चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की प्रतिमायें सम्पूर्ण देश में बहुलता से पायी जाती है किन्तु विभिन्न अंचलों में पायी जाने वाली प्रतिमाओं में प्राचीनता शिल्पकला आदि की दृष्टि से भिन्नता है। प्रस्तुत आलेख में ग्वालियर-चंबल संभाग, जिसके अन्तर्गत म.प्र. के ग्वालियर, मुरैना, श्योपुर, भिण्ड, शिवपुरी, दतिया, अशोक नगर एवं गुना जिले आते हैं, से प्राप्त भगवान महावीर की प्रतिमाओं का प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन किया गया है। महावीर वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीसवें जिन हैं। उनके विता ज्ञातृवंश के शासक सिद्धार्थ और माता त्रिशला थीं। बाल्यावस्था के वीरोचित और अदभूत कार्यों के कारण देवताओं ने बालक का नाम महावीर रखा। दिगम्बर ग्रन्थों में महावीर के विवाह का कोई विवरण नहीं है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा विवाह बताती है। तीस वर्ष की अवस्था में महावीर ने पंचमुष्टि में केशों लुंचन कर प्रव्रज्या ग्रहण की। १२१/२ वर्ष के कठोर तप के बाद महावीर को जृम्भक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ। ७२ वर्ष की अवस्था में महावीर ने पावापुरी में निर्वाण पद प्राप्त किया। महावीर का लांछन सिंह है और यक्ष-यक्षी मातंग एवं सिद्धायिका (या पद्मा) हैं। महावीर की प्राचीनतम मूर्तियां कुषाणकालीन ज्ञात हैं। प्रस्तुत आलेख में ग्वालियर क्षेत्र (प्राचीन गोपाद्रि) अथवा ग्वालियर-चंबल संभाग जिसके अन्तग्रत वर्तमान में ग्वालियर, मुरैना, श्योपुर, भिण्ड, दतिया, शिवपुरी, अशोक नगर और गुना जिलों का विस्तृत भूभाग सम्मिलित है, से विदित चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के मूर्ति शिल्प का ऐतिहासिक एवं प्रतिमा वैज्ञानिक अध्ययन किया है। यह संपूर्ण भू-भाग मध्यप्रदेश प्रांत के उत्तरी हिस्से में अवस्थित है इसी कारण इसे उत्तरी मध्यप्रदेश के नाम से भी जाना जाता है।
ग्वालियर क्षेत्र में महावीर की प्रारंभिक मूर्तियों का अभाव है और उनके मूर्ति शिल्प की सूचना लगभग ग्यारहवीं सदीई. से मिलने लगती है अर्थात् कच्छपघात एवं परवर्ती-प्रतिहार शासकों के काल से। ये दोनों राजवंश विवेच्य क्षेत्र में लगभग समानांतर क्रमश: ग्वालियर, मुरैना, भिण्ड, दतिया, श्योपुर, शिवपुरी जिले के कुछ भाग और अशोक नगर, गुना जिले के अधिकांश भूभाग पर शासनरत थे। चौदहवीं शती के अन्त में ग्वालियर क्षेत्र में तोमर राजवंश की सत्ता स्थापित हुई और तोमर शासकों ने लगभग १५२५ई. तक यहाँ शासन किया। अत: अधोलिखित विवरण में स्थानानुसार एवं कालक्रमानुसार उल्लिखित मूर्तियां उपयुक्त क्रम में उसी राजवंश से संबंधित समझी जायें। ग्यारहवीं शती ई.ल. की दूबकुण्ड (जिला -श्योपुर) से विदित तीर्थंकर महावीर की कायोत्यर्ग मुद्रा में एक मूर्ति और संवत् १२०५ (११४८ई.) तिथियुक्त एक सिंहासन खण्ड क्रमश: समर हाउस, मुरैना और जिला पुरातत्व संग्रहालय, मुरैना में संरक्षित हैं। कायोत्सर्ग मूर्ति अच्छी अवस्था में है। इसके परिकर में भामण्डल, त्रिछत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर और सिंहासन के अलावा गज-कलश, शार्दूल आकृतियां, एक परिचारिका और ६ लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। सिंहासन के नीचे पीठिका पर पंच सर्वफणों की छत्रावली से शोभित यक्षी का अंकन है। सिंहासन पर लांदन सिंह का अंकन है।गुना से प्राप्त ल. ग्यारहवीं-बारहवीं शती ई. की ६ मूर्तियाँ दिगम्बर जैन संग्रहालय, जयसिंहपुरा उज्जैन में संरक्षित हैं जिनमें से एक में कायोत्सर्ग (सं.क्र.३) और चार में पदमासन मुद्रा में (सं.क्र. ३५, ७९, ८१ और ८२) दिखाया गया है। एक मूर्ति का केवल सिंहासन खण्ड (सं.क्र. ८०) ही शेष है। इनके परिकर में सामान्य रूप से भामण्डल, ़िछत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर और सिंहासन के अलावा गज-कलश और लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। कायोत्सर्ग मूर्ति के परिकर में पदमासन मुद्रा में २३ और अन्य मूतियों के परिकर में २ अथवा एक भी लघु जिन अंकित नहीं है। कुछ पदमासन मूर्तियों के सिंहासन भाग में यथास्थान यक्ष-यक्षियों और उपासक आकृतियों का भीअकन हुआ है। ल. बारहवीं शती ई. की एक कायोत्सर्ग मूर्ति और एक त्रितीर्थिका मूर्ति पचराई (जिला – शिवपुरी) (चित्र – २) से ज्ञात हैं। इसके परिकर में भामण्डल ,त्रिछत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर और पादपीठ के अलावा गज-कलश, उपासक और मालाधर आकृतियां उत्कीर्ण है।इसमें यक्ष-यक्षी का अंकन नहीं मिलता है।त्रितीर्थका मूर्ति में पदमासन महावीर के साथ कायोत्सर्ग मुद्र में वासुपूज्य और धर्मनाथ का निरूपण हुआ है। इसके परिकर में ऊपर की ओर शिखरबद्ध लघु कुनिकाओं में पदमासन मुद्र में ९ लघु जिन आकृतियां भी उत्कीर्ण की गइ्र हैं।
पादपीठ पर संबंधित लांछन हैं। ल. बसाहवीं शती ई. की एक पदमासन महावीर (?) मूर्ति सिहोनिया (जिला मुरैना) स्थित एक जैन मंदिर के एक कक्ष में सुरक्षित है। इसके परिकर में भामण्डल, त्रिडत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर ओर सिंहासन के अलावा गज-कलश, मालाधर, मकर, मुख, शार्दूल और दो लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। परम्परा विरुद्ध यक्ष-यक्षी गोमेध एवं अम्बिका का निरूपण है। संवत् १२०५ (११४८ ई., चित्र २), संवत १२०७ (ई. ११५०) की बलुए पत्थर ओर संवत १२४४ (११८७ ई. चित्र ३) की काले पत्थर की मूर्तियाँ (ऊं. १, १०) परिकर विहीन है। इसके अलावा बलुए पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। काले पत्थर की मूर्तियों के परिकर में भामण्डल, त्रिडत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर और सिंहासन के अलावा गज-कलश, मालाधर और चार लघु जिन आकृतियां उत्कीर्ण हैं। संवत् १२३४ (११७७ई.) (चित्र ४) की पदमासन मुद्रा में एक मूर्ति पावई (जिला-भिण्ड) से ज्ञात है। इसमें परिकर का निर्माण नहीं हुआ है। लगभग बारहवीं शती ई. की गूढ़र (जिला- शिवपुरी) से एक सर्वतोभद्रिका मूर्ति मिली है जिसमें पदमासन मुद्रा में चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ ओर महावीर का अंकन है। संवत् १२१५ (११५८ई.) की सर्वतोभाद्रिका प्रतिमा इंदोर (जिला -शिवपुरी) से ज्ञात है और वर्तमान में दिगम्बर जैन संग्रहालय, जयसिंहपुरा (सं.क्र. १२०) में संग्रहीत है। इसमें पदमासन मुद्रा में पाश्र्वनाथ, महावीर, ऋषभनाथ और नेमिनाथ का अंकन है। बारहवीं-तेरहवीं शती ई.ल. की पांच मूर्तियां एवं मूर्ति खण्ड नरवर (जिला-शिवपुरी) से विदित हैं और वर्तमान में जिला पुरातत्व संग्रहालय, शिवपुरी में सुरक्षित हैं। इनमें तीन में उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है और दो के मात्र सिंहासन खण्ड ही शेष हैं। इन तीन मूर्तियों के परिकर में भामण्डल, त्रिडत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर ओर सिंहासन के अलावा गज-कलश और मालाधरों का अंकन हुआ है। केवल एक मूर्ति (सं.क्र. २०५) में गज-शार्दूल और लघु जिन आकृतियों का भी अंकन मिलता है। इनमें किसी में भी यक्ष-यक्षी का अंकन प्राप्य नहीं है। सभी में लांछन सिंह का रेखाकंन हुआ है। इसी कालावधिकी नरवर से ही तीर्थंकर शांतिनाथ के साथ एक द्वितीय प्रतिमा भी विदित है जो वर्तमान में राज्य संग्रहालय, भोपाल (सं.क्र. १८, चित्र ५) में संग्रहीत है। इसमें शांतिनाथ और महावीर को कायोत्सर्ग मुद्रा में परिकर में भामण्डल, त्रिडत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, चामरधर ओर सिंहासन प्रतिहार्यों के अलावा गज-कलश, मालाधरों और उपासक आकृतियों के साथ निरूपति किया गया हैं।
सिंहासन पर ग्रास मुख अलंकरण और दो लघु जिनों का भी निरूपण है। लगभग बारहवीं-तेरहवीं शती ई. की सात सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं इंदरगढ़ (जिला-शिवपुरी) से विदित हैं ओर वर्तमान में दिगम्बर जैन संग्रहालय, जयिंसहपुरा (सं.क्र. ९७, ९८, ९९, ११३, १७५, १७८ और १७९) में संग्रहीत हैं। इन सभी में विभिन्न जिनों के साथ महावीर का अंकन हुआ है। इसमें से तीन में जिनों को पदमासन और चार को कायोत्यसर्ग मुद्रा में दिखाया गया है। इनके परिकर में भामण्डल, त्रिडत्र, दुन्दुभि, वृक्ष, सिंहासन, चामरधर, मालाधर और गज-कलश का अंकन है। ल. तेरहवीं शती ई. की १२ ऊंची एक विशालकाय शैलकृत महावीर मूर्ति ग्वालियर दुर्ग (उत्तर-पूर्वी समूह) से विदित है। पदमासन मुद्रा में महावीर के परिकर में भामण्डल, चामरधर,मालाधर, सिंहासन, नर, गज, शार्दूल और दो लघु जिन आकृतियों का अंकन है। इसी कालावधि की एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा सकर्रा (जिला-शिवपुरी) से ज्ञात है और वर्तमान में दिगम्बर जैन संग्रहालय, जयसिंहपुरा में संग्रहीत है। इसमें ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ के साथ महावीर का अंकन है। तोमर काल में भी महावीर की मूर्तियों का निर्माण हुआ था। तोमर शासक के काल प्राय: मूतियाँ ग्वालियर दुर्ग के चारों ओर चट्टान में शैलकृत ही बनीं।महावीर की ऐसी शैलकृत छोटी-बड़ी कुल ५ प्रतिमायें गिनी गई हैं। इनमें केवल एक प्रतिमा जो पदमासन मुद्रा में (उरवाही द्वारा समूह) है, को छोड़कर सभी मूर्तियां कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इनकी ऊंचाई ३ फुट से लेकर १२ फुट तक हैं।सर्वाधिक ऊंची कायोत्सर्ग मुद्रा में एक मूर्ति उरवाही द्वार समूह (गुहा मंदिर क्र.१) में लगभग १२ फुट की है। पदमासन महावीर (?) प्रतिमा (गुहा मंदिर क्र. ३की बाहरी चट्टान पर) दो अन्य कायोत्सर्ग जिन प्रतिमाओं से धिरी प्रदर्शित हैै जिनकी पहचान संभव नहीं हो सकी है। ये सभी मूर्तियां खंडित है। इनके परिकर में सामान्य रूपव से अष्टप्रातिहार्योंं जैसे भामण्डल, दुन्दुभि, त्रिछत्र, वृक्ष, चामरधर और सिंहासन का विधिवत् समायोजन किया गया है। परिकर मके अलंकरण में विस्तार भी दिखाई देता है। सामान्य रूप से गज-कलश और मालाधरों का अंकन मिलता है। कुछ प्रतिमाओं के परिकर में मकर मुख से उदभूत तोरण द्वारों का सुन्दर प्रावधान मिलता है। सिंहासन का अंकन परम्परागत ढ़ग से बीच में धर्मचक्र और उसके दोनों ओर सिंह आकृतियों के साथ हुआ है। सिंहासन के दोनों सिरो पर यक्ष-यक्षी भी प्रदर्शित है जो सामान्यत: गोमुख एवं चव्रेश्वरी हैं। सभी में लांछन सिंह दृष्टव्या है। कुछ प्रतिमाओं पर तोमरकालीन लेख भी अंकित हैं।
ग्वालियर क्षेत्र में तीर्थंकर महावीर के मूर्ति शिल्प की परम्परा लगभग ग्यारहवीं शती ई. से प्रारंभ होकर तोमर काल तक अनवरत् जारी रही। उनके मूर्ति शिल्प की परम्परा इस क्षेत्र में विशेष लोकप्रिय नहीं दिखाई देती है। महावीर की सभी मूर्तिया में उनके लांछन सिंह (शेर) का नियमित अंन हुआ है। महावीर को ध्यान मुद्रा में तरुण शरीर, सिर र कुन्तलित केश राशि, वृक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न, नासाग्र दृष्टि, लम्ब कर्ण, आजानुबाहु, ग्रीवा रेखा, हथेलियों पर मांगलिक लक्षण जैसे – चक्र आदि लक्षणों से परिपूर्ण रूपांकित किया गया है। यदा-कदा उष्णीश भी दृष्टव्य है। परिकर में अंकनों में भी विविधता एवं संपूर्णता दिखाई देती है। सिंहासन पर परम्परागम यक्ष-यक्षी के अंकन युक्त मुर्तियाँ कदाचित् नहीं मिलती हैं। तेरहवीं शती ई. से पूर्व महावीर की लघुकाय किन्तु उसके उपरान्त उनकी विशालकाय मूतियां (शैलकृत) भी बनीं। यहां से प्राप्त प्राय: सभी मूर्तियां स्थानीय बलुए प्रस्तर से निर्मित है, केवल बरासों से प्राप्त कुछ प्रतिमाएं काले प्रस्तर पर निर्मित है। प्रारंभ से लगभग तेरहवीं शती ई. तक महावीर की मूर्तियों के निर्माण में शारीरिक समायोजना और परिकर में अंकनों का विधिवत् एवं परिपूर्ण योजना मलता है किन्तु तोमर काल में इस प्रकार के निर्माण संकुचित हो गये हैं और इनके बजाय केवल मूर्तियों के विशालकार निर्माण पर ही बल दिया जाता दिखाई पड़ता है। यद्यपि तोमर काल में भी परिकर के अलंकरण में पूर्व स्थापित अंकनों का ही अनुकरण किया गया है किन्तु इसमें परिपूर्णता एवं विविधता के दर्शन नहीं होते हैं। महावीर की स्वतन्त्र मूर्तियों के साथ-साथ उनका प्रदर्शन द्वितीर्थी, त्रितीर्थी और सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओं में भी हुआ।
संदर्भ सूची :-१. यह सम्पूर्ण विवरण लेखक के स्वयं के सर्वक्षण एवं अध्ययन पर आधारित है।