भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में धार्मिक आन्दोलनों का विशेष महत्त्व रहा है। हिन्दू, बौद्ध जैन धर्मों ने देशकाल के अनुरूप अपना—अपना योगदान दिया। अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में समता, अिंहसा एवं सम्यक संकल्प को विशेष बल दिया गया। इस धर्म में नैतिकता, वैचारिक उन्नयन तथा आत्मसंयम का अनोखा संगम है। इसी कारण जैन धर्म की लोकप्रियता अब तक बनी हुई है। जैन परम्परा में देव शास्त्र गुरु की उपासना और पूजा प्रभावना श्रावक का नित्य धर्म माना गया है। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने एक से एक सुन्दर और विशाल मंदिरों / र्मूितयों का निर्माण किया। वीर—निर्वाण के उपरांत पांच—सात सौ वर्षों तक स्तूपों और गुफा मंदिरों का निर्माण होता रहा।
भौगोलिक स्थिति के कारण ग्वालियर मध्यप्रदेश का हृदय स्थल कहा जा सकता है। ग्वालियर म. प्र. के उत्तरी भाग में मध्य रेलवे की दिल्ली—मुम्बई रेलमार्ग पर झांसी से लगभग १०५ किमी. उत्तर तथा आगरा से लगभग ११८ किमी. दक्षिण में स्थित है। यहाँ आगरा, अथवा झांसी होते हुए रेलगाड़ी या बस द्वारा पहुँचा जा सकता है। नगर के मध्य भाग में एक ऊँची एवं विस्तृत पहाड़ी पर ग्वालियर का दुर्ग स्थित है। दुर्ग तथा उसके आसपास का क्षेत्र ‘‘ग्वालियर’’ नाम से ही सम्बोधित किया जाता है। सम्भवत: नगर का यही भाग सबसे अधिक प्राचीन है। हूण शासक मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख में इसको ‘गोपाहय नाम भूधरे’ अर्थात् गोप नामक पर्वत कहा गया है। इसी प्रकार वि. सं. ११५० के महीपाल के ग्वालियर अभिलेख में इसका गोपाद्रि एवं गोपाद्रि दुर्ग नाम मिलता है। ग्वालियर दुर्ग पर स्थित विशाल आदिनाथ की प्रतिमा पीठिका पर वि. सं. १४९७ के एक लेख में ग्वालियर के लिए ‘‘गोपाचल दुर्ग’’ उल्लिखित है। उपर्युक्त साक्ष्यों में यद्यपि इस पहाड़ी के लिए गोप, गोपाद्रि, गोपगिरि आदि नामों का उल्लेख हुआ है किन्तु किसी भी अभिलेख में इसे आधुनिक ‘ग्वालियर’ नाम से सम्बोधित नहीं किया गया है। अभिलेखों में उल्लिखित गोपगिरि गोपाद्रि, गोपाचल आदि नामों का प्रथम पद ‘गोप’ ग्वालियर के ‘ग्वाल’ शब्द का पर्यायवाची है। अत: ग्वालियर की व्युत्पत्ति का आधार ‘गोप’ (ग्वाल) शब्द प्रतीत होता है। स्थिति, जलवायु तथा प्राकृतिक सम्पदा के कारण भारतीय संस्कृति के निर्माण में इस क्षेत्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है।
वैदिक, पौराणिक धर्मों एवं बौद्धधर्म के साथ—साथ जैनधर्म इस क्षेत्र में शताब्दियों तक विकसित हुआ। भारतीय कला के इतिहास में ग्वालियर क्षेत्र की जैनकला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिल्प के माध्यम से कलाकारों ने ज्ञात—अज्ञात अनेक तथ्यों को उजागर किया। मध्यकाल में जैनधर्म की अत्यधिक उन्नति हुई। जिन प्रमुख राजवंशों ने जैनधर्म के विकास में योगदान दिया उनमें गुर्जर प्रतिहार, चंदेल, कलचुरि परमार तथा कच्छपघात एवं तोमर राजवंश प्रमुख हैं। ग्वालियर में जन्मे जैन कवि ‘रइधू’’ ने अपने आपको ‘पद्मावती पुरवाल’ कहा है। यह पद्मावती पुरवाल जैनियों की चौरासी उपजातियों में से एक जाति है। रइधू के दीक्षा गुरु भट्टारक यश:र्कीित थे। मेघेश्वर चरित से ज्ञात होता है कि उनके आशीर्वाद से ही उसे विलक्षण प्रतिभा उपलब्ध हुई थी। ग्वालियर में रइधू नेमिनाथ और वर्धमान के मंदिरों के पास बने हुए विहार में रहते थे। सम्भवत: यह दोनों मंदिर ग्वालियर में ही थे जिनका अस्तित्व अब नए मकानों ने ले लिया होगा। पाश्र्वपुराण ने उसने लिखा है कि ‘‘ग्वालियर गढ़ के पास स्वर्ण रेख नदी बहती थी। गोपाचल नगर समृद्ध था। वहाँ के निवासियों में सुख—शांति थी। वे परोपकारी, धर्मात्मा और सज्जन थे। उस समय ग्वालियर का राजा डूंगरेन्द्र सिंह था जो प्रसिद्ध तोमर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ था। डूंगरेन्द्र सिंह और उसके पुत्र र्कीितिंसह के राज्य में प्रजा में किसी प्रकार अशांति नहीं थी। पिता—पुत्र दोनों ही राजा जैनधर्म पर पूरी आस्था रखते थे। यही कारण है कि उस समय ग्वालियर में चोर—डावू, दुर्जन, खल, पिशुन तथा नीच मनुष्य दिखाई नहीं देते थे और न ही कोई दीन—दु:खी ही दिखाई देता था। यहाँ चौहट्टों पर बाजार बने हुए थे जिन पर वणिकजन विभिन्न वस्तुओं का क्रय—विक्रय करते थे। वहाँ व्यसनी, चरित्रहीन मानव नहीं थे। नगर जिन मंदिरों से विभूषित था और श्रावक दानपूजा में निरत रहते थे। (हरिहर निवास द्विवेदी कृत ग्वालियर के तोमर में वर्णित है) ग्वालियर तथा उसके आस पास का क्षेत्र अत्यन्त प्राचीनकाल की पुरा सम्पदा को अपने में संजोए है।
अनेक पुरातात्त्विक खोजों से ज्ञात होता है कि पाषाणकाल से ही यहाँ पर मानव संस्कृति का पदार्पण हो चुका था। ग्वालियर जिला जैन कला का प्राचीन प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ जैन संस्कृति से संबंधित प्रमाण आठवीं शती ई. से मिलने लगते हैं। ग्वालियर से गुप्तकालीन दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्राप्त होने की सूचना है। गोपाचल गढ़ पर जैन निर्माण का प्रथम उल्लेख एक जैन प्रबन्धों में पाया गया है। ग्वालियर में एक महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर का पता कनिंघम ने सन् १८४४ ई. में लगाया था। किंनघम के अनुसार यह मंदिर ११०८ ई. में र्नििमत हुआ था। इसकी स्थिति ग्वालियर दुर्ग में जैनकला का विशाल भंडार है जिस पर अलग से शोध की आवश्यकता है। हमारे जैन मुनियों के आशीर्वाद से यह कठिन कार्य भी सफलीभूत होगा ऐसा मेरा विश्वास है। ग्वालियर दुर्ग में जैन प्रतिमाओं का निर्माण गुप्तकाल के पश्चात् प्रारम्भ हुआ। जैन ग्रंथों में आम नामक एक राजा का उल्लेख हुआ है जिसने कन्नौज और ग्वालियर में सम्मिलित रूप से शासन किया था। अपने दरबार के प्रमुख जैन आचार्य बप्प भट्टि सूरि के प्रभाव में आकर उसने ग्वालियर में एक २७ हाथ ऊँची महावीर की प्रतिमा का निर्माण कराया था। अनेक विद्वान आम को यशोवर्मन (७२५—७५२ ई.) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी मानते हैं। इस प्रकार जैन साहित्य में स्पष्ट है कि आठवीं शताब्दी ई. में आम राजा के संरक्षण में ग्वालियर दुर्ग पर जैन धर्म एवं कला की उन्नति के लिए कुछ निर्माण कार्य हुआ था। जैन प्रतिमाओं से अंकित एक ढोलाकार पाषाण खण्ड सिंधिया स्वूâल की रंगशाला में स्थापित है। उसके चारों आरे ४८ जैन तीर्थंकर ध्यान मुद्रा में बैठे हुए अंकित है। इसके ऊपर चौमुखी जैन प्रतिमा रखे होने का अनुमान कर माइकल ने माना है कि इसमें कुल ५२ तीर्थंकर अंकित रहे होंगे। इस आधार पर वे इसे नंदीश्वर द्वीप मानते हैं और तिथि आठवीं शती ई. निर्धारित करते हैं। किन्तु ज्योति प्रसाद जैन का मत है कि इसके ऊपर २४ अन्य जैन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण रही होंगी। इस प्रकार वे इसमें तीन चौबीसी अंकित होने का अनुमान करते हैं।
ग्वालियर दुर्ग पर जहाँ सास—बहू का मंदिर, तेली का मंदिरी, माता का मंदिर, सूरज कुण्ड, अस्सी खम्भा बावड़ी, मान मंदिर, जहाँगीर महल, शाहजहाँ महल, विक्रम महल, कर्ण महल, भीमिंसह राणा की छत्री, गुरुद्वारा पर्यटकों को लुभाते हैं वहीं दुर्ग का कण्ठहार जैन गुहा स्थापत्य मंदिर भी जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख शिल्प वैभव का केन्द्र बना हुआ है। गुहा स्थापत्य मंदिर बनाने का श्रेय तोमर राजवंश के राज डूंगरेन्द्र िंसह एवं उनके पुत्र र्कीितिंसह को जाता है। उत्कीर्ण लेखें से पता चलता है कि गुहा स्थापत्य मंदिर र्नििमत कराने में जैन व्यापारियों का भी सहयोग रहा है। जैनगुहा स्थापत्य मंदिर अध्ययन की दृष्टि से पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है— १. उरवाही समूह २. दक्षिण पश्चिम समूह ३. उत्तर पश्चिम समूह ४. उत्तर पूर्व समूह ५. दक्षिण पूर्व समूह इस गुहा स्थापत्य के विषय में यद्यपि विद्वान अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं फिर भी जितना इनकी गहराई में जाया जाय उतना ही कम है। मुझे ज्ञात है कुछ वर्ष पूर्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ द्वारा इस पर बहुत कुछ कार्य किया जा चुका है। सम्राट् बाबर जब गोपालचल दुर्ग में आया तो इस र्मूितकला के वैभव को देखकर क्रोधित हो उठा तथा उसने इन र्मूितयों को तोड़े जाने का हुक्म जारी कर दिया जिसका वर्णन कनिंहाम कृत अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ा जा सकता है यहाँ तक कि र्मूितयों को चूने से ठक देने का भी कार्य किया गया जिसका उदाहरण आज भी विशालकाय जैनर्मूित उरवाही घाटी से दुर्ग पर चढ़ते समय उसके नीचे बनी छोटी—छोटी र्मूितयों के ऊपर देखा जा सकता है। इन र्मूितयों को प्रकाश में लाने का सर्वप्रथम श्रेय फादर माण्ट सेर्राट को है जो एक यूरोपियन घुमक्कड़ था तथा जिसने सम्राट् अकबर के समय भारत की पदयात्रा के प्रसंग में सूरत से दिल्ली जाते समय ग्वालियर दुर्ग की जैन र्मूितयों के दर्शन किए थे। उसने अपनी डायरी में उनका विस्तृत वर्णन अंकित किया था। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने तो इन्हें ‘‘राक जाइन्टस’’ कहकर इजिप्ट (मिस्र देश) के द्वितीय रेमसे के समान विशाल एवं पवित्र स्थल बताया है।
आइए संक्षिप्त में इन गुहा मंदिरों का परिचय प्राप्त कर लिया जावे—
(१) उरवाही घाटी की दक्षिणी ओर २२ दिगम्बर जैन र्मूितयाँ हैं। उनमें ६ लेख पठनीय है और वे वि. स. १४९७ से १५१० ई. के मध्यवर्ती तोमर राजाओं के राज्यकाल में है। सबसे ऊँची र्मूित ५८ फुट से अधिक ऊँची है। क्रमांक २२ में नेमिनाथ की ३० फुट ऊँची प्रतिमा है। दक्षिण—पश्चिम समूह एक खम्भाताल के नीचे उरवाही द्वार के बाहर स्थित है। इसमें मुख्यत: पाँच प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई है। दुर्ग की इन दो प्रतिमाओं की पहचान तीर्थंकर जन्म से की जा सकती है। इसी समूह में अम्बिका यक्षिणी प्रतिमा आठवीं शती ई. की प्रतीत होती है। शेष दो जैन प्रतिमाएँ छठी—सातवीं शती की प्रतीत होती है। इस प्रकार इन्हें दुर्ग पट वर्तमान में स्थित जैन प्रतिमाओं में सर्वाधिक प्राचीन माना जा सकता है। उत्तर पश्चिम की प्रतिमाएँ पहाड़ी के पश्चिमी भाग में उत्कीर्ण है। इनमें आदिनाथ की एक प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है। इस पर वि. स. १५२७ (१४७० ई.) अंकित है। प्रतिमाओं का उत्तरी—पूर्वी समूह गणेश पौर के ठीक ऊपर पहाड़ी के मध्य भाग में स्थित है। दक्षिण पूर्व समूह पहाड़ी के गंगोला ताल के ठीक नीचे स्थित है। इनमें कुल १८ प्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार किले के चारों तरफ जैन प्रतिमाओं का अंकन अपने आप में पवित्र स्थल का संकेत है। आवश्यकता है इन सभी स्थापत्य पर विस्तृत शोध व्यवस्था की। आगे आने वाली युवा पीढ़ी के लिए खुली किताब के रूप में चुनौती भी है। इसी संदर्भ में प्रज्ञाश्रमण परम पूज्य आचार्य श्री देवनन्दी जी महाराज का कथन है कि—‘‘अवशिष्ट र्मूित वैभव का संरक्षण अनिवार्य है। निर्जन, बीहड़, जंगल, पहाड़ी, तालाब एवं बावड़ी आदि की प्राकृतिक छटा मन को आह्लादित करती है। साधकों को ध्यानाध्ययन की दृष्टि से ये उपयुक्त स्थल भी है।
गूजरी महल में ग्वालियर की संरक्षित जैन प्रतिमाएँ—गूजरी महल संग्रहालय में जैन र्मूितयों की एक दीर्घा अलग से स्थापित है किन्तु इस लेख में ग्वालियर की र्मूितयों तक ही लेखनी सीमित है। ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त आदिनाथ की प्रतिमा उल्लेखनीय है। (सं. क्र. ११८) प्रतिमा ध्यान मुद्रा में बैठी अंकित है। िंसहासन युक्त उनका मनोहर मुख मण्डल दर्शनीय है। तीर्थंकर के मस्तक पर उर्णा उष्णीष सुशोभित है। ग्वालियर से संबंधित प्रतिमाओं का विस्तृत वर्णन इस लेख में सम्भव नहीं है केवल उनके नाम ही यहाँ परिचय के रूप में दिये जा सकते हैं यथा आदिनाथ, पद्मप्रभु, चन्द्रप्रभु, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ, चक्रेश्वरी, गोमेध—अम्बिका एवं सर्वतोभद्रिका की चार प्रतिमाएँ प्रर्दिशत हैं। शेष कुछ रिजर्व कक्ष में रखी हैं।
इसके अतिरिक्त विशेष उल्लेखनीय र्मूित सहस्रजिन बिम्ब जो दुर्ग से प्राप्त हुई है, का जिक्र करना चाहूँगा। इस पर दस—ग्यारह पंक्तियों में जिन प्रतिमाओं का वर्णन अंकित है। प्रथम पंक्ति में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की र्मूित है। शेष पद्मासन में जैन र्मूितयाँ हैं। द्वितीय पंक्ति में सात र्मूितयाँ, तीसरी पंक्ति में १५ र्मूितयाँ, चौथी पंक्ति में १२ जैन तीर्थंकर र्मूितयाँ, पांचवीं से आठ, छठी में सोलह, सातवीं में तेरह, आठवीं में नौ, नवीं पंक्ति में १७, दसवीं में बीस, ग्यारहवीं में सोलह, ये सभी र्मूितयाँ पद्मासन में अंकित है। बलुआ पत्थर पर र्नििमत प्रतिमाएँ। ११ वीं शती ई. की है। बालचन्द जैन ने इसे मानस्तम्भ माना है जिसमें पदमासन में १३९ तीर्थंकर अंकित हैं जबकि इसमें एक सौ पैंतालिस तीर्थंकर बैठे हैं।
पिछोर संग्रहालय में ग्वालियर की जैन र्मूितयाँ
पिछोर संग्रहालय डबरा से १० किमी. की दूरी पर स्थापित है। यह संग्रहालय पुरातत्त्व संघ के सहयोग से वर्ष १९७६—७७ में खोला गया था जो अब अच्छी स्थिति में है। यहाँ लगभग ९६ पाषाण प्रतिमाएँ विभिन्न धर्मों से संबंधित संरक्षित हैं। इस संग्रहालय में ग्वालियर से प्राप्त प्रतिमाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। उनमें आदिनाथ की प्रतिमा मालीपुर से संग्रहीत का केन्द्र बनी विशेष आकर्षण है। मालीपुर से ही प्राप्त दो पाश्र्वनाथ की प्रतिमाएँ योगमुद्रा में बैठी हैं। पादपीठ पर दाएँ—बाएँ यक्ष धरणेन्द्र एवं यक्षणी पद्मावती अंकित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ नरवर से भी जैन प्रतिमाओं का अच्छा संग्रह है। सभी प्रतिमाएँ चमकदार पत्थर से बनाई गई हैं।
टेकनपुर िंसधिया विश्रामगृह (वी. एस. एफ. का मुख्य कार्यालय) में संरक्षित जैन प्रतिमाएँ—
ग्वालियर से लगभग २० किमी. डबरा जाते समय टेकनपुर वी. एस. एफ. का मुख्य कार्यालय जो पहले िंसधिया रियायत का विश्रामगृह था उसमें आसपास से एकत्र की गई जैन र्मूितयाँ प्रर्दिशत हैं। एक सर्वतोभद्रिका मुख्य दरवाजे पर रास्ते में ही पड़ता है चौराहा पार्व के मध्य प्रर्दिशत है। लेखक द्वारा १९९७ में पुरातत्त्व सर्वेक्षण में इन जैन र्मूितयों का पता लगाया गया। इस केन्द्र में कुल १० जैन प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की हैं जिसमें आदिनाथ, पाश्र्वनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा १०वीं शती. ई. की हैं। इन प्रतिमाओं को प्रतिमा विज्ञान के आधार पर अभी किसी ने प्रकाशित नहीं किया हैं शीघ्र ही इस पर कुछ लिखा जावेगा।
डुन्डापुरा ग्राम में जैन अवशेष—
ग्वालियर से १७ किमी. दूरी पर पनिहार के पास ८ किमी. पर ग्राम डुन्डापुरा स्थित है। इस गाँव में जैन मंदिर के अवशेष यत्र—तत्र बिखरे पड़े हैं। यह मंदिर ११वीं शती ई. का बना प्रतीत होता है। यद्यपि मंदिर नष्ट हो चुका है मात्र सभामंडप और द्वारमंडप एवं दो दरवाजों की चौखट शेष रही है जिनमें एक मंदिर के एक स्तम्भ पर वि. स. १५६८ का संक्षिप्त यात्रा लेख उत्कीर्ण है।
ग्राम चेट में जैन शिल्प का संग्रह—
भितरवार—हरसी मार्ग पर कटहिया के उत्तर में लगभग ८ किमी. पर छोटा सा चेट ग्राम है। इस ग्राम में लगभग १०वीं शती ई. के जैन मन्दिरों का अवशेष है। गाँव के बाहर पहाड़ी की ढलान पर ऊँचे चबूतरे पर जैन मंदिर है। इस मंदिर में १० फुट से अधिक ऊँची शांतिनाथ की खंडित प्रतिमा है। मंदिर के स्तम्भ पर वि. स. ११८३ का लेख है जिस पर जैन मुनि और उनके शिष्यों का नाम अंकित है। यहीं एक स्थान पर वृषभसेन द्वारा एक जैन प्रतिमा की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। पहाड़ी के नीचे कई जैन तीर्थंकरों की विशाल प्रतिमाएँ जमीन में धँसी हैं जिनका व्यापक अध्ययन किया जाना आवश्यक है।
पनिहार से प्राप्त जैन अवशेष
ग्राम पनिहार ग्वालियर से २० किमी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ मेरे द्वारा दिनांक १—१०—१९९० को रेलवे लाइन की खुदाई में कई जैन प्रतिमाएँ प्रकाश में आई थीं जिसमें सर्वतोभद्रिका र्मूित विशेष लोकप्रिय हुई। उसी स्थल पर ही और भी लगभग १०—१२ र्मूितयाँ बिखरी पड़ी थीं। अब इन र्मूितयों के बारे में ठीक से ज्ञात नहीं है, कहाँ रखी हैं। पनिहार १५वीं शती ई. में जैन तीर्थ के रूप में जाना जाता था अभी भी वहाँ एक प्राचीन मंदिर टीले के पास स्थित है।
ग्राम सुजवाया में जैन प्रतिमाओं का संग्रह—
ग्राम सुजवाया तिगरा बाँध से दक्षिण पश्चिम में एक गांव है। ग्वालियर से लगभग १७ किमी. की दूरी पर है। यहाँ ११ वीं शती ई. के कई जैन मंदिर नष्ट—भ्रष्ट स्थिति में हैं। सबसे बड़ा समूह मालीपुर नामक गाँव के उत्तर की ओर पहाड़ी के ढाल पर है जो किसी समय सुजवाया गाँव का ही हिस्सा था। यहाँ से कई जैन र्मूितयाँ पिछोर संग्रहालय में संरक्षित हैं जिसका वर्णन किया जा चुका है। नाले के किनारे ऊँचे स्थान पर जैन मंदिरों का समूह है जो अब नष्ट—भ्रष्ट हो गया है। यहाँ से प्राय: समाचार पत्रों में र्मूितयाँ गायब होने के समाचार मिलते रहते हैं। ग्राम पंचायत का कर्तव्य है कि इन धरोहरों की रक्षा करें ऐसा शासन का भी निर्देश है।
ग्राम बरई का जैन अवशेष—
परिहार से लगभग ४ किमी. दूर बरई गाँव स्थित है। यहाँ जैन मंदिरों के दो समूह हैं जो १५वीं शती ई. के हैं। एक मंदिर में तीर्थंकर की विशाल प्रतिमा है। लेखक द्वारा माह मई २००५ तपती दोपहरी में ग्राम बन्हेरा से दूर से दिखाई देने पर उत्सुकता जगी। मंदिर का निरीक्षण एवं छाया चित्र भी लेना आवश्यक था। मंदिर की चढ़ाई बड़ी ही कठिन है लगभग २०० मीटर ऊँचाई पर यह मंदिर स्थित है। पहाड़ी पर उपेक्षित चार जैन मंदिर समूह स्थित हैं जो लाखौरी ईटों से ऊपरी हिस्सा र्नििमत है शेष पत्थरों से बना है। इन मंदिरों में क्रमश: चार तीर्थंकर गर्भगृह में स्थापित हैं जिनकी कभी पूजा अर्चना की जाती रही होगी लेकिन वर्तमान में यहाँ कोई देखभाल नहीं कर रहा है ऐसा उस स्थान को देखकर विदित हुआ। र्मूितयाँ एक पत्थर की बावड़ी सदृश्य निर्मित है। सपेद बलुआ पत्थर का चमकदार र्मूित क्रमश: १४वीं—१५वीं शती ई. की है। प्राप्त अभिलेख से इन र्मूितयों का निर्माण राजा कीर्तििंसह द्वारा किया गया। मंदिर में चन्द्रप्रभु की लगभग २० फुट की ऊँची स्थानक र्मूित एवं गरुणासीन लक्ष्मी यक्षणी की नीचे शासन देवियाँ बनी हैं चौथे मंदिर में ऋषभनाथ की अच्छी स्थिति में लगभग २१ फुटी र्मूित कायोत्सर्ग मुद्रा में बनी हैं। र्मूितयों की पूजा अर्चना हेतु ऊपर पत्थर की पटिया एक दूसरे के ऊपर रखी है जैसा एक पत्थर की बावड़ी में बनी है। मेरा जैन धर्म संस्था तीर्थ संरक्षिणी महासभा (प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार) से अनुरोध है कि वे इस मंदिर का निरीक्षण कर संरक्षण में पहल करें। बड़ा रमणीक स्थल है यहाँ पहुँच मार्ग भी नहीं है। अंत में योगेन्द्र दिवाकर की कविता से समाप्त करता हूँ— हम नये तीर्थ क्यों बनवायें ? प्राचीन तीर्थ जब शाश्वत हैं। तीर्थों की रक्षा करना ही मानव को देव बनाता है।।
संदर्भ—
१. फ्लीट जे. एफ. का. इ. खण्ड ३ पृष्ठ १६२।
२. इ. ए. वि. १५ पृष्ठ ३६—३७ की पंक्ति ४ तथा १४।
३. ज. ए. सो. प. वि. ३१ पृष्ठ ४२२
४. सिंह अमर ग्वालियर दुर्ग, मंदिर र्मूितयाँ, पृष्ठ २
५. द्विवेदी हरिहर निवास ‘ग्वालियर के तोमर’ पृष्ठ १०८—१०९
६. शाह उमाकान्त ‘मध्य भारत’ जैन कला एवं स्वापत्य खण्ड पृ. १३८
७. प्रबन्ध कोष पृष्ठ २७ प्रभावक चरित पृष्ठ ८९
८. आ. सर्वे. इण्डिया रिपोर्ट भाग २ पृष्ठ ३६३
९. मजूमदार आर. सी. तथा पुसालकर ए. डी. द. एज ऑफ इम्पीरियल कन्नौज पृष्ठ २८९— २९४