ग्वालियर, सेण्ट्रल रेलवे की मुख्य लाइन पर आगरा—झाँसी के मध्य में आगरा से ११८ कि. मी. दूर एक प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक शहर है। यह एक समय ब्रिटिश शासनकाल में भारत की रियासतों में चौथे स्थान पर था और उसके नरेश िंसधिया वंश के थे। प्राचीनकाल में ग्वालियर का बड़ा राजनैतिक महत्व रहा है। दक्षिण भारत का द्वार होने के कारण इसको विशेष राजनैतिक महत्व मिल चुका है। जैन इतिहास, कला और पुरातत्व की दृष्टि से भी इसका गौरवपूर्ण स्थान रहा है। इसी जैन पुरातत्व के कुछ भाग को संजोकर रखा है, ग्वालियर के पुरातत्वीय संग्रहालय ने। ग्वालियर का केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय दुर्ग में बने गूजरी महल में स्थित है। गूजरी महल न केवल एक प्राचीन स्मारक ही है, अपितु वह स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण भी है। इस गूजरी महल के साथ एक ऐसी प्रेमकथा जुड़ी हुई है जो मध्यभारत में बड़ी लोकप्रिय रही है। कथानक इस प्रकार है कि राजा मानिंसह को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। एक दिन वे दुर्ग के उत्तर—पश्चिम में स्थित ‘राय’ नामक गांव में शिकार खेलते हुए पहुँच गये। गांव में एक स्थान पर दौ भैंसों में युद्ध हो रहा था। दोनों भयंकर क्रोध के कारण एक—दूसरे से गुंथे हुए थे। कुछ गुजरियाँ सिर पर घड़े रखे हुए राह साफ होने की प्रतीक्षा में वहाँ खड़ी थी। किसी में भी दोनों भैंसों को अलग करने का साहस नहीं था। सहसा एक गूजरी आगे बढ़ी और अपने बलिष्ठ हाथों से भैंसों के सींग पकड़कर दोनों को अलग कर दिया। राजा मानिंसह यह सारा दृश्य वहाँ खड़े देख रहे थे। नारी के इस अतुल साहस व शारीरिक बल को देख राजा उसकी ओर आर्किषत हो गये और उन्होंने गूजरी से विवाह का प्रस्ताव रख दिया। गूजरी ने एक शर्त के साथ विवाह करने को कहा। शर्त थी— यदि राय ग्राम की नदी से महल तक हर समय जल पहुँचाने की व्यवस्था की जायें। राजा ने गूजरी की यह शर्त स्वीकर कर ली। विवाह के बाद गूजरी का नाम ‘मृगनयनी’ रखा गया। उसके रहने के लिये सुन्दर महल बनवाया गया। वह ‘गूजरीमहल’ के नाम से विख्यात है तथा ‘रानी सागर’ यह स्मरण करवाता है कि राजा मानिंसह ने अपनी प्यारी रानी के लिये जल की विशेष व्यवस्था की थी।
इस संग्रहालय में जो जैन पुरातत्व— सामग्री संग्रह की गयी है, वह प्राय: तीन स्थानों से प्राप्त हुई है—प्राचीन ग्वालियर, पधावली और भिलसा। ग्वालियर से आयी र्मूितयाँ प्राय: तोमरवंशीय अर्थात् तोमरवंश के शासनकाल की हैं। कुछ ११—१२ वीं शताब्दी की है। एक पद्मासन र्मूित लेख के अनुसार, महाराजधिराज मानिंसह के शासनकाल में विक्रम सं. १५५२ में प्रतिष्ठित की गई थी। दूसरी र्मूित पाश्र्वनाथ की विक्रम सं. १४७६ की है। एक अन्य पाश्र्वनाथ की र्मूित ११—१२ वीं शताब्दी की है। ग्वालियर की र्मूितयों में नेमिनाथ, धर्मनाथ, और चंद्रप्रभु की र्मूितयाँ है एवं चौमुखी मुर्तियाँ है। इनमें क्रमश: ऋषभनाथ, अजितनाथ, महावीर और पार्शवनाथ की र्मूितयाँ है। भिलसा से भी एक चतुर्मुखी प्रतिमा मिली है। उसमें भी र्मूितयों का क्रम उपर्युक्त रीति से है। भिलसा से प्राप्त ऋषभदेव की एक र्मूित अपने अद्भुत केश—विन्यास के कारण विशेष उल्लेखनीय जान पड़ती है। इसी प्रकार पधावली की र्मूितयों में आदिनाथ, धर्मनाथ, पद्मप्रभु, अजितनाथ और पाश्र्वनाथजी की र्मूितयाँ है। ये र्मूितयाँ पधावली के पश्चिम में स्थित पहाड़ी से लायी गयी थी। ये सभी १२ वीं से १४ वीं शताब्दी की है। उपरोक्त मुर्तियाँ गूजरी महल के फाटक में जाते ही गैलरी में रखी है, अथवा गैलरी क्रमांक—२० जो जैन कक्ष कहलाता है, में सुरक्षित है। ये सभी र्मूितयाँ इस प्रकार है।
१. पार्श्वनाथ— इस का मात्र सिर है।
२. पद्मासान प्रतिमा, अवगाहना ढ़ाई फुट है। ऊपर की ओर दोनों सिरों पर दो पद्मासन अर्हंत प्रतिमाएँ हैं। उनके नीचे दो देवियाँ वाद्ययन्त्र लिये हुए हैं। उनसे नीचे चमरवाहक हैं।
३. साढ़े चार फुट शिलाफलक पर दो खड़गासन तीर्थंकर र्मूितयाँ हैं। सिर के ऊपर छत्र है। कोनों पर आकाशचारी गंधर्व हैं। भगवान के हाथों के पास दोनों ओर दो दो चमरेन्द्र खड़े हैं। पाषाण का वर्ण हल्का पीला है।
४. दूसरे बरामदेमें सहस्रकूट चैत्यालय है।
५. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ खड़गासन मुद्रा में व चारों कोनों पर चमर—वाहक हैं।
६. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा में व अवगाहना चार फुट। ७. पूर्वोक्त प्रतिमा जैसी है। लेकिन चमरवाहक नहीं है।
उपरोक्त प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैनकक्ष नं. २० में मुर्तियों की स्थिति इस प्रकार है—
१.सवा दो फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा। गर्दन से ऊपर का भाग नहीं हैं
२. सर्वतोभद्रिका।
३.पद्मासन मुद्रा में सवा दो फुट उन्नत प्रतिमा पुष्पदन्त तीर्थंकर की। परिसर में ऊपर कोनों पर गजारूढ़ इंद्र, नभचारी देव और मध्य से चमरेन्द्र।
४.तीर्थंकर मुर्ति का केवल पीठासन भाग है, शेष खण्डित है। मध्य में बोधिवृक्ष बना हुआ है। उसके दोनों और खड़े हुए भक्त उसकी पूजा कर रहे हैं। उसके ऊपर पद्मासन तीर्थंकर मुर्तियाँ है। उनके दोनों और यक्ष व यक्षिणी खड़े हैं। मुर्तिलेख के अनुसार इस मुर्ति की प्रतिष्ठा संवत् १५५२ ज्येष्ठ सुदी ९ सोमवार को सम्पन्न हुई थी।
५.खड्गासन मुद्रा में ७ फुट उन्नत तीर्थंकर प्रतिमा। परिसर में आकाशचारी गन्धर्व और चमरेन्द्र।
६. ढ़ाई फुट ऊँची पद्मासन र्मूित जिसके सिर के पीछे प्रभामण्डल है।
७.पंचबालयति की र्मूित। मध्य में खड़गासन पाश्र्वनाथ है। ऊपर दो पद्मासन तथा नीचे दो खड़गासन र्मूितयाँ हैं। उनके दोनों और चमर—वाहक हैं।
८.एक खण्डित र्मूित केवल पद्मासन का भाग अवशिष्ट है। मुर्तिलेख के अनुसार संवत् १४९२ में प्रतिष्ठित उत्कीर्ण हैं
९. एक भव्य तीर्थंकर प्रतिमा। पद्मासन मुद्रा में अवगाहना साढ़े चार फुट, छत्र व भामंडल कलापूर्ण है। दोनों और दो खड़गासन र्मूितयाँ है जो खण्डित अवस्था में है।
१०.सात फुट उन्नत, पद्मासन मुद्रा में तीर्थंकर र्मूित छत्रत्रयी है। ऊपर दोनों कोनों पर माला लिये हुए देव—देवियाँ बनी हुई हैं। दो खड़गासन तथा दोनों और दो—दो युगल मुर्तियाँ पद्मासन मुद्रा में। नृत्य मुद्रा में चमरेन्द्र खड़े है। दोनों कोनों पर यक्ष यक्षी भी है। दो सिंह बने हुए है। शेष भाग खण्डित है।
११. भगवान पाश्र्वनाथ की ५ फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा जिसके सिर पर फणावली, उसके ऊपर छत्र और भामण्डल सुशोभित है ऊपर पाश्र्वों में दोनों ओर गज बने हुए हैं। नीचे दोनों और दो—दो खड़गासन मूर्तियाँ हैं। अलंकरण में हिरण और देवियाँ उत्कीर्ण हैं।
१२.पांच फुट की खड़गासन तीर्थंकर प्रतिमा जिसके सिर के ऊपर छत्रत्रयी और पीछे भामण्डल सुशोभित हैं। ऊपर दोनों सिरों पर नभचारी गंधर्व हैं। उनके नीचे दोनों ओर एक—एक खड़गासन और एक—एक पद्मासन र्मूितयाँ विराजमान हैं। मुर्ति के दोनों किनारों पर अलंकरण हैं।
१३.सवा दो फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। सिर के पीछे भामण्डल सुशोभित है।
१४. सात फुट के एक शिलाफलक पर भगवान् ऋषभदेव की खड़गासन मुर्ति है। उसके दोनों ओर चार खड़गासन मुर्तियाँ हैं। उनसे नीचे चमरवाहक चमर लिए हुए भगवान की सेवा में खड़े हैं। पादपीठ पर वृषभ लांछन अंकित है।
१५.पांच फुट के शिलाफलक पर पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। बांयी ओर ९ लघु पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई है, दांयी ओर का भाग खण्डित है। शिलाफलक भी टूटा हुआ है।
१६.भगवान अजितनाथ की खड़गासन प्रतिमा है। बांयी ओर तीन लघु खड़गासन र्मूितयाँ उत्कीर्ण हैं। दूसरी ओर का भाग खण्डित है। पादपीठ पर गज का लांछन अंकित है।
१७. पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा के ऊपर छत्र है। छत्र के तीन पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। दांयी व बांयी ओर दो—दो पद्मासन व एक—एक खड़गासन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं।
१८.सर्वतोभद्रिका की प्रतिमा एक स्तम्भ में चारों दिशाओं में चार पद्मासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
१९.किसी र्मूित का ऊपर का भाग, जिसमें केवल छत्र मध्य में और दो हाथी दोनों सिरों पर बने हुए हैं।
२०.एक पद्मासन प्रतिमा जिसका सिर कटा हुआ है। २१. जैन कक्ष २० के सामने मैदान में एक पद्मासन तीर्थंकर मुर्ति रखी हुई है। उसके सिर के पीछे भामण्डल ओर सिर के ऊपर छत्रत्रयी है। दोनों पाशर्व में दो पद्मासन प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। उनसे नीचे चमरेन्द्र चमर लिये हुए खड़े हैं। वे विवादास्पद मुर्तियाँ है। उनमें से एक विदेह अर्थात् विदिशा से प्राप्त तीर्थंकर माता की र्मूित है। माता पलंग पर लेटी हुई है। बगल में सद्य:जात बाल तीर्थंकर लेटे हुए हैं। तीर्थंकर माता के सिर के पीछे प्रभामण्डल है। उनके निकट इंद्र द्वारा माता की सेवा के लिए भेजी गयी चार देवियाँ खड़ी है। उनके हाथों में चामर हैं। ये चार देवियाँ कौन थी अथवा क्या कर रही थी, इसका समाधान हमें ‘हरिवंश पुराण’ से इस प्रकार होता है—
सहैववम्चकप्रभारूपकया तदाधाभया परा च रूचकोज्जवला सकलविधुदग्रेसरा:।
दिशां च विजयादयो मुक्तयश्चतस्रो वटा जिनस्य विदधु: पहं सविधिजात कर्माला:।।
अर्थात् विद्युत्कुमारियों में प्रमुख रूचकप्रभा, रूपका, रूचलाभा, और रूचकोज्जवला ये चार देवियाँ व दिक्कुमारियों में प्रमुख विजया आदि चार देवियाँ जिनेन्द्रदेव के जातकर्म करने में जुट गयीं। मुर्ति को ध्यानपूर्वक देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें बनी चार देवियाँ हरिवंश पुराण में र्विणत चार वि़द्युत्कुमारियाँ है अथवा चार दिकुमारियाँ है। प्रतीक के रूप में मुर्ति में चार देवियाँ अंकित कर दी गयी है। निश्चय ही यह तीर्थंकर माता तथा सद्य:जात बालक तीर्थंकर की मुर्ति हैं तथा देवियाँ माता का जातकर्म करके माता की सेवा में खड़ी हुई हैं। यह र्मूित विदेह के गडरमल मंदिर से प्राप्त हुई थी। यह मंदिर ९वीं शताब्दी का अनुमानित है। मुस्लिम आक्रान्ताओं ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा लिया। मूलत: यह जैन मंदिर रहा है और अब भी इसमें जैन मुर्तियाँ विराजमान हैं। कुछ विद्वान इसे देवकी और श्रीकृष्ण की र्मूित मानते हैं। साथ ही यह आक्षेप भी करते ही कि इस मंदिर पर जैनों ने अधिकार कर लिया तथा बाद में अपनी मुर्तियाँ वहाँ स्थापित कर दी। लेकिन मान्यता के समर्थन में उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। अत: यह तथ्य निराधार ही है कि यह जैन तीर्थ बाद में व हिन्दू मंदिर पहले था। बिना किसी प्रमाण के इतिहास में कोई भी बात समाहित नहीं की जा सकती। उपरोक्त प्रतिमाओं के अतिरिक्त इस पुरातत्व संग्रहालय में कुछ शिलालेख भी संग्रहीत है। शिलालेख की दृष्टि से देखा जाये तो यह संग्रहालय अत्यन्त समृद्ध जान पड़ता है। इन शिलालेखों में कुछ जैन शिलालेख भी है जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एक शिलालेख उदयगिरि गुहा से प्राप्त हुआ जो गुप्त संवत् १०६ सन् ४२५ ई. का है। इस अभिलेख में यह उल्लेख मिलता है कि कुरूदेश के शंकर स्वर्णकार ने कमरिगन के हित के लिए गुहा मंदिर में तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण करवाया। दूसरा शिलालेख १३वीं शताब्दी का है। यह यज्वपाल वंश के असल्लदेव का नरवर शिलालेख है जो विक्रम सं. १३१९, सन् १२६२ का है। इसमें गोपगिरि दुर्ग के माथुर कायस्थ परिवार की वंशावली दी गई है। सर्वप्रथम भुवनपाल का नाम है जो धार नरेश भोज का मंत्री था। उसने जैन तीर्थंकर के मंदिर का निर्माण कराया, नागदेव ने उसमें तीर्थंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी। यह शिलालेख वास्तल्य कायस्थ ने लिखा। इस प्रकार ग्वालियर का यह केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय जैन प्रतिमाओं व शिलालेखों को अपने में संजोकर जैन धर्म के इतिहास की अनबोली कहानी कहता नजर आता है।