ऊषा की बेला धीरे—धीरे हट रही है, रवि किरणें फैलना प्रारम्भ हो गई हैं, शीतल मन्द पवन चल रही है। चारों ओर सौरभ सुगन्ध बिखेर रहा है। सीढ़ियों पर पद चाप सुनाई दे रही है। पदचाप ध्वनि आभास दे रही है मन की गति की! कोई प्रमुदित मन उल्लसित होकर उड़ना चाह रहा है और अति वेग से गंन्तव्य ऊँचाई पर उड़कर पहुँचना चाहता है। समय की सीमा को लांघकर आखिरकार अपने स्थान पर पहुँचकर एक दम स्तब्ध—भौचक्का हो जाता है। आनन्द की चीख निकल पड़ती है। आनन्द में आदमी चिल्लाता है परन्तु परमानन्द में आदमी जड़वत् हो जाता है। परमानन्द की वह पवित्र भूमि है जिसकी सौरभ गंध आलोकित करती है जन मानस को, प्राणी मात्र को और ऐसी परम आनन्दित करने वाली पवित्र भूमि है सिद्धक्षेत्र गोपाचल की, गौरवता के गौरव गोपाचल की, जिसकी सौरभ सुगन्ध, गौरवमयी गरिमा, आत्मस्वभाव का भान कराने वाली ज्ञान रश्मि सहस्रों वर्षों से आत्म कल्याण का सन्देश दे रही है। जन जागरण का यह सिद्ध क्षेत्र गोपाचल गौरवमयी गरिमा के साथ ग्वालियर दुर्ग के नाम से अपना सौरभ बिखेर रहा है।
प्रेम का प्रतीक
गोपाचल के लिये प्रेम के वशीभूत होकर अनेक नामों एवं विशेषणों का प्रयोग किया जाता रहा। मिहिरकुल के राज्य के पन्द्रहवें वर्ष (सन् ५२७ ई.) में यहां के गढ़ को गोपभूधर, दशवी शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों के शिलालेख में गोपाद्रि तथा गोपगिरि, रत्नपाल कच्छपघात के लगभग १११५ ई. के शिलालेख में गोपक्षेत्र, विक्रम संवत् ११५० के शिलालेख में गोपाद्रि तथा अनेक शिलालेखों में गोपाचल, गोपशैल तथा गोपर्वत। वि. सं. ११६१ के शिलालेख में गोपालकेरि, ग्वालियर खेड़ा कहा गया है। इस नाम माला की विशेषता यह है कि इसके सभी मनकों में गोपाचल गढ़ को केन्द्र माना गया था। भट्टारक सुरेन्द्रर्कीित ने संवत् १७४० में रचित रविव्रत कथा में ग्वालियर को गढ़ गोपाचल लिखा है
‘गढ़ गोपाचल नगर भलो शुभ थानों।’
श्रद्धा का प्रतीक
सम्पूर्ण सृष्टि की भूमि एक—सी है, धरती की माटी की महक एक—सी है। परन्तु ऐसा क्या है गोपाचल की भूमि पर कि कोटि—कोटि मस्तक असीम श्रद्धा में नत हो जाते हैं और यहाँ की रज को मस्तक पर लगाकर धन्य अनुभव करते हैं। उस रज में ऐसा क्या होता है कि जिसका दर्शन कर सहस्रों वर्षों का प्राचीन, इतिहास, दर्शन, धर्म, संस्कृति साकार हो उठती है और जिसकी रज के स्पर्श मात्र से कभी अश्रु छलक पड़ते हैं और कभी आनन्द की अनुभूतियाँ हिलोरें लेने लगती हैं। इस धरती में श्रद्धा की यह सुरभि उस व्यक्तित्व की पुण्य पवित्र भावना का प्रताप है जिसने समाज को देश को, संसार को तथा प्राणी मात्र को कुछ ऐसा योगदान दिया जो युगों—युगों तक शाश्वत सत्य बनकर असत् पर सत् की सत्ता स्थापित कर, हिंसा पर प्रेम और शान्ति की विजय बनकर निस्पृह और निश्छल मन से आदर्श मूल्य और सिद्धान्तों की प्रतिष्ठापना करते हैं। इस विशाल विश्व के ऐसे शीर्षस्थ व्यक्तित्व और विभूतियों में अग्रणी, तन—मन में एक, नाम है— ‘सुप्रतिष्ठित केवली’ जिन्होंने गोपाचल पर निर्वाण प्राप्त किया और इसकी सौरभ सुरभि ने पावन पवित्र कर दिया इस भूमि को, इस भूमि की मिट्टी को ओर इसकी पल—पल में सुरभि महक कर आह्वान करती है इस सिद्धक्षेत्र के दर्शन के लिये–‘सुरभि महके पल—पल, चल गोपाचल चल।’ ‘श्री गोपाचल पर ‘सुप्रतिष्ठ’ केवली मोक्ष गये हैं अत: निर्वाण भूमि हैं’लमेंचू जाति का इतिहास, झम्मनलाल तर्क तीर्थ, प्रकाशक—सोहनलाल जैन, ७६ बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता—वि. सं. २००८ पृ. १३८—१४९ पर प्रकाशित आचार्य पट्टावली से उद्धृत।
सुप्रतिष्ठित केवली (एक परिचय)
एक दिन शौर्यपुर के उद्यान में गंधमादन पर्वत पर रात्रि समय प्रतिमायोग—धर सुप्रतिष्ठित मुनिराज विराजे थे। उस समय सुदर्शन नामा यक्ष ने पूर्व भव के बैर योग से मुनिराज पर उपसर्ग किये। दु:सह उपसर्ग—अग्निपात, हिमपात, मेघवृष्ट आदि उपसर्ग किये। इन दु:सह उपसर्गों को जीतकर घातिया कर्मों के क्षय से मुनिराज ने केवलज्ञान पाया। तब सौधर्मादिक चार प्रकार के देवों के समूह ने अपनी देवियों सहित आकर केवली की वन्दना की। सुप्रतिष्ठित मुनिराज को केवल ज्ञान उपजा जानकर शौर्यपुर का राजा अन्धकवृष्णि, परिवार सहित वन्दना को आया व सर्वज्ञ की पूजा कर अपने स्थान पर बैठा। जगत के अन्य जीव अंजली जोड़ सावधान होकर बैठे। भगवान केवली ने धर्म का उपदेश दिया—‘जन्म, जरा और मरण, शोक, भय और दु:ख इस सबको हरने वाला धर्म है। धर्म की ही परम शरण है।’’ तीर्थंकर श्री नमिनाथ ने जो लोगों को धर्म बताया तथा अनादिकाल से जो केवली भगवान कहते आये हैं ऐसा धर्म का उपदेश दिया। जब तक नेमिनाथ का जन्म न होय तब तक नमिनाथ स्वामी का तीर्थ है। सो नमिनाथ स्वामी ने जो धर्म का स्वरूप निरूपण किया वही धर्म का स्वरूप केवली भगवान ने अन्धकवृष्णि और अन्य लोगों को बताया।हरिवंश पुराण, २८२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास—प्रथम भाग बलभद्र जैन, वीर निर्वाण सं. २५००, पृ. २७९. सुप्रतिष्ठित केवली के मुख से धर्म का उपदेश सुनकर राजा अन्धकवृष्णि ने अपने पूर्व भव के बारे में पूछा तब सर्वज्ञ ने बताया। ‘अयोध्या नगरी का राज रत्नवीर। उसके राज्य में सुरेन्द्रदत्त नाम सेठ। उसके मित्र रूद्रदत्त नाम का ब्राह्मण। एक समय सेठ व्यापार के लिये परदेश गया। चलते समय उसने रुद्रदत्त नामा ब्राह्मण को बारह वर्ष तक जिनेन्द्र भगवान की पूजा के निमित्त—द्रव्य दिया। लेकिन रूद्रदत्त ब्राह्मण जूए में सब धन हार गया और चोरी करने लगा। चोरी के अपराध में पकड़ा गया। अपराध की सजा छूटकर वह जंगल में जाकर भीलों से मिल गया। यहाँ लोगों को सताने लगा। तब अयोध्या के राजा के सेनापति—अश्रेणिक ने भीलों को युद्धमें मारा जिसमें रूद्रदत्त मारा गया। फिर पाप के उदय से हस्तिनापुर में कापिष्ठ दायन नामक ब्राह्मण के गौतम नाम पुत्र हुआ। बचपन में माता पिता का स्वर्गवास हुआ। यह गौतम नामा पुत्र भिक्षावृत्ति से गुजारा करने लगा। भिक्षावृत्ति हेतु भ्रमण करते हुए एक दिन उसे समुद्रदत्त नाम के मुनि के दर्शन हुए। मुनि महाराज से दीक्षा ग्रहण की। तप के प्रभाव से यह गौतम नाम का जीव अक्षीण महानसी ऋद्धि फिर पदानुसारिणी लब्धि और बीजवृद्धि नाम ऋद्धि को प्राप्त हुआ। कई दिन में समुद्रदत्त नामा मुनि आराधना आराधिकर छठवीं ग्रीवक विषै विशालनामा विमान में अहिमिन्द्र हुआ और वह शिष्य गौतम नामा जीव तपकर उसी विमान में अहिमिन्द्र हुआ। अहिमिन्द्र पद के सुख भोगकर वह गौतम नामा जीव वहाँ से चलकर अन्धकवृष्णि राजा भया और गुरु समुद्रदत्त नामा मुनि अहिमिन्द्र राजा अन्धकवृष्णि अपने पुत्र समुद्रविजय को राज्य देकर आप सुप्रतिष्ठित केवली के निकट निग्र्रन्थ भया। छोटे भाई भोजकवृष्णि ने मथुरा का राज्य उग्रसने को देकर पंचमहाव्रत धारेहरिवंश पुराण, २८२—२९७ बड्ढमाण चरिउ (विबुध श्रीधर रचित) ७ वीं सन्धि : बड्ढमाण चरिउ, सम्पादन एवं अनुवाद—डॉ. राजाराम जैन, सन् १९७५। वि. सं. २०३२—७ वी संधि (४—१७ञ्च एवं आठवीं संधि, पृ. १६३—१७७ एवं १७९—१९७।
वस्त देश स्थित एक कनकपुर नामा नगर के राजा कनकप्रभ, रानी कनकबाला जिनका पुत्र कनकध्वज का विवाह कनका प्रभा के साथ हुआ। कनकध्वज अपनी प्रियतमा के साथ नन्दन वन गया। वहाँ मुनिसुव्रत नामा मुनिराज के दर्शन किए और उसने दीक्षा ग्रहण की। कठोर तपस्या करके कापिष्ठ देव हुआ। वह कापिष्ठ वहाँ से चलकर उज्जयनी नरेश वङ्कासेन की सुशीला नामक रानी की कोख से हरिषेण नामक पुत्र हुआ। वङ्कासेन ने अपना राज्य हरिषेण को सौंपकर श्रुतसागर मुनिराज से दीक्षाग्रहण की। हरिषेण अनासक्त भाव से गद्दी पर बैठा। निरंतर र्धािमक कार्यों में लीन रहा। अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण कराया और अष्ट द्रव्यों से पूजा विधान किया करता था परन्तु राज्य शासन में भी सावधान रहा था। एक बार वह प्रमदवन में ‘मुनिराज सुप्रतिष्ठ’ के दर्शनार्थ गया। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जिन दीक्षा ले ली और तपश्चरण कर मरा वह महाशुक्र नाम के स्वर्ग में प्रीतिकर देव हुआ। यह प्रीतिकर देव च्यवनकर प्रियदत्त चक्रवर्ती हुआ और मुनिराज क्षेमंकर से दीक्षा ले ली। तपस्या के फलस्वरूप मरकर सहस्राण स्वर्ग में सूरिप्रभ नामक देव हुआ। वहाँ से चयकर नन्दन नामा राजा हुआ। मुनिराज का उपदेश सुनकर तपश्चर्या करने लगा। तपस्यापूर्वक प्राण तजकर प्राणतस्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुआ (आठवीं संधि) तत्पश्चात् यह नन्दन का जीव कुण्डपुर के महाराजा सिद्धार्थ की महारानी प्रियकारिणी की कोख से महावीर तीर्थंकर हुए। इस प्रकार महावीर भगवान के पूर्व भव में हरिषेण के जीव को मुनिराज सुप्रतिष्ठि ने सम्बोधित कर जिन दीक्षा दी। यह सुप्रतिष्ठित केवली गोपाचल से मोक्ष गये। अत: यह गोपाचल निर्वाण भूमि है, सिद्ध भूमि हैं, तीर्थ है, वन्दनीय है।
गौरव गाथा
चेदि जनपद के अन्तर्गत ग्वालियर का प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र महाभारत के पूर्व का लगभग ५४०० वर्ष से अधिक प्राचीन सिद्धक्षेत्र है। जैनधर्म के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के जन्म से पूर्व का यह सिद्ध क्षेत्र अपनी गरिमा के साथ जन जन को, प्राणीमात्र को आत्मा के उध्र्वारोहण का संदेश दे रहा है। पश्चातवर्ती प्रारम्भ हुआ महाभारत, विनाश का ताण्डव नृत्य, जिसमें नष्ट हो गया कौरव—पांडव वंश, सर्वनाश। यही नहीं आपसी कलह में यादव कुल का भी विनाश। इस विनाश लीला में विस्मृत हो गया गोपाचल। विनाश के झंझावात् में भूल गये गोपाचल को। परन्तु महान आत्माओं की महिमा कभी मिटती नहीं। विक्रम संवत् ३१२ में कुन्तलपुर (वर्तमान सिहोनिया) के राजा सूरजसेन शिकार खेलते हुए गोपाचल पर आयें, उन्हें कुष्ट रोग भी था। यहाँ पर उन्हें एक साधु के दर्शन हुए। साधु ने गोपाचल पर बने एक कुण्ड से जल दिया, जिससे राजा का कुष्ट दूर हो गया। राजा ने यहाँ दुर्ग का निर्माण कराया तथा कुण्ड बनवाया जो सूरज कुण्ड नाम से प्रसिद्ध है। विक्रम की नौवीं शताब्दी की घटना है। गोपागिर (गोपाचल) दुर्ग नगर कान्यकुब्ज देश में था और उसे कन्नौज के राजा यशोवर्धन के पुत्र आम ने अपनी राजधानी बनाया था। आमराजा के दरबार में बौद्ध भाषाकर वर्धन कुंजर थे। वर्धन कुंजर पिछलेसात जन्मों से सरस्वती के अनन्य भक्त थे। और सरस्वती देवी ने उन्हें बाद में अपराजेय बनाने वाली अक्षय वचन गुटिका दी थी। जिसे वह अपने मुख में धारण कर लेते थे। इसलिये उन्हें कोई बाद में परास्त नहीं कर सकता था। राजाआम उनके परम शिष्य थे। एक समय बप्पभट्ट सूरि नामक श्वेताम्बर जैन साधु का आगमन आम के दरबार में हुआ। आध्यात्मिक चर्चा में किसी विषय पर बौद्ध भाषाकार वर्धन कुंजर से बहस छिड़ गई और दोनों में वाद—विवाद तय हुआ निर्णायक बने राजा आम। बप्पभट्ट सूरि और वर्धन कुंजर के मध्य छह माह तक वाद चलता रहा। अंत में गिरादेवी (सरस्वती) का आव्हान किया जिसकी सहायता से वप्पभट्ट सूरि की विजय हुई।कादम्बिनी—तंत्र विशेषांक
तीर्थक्षेत्र— गोपाचल की गणना तीर्थ क्षेत्र में प्रारम्भ से ही होती रही है : गोपाचल आख्यान में लिखा हैगोपाचल आख्यान (सन्दर्भ क्रमांक ६), पृ. ५०
—दोहा—
सिद्ध क्षेत्र गोपाचल कथा, पढ़ै सुनै जो कोय।
पुत्र पौत्र धन सम्पत्ति लहै, अन्त मुक्ति पद होय।।
सुमति सागर भट्टरकतीर्थवन्दन संग्रह, सम्पादक—डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, प्रकाशक—जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर सन् १९, ६५ पृ. ५६ ने तीर्थ जयमाला में लिखा है—
‘सुवन्दौ पालि शान्ति जिनगय, सुपूज्य पाद नयन विराज।
सुअलवर रावण पास जिनेन्द्र, सुबावनगज गोपाचल चन्द्र।।
श्री ज्ञानसागर भट्टारक ने तीर्थवन्दना में लिखा है।वही, पृ. ६७
‘गोपाचल जिनधाम बाबनगज महिमा वर। भविक जीवन आधार, जन्म कोटिक पालक हरा।।’’
तीर्थ जयमाला—वही, पृ. ८८ ‘‘सुग्वालियर गढ़ बन्दों जिनराज, सुबावनगज पुरी सुख काज’। ग्वालियर दुर्ग पर भगवान आदिनाथ की ५७ फुट की खड्गासन प्रतिमा हैं यह प्रतिमा एक पत्थर की बनी है जो पहाड़ की चट्टान से काटकर बनाई है। यह बावनगजा के नाम से प्रसिद्ध है। भारतवर्ष में केवल दो ही स्थान हैं जहाँ भगवान आदिनाथ की विशाल खड्गासन प्रतिमा हैं। ये दोनों स्थान बावनगजा नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों ही प्रतिमाएँ मध्यप्रदेश और िंवध्याचल पर्वतमाला की शृंखला में हैं। एक बड़वानी के दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे पर ‘चूलगिरि’ तथा दूसरी स्वर्ण रेखा नदी के किनारे गोपाचल (ग्वालियर) दुर्ग पर है। दोनों ही स्थान तीर्थक्षेत्र हैं। चूलगिरि से कुंभकर्ण और मेघनाथ मोक्ष गये और गोपाचल से सुप्रतिष्ठित केवली मोक्ष गये हैं।
अतिशय क्षेत्र
गोपाचल दुर्ग के परकोटे के बाहर एक मनोरम स्थान है जो ‘बाबा बावड़ी’ अथवा ‘एक पत्थर की बावड़ी’ के नाम से प्रसिद्ध है। पर्वत के एक कोने में एक पत्थर में खुदी हुई प्राकृतिक बावड़ी है। यह लगभग २० फुट लम्बी, २० फुट चौड़ी तथा २० फुट गहरी है। इसमें किसी अज्ञात स्रोत से पानी आता है। बारह महीने दुर्ग के इस भाग में अनेक गुफायें एवं विशाल खड्गासन और पद्मासन प्रतिमाएँ हैं।मूर्तियाँ पहाड़ में बनाई गई हैं। यह दक्षिण—पूर्व समूह कहलाता है। यह समूह समुन्नत मूर्तिकला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यही वह विश्व की सबसे विशाल अद्वितीय पद्ममासन प्रतिमा भगवान पार्श्र्वनाथ (?) की हे, जो ४२ फुट ऊँची और ३० फुट चौड़ी है। मुगल बादशाह बाबर ने यहाँ की समस्त मूर्तियों को खण्डित कर दिया था—
‘‘द्व—पार्श्र्व में उत्कीर्ण अनुपम जैन बिम्ब सुहावने। नयनाभिराम—ललाम—सुन्दर नग्न रूप लुभावने।।
नग्र मुद्रा देखकर बाबर हुआ पागल जभी। विद्वेषता वशमूर्तियाँ तब भग्र करवा दी सभीग्वालियर का अतीत, पृ. १५।।
परन्तु भगवान पार्श्र्वनाथ (?) की इस अतिशय युक्त अद्वितीय प्रतिमा पर उस बाबर की व्रूरता का प्रभाव नहीं पड़ा। यह मूर्ति खण्डित नहीं हो सकी। इसका क्या कारण था ? इस सम्बन्ध में विभिन्न किंवदन्तियाँ हैं। तथ्य जो भी हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि दुर्ग की सभीमूर्तियाँ खण्डित हैं, किन्तु यह अखण्डित है। यह अतिशय है। श्री कामताप्रसाद जी जैन अलीगंज, एटा के शब्दों में— ‘ग्वालियर दुर्ग के दर्शन करते ही मानव मन के लोक व्यवहार जन्य ब्राह्म रूप एवं साथ ही शाश्वत् जीवन के मौलिक आधारों का आभास मिलता है। दूर से देखते ही यह दुर्दान्त सैनिक की नि:शंक वृत्ति को सुदृढ़ता से निवाहे खड़ा दीखता है और जब उसके पास जाओ तो सत्य का शाश्वत सौष्ठव, शिव का आनन्द, मृत्यु और निर्वाण सन्देश का सदाबहार सौन्दर्य उसकी कलाकृतियों में बिखरा हुआ मिलता है। हिंसक आतताइयों ने उसकी इस शाश्वत् निधि को लूट—खसोट के नाशक प्रहारों द्वारा मिटाना चाहा, पर वह मिटा न सके। वह आज भी जीती—जागती है, और मानव को सच्चे जीवन का सन्देश सुना रही है। ग्वालियर दुर्ग का यह तो महत्व है कि वह मानव को लोक व्यवहार के प्रपंचों से अंधे न होकर न फँसने के लिये सावधान करता है। और अंहिसा की अमोध शक्ति का पाठ पढ़ाता है।वही, भूमिका श्री कामताप्रसाद जैन, पृ. (ख) मातृचेट (५२५ ई.) ने अपने शिलालेख में गोपाचल के विषय में लिखा है—‘नाना धातु विचित्रे गोपाहय नाम्नि भूधरे रम्ये’ (अर्थात् गोपाचल का भूधर जिन पर विभिन्न धातुएं मिलती हैं)। गोपाचल पर उपलब्ध यह प्राचीनतम शिलालेख हैं। वि. सं. १०११ के हांग के शिलालेख में गोपाचल को ‘विस्मैक निलय’’ लिखा है। इन सब भौतिक आकर्षणों के अतिरिक्त गोपाचलगढ़ के इतिहास में अनेक रोमांचकारी घटनायें भी गुम्फित हो गई। इन्हीं कारणों से गोपाचल के विषय में हिन्दी तथा फारसी के इतिहासकारों ने अन्य स्थानों के अपेक्षा अधिक ग्रंथ लिखें।
कला क्षेत्र
गोपाचल गढ़ को जैन धर्म का गढ़ या तीर्थ कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। जैन प्रतिमाओं का तो यह विपुल भंडार है। रइधू ने ‘अगणिय अण पडिम को लक्खई’’ वही, रइधूग्रंथावली भूमिका पृष्ठ १४. के रूप में यहाँ की जैन र्मूितयों को अगणित कहा है। पुन: आगे लिखता है—‘उसने (राजा डूंगरिंसह) अगणित र्मूितयों का निर्माण कराया था। इन्हें ब्रह्मा भी गिनने में असमर्थ हैं।वही इनमें से अधिकांश र्मूितयों की प्रतिष्ठा रइधू के द्वारा हुई हैं। इस पर्वत पर जैन र्मूितयों की संख्या १५०० के लगभग बताई जाती है। इनमें ६ इंच से लेकर ५७ फुट तक की र्मूितयां हैं। यहाँ की सबसे विशाल खड्गासन आदिनाथ की है और अद्वितीय विशाल पद्मासन र्मूित ४२ फुट की पाश्र्वनाथ (?) की है। तोमर वंश के राजा डूंगरिंसह (वि. सं. १४८१) ने जब से राज्य सम्भाला उस समय से र्मूितयों का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ और किले की चट्टानों में र्मूितयों का उत्कीर्ण किया। ये पुरातात्विक एवं शिल्प कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। १५वीं शताब्दी में तोमर राजाओं के राज्यकाल में जैनियों का जोर बढ़ा और उस समय पूरी पहाड़ी को जैन तीर्थ बना दिया गया। यद्यपि यह तीर्थ क्षेत्र तो प्राचीन था, परन्तु इस काल में इसकी महिमा अधिक बढ़ी। सारी पहाड़ी पर ऊपर—नीचे, बाहर—भीतर चारों ओर गुफा मन्दिर खोद दिये गये ओर उनमें विशाल र्मूितयों का निर्माण कराया। गुफा मन्दिर, र्मूितयों की संख्या और विस्तार में सर्वाधिक है। यह सब ३३ वर्ष की देन है। र्मूितयाँ कलापूर्ण, सुघड़ एवं सौम्य हैं। अत्यन्त कुशल अनुभवी शिल्पियों द्वारा र्नििमत हुई हैं। र्मूितयों का सौष्ठव, अंग विन्यास और भावाभिव्यंजन सभी कलाकारों की निपुणता की मूक साक्षी हैं।
प्राचीनता
कोई नहीं जानता कि गोपाचल दुर्ग कब बना। इसके निर्माण काल का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। कामता प्रसाद जैन के शब्दों में—‘ग्वालियर दुर्ग आज का नहीं, कल का नहीं, वह तो मानव की अतीत वृत्ति का क्षेत्र होने के नाते उतना ही पुराना है जितना कि आकाश और काल। हाँ काल चक्र की फिरन से, इतिहास ने उसके नाना रूप देखें हैं ग्वालियर का अतीत—भूमिका।
‘‘इतिहास जैनागम विषै, इस दुर्ग को सम्मान से।
देखा गया ओतप्रेम से, प्राचीनतम युग काल से।।’’वहीं, पृ. ९
यद्यपि ग्वालियर का सर्वाधिक उल्लेख मार्वण्डेय पुराण में ‘गोवद्र्धन—पुरम’ मिलता है। परन्तु यह गोपाचल तो वर्तमान अवर्सिपणी काल के कर्मभूमि काल से अवस्थित है। श्री वर्धमान पुराण में श्रीनवलशाह ने लिखा है—१८ ‘गोयलगढ़ के वासी वैश, आये जह श्री आदि जिनश।’’लेखक व प्रकाशक—मोहनलाल जैन काव्यतीर्थ—(वी. नि. सं. २४६८) श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन गोलापूर्व डायेरक्टरी (भगवान आदिनाथ का समवसरण विराजमान है, गौयलगढ़ के वैश्य दर्शनार्थ आये) गोयलगढ़ को ग्वालियर की संज्ञा दी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र का नाम गोयलगढ़ उस समय था जब भगवान आदिनाथ का विहार यहाँ हुआ था। भगवान आदिनाथ की ५७ फुट ऊँची खड्गासन प्रतिमा एवं इस क्षेत्र का बावनगजा नाम इसका प्रमाण है। खड्गराय कवि ने लिखा है—
धर्म जुधिष्ठर संवत लहयौ। आदि ग्रंथ में ते मैं कह्यौ।।१
गोपाचल आख्यान पृ. ५८
नाना कवि ने गोपाचल आख्यान में भी कहा है ‘द्वापर के द्वय मास रहे,
पुनि प्रवेश कलिकाल। सो संवत् मिति जानयो, गढ़ की नींव सुकाल।।
वही, पृ. ५९
महाभारत का युद्ध द्वापर काल में हुआ था। उपरोक्त पंक्तियों में गोपाचल दुर्ग की नींव कलियुग के पूर्व द्वापर के अंत में जब दो मास रह गये तब रखी गई है। सुप्रतिष्ठित केवली का निर्वाण गोपाचल पर बाइसवें जैन तीर्थंकर नेमिनाथ के बाबा अन्धकवृष्णि के समय में हुआ था। नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। तात्पर्य यह है कि महाभारत से पूर्व निर्वाण हुआ था। इतिहासकार महाभारत समय को ईसा से ३५०० वर्ष पूर्व मानते हैं। भारत के दिगम्बर जैन तीर्थभारत के दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र, बलभद्र जैन, सन् १९७६, पृष्ठ ३४। में बताया है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि ग्वालियर दुर्ग का निर्माण ईसा से ३००० वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार सुप्रतिष्ठित केवली का निर्वाण काल ६००० वर्ष पूर्व का आता है। वैसे जैन मान्यतानुसार बाइसवे तीर्थंकर नेमिनाथ के ८३७५७ वर्ष बाद पाश्र्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर का जन्म हुआ। पाश्र्वनाथ के २५० वर्ष बाद महावीर (अंतिम व चौबीसवें तीर्थंकर) का जन्म हुआ। भगवान महावीर के निर्वाण को अब २५१७ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस गणना सु सुप्रतिष्ठित केवली का निर्वाण गोपाचल से लगभग ८७००० वर्ष पूर्व हुआ। गोपाचल अतिप्राचीन सिद्धक्षेत्र है। गोपाचल, गोपगिर, गोयलगढ़ आदि किसी नाम से पुकारें, यह युगों—युगों से इस जगत में इसकी भूमिका रही है। केवल हमारी स्मृतियाँ भूली—बिसरी हैं। जिनके अनुसंधान की आवश्यकता है।
विशेष
सुप्रतिष्ठित केवली की निर्वाण भूमि होने से गोपाचल ‘सुप्रतिष्ठ निर्वाण क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ—
‘‘सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टि।।
ये साधवो हतमला: सुगति प्रयाता: स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूषन्।।३०।।
तीर्थ वन्दन संग्रह, पृ. ५
आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि) ने निर्वाण भक्ति में निर्वाण क्षेत्रों के नाम गिनायें हैं उनमें सुप्रतिष्ठ निर्वाण क्षेत्र हैं। एक बार गोपाचल के अंचल में रार्जिष चन्द्रगुप्त मौर्य और उनके गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु भी गिरनार जाते हुए ठहरे थे।ग्वालियर का अतीत—भूमिका भद्रबाहु का काल ई. पूर्व तीसरी शताब्दी का अंत माना जाता है। ईसवी प्रथम शताब्दी के लगभग मथुरा, कान्तिपुरी, पद्मावती और विदिशा में नाग राजाओं का राज्य था। उनमें से कुछ को निर्विवाद रूप से सम्राट कहा जा सकता है। इन चारों नगरों में पद्मावती और कान्तिपुरी ग्वालियर क्षेत्र में है। पद्मावती वर्तमान समय में पवाया नामक छोटे से ग्राम के रूप में विद्यमान है और कान्तिपुरी के नाम पर कुतबार नामक ग्राम है‘गोपाद्रौदेवपत्तने’, डॉ. हरिहरनिवास द्विवेदी, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा भगवान महावीर २५०० वा निर्वाण महोत्सव पर प्रकाशित। इन दोनों नगरों के आवागमन के रास्ते में गोपाचल है। अत: भगवान पाश्र्वनाथ का विहार गोपाचल पर होना स्वयं सिद्ध है। किन्तु गोपाचल की विशेषता तो यह है कि उसका अवतरण एक संत के दु:ख मोचन प्रसाद और एक शासक की लोकहितकारिणी दयावृत्ति से हुआ। कहते हैं कि कुंतलपुर के कछवाहा सूरजसेन को कोढ़ हो गया था। अनायास इस पहाड़ी पर आ निकले। यहाँ पर उनका समागम ग्वालिया नामक संत से हुआ। राजा ने प्यास बुझाने को पानी माँगा। सन्त ने पास के कुण्ड से पानी दे दिया। पीने के बाद राजा ने जल में स्नान किया ओर राजा का कोढ़ चला गया। राजा ने प्रसन्न होकर संत के नाम से ग्वालियर दुर्ग ओर अपने नाम से सूरजकुण्ड बनवाया जो आजतक विद्यमान है। ग्वालियर की यह संस्कृति उसकी आभा को अधिकाधिक गौरवास्पद बनाती है।ग्वालियर का अतीत, भूमिका, पृ. ध ग्वालियर दुर्ग के प्रारम्भिक निर्माण की किवदंती ही अतिशयकारी है जो आज तक विद्यमान है। विशेषता यह है कि इस दुर्ग पर राग, वैराग्य, वीतरागता, वीरता, कला, संस्कृति एवं अहिंसा, करूणा, दया का अपूर्व संगम है जो अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। पद्मावती पुरवाल के कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर एवं अपभ्रंश भाषा के पन्द्रहवीं—सोलहवी शताब्दी के महाकवि रइधू ने गोपाचल की उपमा स्वर्गपुरी, इन्द्रपुरी, एवं कुबेरपुरी से दी है। परन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ, क्योंकि कवि की दृष्टि में ज्ञान एवं गुरु ही सर्वोपरि होते हैं, भौतिक सुख समृद्धि तो उनके समक्ष नगण्य है। अत: गोपाचल को ‘‘नगरों का गुरु अथवा पण्डित घोषित किया।’’रइधू ग्रंथावली—सिरि रइधू विरइउ पासणाह चरिऊ, सं. डा. राजाराम जैन, प्रकाशक—जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १/३/२०, पृ. ५.
वर्तमान गौरव
आज भी ऊँचा मस्तक ताने गढ़ के रूप में युगों—युगों की गाथा समेटे यह गोपाचल खड़ा है। इस किले के चारों ओर तथा भीतर अगणित जैन र्मूितयाँ हैं जो शान्ति और अहिंसा का संदेश दे रही हैं। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् भी इसमें अनेक घटनायें, अनेक राजवंशों का इतिहास व अनेक स्मृतियाँ गुंथी हुई हैं। कालचक्र के फिरन से इसने नाना रूप देखे हैं। इसके चारों ओर प्राचीनता का सौरभ बिखरा पड़ा है। महान विभूतियों की सौरभ—सुगन्ध पल पल महक रही है। एक बार अवश्य इस क्षेत्र का दर्शन करें। इसके दर्शन बिना यात्रा अधूरी रहेगी। सन्दर्भ सूची : १. ग्वालियर का अतीत (खण्ड काव्य), पंडित छोटेलाल वरैया, प्रकाशक—(धर्मवीर सेठ) राजाराम जैन कमलागंज कोठी, शिवपुरी—१९५९, पृ.१०। रइधू ग्रंथावली (पासणाह चरिचरिउ) राजाराम जैन प्रकाशक—लालचन्द हीराचन्द जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर। वलभद्र जैन, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, प्रकाशक—भारत वर्षीय दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई, १९७६, पृ. ३४. ६. सन्दर्भ—१, पृ. १०—११ एवं गोपाचल आख्यान, हरिहरनिवास द्विवेदी—जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर संस्करण—१९८०, पृ. ५७ एवं ११७.