिरनार की चन्द्रगुफा में रहते थे। जैन सिद्धांत ग्रंथों की विद्याभूमि गिरनार ही है। आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबलि ने गिरनार की सिद्धशिला पर बैठकर, जहाँ भगवान नेमिनाथ को मुक्ति प्राप्त हुई थी, मन्त्रसिद्धि की थी। आचार्य कुन्दकुन्द भी गिरनार की वन्दना करने आये थे।
शिलालेख
गिरनार (उर्जयन्त, रैवतकगिरि) में नेमिनाथ मन्दिर के दक्षिण की तरफ के प्रवेश द्वार के प्रांगण में टूटे हुए खम्बे की पश्चिम दीवार पर उत्कीर्ण लेख इस प्रकार है—‘‘संवत् १५२२ श्री मूलसंघे श्री हर्षर्कीित पद्मर्कीित भुवनर्कीित……..’’११ (यह लेख खंडित है)। डॉ. जेम्स वर्गीस जिसने जनवरी १८७५ में गिरनारजी की यात्रा की थी, के अनुसार महाक्षत्रप रुद्रदामन के एक शिलालेख में लिखा है—इस लेख में एक शब्द विशेष उल्लेखनीय है—‘केवलज्ञानसम्प्राप्तानां’ अर्थात् जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो कि विशेषत: जैन ग्रंथों में प्रयुक्त होता है। अत: यह प्रमाणित होता है कि यह शिलालेख जैनों का है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि गिरनार की इन गुफाओं का निर्माण शाही वंश के राजाओं ने सम्भवत: ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में जैनों के लिये कराया था। सम्भव है, गुफाएँ इससे भी प्राचीन हों। इन मन्दिरों के मुख्य द्वार पर अंकित गिरनार के शासन राममण्डलीक १२ वीं शताब्दी का बहुत बड़ा पद्ममय शिलालेख हैं। इसमें राममण्डलीक द्वारा भगवान नेमिनाथ का स्वर्ण से रचित मन्दिर बनाने का उल्लेख है। ‘प्रासादं गुरुहेम पत्रततिभिर्योची करेन्नेमिन्ना:’।
श्री नेमिनाथ भगवान के मन्दिर के एक सहन में एक शिलाफलक पर निम्नलिखित लेख अंकित है, यहाँ चरण चिन्ह भी बने हुए हैं—‘‘हर्षर्कीितजी पादुका’ संवत् १६९२ श्री मूलसंघे श्री हर्षर्कीित, श्री भुवनर्कीित, ब्र. अमर सिभाण मनजी, पं. वी जैयन्त माइदास दयाला तेसां नेमियात्रा सफलास्तु’।।
इस शिलालेख से सिद्ध होता है कि इन दिगम्बर मूलसंघ के भट्टारक हर्षर्कीित ने संघ सहित ९ बार गिरनारजी की यात्राएँ की थीं और इन हर्षर्कीितजी भट्टारक की स्मृति में शिष्यों ने चरण चिन्ह अंकित कराये। पुरातात्विक प्रमाण के सन्दर्भ में सौराष्ट्र के प्रभासपट्टन से बेबिलोनिया के बादशाह नेवुचुडनज्जर का प्राचीन ताम्रपट लेख प्राप्त हुआ है। ‘भारतीय इतिहास एक दृष्टि’१२ में डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने काठियावाड़ (सौराष्ट्र) से प्राप्त प्राचीन ताम्रपत्र का जो अनुवाद किया है तदनुसार उक्त ताम्रपत्र पर उल्लेख है कि सुमेर जाति में उत्पन्न काबुल के रिवल्वियन सम्राट बंचदन ने जो रेवानगर (काठियावाड़) राज्य का अधिपति था, सुजातिका देव नेवुचुडनज्जर आया है। उसने यदुराज के नगर (द्वारिका) में आकर गिरनार के स्वामी नेमिनाथ की भक्ति की तथा दान दिया था।
दान—पत्र पर पश्चिम एशियाई नरेश की मुद्रा भी अंकित है। उसने मन्दिर बनवाया। सूर्य……देव नेमि, कि जो स्वर्ण समान रैवत पर्वत के देव हैं, उनको हमेशा के लिये अर्पण किया। नेवुचुडनज्जर का काल ११४० ई. पू. माना गया है। अर्थात् आज से ३००० वर्ष से भी पहले रिवतक पर्वत के स्वामी भगवान नेमिनाथ माने जाते थे। उस पर्वत की ख्याति उन्हीं भगवान नेमिनाथ के कारण थी। उस समय द्वारका में यदुवंशियों का राज्य था और वहाँ पर भगवान नेमिनाथ की अत्यधिक मान्यता थी। जूनागढ़ में स्थित गिरनार पर्वत, उर्जयन्त, रैवतक, और नेमिनाथ पहाड़ के नाम से भी पहचाना जाता है। ये नाम यादव कुल के वंशजों के अन्तर्सम्बन्धों का भी बोध कराते हैं। श्रीकृष्णजी के ज्येष्ठ बन्धु बलराम की रानी का नाम रेवती था। उसके नाम से यह रैवतक पहाड़ कहलाया। जैनियों के २२ वें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि या नेमिनाथ, बलराम और श्रीकृष्णजी के चचेरे भाई थे। पाँचवीं टोंक पर छत्री के नीचे पाषाण पर भगवान नेमिनाथ के चरण र्नििमत हैं। चरण के पीछे तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामी की एक अन्य पाषाण में उत्कीर्ण दिगम्बर (नग्न) पद्मासन मूर्ति विराजमान है। जिस पर नीचे के भाग में चिन्ह, शंख भी उत्कीर्ण हैं। यहाँ संवत् १९९५ का लेख है। लेख में वर्णन है—यहाँ एक बड़ा भारी घण्टा बँधा हुआ है। गिरनार के शिलालेख, राजुल की गुफा, चरण, नेमिनाथ की मूर्ति पर तीर्थंकर चिन्ह आदि अपने आप में पर्याप्त प्रमाण हैं।