परमब्रह्म परमात्मा, परमानंद निलीन।
नमूं नमूं नित भक्ति से, होवे भवदुखक्षीण।।१।।
जय जय गणधर देव, जय जय गुण गण स्वामी।
महावीर जिनदेव, समवसरण में नामी।।
जय जय विघ्न समूह, नाशक विश्व प्रसिद्धा।
सप्तऋद्धि परिपूर्ण, चार विज्ञान समृद्धा।।२।।
इन्द्रभूति तुम नाम, महाविभूति प्रदाता।
ब्राह्मण कुल अवतंस, गौतम गोत्र विख्याता।।
शास्त्र महोदधि तीर्ण, पांच शतक तुम छात्रा।
तुम सम ही दो भ्रात, गर्वित सहित सुछात्रा।।३।।
छ्यासठ दिन पर्यंत, प्रभु की खिरी न वाणी।
सौधर्मेंद्र उपाय, कीनो अति सुखठानी।।
गौतमशाला माहिं, वृद्धरूप धर आया।
तुम सब विद्याधीश, इससे तुम तक आया।।४।।
मेरे गुरु महावीर, आतम ध्यान लगाये।
भूल गया मैं अर्थ, जो जो श्लोक पढ़ाये।।
यदि दो अर्थ बताय, तो तुम शिष्य बनूँ मैं।
नहिं तो होवो शिष्य, मुझ गुरु के ये चहूँ मैं।।५।।
त्रैकाल्यं इत्यादि, जब यह श्लोक पढ़ा है।
अर्थ बोध से हीन, मन आश्चर्य बढ़ा है।।
चलो गुरू के पास, मैं शास्त्रार्थ करूँगा।
तुम हो छात्र अजान, गुरु से अर्थ कहूँगा।।६।।
उभय भ्रात के साथ, सब शिष्यों को लेके।
चले इंद्र के साथ, समवसरण अवलोके।।
मानस्तंभ निहार, मान गलित हुआ सारा।
वचन ‘‘जयतु भगवान्’’ स्तुति रूप उचारा।।७।।
निज मिथ्यात्व विनाश, जिनदीक्षा को लीना।
दिव्यध्वनि तत्काल, प्रगटी भवि सुख दीना।।
द्वादशांग मय ग्रंथ, गौतम गुरु ने कीने।
गणधर पद को पाय, सब ऋद्धी धर लीने।।८।।
वीर प्रभू निर्वाण, के दिन केवल पायो।
इन्द्र सभी मिल आय, गंधकुटी रचवायो।।
केवलज्ञान कल्याण, पूजा इन्द्र रचे हैं।
केवलज्ञान महान, लक्ष्मी को भी जजे हैं।।९।।
इसी हेतु सब लोग, दीपावली निशा में।
गणपति लक्ष्मी देवि, पूजें धनरुचि मन में।।
बारह वर्ष विहार, भवि उपदेश दिया है।
पुनः अघाति विनाश, मोक्ष प्रवेश किया है।।१०।।
गणधर भक्ती सत्य, सर्वसंपदा देवें।
धन धान्यादिक पूर, मोक्ष संपदा देवें।।
इस हेतू हम आज, गणधर चरण नमें हैं।
‘‘केवलज्ञान’’ प्रकाश, हेतू आप नमें हैं।।११।।
चौबीसों जिनराज की, गणधर गणना जान।
चौदह सौ बावन कही, तिनपद जजूँ महान्।।१२।।