मगध देश में एक ब्राह्मण नाम का नगर था। वहाँ एक शांडिल्य नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी भार्या का नाम स्थंडिला था, वह ब्राह्मणी बहुत ही सुन्दर और सर्व गुणों की खान थी। इस दम्पति के बड़े पुत्र के जन्म के समय ही ज्योतिषी ने कहा था कि यह गौतम समस्त विद्याओं का स्वामी होगा। उसी स्थंडिला ब्राह्मणी ने द्वितीय गाग्र्य पुत्र को जन्म दिया था, वह भी सर्वकला में पारंगत था, इन्हीं ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केशरी के पुत्र का नाम भार्गव था। इस प्रकार ये तीनों भाई सर्व वेद-वेदांग के ज्ञाता थे। वह गौतम ब्राह्मण किसी ब्रह्मशाला में पांच सौ शिष्यों का उपाध्याय था। ‘‘मैं चौदह महाविद्याओं का पारगामी हूँ, मेरे सिवाय और कोई विद्वान् नहीं है।’’ ऐसे अहंकार में यह सदा चूर रहता था। इन तीनों भाइयों के इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम ही प्रसिद्ध हैं।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्रगट होकर समवसरण की रचना हो चुकी थी किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिर रही थी। ६६ दिन व्यतीत हो गए। तभी सौधर्म इन्द्र ने समवशरण में गणधर का अभाव समझकर अपने अवधिज्ञान से ‘‘गौतम’’ को इस योग्य जानकर वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ गौतमशाला में पहुँचकर कहते हैं-
‘‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में होने से मौन हैं अत: मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’’ गौतम ने विद्या के गर्व से गर्विष्ठ हो पूछा-‘‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूँगा तो तुम क्या दोगे ?’’ तब वृद्ध ने कहा-यदि आप इसका अर्थ कर देंगे तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्यार्थियों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना। महाअभिमानी गौतम ने यह शर्त मंजूर कर ली क्योंकि वह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म , षड्द्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः ।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायं।।
तब गौतम ने कुछ देर सोचकर कहा-‘‘चतरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’’ इन्द्र तो चाहता ही यह था। वह वृद्ध वेषधारी इन्द्र गौतम को समवशरण में ले आया।
वहां मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उसे सम्यक्त्व प्रगट हो गया। गौतम ने अनेक स्तुति करते हुए भगवान के चरणों में नमस्कार किया तथा अपने पांच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों के साथ भगवान के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अन्तर्मुहूर्त में ही इन गौतममुनि को अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा वे महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हो गए। उत्तर पुराण में लिखा है-
‘‘तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की और मैंने पांच सौ ब्राह्मण पुत्रों के साथ श्री वर्धमान भगवान का नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गर्इं। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह काल में समस्त अंगों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया, पुन: चार ज्ञान से सहित मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की तथा रात्रि के पिछले भाग में पूर्वों की रचना की, उसी समय मैं ग्रन्थकर्ता हुआ हूँ।’’
‘‘जिस दिन भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा, उसी दिन मैं केवलज्ञान प्राप्त करूँगा। तदनन्तर विपुलाचल पर्वत पर जाकर निर्वाण प्राप्त करूँगा।’’
श्री गौतमस्वामी के द्वारा रचित दो महामूल्यवान रचनायें दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में आज भी उपलब्ध हैं और प्रसिद्ध हैं।
चैत्यभक्ति प्रतिक्रमण पाठ।
चैत्यभक्ति- चैत्यभक्ति के बारे में ऐसी प्रसिद्धि है कि गौतम ब्राह्मण जब भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में पहुँचते हैं और मानस्तम्भ देखकर उनका मान गलित हो जाता है, तब भक्ति में गद्गद् होकर भगवान की स्तुति करते हुए उच्चारण करते हैं-‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि।
इस बात का स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य के शब्दों में देखिए-
‘‘श्रीवर्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी जयतीत्यादि स्तुतिमाह’’-
श्री वर्धमानस्वामी का प्रत्यक्ष दर्शन करके श्री गौतमस्वामी ‘‘जयति’’ इत्यादि स्तुति करते हैं। यथा-
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिणौ: विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
वे भगवान जयवन्त होवें कि जिनके चरणों का आश्रय लेकर कलुष मन वाले, मान से ग्रसित ऐसे परस्पर में एक दूसरे के वैरी भी जन्तु क्रूर् भाव को छोड़कर परस्पर विश्वास को प्राप्त हो गए हैं। भगवान के चरण युगल वैसे हैं ? देवों द्वारा रचित सुवर्णमयी कमलों पर विहार करने से शोभा को प्राप्त हैं तथा इन्द्रों के मुकुटों की मणियों की निकलती हुई कांति की प्रभा से स्पर्शित हैं।
यह चैत्यभक्ति अनेक छन्दमय है, ३५ श्लोकों में बहुत ही मधुर, सरस और उत्तम है। अन्त में पांच श्लोक जो पृथ्वी छन्द में हैं उनका छन्द और वर्ण लालित्य अवर्णनीय है। उनमें भगवान की वीतराग छवि और अनेक शुभ लक्षणों का वर्णन है यथा-
अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेर्जयात्, कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकत:।
विषादमदहानित: प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम्।।३१।।
हे भगवन्! आपके नेत्रकमल लालिमा रहित हैं क्योंकि आपने सकल क्रोधरूपी अग्नि को जीत लिया है। आपके नेत्र कटाक्ष बाणों से भी रहित हैं क्योंकि आप में विकार का उद्रेक है ही नहीं। आप का मुख सदा मन्द-मन्द मुस्कान को लिए हुए है अर्थात् प्रसन्न मुद्रायुक्त है क्योंकि आप में विषाद और मद का अभाव हो चुका है इसलिए हे नाथ! आपका मुख ही मानो आपके हृदय की आत्यन्तिक शुद्धि-निर्मलता को कह रहा है।
इस प्रकार से बहुत ही गूढ़ और महान अर्थ को लिए हुए यह चैत्यभक्ति अपने आप में अनुपम निधि है।
उसी प्रकार से मुनि, आर्यिका आदि जिस प्रतिक्रमण को प्रतिदिन प्रात: और सायंकाल में करते हैं वह दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण तथा पन्द्रह दिन में होने वाला या चार महीना या वर्ष में होने वाला बड़ा प्रतिक्रमण तथा अष्टमी आदि में होने वाली आलोचना-ये तीनों प्रतिक्रमण श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित हैं। यह रचनायें साक्षात् उनके मुखकमल से विनिर्गत हैं।
दैवसिक प्रतिक्रमण की टीका करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं-‘‘श्रीगौतमस्वामी मुनीनां दुष्षमकाले दुष्परिणामादिभि: प्रतिदिनमुपार्जितस्य कर्मणो विशुद्यर्थं प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलार्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्करोति’’-
‘श्रीमते वर्धमानाय नमो’ इत्यादि।
श्री गौतमस्वामी इस दुष्षमकाल में मुनियों के द्वारा दुष्परिणाम आदि से प्रतिदिन उपार्जित किए गए जो कर्म हैं, उनकी विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण लक्षण उपाय को कहते हुए उसकी आदि में मंगल के लिए इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हैं- श्रीमान् वर्धमान भगवान् को नमस्कार हो-इत्यादि।
निषीधिका दण्डक-इस दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण भक्ति में ‘‘निषीधिका दण्डक’’ आता है जो कि हमें बहुत ही प्रिय है। इसमें प्रथम पद जो ‘‘णमो णिसीहियाए’’ है, उसका अर्थ टीकाकार ने १७ प्रकार से किया है। यथा-
जिन और सिद्ध की कृत्रिम-अकृत्रिम प्रतिमायें उनके मन्दिर बुद्धि आदि ऋद्धि से सहित मुनिगण उनसे आश्रित क्षेत्र अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानी उनके ज्ञान उत्पत्ति के प्रदेश # उनसे आश्रित क्षेत्र सिद्धजीव उनके निर्वाण क्षेत्र उनसे आश्रित आकाश प्रदेश सम्यक्त्व आदि चार गुणयुक्त तपस्वी उनसे आश्रित क्षेत्र # उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश # योग में स्थित तपस्वी उनसे आश्रित क्षेत्र # उनके द्वारा छोड़े गए शरीर के आश्रित प्रदेश तीन प्रकार के पण्डितमरण में स्थित मुनिगण।
इस निषीधिका दण्डक में श्रीगौतमस्वामी ने अष्टापदपर्वत, सम्मेदशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी आदि की भी वंदना की है।
जब चार ज्ञानधारी सर्वऋद्धि समन्वित गौतम गणधर इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना करते हैं, तब आज जो अध्यात्म की नकल करने वाला कोई यह कह दे कि ‘‘यदि साधु के तीर्थ वंदना का भाव हो जावे तो उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए।’’ यह कथन जैन सिद्धान्त से कितना विपरीत है, यह विद्वानों को स्वयं सोचना चाहिए।
गणधरवलय मन्त्र-इसी प्रकार बड़ा प्रतिक्रमण जो कि पाक्षिक, चातुमार्सिक और वार्षिकरूप से किया जाता है। उसकी टीका के प्रारम्भ में टीकाकार कहते हैं-‘‘श्रीगौतमस्वामी दैवसिकादि प्रतिक्रमणादिभिर्निराकर्तुमशक्यानां दोषानां निराकरणार्थं वृहत्प्रतिक्रमणलक्षमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाट्यर्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह णमोजिणाणमित्यादि।’’
ये ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं’’ आदि ४८ मन्त्र गणधरवलय मन्त्र कहे जाते हैं, वृहत्प्रतिक्रमणपाठ में प्रतिक्रमणभक्ति में इनका प्रयोग है।
इन मन्त्रों का मंगलाचरणरूप धवला की नवमी पुस्तक में है। वहाँ का प्रकरण देखिए-
णमो जिणाणं-जिनों को नमस्कार हो।
शंका-यह सूत्र किसलिए कहा जाता है ?
समाधान-यह मंगल के लिए कहा जाता है।
शंका-मंगल किसे कहते हैं ?
समाधन-पूर्व संचित कर्मों के विनाश को मंगल कहते हैं।
शंका-यदि ऐसा है तो ‘‘जिनसूत्रों का अर्थ भगवान के मुख से निकला हुआ है, जो विसंवाद रहित होने के कारण केवलज्ञान के समान है तथा वृषभसेन आदि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्द रचना की गई है, ऐसे द्रव्य सूत्रों से उनके पढ़ने और मनन करनेरूप क्रिया में प्रवृत्त हुए सब जीवों के प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणीरूप से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होती है।’’ इसी प्रकार विधान होने से यह जिन नमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पड़ता है अथवा यदि यह सूत्र सफल है तो सूत्रों का अध्ययन व्यर्थ होगा क्योंकि उससे होने वाला कर्मक्षय इस जिन नमस्कारात्मक सूत्र में ही पाया जाता है, इस प्रकार दोनों का विषय भिन्न है।
आगे दूसरे सूत्र की उत्थानिका में विशेष स्पष्टीकरण हो रहा है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिक नययुक्त शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं।
णमो ओहिजिणाणं।।२।।
अवधिजिनों को नमस्कार हो।।२।।
यहाँ अभिप्राय यह है कि ‘‘महाकर्मप्रकृति प्राभृत’’ ग्रन्थ को रचते हुए भट्टारक श्री गौतमस्वामी मंगलाचरण में सर्वप्रथम ‘‘णमो जिणाणं’’ सूत्र का उच्चारण करते हैं। यद्यपि उतने एक सूत्र से मंगल हो गया है फिर भी पर्यायार्थिकजन के अनुग्रह के लिए आगे के अन्य सूत्रों की रचना करके मंगल करते हैं।
यहाँ यह बात विशेष समझने की है कि धवला के सूत्र साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से विनिर्गत होने से बहुत ही प्रमाणिक हैं।
इस धवला ग्रन्थ में ये गणधरवलय मन्त्र ४४ हैं और वृहत्प्रतिक्रमण में ४८ हैं। इसमें ‘‘णमो सयंबुद्धाणं’’ ‘‘णमो पत्तेयबुद्धाणं’’ ‘‘णमो बोहियबुद्धाणं’’ तथा ‘‘णमो बड्ढमाणाणं’’। ये चारों मन्त्र अधिक हैं।
यहाँ ‘णमो जिणाणं’ में छठे गुणस्थान से लेकर अर्हन्त भगवान तक के सभी जिनों को लिया है अव्रतियों को नहीं लिया है, ऐसा समझना चाहिए। एक-एक मन्त्र के अर्थों की कितनी विशेषता है, सो हिन्दी पद्यानुवाद में किंचित् व्यक्त की गई है।
विशेष इच्छुकों को इनके टीका ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए। एक मन्त्र के अर्थ को कहते हैं-
‘‘णमो दित्ततवाणं’’।।२३।।
दीप्ति का कारण होने से तप दीप्ति कहा जाता है। दीप्त है तप जिनका, वे दीप्ति तप हैं। चतुर्थ व षष्ठ आदि उपवासों के करने पर जिनका शरीर तेज तप जनित लब्धि के माहात्म्य से प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्र के समान बढ़ता जाता है, वे ऋषि दीप्ततप कहलाते हैं। उनकी केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती है अपितु बल भी बढ़ता है क्योंकि शरीर, बल, माँस और रुधिर की वृद्धि के बिना शरीर दीप्ति की वृद्धि नहीं हो सकती है इसलिए उनके आहार भी नहीं होता क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहा जाए कि भूख के दु:ख को शांत करने के लिए वे भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उनके भूख के दु:ख का अभाव है।
धवला टीका से यह निश्चित है कि श्री गौतम स्वामी चार ज्ञान के धारक सर्व ऋद्धियों से समन्वित महान तपस्वी भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर थे। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद भी ६६ दिन तक उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी, फिर जब इन्द्र ने इस इन्द्रभूति गौतम को भगवान के समवशरण में प्रवेश कराया था तब उनके जैनेश्वरी दीक्षा लेने के बाद ही ६६ दिन के अनंतर भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी पुन: श्रीगौतमस्वामी ने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त के बाद मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया था उसी दिन सायंकाल में अंगपूर्व की रचना कर ली थी।
इन्हें धवला में भूतबलि आचार्य ने वैâसे लिया है, सो इसी धवला में स्पष्ट है। यथा-
‘‘यह निबद्ध मंगल तो नहीं हो सकता क्योंकि कृति आदिक चौबीस अनुयोगद्वाररूप अवयवों वाले महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में गौतम स्वामी ने इसकी प्ररूपणा की है और भूतबलि भट्टारक ने वेदना- खण्ड के आदि में मंगल के निमित्त इसे वहाँ से लाकर स्थापित किया है अत: इसे निबद्ध मंगल मानने में विरोध है।’’
‘‘वर्धमान भगवान ने तीर्थ की उत्पत्ति की है।’’ अठारह महाभाषा और सात सौ क्षुद्रभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदों के प्ररूपक अर्थकर्ता हैं तथा बीजपदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं। ग्रंथकर्ता गौतम स्वामी की विशेषता धवला टीकाकार क्या बतला रहे हैं। देखिए-
पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पांच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धियों से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञान से असंख्यात लोकमात्र काल में अतीत, अनागत एवं वर्तमान परमाणु पर्यन्त समस्त मूर्त द्रव्य व उनकी पर्यायों को जानने वाले सप्त तपलब्धि के प्रभाव से मल-मूत्ररहित, दीप्ततपलब्धि के बल से सर्वकाल उपवासयुक्त होकर भी शरीर के तेज से दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बलयुक्त होने से हाथ की कनिष्ठा अंगुली द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रव आदि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को अमृत स्वरूप से परिणमाने में समर्थ, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक, अघोरतप ऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा सेवित चरणमूल से संयुक्त, आकाशचारण गुण से सब जीवसमूहों की रक्षा करने वाले, वचन एवं मन से समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देवसमूहों को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षररूप सब भाषाओं से हम सबको ही कहते हैं-‘‘इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले तथा समवसरणस्थ जनों के कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं क्योंकि ऐसे स्वरूप के बिना ग्रन्थ की प्रमाणता का विरोध होने से धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनों का पोषण बन नहीं सकता। यहाँ उपर्युक्त गाथा है-
गणधरदेव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान से सहित होते हैं।।३८।।
संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे-
अब वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता को कहते हैं-
पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बन्ध और मोक्ष।।३९।।
‘‘उक्त पांच अस्तिकायादिक कथा हैं।’’ ऐसे सौ धर्मेन्द्र के प्रश्न से सन्देह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तम्भ के देखने से मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा करके पंच सृष्टियों से अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिनभगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग की आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिन के तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है-वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई।।४०।।