बहुत दिनों पूर्व जब मैं छोटी थी और कैलाश भी ५-७ वर्ष का छोटा सा ही था तब मैंने एक दिन उसे कुछ समझाकर कहा था कि- ‘‘देखो कैलाश! तुम मेरे सच्चे भाई तब हो, कि जब मेरे समय पर मेरे काम आओ, अतः कभी यदि किसी समय मैं तुमसे कुछ मेरा विशेष काम कहूँ तो अवश्य ही कर देना।’’
कैलाश ने भी मेरी बात मान ली और तब मैंने उस छोटी सी वय में ‘‘वचन’’ ले लिया था।
उस समय वह वचन मुझे याद आ गया था अतः मैंने कैलाश को एकांत में बुलाया और वह पुराना वचन याद दिलाते हुए कहा-
‘‘भैया कैलाश! आज तुम मेरा एक काम कर दो बस मैं कृतार्थ हो जाऊँगी।’’
कैलाश ने जिज्ञासा व्यक्त की-‘‘कौन सा काम जीजी ?’’
मैंने कहा-‘‘तुम मेरे साथ बाराबंकी चले चलो। देखो! मुझे अकेली तो भेज नहीं सकते हैं अतः तुम्हें मेरे साथ चलना पड़ेगा ।’’
कैलाश पहले तो कुछ हिचकिचाया, फिर उस वचन को याद कर बोला-
‘‘अच्छा जीजी! मैं चलूँगा ।’’
मैं रात भर महामंत्र का स्मरण करती रही। मुझे नींद तो बिल्कुल ही न के बराबर आई थी।
ब्रह्ममुहूर्त में चार बजे उठी, महामंत्र जपा और सोते हुए तथा पकड़ कर मेरे को चिपके हुए रवीन्द्र को धीरे-धीरे अपने से अलग किया।
उसके माथे पर प्यार का, दुलार का हाथ फेरकर उसे अपना अन्तिम भगिनीस्नेह दिया और मैं धीरे से खटिया से नीचे उतर आई।
धीरे-धीरे ही नीचे जाकर सामायिक, स्नान आदि से निवृत्त होकर मन्दिर के दर्शन करने चली गई। वहाँ जाकर प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सामने हाथ जोड़कर खड़ी होकर प्रार्थना करने लगी-
‘‘हे तीन लोक के नाथ! जैसे आपने कमठ के उपसर्गों को सहन कर संकट मोचन ‘पार्श्वनाथ’ यह नाम पाया है
वैसे ही मुझे भी संकटों को, उपसर्गों को सहन करने की शक्ति दो और मेरे मनोरथ को सफल करो ।’’
पुनः-पुनः भगवान को नमस्कार कर घर आ गई तब तक भी रवीन्द्र सोया हुआ था।
माँ से मिली और उनकी आज्ञा लेकर आगे बढ़ी, सीढ़ी से उतरने लगी तभी मां ने बार-बार कहना शुरू किया-
‘‘बिटिया मैना! आज ही वापस आ जाना, रुकना नहीं, हाँ! शाम की गाड़ी से आ जाना, हाँ आ जाना ।’’
उनको सान्त्वना देते हुए मैंने भी यही कहा-
‘‘हाँ, देखो! मैं बिस्तर आदि कुछ भी नहीं ले जा रही हूँ।’’
इसके पूर्व कई बार माँ-पिता ने यह कहा था कि-
‘‘यदि तुम बाराबंकी जाओगी तो दुनिया हमें क्या कहेगी?’’
आचार्यश्री ने मुझे रत्नकरण्डश्रावकाचार पढ़ने की आज्ञा दी थी और एक दिन बोले थे कि ‘‘जब पूरा याद हो जाय तब मैं परीक्षा लूँगा ।’’
अतः मैं इन लोगों से यही कहा करती थी कि-
‘‘देखो, मुझे रत्नकरण्डश्रावकाचार पूरा याद हो चुका है अतः अब मुझे एक बार महाराज जी के पास परीक्षा देने जाना है।’’
उस समय भी वही हेतु बताकर मैं जल्दी-जल्दी घर से बाहर निकली, कैलाश मेरे साथ था। हम दोनों बस में बैठ गये और बाराबंकी आ गये। माँ ने मुझे अच्छी तरह से बता दिया था कि-
‘‘वहाँ पर बाराबंकी में तुम्हारे पिता की बुआ का घर है। उनके दोनों पौत्र बड़े ही सज्जन हैं।
तुम्हारे पिताजी जब कभी भी व्यापारिक कार्य से बाराबंकी जाते हैं तो उन्हीं के घर में ही ठहरते हैं अतः तुम वहाँ ही चली जाना।’’
उसके पूर्व मैंने बाराबंकी शायद कभी देखा भी नहीं था। उस समय जब मैं बस से उतरती हूँ तो पहले सीधे ही मन्दिर का रास्ता पूछकर मन्दिर पहुँचती हूँ।
वहीं पर आचार्यश्री का दर्शन करती हूँ। उस समय मुझे इतना आनन्द होता है कि मानों कितने जन्म की खोई हुई निधि मुझे आज मिल गई है।
महाराज जी मुझे देखकर बड़े प्रेम से आशीर्वाद देते हैं और बोलते हैं- ‘‘मैना! तुम आ गई।’’
‘‘हाँ, महाराज जी! मैं आ गई।’’
पुनः मैं वहीं बैठ गई और कुछ देर बाद आचार्यश्री से निवेदन किया-
‘‘महाराज जी! मैंने रत्नकरण्डश्रावकाचार के सभी डेढ़ सौ श्लोक याद कर लिए हैं, अब आप उसकी परीक्षा ले लीजिए।’’
महाराज जी ने पूछा-‘‘क्या उन श्लोकों का अर्थ भी याद किया है?’’
मैंने कहा-‘‘हाँ, महाराज जी! अर्थ भी याद कर लिया है, आप चाहे जहाँ से पूछ लीजिए।’’
महाराज खुश हुए और हँसकर बोले-‘‘अच्छा मैं परीक्षा लेऊँगा।’’
पुनः वो अपने लेखन कार्य में लग गये। आहार का समय हुआ, बाद में मैं माँ के कहे अनुसार कपूरचन्द्र जी के घर जाना ही चाहती थी।
इसके पूर्व वहाँ पर मेरे पहुँचते ही कानाफूसी चालू हो गई थी कि-
‘‘यह टिकैतनगर से आई है, ‘‘मैना है’’ जो कि दीक्षा लेना चाहती है ।’’
अतः कपूरचंद्र जी की धर्मपत्नी ने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया और बोलीं-‘‘चलो घर खाना खाने ।’’
मैं भी जाना ही चाहती थी। उनके साथ घर पहुँची, चौके का शुद्ध भोजन किया और उनके बताये अनुसार एक कमरे में बैठ गई। कैलाश ने भी खाना खाया, पुनः बोले-
‘‘जीजी चलो! अब जल्दी ही बस से निकल चलें।’’
मैंने कहा-‘‘देखो, मैं रत्नकरंड की परीक्षा देने के लिए आई हूँ और अभी महाराज जी ने तो परीक्षा ली नहीं, अतः मैं आज यहीं रुकूंगी।’’
कैलाश सहम गया और रोने लगा। मैंने जैसे-तैसे उसे समझाया और पुनः सामायिक के उपरान्त महाराज जी के पास आ गई।
मैंने बड़ी मुश्किल से शाम को कैलाश को वापस भेज दिया और कह दिया-
‘‘भैया! दो दिन बाद आकर ले जाना, मुझे आचार्य महाराज को आहार देना है, दो-एक उपदेश सुनना है और परीक्षा देना है।’’
कैलाश ने सब कुछ प्रयत्न कर लिये किन्तु जब मैं नहीं ही जाने को तैयार हुई तब वह बेचारा मन मसोसकर रोता हुआ वापस घर आ गया।
जब मैं वापस नहीं आई तब माँ भी बहुत रोई और पिता ने आते ही घर सूना देखा तो आवाज लगाई-
‘‘मैना, मैना!’’ पता चला मैना तो बाराबंकी गई, तब वे भी रोने लगे पुनः माँ के कुछ समझाने पर शांत हुए और बोले-
‘‘अच्छा, दो-चार दिन रह लेने दो, वहाँ तो बुआ का घर अपना ही घर है। फिर मैं जाकर ले आऊँगा।’’
पुनः दो दिन बाद कैलाश को भेजा तब मैंने कहा-‘‘भैया! मैंने नियम कर लिया है कि मैं ‘दशलक्षण’ में यहीं रहूँगी अतः तुम चिन्ता मत करो, मैं बाद में आ जाऊँगी ।’’
वहाँ बाराबंकी में कपूरचन्द्र जी की पत्नी ने मुझे ऊपर का एक कमरा दे दिया था और सारी सुविधाएं दे दी थीं।
रात्रि में वे प्रायः मेरे पास ही सो जाया करती थीं। मैं प्रातः उठकर सामायिक करके स्नान आदि से निवृत्त हो मन्दिर में जाकर पूजा करती थी।
पुनः महाराज जी का उपदेश सुनती थी। उसके बाद महाराज जी का पड़गाहन करती थी। उस घर में भी चौका लगता था,
अतः महाराज जी का जहाँ भी आहार हो, भाभी के साथ जाकर आहार देकर चौके में ही शुद्ध भोजन करती थी।
पुनः मध्याह्न में सामायिक करती थी। बाद में महाराज जी के यहाँ आ जाती थी। यद्यपि महाराज जी मेरे से बहुत कम बोलते थे फिर भी मैं वहाँ जाकर महिलाओं के बीच बैठ जाती थी।
मैंने समय पाकर महाराज जी से कई बार कहा- ‘‘महाराज जी! रत्नकरण्डश्रावकाचार की परीक्षा ले लीजिए और मुझे दूसरी पुस्तक पढ़ने को दे दीजिए।’’
तब एक दिन महाराज जी ने एक-दो प्रश्न किये। मैंने भी सही उत्तर दिया। महाराज जी प्रसन्न हुए और बोले-
‘‘मैना! तुम्हारा क्षयोपशम बहुत ही अच्छा है। तुम्हें परीक्षा क्या देना तुम तो पहले से ही पास हो ।’’
उस समय मैं महाराज जी की आज्ञा से ‘धनंजय नाममाला’ रट रही थी। समय व्यतीत होता जा रहा था।
मैं चाहती थी कि मेरी यहीं दीक्षा हो जाये और अब मैं घर नहीं जाऊँ । इसी मध्य बाराबंकी में एक मारवाड़ी सेठ ने ऋषिमण्डल विधान प्रारंभ किया था। मैं महाराज जी की आज्ञा लेकर उस विधान में जाप करने बैठ गई थी।
इस निमित्त से भी आठ-दस दिन घर जाने की बात टल गई थी। वहाँ पर श्यामाबाई (धर्मपत्नी राजेन्द्र प्रसाद), ताराबाई (धर्मपत्नी महावीर प्रसाद) और दो महिलाएं मेरे पास में ही बैठती थीं।
मेरी धर्मचर्चा सुनती थीं और मेरे इस वय के वैराग्य की सदा सराहना किया करती थीं। वे कहा करती थीं-
‘‘यदि मैं कुंवारी होती, गृहस्थी के बंधन में न होती तो सचमुच में घर छोड़कर महाराज जी के साथ हो जाती, दीक्षा ले लेती।’’
तब मैं सोचती-‘‘मैं तो अभी किसी के बन्धन में नहीं हूँ, अतः पूर्ण स्वतंत्र हूँ। माँ-बाप तो मोह से व लोक लाज से दुखी हैं।
फिर भी माँ तो बहुत ही समझदार हैं अतः अपने को पूर्ण दृढ़ रहना है, चाहे जो भी हो जाये वापस घर नहीं जाना है।
आचार्य महाराज इन चारों महिलाओं को विनोद में लौकांतिकदेव कहकर पुकारा करते थे ।
ऐसे ही भाद्रपद व्यतीत हो गया और आसोज भी पूरा होने को आ रहा था।
आश्विन सुदी चौदस को आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज का केशलोंच था। उसके लिए बाहर पंडाल बनाया गया था। विशेष आयोजन था।
आस-पास के-त्रिलोकपुर, टिकैतनगर, दरियाबाद, सुमेरगंज, बहराइच आदि गांवों से तथा लखनऊ, कानपुर शहर से बहुत से लोग आये थे।
इसके पूर्व टिकैतनगर से (घर से) कई बार छोटा भाई कैलाश मुझको लेने आया किन्तु मैं कह दिया करती थी कि दशलक्षण के बाद आउँगी।
बाद में आने पर कहना शुरू किया-चातुर्मास पूर्ति तक मैं यहीं रहूंगी। केशलोंच देखने के लिए व मुझको वापस घर ले जाने के लिए टिकैतनगर से माता-पिता आये हुए थे।
मैंने अवसर अच्छा देखकर माता-पिता से कहा-‘‘चलो, आचार्यश्री के पास हमें दीक्षा दिला दो।’’
वे लोग समझाने लगे, मैं उनके साथ आचार्यश्री के पास आ गई, नमस्कार किया। उन लोगों ने कहा-‘‘महाराज जी! इस लड़की को समझाइये, यह अभी अपने घर वापस चले।
कुछ अभ्यास करेगी बाद में दीक्षा की बात सोची जायेगी।’’
इसी बीच मैंने कहा- ‘‘पूज्य गुरुदेव! अब मुझे आप संसार समुद्र से पार करने वाली ऐसी दीक्षा प्रदान कीजिए।’’
आचार्यश्री ने कहा-‘‘तुम्हें अभी तक अष्टमूलगुण भी नहीं हैं। गुरूसाक्षी से कुछ व्रत नहीं लिया है। एकदम दीक्षा कैसे?’’
मैंने कहा-‘‘महाराज जी! जैसा भी नियम व्रत आप कहेंगे, मैं पालन करूँगी, मुझे अब तो आप दीक्षा ही दे दीजिये। मैंने एक-दो महीने में समझ लिया है। दीक्षा के सारे नियम मैं पाल सकती हूँ।
इसी बीच माता-पिता घर चलने के लिए ज्यादा आग्रह करने लगे। तभी मैंने वहीं आचार्यश्री के सामने ही अपने हाथों से अपने शिर के बालों का केशलोंच करना शुरू कर दिया।
यह दृश्य देखकर पिता एकदम पागल से होकर बाहर कहीं चले गये, जिनका दो दिन तक पता नहीं लगा।
माँ छोटी सी बालिका मालती को गोद में लेकर आई थीं। वे उसी जगह मूर्छित हो गिर पड़ीं। बहुत देर तक उन्हें होश नहीं आया।
कुछ महिलाएं उन्हें संभालने में लग गयीं। आचार्यश्री मेरे इतने साहस को देखकर आश्चर्य में पड़ गये।
इधर जितने भी लोग आचार्यश्री का केशलोंच देखने आये थे वे सब वहाँ इकट्ठे हो गये। कोई आश्चर्य से मेरे वैराग्य की सराहना करने लगे, कोई हल्ला-गुल्ला मचाने लगे-
‘‘रोको, रोको, अभी इस लड़की की उम्र बहुत ही छोटी है।’’
कोई कहते-‘‘पुलिस को बुलाओ, इस लड़की को ले जाये।’’
उस हंगामे को देखकर पहले तो आचार्य महाराज ने अपना दाहिना हाथ उठाकर सबको शांत किया पुनः जब मेरा केशलोंच चालू रहा तब लोग आपस में एक-दूसरे से कहने लगे-
‘‘इस लड़की का हाथ पकड़कर केशलोंच तो रोक दो।’’
लेकिन युवती कन्या को हाथ लगाने का अर्थात् मेरा हाथ पकड़ने का किसी को साहस नहीं हुआ।
इसी बीच माँ के मामा, जो वहीं के निवासी थे, आ गये और उन्होंने आगे बढ़कर मेरा हाथ पकड़ लिया तथा केशलोंच रोक दिया और बोले-
‘‘यह मेरी भानजी-मोहिनी की पुत्री है अतः मुझे इसे रोकने का पूरा अधिकार है।’’
इसके बाद कुछ लोग जो कि पुलिस को बुलाने गये थे, कुछ धर्मात्मा बन्धुओं ने उन्हें मार्ग में ही रोक दिया और बोले-
‘‘अपनी ही कन्या को पुलिस के हाथ सौंपना कौन सी बुद्धिमानी है?’’ कुछ सुधारक तत्त्वों ने कहा-
‘‘यदि आचार्य महाराज इस अवसर पर इस लड़की को दीक्षा दे देते हैं तो हम आचार्यश्री पर ही पुलिस का हमला कर देंगे।’’
इस विषय को भी कुछ समझदार वृद्धों ने, जिन्होंने दो माह तक बाराबंकी में मेरे जीवन को देखा था, उन्होंने ऐसे लोगों को रोक दिया।
उसी समय आचार्य महाराज तो पंडाल में पहुँच गये। केशलोंच शुरू कर दिया। सारी जनता उधर ही चली गई पुनः मैंने अपने बचे हुए शेष केशों का लोच शुरू कर दिया।
फिर भी माँ के मामा बाबूराम ने आकर मेरा हाथ पकड़कर मुझे रोक दिया। तब मैं वहाँ से उठकर जिन मन्दिर में चली गई।
भगवान की वेदी में जाकर जिन प्रतिमा के सम्मुख नियम ले लिया कि ‘‘जब तक मुझे व्रत नहीं मिलेंगे तब तक मेरे चतुराहार का त्याग है एवं घर जाने का भी त्याग है।’’
मैंने इतना नियम लेकर दृढ़ता से भगवान की शरण ले ली और ‘‘इस उपसर्ग से रक्षा होने तक मैं यहाँ से नहीं उठूँगी’’ ऐसा दृढ़ संकल्प करके मैं वहीं बैठ गई।
उधर आचार्यश्री का केशलोंच पूर्ण हुआ, बाद में उपदेश हुआ। अनन्तर बहुत से लोग तो अपने-अपने गाँव चले गये। वातावरण शान्त हो गया।
उसके बाद रात्रि के ९-१० बजे माँ आकर मुझे बहुत कुछ आश्वासन देकर जैसे-तैसे वहाँ से उठाकर अपने साथ जहाँ पर ठहरी थीं वहाँ पर ले आयीं।
वहाँ सोने के बजाय रात्रि भर माँ-बेटी में चर्चा चलती रही। माँ का हृदय भी उस रात्रि वैराग्यरस से पूर्ण प्लावित हो गया।
माता और मेरा वार्तालाप चल रहा था। माँ ने कहा-
‘‘बेटी मैना! देखो, उस समय शोक और दुःख में पागल हो पता नहीं, तुम्हारे पिता कहाँ चले गये हैं अब क्या होगा?’’
मैंने कहा-‘‘ यह मोह कर्म ही तो अनादि काल से जीव को संसार में घुमा रहा है। सभी जीव प्रायः इसके आश्रित हैं, क्या किया जाये?
जिसकी जो होनहार होगी सो होगा, अब मुझे किसी की तरफ भी लक्ष्य नहीं है।’’
‘‘बेटी! तुम्हें ऐसी स्थिति में एक बार घर चलना चाहिए। हम लोग जबरदस्ती शादी नहीं करेंगे।
तुम अलग कमरे में रहते हुए अपना धर्मध्यान करना पुनः कुछ दिन बाद संघ में भेज देंगे।’’
‘‘माँ! इस जीवन का कुछ भी भरोसा नहीं है। ‘कल करना सो आज कर, आज करे सो अब’।
अतः अब मैं घर कतई नहीं जाऊँगी, मैंने भगवान के श्रीचरणों में नियम ले लिया है।’’
माता बहुत ही रो रही थीं और प्यार से समझा रही थीं, किन्तु मैंने कहा-
‘‘देखो, अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव के साथ किसका क्या संबंध नहीं हुआ है?
अरे! संसार में कौन सा ऐसा जीव है जिसे हमने माता नहीं बनाया और जिसे रोते हुए नहीं छोड़ा है।
विधि के आश्रित हुआ यह जीव भव-भव में पता नहीं किस-किस को रोता छोड़कर आता है और पुनः दूसरी पर्याय में आकर उन रोने वाले अपने कुटुम्बियों को याद भी नहीं करता है।
देखो! संसार में कदाचित् किसी का जवान बेटा मर जाता है तो माता-पिता उसके वियोग में रो-रो कर पागल हो जाते हैं।
कितने तो अपघात तक कर डालते हैं, लेकिन इससे किसी का हित नहीं होता है।
ओह! इस अनादि अनन्त संसार में हमने पता नहीं कितनी माताओं का दूध पिया है और पता नहीं कितने पिता बनाये हैं।
इस असार संसार में भला कौन किसका है? ये सब झूठे नाते-रिश्ते हैं। अतः अब हमें किसी से मोह नहीं है।’’
रवीन्द्र कुमार बालक जो लगभग दो-ढाई वर्ष का था, वह केशलोंच के समय खड़ा-खड़ा रो रहा था और ‘‘जीजी घर चलो, घर चलो,’’ कह रहा था।
माँ बार-बार इन भाई-बहनों के स्नेह का स्मरण करा रही थीं किन्तु मेरा हृदय पत्थर से भी अधिक कठोर बन चुका था। तब माँ ने कहा-
‘‘देखो बेटी! आचार्य महाराज ने भी सब के बीच में यही कह दिया है कि मैं इस मैना को कुछ भी व्रत नहीं दे सकता।
यह एक बार अपने घर जाये, कुछ दिन दृढ़ता से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करे तत्पश्चात् माता-पिता व समाज की सन्तुष्टि, अनुमति से ही दीक्षा दी जायेगी।’’
तब मैंने कहा-‘‘माँ! यदि तुम मेरी सच्ची माता हो तो मेरा एक काम कर दो, मैं तुम्हारा उपकार जीवन भर नहीं भूलूंगी।’’
‘‘वह क्या!’’
‘‘वह यह कि तुम आचार्यश्री को मुझे व्रत देने के लिए आज्ञा दे दो!’’
माँ काँप उठीं और बोलीं-‘बेटी! इसका फल क्या होगा? तुम्हारे पिताजी कहीं सुरक्षित होंगे और पुनः घर आयेंगे तो क्या मुझे घर में रहने देंगे?’’
‘‘अरे! जब तुमने धर्म के पालन के लिए कई बार पिता का कठोर व्यवहार सहन किया है तो मेरे निमित्त से एक बार और भी जो कुछ होगा सहन कर लेना, किन्तु मेरा उद्धार तो हो जायेगा।’’
माँ कुछ देर तक सोचती रहीं। वैसे रात्रि भर की वैराग्यप्रद चर्चा से उनका हृदय तो भीगा हुआ ही था, अतः उन्होंने मेरी यह बात मान ली।
तभी मैंने एक कागज और पेंसिल लाकर हाथ में दिया। तब ब्रह्ममुहूर्त की मंगलमय बेला थी।
माँ ने मेरे कहे अनुसार लिखना शुरू किया। आँखों में आँसू थे और हाथ काँप रहा था। साहस करके मैंने माँ से लिखवाया-
‘‘पूज्य महाराज जी! मेरी पुत्री मैना को, यह जो भी व्रत चाहती है आप दे दीजिए। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह दृढ़ता से व्रतों को निभायेगी।’’
पत्र लिखकर माँ मुझसे कहती हैं-‘‘बिटिया मैना! जैसे आज मैं तुम्हें संसार से निकाल रही हूँ वैसे ही तुम भी मुझे घर से-संसार समुद्र से निकाल कर एक दिन मोक्ष मार्ग में लगा देना।’’
मैंने खुशी-खुशी माँ को वचन दिया, ‘‘हाँ! मैं भी तुम्हें एक दिन दीक्षा लेने में सहयोग दूँगी।’’
माँ ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि अब यह मैना न घर चल सकती है और न अन्न-जल ही ग्रहण कर सकती है।
यह दिन उगते ही पुनः भगवान की शरण में जाकर बैठ जायेगी। अतः अब इसे व्रत दिला देने में ही सार है अन्यथा जनता का वातावरण केवल दूषित होगा।
कुछ लोग मोह का पक्ष लेंगे तो कुछ लोग वैराग्य का पक्ष लेंगे। चूकि यही स्थिति आज दिन भर देखने में आई थी।
माँ पत्र लिखकर स्नान, सामायिक आदि से निवृत्त होकर मेरे साथ महाराज जी के पास आ जाती हैं। अभी कुछ अंधेरा सा ही है।
आचार्यश्री सामायिक पूर्ण कर चुके हैं। गुरु को नमस्कार करने के पश्चात् मेरी प्रेरणा से वे महाराजश्री के हाथ में वह छोटा सा कागज देते हुए कहती हैं-
‘‘हे महाराज जी! यह हमारा पत्र सर्वथा सदैव गुप्त ही रखा जाये। इसका भेद कभी किसी को नहीं देना। आप गुरु हैं, आप पर हमें पूर्ण विश्वास है।’’
महाराज जी पत्र खोलकर पढ़ते हैं तभी प्रसन्न होकर माँ के चेहरे को देखते हैं। माँ अश्रुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए कहती हैं-
‘‘महाराज जी! इस लड़की की दृढ़ता बचपन से ही बहुत रही है। यह सभी नियमों को पालने में समर्थ है, यह मेरा पूर्ण विश्वास है, समाज का विरोध व्यर्थ है।
यद्यपि माता मोहिनी की आँखों में मोह के अश्रु थे फिर भी वे अपने हृदय को निर्मोही बनाकर अब मोहिनी से निर्मोहिनी बन चुकी थीं
पुनः कोई मुझे स्वीकृति देते हुए देख न ले, इस डर से वे गुरु को नमस्कार कर जल्दी ही वहाँ से निकलकर मन्दिर चली गईं और भगवान की पूजा में तन्मय हो गईं।
इधर एक महिला जो कि मेरा पूर्णतया साथ दे रही थीं, वह आ गईं। महाराज जी ने कहा-
‘‘जाओ, तुम इन्हें शीघ्र ही स्नान कराकर नई साड़ी पहनाकर ले आओ।’’
यह काम मिनटों में हो गया। मैं महाराज जी के पास हाथ में श्रीफल लेकर आ गई। इसी बीच छोटे मामा भगवानदास जी वहाँ आ पहुँचे।
उनके सामने ही महाराज जी ने मुझे जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत और सप्तम प्रतिमा के व्रत दे दिये।
मैंने उसी समय घर का त्याग कर दिया। मामा भगवानदास समझ ही नहीं सके कि यह क्या हो रहा है?
जब उनकी समझ में आया कि इस लड़की को आचार्य महाराज ने ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया है तब वे दौड़े-दौड़े अपनी जीजी के पास गये और रोने लग गये।
माँ भगवान की पूजा पूर्ण कर वहाँ आयीं। देखा, अब मेरी पुत्री मैना सप्तम प्रतिमा लेकर ब्रह्मचारिणी बन गई है और घर का तथा अपने लोगों का संबंध त्याग कर दिया है।
वैराग्य और तत्त्वज्ञान का अंकुर माता मोहिनी के उनके हृदय में भी उग चुका था परन्तु वे पति, पुत्र और पुत्रियों के दायित्व को लिए हुए थीं
अतः वे स्वयं कुछ नहीं कर सकती थीं। उस समय उनकी भावना स्वयं ही घर त्याग करने की हो चुकी थी किन्तु कर्मोदय की पराधीनता अथवा यों कहिये कि उस समय उनकी काललब्धि नहीं आई थी।
वे उसी समय बोल उठीं-
‘‘आज ही इसका जन्म दिवस है। आज १८ वर्ष की हुई है। पुनः आज इसका इस आश्विन सुदी पूर्णिमा को पुनर्जन्म हुआ है।’’
मेरे सप्तम प्रतिमा व्रत को लेने की चर्चा सारे बाराबंकी शहर में फैल गई तथा दिन भर में ही यत्र-तत्र आस-पास के गाँवों में भी फैल गई।
माँ ने देखा अब मुझे अपने घर को, नन्हें-नन्हें बालकों को संभालने के लिए जाना ही पड़ेगा।
तब उन्होंने मुझे स्वयं अपने हाथ से दो सफेद साड़ियाँ लाकर दे दीं और पूजन का प्रेम विशेष होने से एक डिब्बे में पूजन के लिए बढ़िया चावल, शुद्ध काश्मीरी केशर आदि सामग्री रख दी।
उसी में एक छोटे से डिब्बे में पूजन सामग्री हेतु कुछ रुपये रख दिये। उसे मुझे संभलवा दिया।
तब तक बहुत खोज-बीन के बाद पिता कहीं जंगल में एकांत में रोते हुए बैठे थे सो ताऊ जी (बब्बूमल जी) उन्हें लिवा आये।
आकर मुझ से मिले। कुछ शांत हुए पुनः बहुत कुछ समझाया कि- ‘‘बिटिया! अब तो तुमने जीवन भर का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है, विवाह की कोई बात नहीं रही है अतः अब टिकैतनगर चलो, मन्दिर में एक कमरे में रहना।
मैं तुम्हारे पढ़ने की सारी व्यवस्था कर दूँगा। अच्छे पण्डित विद्वान् तुम्हें पढ़ायेंगे। तुम चाहो तो मेरे घर भोजन करना, चाहे तो जो तुम्हें बुलायें वहाँ भोजन कर लेना।
मैं कुछ भी एतराज नहीं करूँगा।’’ किन्तु मैंने यही कहा कि-‘‘अब आप मोह छोड़ो। मैं तो दीक्षा लेने के बाद ही टिकैतनगर में पैर रखूँगी,
उसके पहले किसी हालत में नहीं आ सकती हूँ।’’
पिता बहुत नाराज हुए, बोले-‘‘अब मैं तुम्हारे जीवन में कभी भी तुमसे नहीं मिलूंगा।’’
ये लोग मन में दुःख, शोक और मोह को लिए हुए अपने घर जाने की सोच रहे हैं।
जिस समय मैं बाराबंकी में सप्तम प्रतिमा लेकर सफेद साड़ी पहनकर महाराजश्री के सामने बैठी थी, उस समय सभी छोटे भाई-बहन वहीं खड़े-खड़े कैसे रो रहे थे।
बहन शांतिदेवी, कैलाशचन्द्र, श्रीमती, मनोवती, प्रकाशचन्द्र, सुभाषचन्द्र, कुमुदनी और रवीन्द्र कुमार किस तरह मेरी धोती पकड़-पकड़ कर कह रहे थे-
‘‘जीजी! घर चलो, घर चलो, घर चलो! तुम्हें क्या हो गया है?’’
वह करुणामयी दृश्य देखकर उस समय बाराबंकी में भला कौन ऐसा था कि जिसकी आँखों से आँसू नहीं बरसे थे! किन्तु मेरी आँखें बिल्कुल सूखी थीं। मैं सोच रही थी-
‘‘अहो! मैंने इस संसार में पता नहीं कितने भाई-बहनों को प्यार किया है? कितनों को गोद में खिलाया है और पता नहीं कितनों को ऐसे ही रोते-बिलखते छोड़ा है?
यह सब झूठा नाता है। भला इस अनन्त संसार में कौन किसका? अरे! जब यह अपना शरीर ही अपने साथ नहीं जाने वाला है तब इसके आश्रित इन कुटुम्बीजनों से मोह कैसा? अपनापन कैसा?……..
यह मोह ही तो संसार परिभ्रमण का मूल कारण है अतः अब मेरा किसी से कुछ भी संबंध नहीं है।’’
आचार्य देशभूषण जी महाराज मेरी इतनी दृढ़ विरक्ति को, इतनी निर्ममता को देखकर मन ही मन सोच रहे थे-
‘‘सचमुच में यह कोई निकट संसारी जीव है। इसके संसार का अब बिल्कुल अन्त आ चुका है ऐसा दिख रहा है।
इसके नन्हें-नन्हें भाई-बहन इस तरह बिलख रहे हैं, माता-पिता इस तरह रो रहे हैं, पिता तो पागल जैसे हो रहे हैं किन्तु इसे कुछ भी परवाह नहीं है।
निश्चित ही यह भव्य जीव है और दीक्षा के लिए उत्तम पात्र है।’’
पुनः अपने ये विचार गुरुदेव मेरे सामने व खास भक्तों से कह भी दिया करते थे।
इस प्रकार मोह से व्यथित माँ मोहिनी मेरे वचनों से प्रभावित होकर निर्मोहिनी बनकर मुझे आचार्यश्री से व्रत दिलाकर ‘सच्ची माता’ बन गयीं।
मैं सोच रही थी-
‘‘देखो, यदि मेरी माँ इस समय महाराज जी को एकांत में व्रत देने की स्वीकृति नहीं देतीं तो शायद ही आज मुझे व्रत मिलते अतः यह मेरी जन्मदात्री माँ सचमुच में ‘सच्ची माता’ है।
संसार समुद्र से पार होने में भी मेरी सहयोगिनी बनी है। इसलिए इन्होंने मेरा सच्चा उपकार किया है।
मैं भी एक न एक दिन अवश्य ही इस उपकार के बदले इनको घर से निकालने का पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगी।’’ यह घटना सन् १९५२ की थी।
अब मेरा ब्रह्मचारिणी अवस्था का जीवन एक नया जीवन बन चुका था। मैं दिन भर मंदिर जी में बैठी रहती थी।
स्वाध्याय करती थी, अमर कोश के बीस-बीस श्लोक एक दिन में कंठाग्र कर लेती थी, तीनों काल सामायिक करती,
आचार्य महाराज जी के पास दर्शन के समय और उपदेश के समय आती, रात्रि में जिसके यहाँ प्रारम्भ में आकर रुकी थी वह घर था पिता की बुआ का।
कपूरचन्द्र जी उनके सुपुत्र थे। उनकी धर्मपत्नी बहुत ही धर्मपरायणा थीं जो कि मुझे अपने पास सुलाती थीं। मेरी हर सुख-सुविधा का बहुत ही ध्यान रखती थीं।
इसी बीच लखनऊ की एक महिला, जो चौक में मन्दिर के पास रहती थीं, उनके जवान पुत्र का मरण हो जाने से वह विरक्त हो चुकी थीं।
पति के बार-बार विरोध करने के बावजूद भी वह महाराज जी की शरण में आ गई थीं।
महाराजश्री ने उन्हें सात प्रतिमा के व्रत दे दिये और वह भी मेरे साथ में रहने लगीं। इससे मैं अकेली नहीं रही।
इसके पूर्व बाराबंकी में श्यामाबाई, ताराबाई, मोहनलाल जी की धर्मपत्नी और एक महिला थीं।
ये चारों महिलाएं मेरे पास प्रारंभ से ही बहुत आती रहती थीं, मेरी त्याग भावना से प्रभावित थीं तथा हमेशा ही हर किसी के सामने मेरी प्रशंसा करतीं व पक्ष रखती रहती थीं।
अतः आचार्य महाराज इन चारों महिलाओं को ‘‘लौकांतिक देव’’ कहकर ही पुकारा करते थे।
इनके पति भी मेरे अनुकूल ही धर्म का पक्ष रखते थे। जब चतुर्दशी को मैंने केशलोंच करना प्रारंभ किया था, महमूदाबाद से बड़े मामा महिपालदास भी आ गये थे।
उन्होंने मोहावेश में आकर बहुत ही हल्ला-गुल्ला मचाया था, बल्कि पुलिस को बुलाकर इस वातावरण को शांत कराने की धमकी उन्होंने ही दी थी।
पुनः आवेश में आकर महावीर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, मोहनलाल आदि से भी लड़ने लगे थे।
जब शाम को कुछ उपाय नहीं दिखा व मुझे सत्याग्रहपूर्वक मंदिर में बैठी देखा तब समझाने भी आये थे, किन्तु कुछ परिणाम न निकलने से अपनी जीजी को यद्वा-तद्वा सुनाकर वापस चले गये थे।
चातुर्मास समाप्ति के बाद आचार्यश्री बाराबंकी से विहार कर लखनऊ आ गये और डालीगंज में ठहर गये।
वहाँ से श्रीमहावीर जी यात्रा का प्रोग्राम बना। संघ व्यवस्था में सीमंधरदासजी चारबाग वाले और श्री जुग्गामल जी आगे हुए।
संघ का विहार हुआ। मार्ग में सोनागिरि आदि की यात्रा करते हुये आचार्यदेव श्रीमहावीर जी आ गये।
फाल्गुन की अष्टाह्निका महावीर जी क्षेत्र पर हुई। मैं कभी-कभी अवसर पाकर आचार्यश्री से दीक्षा के लिए प्रार्थना किया करती थी।
महावीर जी में मैंने आचार्यश्री के समक्ष पुनः दीक्षा की प्रार्थना करके यह नियम ही कर लिया कि- ‘‘अब मैं महावीर जी में ही दीक्षा लूँगी।’’
आचार्यश्री ने विचार व्यक्त किया कि यदि इनके परिवार को सूचना दी जाती है तो पुनः माता-पिता, ताऊ-चाचा आदि आकर दीक्षा रोक सकते हैं।
‘‘इस कन्या की वैराग्य भावना, मार्ग में कष्टसहिष्णुता, भयंकर माघ-पौष की ठंड में भी मात्र एक साड़ी में रहना, न दिन में चादर ओढ़ना, न रात्रि में ओढ़ना,
मात्र रात्रि में चावल की घास पर ऐसे ही एक करवट से सो जाना, दिन में एक बार भोजन करना, अपराह्न में जल भी नहीं पीना’’
आदि अभ्यास से तो दीक्षित क्षुल्लिका के सदृश ही चर्या पाली है अतः यह दीक्षा के लिए पात्र है।
महाराज जी ने एकांत में जुग्गामल से चर्चा की और यही निर्णय किया कि इसके परिवार में सूचना न देकर इसकी दीक्षा के लिए अच्छी तैयारी की जाये और यहीं पर दीक्षा विधि होवे।
पुनः आचार्यश्री ने चैत्र कृष्ण एकम को प्रातः १० बजे का मुहूर्त निकाल दिया। मैंने भगवान महावीर की आराधना की और पूजन किया
पुनः सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा मंगलस्नान विधि सम्पन्न होने के बाद मैं पंडाल में आचार्यश्री के सन्मुख आ गई और श्रीफल चढ़ाकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की।
आचार्यश्री ने प्रार्थना स्वीकार कर मुझे स्वस्तिक बने हुए चावल के चौक पर बैठने का आदेश दिया,
पुनः आचार्यश्री ने अपना वरदहस्त मेरे मस्तक पर रखकर क्षुल्लिका दीक्षा के सारे संस्कार किये और मेरा ‘वीरमती’ यह नाम सभा में घोषित कर दिया
पुनः उपदेश में बोले कि-
‘‘मैंने प्रारंभ से ही इसमें जितनी वीरता देखी है, आज के युग में वह अन्यत्र किसी में नहीं देखी है अतः मैं इसके गुणों के अनुरूप ही इसका ‘‘वीरमती’’ यह नाम प्रसिद्ध कर रहा हूँ।
उपदेश के अनन्तर मैंने गुरुदेव को बार-बार नमस्कार किया।
अब मुझे अपने जीवन का सर्वस्व मिल गया था। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।
मैं दीक्षा को पाकर कृतार्थ हो गई थी। वहाँ से उठकर गुरुदेव की आज्ञा से मैं मंदिर में गई और भगवान महावीर के दर्शन कर मैंने कहा-
‘‘भगवन् ! आपकी मूर्ति का जो चमत्कार आज तक मैंने सुना था सो मैंने प्रत्यक्ष में देख लिया है।
हे नाथ! आप में सच्चा अतिशय है, जो कि आज मुझे दीक्षा मिल गई है।’’
इत्यादि रूप से भगवान् की स्तुति कर मैं अपने स्थान पर आ गई।
इससे पूर्व यहाँ एक ब्राह्मीमती क्षुल्लिका जी थीं। आचार्यश्री की आज्ञा से वे मेरे पास आ चुकी थीं।
अब हम दोनों क्षुल्लिकायें अपनी आवश्यक क्रियाओं को एक साथ मिलकर करने लगीं और बहुत ही धर्म-प्रेम से रहने लगीं।
आठ-दस दिन बाद अकस्मात् माँ मोहिनी यात्रा करते हुए वहाँ आईं और दीक्षा के समाचार सुनते ही हर्ष-विषाद से मिश्रित मुद्रा में मेरे दर्शन करने मेरे पास आईं। उन्होंने-
‘‘माताजी! इच्छामि’’ कहकर मुझे नमस्कार किया और मैंने भी-‘‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’’ ऐसा आशीर्वाद दिया।
पुनः उन्होंने पूछा-‘‘हम लोगों को दीक्षा के समय का समाचार क्यों नहीं दिया गया?’’
मैं कुछ नहीं बोली। तब वे आचार्यश्री के पास जाकर नमस्कार करके पूछने लगीं।
आचार्यश्री ने कहा-‘‘शायद तुम लोग मोह में दीक्षा न होने देते, अतएव मैंने सूचना नहीं दिलाई’
क्योंकि इसकी भावना और योग्यता को देखकर मैंने अब इसे दीक्षा देना ही उचित समझा।’’
इसके बाद महाराज जी ने उन्हें बहुत कुछ सान्त्वना दी।
माँ शांत हुईं, कुछ दिन वहाँ ठहरीं, मेरी दैनिक चर्या देखती रहीं और स्वयं यह भावना भाती रहीं कि ‘‘हे भगवान्! मेरे जीवन में भी ऐसा दिन कब आयेगा?’’
वे कुछ दिन आहार दान आदि देकर क्षुल्लिका वीरमती के (मेरे) आदर्श जीवन को हृदय में लिए हुए अपनी शेष तीर्थयात्रा पूर्णकर घर आ गयीं।
घर में पिता व भाई-बहनों को मेरी क्षुल्लिका दीक्षा का समाचार सुनकर मोह के निमित्त धक्का सा लगा किन्तु होनहार अटल समझकर सभी लोग अपने-अपने कार्यों में लग गये
और मेरी याद को कुछ न कुछ भुलाने की कोशिश करते रहे।
महावीर जी में आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी महाराज का संघ चैत्र मास में आ गया। इतने बड़े संघ का दर्शन कर मन पुलकित हो उठा।
आहार के समय जब सभी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आचार्यकल्प श्रीगुरुदेव वीरसागर जी के पीछे क्रम से पंक्तिबद्ध हो कर निकलते थे तब वह दृश्य देखते ही बनता था।
मैंने भी समयोचित आकर संघ की प्रमुख आर्यिका वीरमती माताजी से बहुत कुछ शंका समाधान किये थे।
पंडाल में जब देशभूषण जी महाराज और आचार्यकल्प वीरसागर जी महाराज विराजे थे और श्रावकों को धर्मोपदेश सुना रहे थे उस समय जनता भी भाव-विभोर थी।
चैत्रशुक्ला १५ का महावीर जी का बड़ा मेला देखकर आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने वापस लखनऊ की ओर प्रस्थान कर दिया। संघ में क्षुल्लिका ब्राह्मीमती जी और मैं थी।
आचार्यश्री मार्ग में २०-२० मील (३०-३० किमी.) चल लेते थे। मैंने बहुत ही साहस किया किन्तु कई बार स्वास्थ्य बिगड़ गया व मार्ग में ही मूर्च्छित हो गई।
जैसे-तैसे कुछ दिनों तक चलती रही, क्योंकि मेरी इच्छा दीक्षा लेने के बाद रेल-मोटर आदि वाहन में बैठने की कतई भी नहीं थी।
अंततोगत्वा आचार्यश्री की आज्ञा से मुझे मोटर में बैठना पड़ा किन्तु मानसिक शान्ति नहीं रही।
मन में प्रतिकूलता होने से मन पर उसका असर बहुत ही पड़ा। अस्तु, संघ सकुशल लखनऊ आ गया।
इससे पूर्व सन् १९५२ के चातुर्मास को टिकैतनगर में कराने के लिए टिकैतनगर के भाक्तिक श्रावक आचार्यश्री से अतीव अनुरोध करके हार चुके थे और आचार्यश्री ने वह चातुर्मास बाराबंकी में कर लिया था।
सो अब समय नजदीक देखकर टिकैतनगर में चातुर्मास करने के लिए बहुत श्रावक प्रार्थना करने लगे किन्तु आचार्यश्री ने आश्वासन भी नहीं दिया, प्रत्युत ‘‘ना’’ कर दिया।
संघ टिकैतनगर के निकट दरियाबाद में ठहरा हुआ था किन्तु आचार्यदेव टिकैतनगर जाने के लिए तैयार नहीं थे।
शायद टिकैतनगर में मेरे ताऊ, चाचा और पिता के विरोध के कारण ही वे टाल रहे थे। तब टिकैतनगर के लोगों ने पिता से कहा कि-
‘‘आपको आचार्यश्री के चातुर्मास हेतु प्रार्थना करने के लिए चलना पड़ेगा अन्यथा आचार्यश्री टिकैतनगर नहीं आयेंगे।’’
इनता सुनकर वे स्वयं अकेले आचार्यश्री के पास दौड़े चले आये।
मोह में कहे गये कटु शब्दों के लिए क्षमायाचना की और बार-बार टिकैतनगर चातुर्मास के लिए प्रार्थना करने लगे।
आचार्यश्री का मन एकदम प्रसन्न हो उठा।
उन्होंने बड़े प्रेम से उनकी प्रार्थना सुनी और आश्वासन दिया पुनः पिताजी उठकर मेरे पास आये, विनय से हाथ जोड़कर ‘‘इच्छामि’’ किया और कहने लगे-
‘‘माताजी! आचार्यश्री से निवेदन करो, यह चातुर्मास अपने गाँव टिकैतनगर में ही होना चाहिए।’’
इसी संदर्भ में पुनः सर्व भाक्तिकगण आ गये। आचार्य श्री ने टिकैतनगर में ही यह चातुर्मास करने की स्वीकृति दे दी।
कतिपय दिनों बाद आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को टिकैतनगर में आचार्य श्री ने चातुर्मास स्थापना कर ली।
गाँव का वातावरण धर्ममय बन गया। मैं इस प्रथम चातुर्मास में प्रायः मौन रहती थी और
आचार्य श्री ने रत्नकरण्ऽश्रावकाचार के २०-२५ श्लोक पढ़ाकर यह कह दिया कि तुम स्वतः ही पढ़कर याद कर लो।
तुम्हें सभी अर्थ समझ में आ जाता है। यद्यपि मुझे इस तरह संतोष नहीं था, फिर भी गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य होने से मैं कुछ भी नहीं कह सकी।
एक बार आचार्य देव ने मुझे ‘‘हिन्दी-इंग्लिश टीचर’’ नाम की एक पुस्तक दी और कहा कि तुम इस पुस्तक से इंग्लिश लिखना-पढ़ना स्वयं ही सीख लो।
मैंने एक सप्ताह के अभ्यास से ही छोटे-छोटे इंग्लिश वाक्य बनाना शुरू कर दिया और एक दिन आचार्यश्री मेरे इस ज्ञान के क्षयोपशम से बहुत ही प्रसन्न थे,
अतः उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की। इसी बीच टिकैतनगर गाँव के एक धर्मनिष्ठ श्रेष्ठी जो कि वयोवृद्ध थे, उन्होंने कहा कि तुम्हें इंग्लिश पढ़कर क्या करना है?
तुम तो अपनी संस्कृत भाषा में ही योग्यता प्राप्त करो और अपने गोम्मटसार आदि ऊँचे-ऊँचे ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करो।
इतना सुनकर मेरा मन इंग्लिश भाषा से उपरत हो गया, मैंने पुनः उस पुस्तक को हाथ में भी नहीं उठाया, फलस्वरूप जो अक्षर-ज्ञान हुआ था वह भी चला गया।
इस चातुर्मास में मैंने भगवती आराधना व परमात्मप्रकाश का कई बार स्वाध्याय किया।
गोम्मटसार जीवकाण्ड की करीब ७०० गाथायें रट लीं और अमरकोष को भी कंठाग्र कर लिया।
आचार्यश्री की आज्ञा से सिद्धांतकौमुदी व्याकरण भी संघ में रहने वाले त्रिपाठी पंडित ने थोड़ा सा पढ़ाया था, इससे आगे वे स्वयं नहीं पढ़े होने से नहीं पढ़ा सके।
इस सन् १९५३ के चातुर्मास के बाद दक्षिण से एक ‘‘विशालमती’’ नाम की क्षुल्लिका यहाँ पर आ गईं।
इनका वात्सल्य पाकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। इससे पूर्व क्षुल्लिका ब्राह्मीमती को पूरे चातुर्मास मलेरिया ज्वर का प्रकोप रहा था।
हर तीसरे दिन उन्हें बहुत ही जोर से ठंडी लगकर बुखार आ जाता था जिससे उनकी परिचर्या में भी मेरा बहुत सा समय व्यतीत हो जाता था।
मैं अधिकतर पढ़ती ही रहती थी अतः आँख में और सिर में दर्द बनी रहती थी।
ब्राह्मीमती जी ने माँ मोहिनी से कहा कि तुम इनकी आँखों पर अपने दूध का फाहा (दूध से भिगी रुई) रख दिया करो।
तब वे प्रतिदिन रात्रि में ९-१० बजे के लगभग आतीं और बैठी रहतीं।
जब मैं सो जाती तब चुपचाप अपने दूध से रुई को भिगोकर मेरी दोनों आँख पर रखकर चली जाती थीं।
ऐसे ही बहुत दिनों तक प्रायः वे उपचार करती रहती थीं और अपनी मातृ भावना के स्नेहस्वरूप दूध के फाहे को आँखों पर रखती रहती थीं।
पिताजी जब-तब आकर बैठ जाते थे और कुछ बात करने की अपेक्षा रखते थे किन्तु मैं जब कुछ नहीं बोलती थी
तब वे उठकर चले जाते, किन्तु प्रातः से सायं की चर्या का बारीकी से अवलोकन करते हुए मन में बहुत ही प्रसन्न होते थे।
एक बार दादी आईं और वे चाँदी के २०-२५ रुपये ले आईं। चुपचाप हाथ में देना चाहती थीं, बोलीं-
‘‘‘ माताजी! ये रुपये लेकर चुपचाप पास में रख लो, किसी भी कार्य में लगा देना, अथवा कभी किसी समय तुम्हारे काम आयेंगे।’’ मैंने कहा-
‘‘हमने सब कुछ त्याग कर दिया है, दो धोती, दो दुपट्टा मात्र परिग्रह है। सो भी श्रावकों से मिल जाता है और एक बार शुद्ध भोजन, वह भी श्रावकों के घर में पड़गाहन विधि से जाकर करना होता है।
अतः हमें रुपयों की क्या आवश्यकता है?’’
जब मैंने नहीं लिया तब वे बहुत दुःखी हुईं और भोलेपन से बोलीं-‘‘कोई किताब मँगा लेना।’’
मैंने कहा-‘‘सो भी आचार्य महाराज देते हैं, अतः इन रुपयों को ले जाओ मंदिर जी में दे देना।’’
वे बेचारी निराश होकर मन मारकर चली गयीं। वे सोचा करती थीं और प्रायः महिलाओं से अपना दुःख व्यक्त किया करती थीं कि-
‘‘देखो! इतनी छोटी बालिका, अभी खेलने-खाने की, गहना जेवर पहनने की इसकी उमर, किन्तु इसने सब कुछ छोड़ दिया है….।’’
तब मैं सोचती-‘‘मोह कर्म का कैसा प्रभाव है कि यह जीव केवल खाने-पहनने में, संसार के विषय भोगों में ही सुख मान रहा है
किन्तु मुझे तो जो अनुपम निधि, जो अनुपम सुख-आध्यात्मिक सुख है वह मिल चुका है।
अरे! अनादिकाल से इस संसार में मैंने क्या तो नहीं खाया है? और क्या तो नहीं पहना है?
इस खाने-पहनने में ही तो अनन्तकाल बिता दिया है किन्तु सच्चा सुख नहीं मिला है।
अतः अब सच्चा सुख -शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए यह त्याग मार्ग ही साधन है।
इसी त्याग के बल से आत्मा को परमात्मा बनाया जा सकता है। इत्यादि……।’’ ऐसे ही धर्मध्यानपूर्वक टिकैतनगर का चातुर्मास सम्पन्न हो गया।
टिकैतनगर चातुर्मास के बाद आचार्यश्री का विहार बाराबंकी, लखनऊ होते हुए पुनः श्रीमहावीर जी की ओर हुआ।
कुछ ही दिनों में महावीर जी आकर भगवान् महावीर की सातिशय मूर्ति के दर्शन किये। क्षुल्लिका विशालमती माताजी साथ में ही थीं।
यहाँ पर जयपुर के प्रमुख लोगों के आग्रह से आचार्यश्री ने जयपुर की ओर विहार किया।
क्षुल्लिका ब्राह्मीमती माताजी ज्वर के निमित्त से अस्वस्थ रहती थीं अतः वे यहीं महावीरजी में रह गयीं।
जयपुर में पहुँचकर सर्वप्रथम भट्टारकजी की नशिया के दर्शन किये।
वहाँ पर जयपुर के जैन समाज की भीड़ उमड़ पड़ी। हजारों की जनता ने आचार्यश्री का भव्य स्वागत किया और उनके दर्शन कर अपने को धन्य माना।
यहीं पर पंडित इन्द्रलाल जी शास़्त्री का परिचय हुआ।
संघ शहर में आ गया। यहाँ छोटे दीवानजी के मंदिर में आचार्यश्री ठहरे और उसके निकट ही पाटोदी मंदिर में हम दोनों क्षुल्लिकाओं को ठहराया गया।
यहाँ धर्म की प्रभावना देखते ही बनती थी। कुछ दिन यहाँ रहकर आचार्य श्री का विहार निवाई गाँव की तरफ हुआ।
यहाँ निवाई के सेठ हीरालाल जी पाटनी आदि अच्छे धर्मात्मा श्रावक थे। पण्डित राजकुमार जी शास्त्री भी आचार्यश्री की भक्ति में तत्पर थे।
हम दोनों क्षुल्लिकायें यहाँ मंदिर के पास एक धर्मशाला में ठहरी हुई थीं।
गर्मी के दिन थे, हमारे पास में एक ब्रह्मचारिणी चन्द्रावती थीं जो कि बाराबंकी की महिला थीं।
एक दिन लगभग २ बजे इन्होंने एक लड़के को कुछ रुपये देकर कहा-
‘‘जाओ, मेरे लिए छुहारा (खारिक) ले आओ।’’
वह लड़का बाहर निकला कि पास के ही एक श्रावक ने पूछ लिया-
‘‘तू कहाँ जा रहा है?’’
उसने कहा-‘‘मुझे माताजी ने रुपये दिये हैं, बाजार से छुआरा लेने जा रहा हूँ।’’
इतना सुनकर वह श्रावक धर्मशाला में आकर बैठ गया।
न वह लड़का ४ बजे तक आया और न ये महानुभाव वहाँ से उठे।
क्षुल्लिका विशालमती जी मेरे से कहने लगीं-
‘‘अम्मा! भला यह कौन श्रावक है? यहाँ क्यों दो बजे से बैठा है?’’
मैंने कहा-‘‘अम्मा! मुझे कुछ पता नहीं।’’
उन्होंने कहा-‘‘इससे कुछ पूछना तो चाहिए।…छोड़ो, अपने को क्या करना?
बैठा रहने दो। जब उसकी इच्छा होगी चला जायेगा।’’
इतनी ही देर में वह लड़का आया और चन्द्रावती के कमरे ओर जाकर छुहारे की पुड़िया तथा शेष पैसे संभलवा दिये।
ब्रह्मचारिणी जी कुछ चिढ़ कर बोलीं-‘‘अरे! तूने ५ बजा दिये। मुझे तो आज कब से प्यास लगी थी।’’
वह श्रावक सब देखता रहा। पुनः क्षुल्लिका विशालमती के निकट आकर बोला-
‘‘माताजी! आपके संघ में इन ब्रह्मचारिणी बाई को ‘‘माताजी’’ क्यों कहते हैं?’’
माताजी ने पूछा-‘‘क्यों! माताजी कहना अच्छा ही होता है।’’
उसने कहा-‘‘नहीं, इससे बहुत कुछ अनर्थ हो सकता है। यह ‘उत्तर है, ‘दक्षिण’ नहीं है।
देखो, मेरे ही मन में आज गहरी शंका हो गई थी तभी तो २ बजे से मैं यहाँ बैठा था।
यदि आज मैं यहाँ न बैठता तो बाहर यही चर्चा कर देता कि ये क्षुल्लिकायें शाम को छुहारा खाकर पानी पीती हैं।’’
इतना सुनते ही मेरा हृदय एकदम कांप उठा।
मैं घबराई हुई विशालमती माताजी का मुख ताकने लगी।
विशालमती जी को भी आश्चर्य हुआ तथा इस बात की खुशी भी हुई कि इस श्रावक ने बहुत ही विवेक से काम लिया है जो अपनी शंका का समाधान आप स्वयं अपनी आँखों से ही देखकर कर लिया है।
यह सच्चा श्रावक है, सच्चा गुरुभक्त है, इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। पुनः माताजी ने कहा-
‘‘भाई! तुम सच कहते हो। ब्रह्मचारिणी को माताजी न कहकर ‘‘बाई जी’’ ही कहना चाहिए।
अब मैं इन्हें माताजी नहीं कहने दूंगी तथा तुमने आज बहुत ही अच्छा किया जो कि हमारी चर्या भी परख ली है और हमें शिक्षा भी दी है।’’
इनता सुनकर वह श्रावक तो पुनः पुनः हम दोनों को ‘‘इच्छामि’’ कहकर नमस्कार करके चला गया और हम दोनों ने सायंकाल में महाराजश्री के पास जाकर इस घटना को कह सुनाया।
आचार्य महाराज हँसे और बोले-
‘‘वह श्रावक गुरुभक्त था तभी उसने ऐसा किया अन्यथा इसी तरह से तो साधुओं की निंदा शुरू हो जाती है।
अज्ञानी लोग ऐसे ही तो मुनियों पर दोषारोपण करने लग जाते हैं।
निवाई के बाद यहाँ से विहार कर संघ ‘‘टोंक’’ पहुँचा।
वहाँ पर चौबीस जिन प्रतिमाएं भूमि से निकली हुई थीं। उन्हें गाँव के बाहर नशिया जी में विराजमान किया गया था।
उनके दर्शन करके मन प्रसन्न हुआ। इस प्रांत में महिलाएं मिट्टी के घड़े सिर पर रखकर पानी भर-भर कर लाती थीं।
ऐसा देखने का हमें पहला अवसर था। चूँकि उस समय तक लखनऊ की तरफ गाँवों में जैन घराने की महिलाएं पानी आदि भरने के लिए घर के बाहर नहीं निकलती थीं।
मंदिर जाने में तथा विवाह कार्य आदि में अन्य किसी के घर आने-जाने में महिलाएं चादर ओढ़कर ही बाहर निकलती थीं।
अब तो उधर भी वह चादर ओढ़ने की प्रथा प्रायः समाप्त हो चुकी है और सर्वत्र मुनि, आर्यिका आदि संघों के विहार करने से महिलाएँ स्वयं पानी भरने के लिए भी बाहर निकलने लगी हैं।
इस तरह सर्वत्र प्रभावना करते हुये आचार्यश्री पुनः जयपुर आ गये और यहाँ अतीव धार्मिक उत्साह के वातावरण में चातुर्मास की स्थापना हो गई।
यहाँ पर इस सन् १९५४ के चातुर्मास में लगभग सौ चौके लग रहे थे।
आहार के समय दीवान जी के मंदिर से मील, दो मील तक चौके लग रहे थे। श्रावकों की भक्ति बहुत ही विशेष थी।
इसी संदर्भ में एक दिन किसी मंदिर में एक मीटिंग हुई जिसमें ऐसी चर्चा चली कि-
‘‘ यहाँ आचार्य देशभूषण जी महाराज का चातुर्मास होने से लगभग १०० चौके लग रहे हैं।
संघ में साधु तो चार ही हैं एक आचार्य महाराज, एक क्षुल्लक जी और दो क्षुल्लिकाएं। ये चार घर में ही पहुंचते हैं।
शेष लोगों के यहाँ फिजूल खर्च हो रहा है। यदि एक चौके का कम से कम एक रुपया भी अधिक खर्च माना जाये तो प्रतिदिन सौ रुपये व्यर्थ ही खर्च हो रहा है।
पूरे चातुर्मास में इस तरह यह व्यर्थ का खर्च हो जायेगा। अतः यदि सभी चौके बंद करा दिये जायें और तीन चार ही चौके लगें तो क्या बाधा है?
यह फिजूलखर्ची के पैसे बचाकर किसी अन्य कार्य में क्यों न लगा दिये जायें? इत्यादि।’’
यह चर्चा मुनिभक्त विद्वानों के समक्ष आई। तब उन्होंने भी आपस में मीटिंग कर यह जवाब दिया कि-‘‘हम लोग आहार दान की भावना से शुद्ध चौका बनाते हैं।
१० बजे अपने-अपने घर के बाहर खड़े होकर महाराज का पड़गाहन करने से तो हमें आहारदान का पुण्य मिल ही जाता है जो कि एक रुपया के हिसाब से व्यर्थ खर्च नहीं है।
प्रत्युत् महान पुण्य बंध का कारण है तथा प्रतिदिन हम लोगों का पता नहीं कितने रुपये का फिजूल खर्च गृहस्थाश्रम में होता ही रहता है-इत्यादि।’’
ऐसी बात सुनकर ये सुधारक विचारवादी विद्वान् लोग चुप रह गये।
यह चर्चा किसी विशेष श्रावक ने आकर हम दोनों क्षुल्लिकाओं को सुनाई थी।
यहाँ चातुर्मास में विरधीचंद गंगवाल, गुलाबचंद सेठी, रामचंद जी कोठारी, हरिश्चंद जी अग्रवाल जैन आदि श्रावक प्रमुख रूप से आचार्यश्री की भक्ति में तत्पर थे।
विद्वानों में पंडित इन्द्रलाल जी शास्त्री, पंडित कन्हैयालाल शास्त्री, पंडित सीमंधर जी आदि आहार दान तथा उपदेश आदि का लाभ ले रहे थे।