प्रभो! क्या चंद्रगुप्त सी गुरुभक्ति मुझमें भी आ सकती है ? उनकी पावन सुगन्ध मुझे भी महका सकती है ? उनका समर्पण, इच्छाओं का दमन तो अपूर्व था यदि उसका अंश भी मैं प्राप्त कर सकूँ तो सचमुच कुछ बन सकूँ जीवन भर गुरु चरणों में रह सकूँ। यही तमन्ना है। शक्ति देना भक्ति देना और हाँ भक्ति करने की युक्ति भी देना तभी तो मैं अपने प्रयासों में सफलता पाऊँगी हे वीतरागी प्रभो! तुझे छोड़कर आखिर मैं कहाँ जाऊँगी ?